Friday, 11 November 2011

डॉ.खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

विगत ९ नवम्बर(२०११)  को भारतीय मूल के वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोबिन्द खुराना की मृत्यु हो गयी ..उन्हें १९६८ में नाभकीय अम्लों के  प्रोटीन संश्लेषण की प्रक्रिया के रह्स्यावरण पर नोबेल से सम्मानित किया गया था ....वे भारत से एक फेलोशिप पर इंग्लैण्ड के लीवरपूल विश्वविद्यालय १९४५ में गए और वहां से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की और भारत लौट आये ..यहाँ उन्हें उपेक्षा ही उपेक्षा मिली ...हताश और बेरोजगार वे वापस इंग्लैण्ड फिर कनाडा और अततः अमेरिका में विस्कांसिन विश्वविद्यालय में एन्जायिम पर शोध रत हुए ...डॉ. खोराना अविभाजित भारत के मुल्तान के रायपुर(पंजाब) कस्बे में 9 जनवरी 1922 को जन्मे थे ...पिता पटवारी थे जिन्होंने बच्चों को शिक्षा देने को अपने जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता मानी थी .....१९७६ में खोराना एक बार तब फिर सुर्ख़ियों  में आये जब  'मनुष्य द्वारा निर्मित/संश्लेषित  पहले जीन' का श्रेय उन्हें मिला ....आज की जैव प्रौद्योगिकी डॉ. खुराना के शोध की बहुत ऋणी है और क्रेग वेंटर द्वारा  प्रयोगशाला में जीवन के निर्माण की तो एक तरह से बुनियाद डॉ .खोराना ने ही रख दी थी ......
डॉ हरगोबिन्द खोराना(९ जनवरी १९२२-९ नवम्बर २०११)  

आज क्षोभ इस बात का है कि डॉ खोराना को अपने देश में जिस तरह का सम्मान और तवज्जो मिलना चाहिए था वह उन्हें नहीं मिला और आज उनके दिवंगत होने से वे सारे सवाल जिनके कारण आज भी वैज्ञानिक शोधों में भारत की हालत दयनीय बनी हुयी है प्रासंगिक हो उठते हैं ...डॉ .खोराना को जब नोबेल मिलने की घोषणा हुयी थी तब एकबारगी ब्रेन ड्रेन-प्रतिभा पलायन का मुद्दा जोर शोर से उठा था ....मगर ऐसी ही प्रतिभाएं अपने देश में  उपेक्षा का दंश सहती रहती हैं, उनकी कुशाग्रता में जंग लगती जाती है -ब्रेन रस्टिंग से तो फिर भी ब्रेन ड्रेन ही अच्छा है जिससे दूसरे देश में ही सही मगर वहां सफलीभूत हुए शोध का फायदा पूरी मानवता को तो मिल जाता है ....


आज भी भारतीय परिदृश्य में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है ..प्रतिभाओं की घोर उपेक्षा आज भी है ..मौलिक सोच और कल्पनाशीलता को पूछने वाला कोई नहीं है ....शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों के मुखिया नए शोध छात्रों की खुद की  मौलिक प्रतिभा को बढ़ने देने के अवसर के बजाय अपने सोच और कार्यों को उनपर लादते जाते हैं..फंडिंग संस्थाएं बस घिसी पिटे और/ या तो  पश्चिम के अन्धानुकरण से उपजे विषयों पर ही शोध कराने की सहमति और बजट देती हैं ..वहां भी यही वातावरण रहता है कि आखिर रिस्क कौन ले ..देश की ब्यूरोक्रेसी खुद अपनी  ही सर्वज्ञता पर मुग्ध रहती है और वैज्ञानिकों को दोयम या तीयम  दर्जे का नागरिक मानती है ..उनकी आत्ममुग्धता का आलम यहाँ तक जा पहुँचता है कि सम्बन्धित विषयों में खुद की अल्पज्ञता के बावजूद भी वे वैज्ञानिकों के शोध प्रकल्पों और तकनीकों तक की प्रक्रिया और औचित्य पर सवाल उठाने लग जाते हैं ......फलस्वरूप वैज्ञानिकों का हतोत्साहन ही नहीं उन्हें अपमान का घूँट भी पीना पड़ता है ..कमोबेस यही हालात भारत में वैज्ञानिकों के साथ हर जगहं  है और दमघोटूं माहौल में कुछ अति महत्वाकांक्षा के शिकार अयोग्य वैज्ञानिक जब राजनेताओं की चाकरी /चारण कर महत्वपूर्ण पदों को हथिया लेते हैं तो कोढ़ में खाज बन  जाते हैं ...वे उनकी छत्र छाया इसलिए भी पाना चाहते हैं ताकि ब्यूरोकरैट के कोप से बचे रहें ....यह एक ऐसा दुश्चक्र बना हुआ है जिसने भारत से 'नोबेल -कार्यों', का पत्ता साफ़ कर रखा है ....यह स्थिति कैसे दूर होगी यह विचारणीय है ...

डॉ खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

Saturday, 15 October 2011

झींगुरों का रुनझुन यौन जीवन ...सुन सुन ...कहीं कुछ हमसे तो नहीं कहता?

अब भला इन क्षुद्र प्राणियों के इस निजी जीवन में किसी की क्या रूचि हो सकती है ..मगर मानवों एक एक ऐसा जिज्ञासु तबका है जो यहाँ भी  ताक झाँक लगाये रहता है -मतलब कीट व्यवहार विज्ञानियों का और मजेदार यह है कि ये इन हेय  प्राणियों के व्यवहार के भी निहितार्थ उच्च प्राणियों-मनुष्य  के व्यवहार से जोड़ते हैं . अब एक ताजा अध्ययन को ही लें जो करेंट बायलाजी शोध जर्नल में छपा है और जिसके मुख्य शोध वैज्ञानिक -लेखक  डॉ.रोलैंडो राड्रिग मुनोज हैं -इन्होने झींगुरो के यौन जीवन पर शोध करके पूर्व प्रचलित कई जानकारियों का खंडन किया है ..ऐसा माना जाता था कि झींगुरों में नर के प्रणय निवेदन के बाद मांदा द्वारा सर्व समर्थ नर के चुनाव और यौन संसर्ग के पश्चात भी ताक लगाये कुछ दूसरे नरों की लह जाती थी और सबसे बाद के नर के गर्भाधान से वजूद में आये अंडे ही आगामी पीढी में ज्यादा योगदान करते हैं ...ऐसा  दूसरे दूसरे कीटों में में भले  है मगर झींगुरों की शोध के अधीन आयी प्रजाति (Gryllus campestris) में तो ऐसा नहीं पाया गया है ...

झींगुरो का यौन जीवन के अध्ययन की प्रजाति (Gryllus campestris)
लैंगिक चुनाव में मादा द्वारा एक वांछित नर से संसर्ग के बाद भी दूसरे नरों के साथ जुडनें में खुद मादा की सहमति/ सहभागिता/झुकाव  का मुद्दा बड़ा ही विचारणीय रहा है ....कुत्तों में भी यही बहु -आधान व्यवहार दिखता है ....जहाँ एक मादा कई कुत्तों के साथ संसर्ग करती है ..इस व्यवहार के जैवीय वैकासिक बिंदु पर वैज्ञानिकों का गहन चिंतन मनन चलता ही रहा है -जब एक नर से ही संतति वहन का नैसर्गिक उद्येश्य पूरा होता हो तो फिर दूसरे नरों से संसर्ग की भला क्या आवश्यकता ....प्रकृति के ऐसे गूढ़ रहस्यों पर अभी भी पर्दा पूरी तरह उठा नहीं है मगर इनके पीछे छुपे गुह्य कारणों को व्यवहार वैज्ञानिक (ईथोलोजिस्ट ) जैवीय विकास के परिप्रेक्ष्य में समझने बूझने का प्रयास करते हैं और सामान्यतः समझ में न आने वाली इन गुत्थियों के  हल का प्रयास करते हैं ....मजे की बात यह है कि मौजूदा झींगुर प्रजाति में मादा दूसरे नरों की अभिलाषा नहीं रखती .....

इन 'क्षुद्र' प्राणियों पर दिन रात फोकस  अपने दो लाख से ज्यादा वीडियो फुटेज के श्रमशील अध्ययन के बाद डॉ.रोलैंडो राड्रिग मुनोज और उनकी टीम इस प्रेक्षण को बिना संदेह बयाँ कर पायी कि यहाँ मात्र एक नर से ही संसर्ग के बाद संतुष्ट हो रहने वाली झींगुर की रक्षा में नर झींगुर बड़ा ही मुस्तैद  रहता है और भले ही किसी शिकारी पक्षी का वह  खुद शिकार हो जाय सद्य गर्भित मादा को अपनी मांद में घुस जाने तक वह आक्रान्ता को उलझाये रखता है ....और प्रायः खुद वीरगति को प्राप्त हो जाता है ...और इसी का इनाम है उसे कि आगामी पीढी /संतति /वंशधर खुद उसी के ही होते हैं किसी गैर के नहीं ....इस प्राणोत्सर्ग कर देने वाले प्यार के मंजर में फिर दूसरे नरों  का आखिर क्या काम?  अब इसके मानवी निहितार्थ पर भी तनिक चिंतन कर लीजिए...नारी के लिए हर लिहाज से एक ही समर्थ पुरुष /पति संतति वहन के लिए प्रयाप्त है ....न न ऐसा कोई अध्ययन मनुष्य के संदर्भ में हुआ हो तो मुझे नहीं पता मगर ऐसे विचार तो मन में आ ही सकते हैं ....प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया में भी ऐसे ही नर का चयन ज्यादा संभावित है क्योकि वह अपनी ही सरीखी समर्थ संतति के  जन्म/वजूद को सुनिश्चित कर रहा है ..

जो भी हो , इस झींगुर प्रजाति में तो बहरहाल तांक झाँक और मौके की तलाश में लगे नरों के लिए निराशा ही निराशा है ..मादा की भी कोई ऐसी रुझान नहीं है ...क्योकि वह खुद भी और उसकी वंश बेलि ऐसे नर के सामीप्य -संरक्षण में सुरक्षित है ...जब अगली पीढी तक सुरक्षित हो जाय तो  और भला चाहिए भी क्या ..पूरी रिपोर्ट यहाँ है ....

Sunday, 2 October 2011

कहीं यह नागफनी ही तो सोम नहीं है?

भारत की प्राचीन जादुई प्रभावों वाली सोम बूटी  और सोमरस पर विस्तृत चर्चा यहाँ पहले ही की जा चुकी है. आखिर वह कौन सी जडी -बूटी थी जो अब पहचानी नहीं जा पा रही है? क्या यह विलुप्त ही हो गयी? मशरूम (खुम्बी /गुच्छी) की कोई प्रजाति या भारत और नेपाल के पहाडी   क्षेत्रों में पाया जाने वाला यार सा गुम्बा  ही तो कहीं सोम नहीं है -यह पड़ताल भी हम पहले कर चुके हैं .भारत में सोम की खोज कई शोध प्रेमियों का प्रिय शगल रहा है -जिसके पीछे मुख्यत तो कौतूहल भाव रहा है मगर इसके व्यावसायिक निहितार्थों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती ...मेरा  तो केवल शुद्ध जिज्ञासा भाव ही रहा है सोम को जानने समझने की और इसीलिये मैं इस चमत्कारिक जडी की खोज में कितने ही पौराणिक /मिथकीय और आधुनिक  साहित्य को देखता फिरता रहता हूँ ...
एक बार अपने पैतृक  आवास पर अवकाश के दिनों मुझे अथर्ववेद परायण के दौरान एक जगह सोम के बारे जब यह लिखा हुआ मिला कि 'तुम्हे वाराह ने ढूँढा" तो मैं बल्लियों उछल पडा था - कारण कि मशरूम की कुछ प्रजातियाँ तो वाराह यानी सुअरों द्वारा ही खोजी जाती हैं ....यह वह पहला जोरदार भारतीय साक्ष्य था जो सोम को एक मशरूम प्रजाति का होने का दावा कर रहा था ....


सोम बूटी का नया  दावा:नागफनी की एक प्रजाति  
अब अध्ययन के उसी क्रम में एक नागफनी की प्रजाति के सोम होने का संकेत मिला है .जिसे पेयोट(peyote) कहते हैं -सोम का  जिक्र मशहूर विज्ञान गल्प लेखक आल्दुअस हक्सले ने अपनी अंतिम पुस्तक आईलैंड(island ) में भी किया था .अपनी एक और बहुचर्चित पुस्तक 'द ब्रेव न्यू वर्ल्ड' में उन्होंने संसार के सारे दुखों से मुंह मोड़ने के जुगाड़ स्वरुप सोमा बटी का जिक्र किया था तो आईलैंड में मोक्ष बटी का जिक्र किया जिसका स्रोत कोई फंफूद बताया गया था ....उन्होंने अपनी एक नान फिक्शन पुस्तक 'द डोर्स आफ परसेप्शन' में नागफनी की उक्त प्रजाति का भी जिक्र किया है जिसमें मेस्केलाईन नाम का पदार्थ मिलता है जिसकी मादकता मिथकीय सोम से मिलती जुलती है और इसके बारे में उन्होंने लिखा कि इसका प्रयोग दक्षिण पश्चिम भारत के कई धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता रहा है ..ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत का यह कोना संस्कृति   के आदि  चरणों का साक्षी रहा है..... 
जाहिर है पेयोट अब सोम के संभाव्य अभ्यर्थी बूटियों में उभर आया है .....किन्तु विकीपीडिया में  इसे टेक्सास और मैक्सिको  मूल का बताया गया है? क्या यह नागफनी भारत के कुछ भी हिस्सों में होती रही है? और क्या इसका प्रयोग अनुष्ठानों में मादक अनुभवों के लिए होता रहा है -इस तथ्य की ताकीद की जानी है ....और इसलिए यह पोस्ट लिख रहा हूँ कि कोई भी सुधी जन ज्ञान प्रेमी इसके बारे में जानकारी देकर सोम साहित्य गवेषणा के यज्ञ में हविदान करें तो स्वागत है . 

Wednesday, 7 September 2011

हिलसा मछली के आकर्षण से प्रधानमंत्री का शाकाहार टूटा


खबर यहाँ है .हालांकि फालो अप नहीं है मगर मैं समझ सकता हूँ कि बंगलादेशियों का दिल जीतने के लिए अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने यह पेशकश की होगी और डायनिंग टेबल पर हिलसा सजी होगी .खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री हिलसा के आकर्षण में ऐसे बधे कि कह पड़े कि हिलसा के स्वाद के लिए अगर उन्हें अपना शाकाहार छोड़ना पड़े तब भी वे तैयार हैं.
लद गए दिन हिलसा के ....

हिलसा सचमुच बंगाली मोशाय के दिल की रानी है हालाकिं उसे यह ओहदा बाबू मोशाय की पेट पूजा से हासिल हो पाया है ...जहां आम मछलियाँ १००-२०० रुपये किलो मिलती हैं हिलसा का दाम बंगाल में १००० रुपये किलो तक पहुँच गया  -पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच कई राजनीतिक -कूटनीतिक प्रयासों के बाद अब जाकर इसका दाम लगभग ५०० रूपये प्रति किलो स्थिर हुआ है ... यह मछली ज्यादा तादाद में अब  बँगला देश से ही आती है ....जहाँ इसे 'राष्ट्रीय मीन' का गौरव मिला हुआ है .मगर इसकी खपत पश्चिम बंगाल में बहुत अधिक है जहां जुलाई -सितम्बर के बीच यह १०० टन  प्रतिदिन तक पहुँच जाती है ...
हिलसा के लिए यमदूत  बन गया फरक्का बाँध 

..पश्चिम बंगाल में हिलसा की खपत का ७० फीसदी बंगलादेश से और बाकी स्थानीय स्रोतों ,दीघा और मुम्बई के डायमंड हार्बर से आता है . आज भले ही भारत में हिलसा की इतनी कमी हो गयी हो मगर हमेशा ऐसा नहीं था -सारी मुश्किल शुरू हुयी फरक्का बान्ध के १९७५ में वजूद में आने   से जिसके बाद हिलसा ही नहीं महाझींगा मात्स्यिकी का उत्तर -पूर्वी भारत की नदियों से लगभग सफाया ही हो गया क्योकि इस बाँध में मछलियों के समुद्र(बंगाल की  खाड़ी ) से इस पार आने के लिए समुचित 'फिश वेज' या 'फिश पासेस/सीढियां ' नहीं बनाए गए और विशालकाय ऊंचे बाँध  को लांघ कर हिलसा या महाझींगा का प्रवास गमन कर नदियों तक आ  प्रजनन करना लगभग अवरुद्ध हो गया -दोनों प्रजातियाँ समुद्र से उल्टा चलकर प्रजनन काल में गंगा नदी और जुडी नदी प्रणालियों में आ जाती थीं -और प्रजननं के बाद बेशुमार बच्चे वापस  लौट जाते ..

फरक्का बाँध बन जाने से इन प्रजातियों का पूरा प्रवास गमन ही रुक गया लिहाजा इनका पूरा व्यवसाय ही नष्ट हो गया -यह एक उदाहरण ही बाताता है कि कैसे यहाँ  विभिन्न अनुशासनों के विशेषज्ञों के बीच तालमेल का घोर अभाव है और एक दूसरे के विचारों के प्रति असहिष्णुता ..बांध निर्माण की ये गलतियां रूस में नहीं अपनाई गयीं -अमेरिका में इसके ऐसे मामलों की जानकारी होते ही सामन मछलियों की राह के रोड़े बने   बांधों को तोड़  दिया गया और मत्स्य विशेषज्ञों की देख देख रेख में फिर से बांधों का निर्माण हुआ ....मगर भारत में गंगा नदी की पूरी की पूरी हिलसा और महाझींगा मात्स्यिकी का सफाया हो गया और राजनीतिक इच्छा शक्ति का इतना बड़ा अभाव कि आज हम हिलसा की भीख बांग्लादेश से मांगने को अभिशप्त हैं मगर फरक्का डैम में आवश्यक पुनर्निर्माण नहीं करा पाए हैं और अब तो पानी भी सर के काफी ऊपर जा चुका है .
क्या अब भी हमारे प्रधानमंत्री हिलसा की यह दर्दीली दास्ताँ सुनेगें ? 

Thursday, 18 August 2011

जियो जियोमेडिसिन!

किस चक्की का आटा खाते हो मियाँ,क्या सेहत पायी है! फलां जगह का पानी हमें बहुत सूट करता है ..जब से मुम्बई आया हूँ हाल बेहाल है मेरा पेट ही ठीक नहीं रहता -यह एक आम बातचीत का हिस्सा है जो हमें गाहे बगाहे सुनायी देता  रहता है .यानि आबो हवा ,परिवेश/पर्यावरण  से स्वास्थ्य का नाता जरुर है ....बिलकुल, इसी बात पर अब  चिकित्सा वैज्ञानिकों की भी मुहर लग गयी है .एक नयी चिकित्सा पद्धति का आगाज हो चुका है जिसे जियो मेडिसिन कहा जा रहा है .मतलब अब आपके स्वास्थ्य और रोगों की जांच में आपके भौगोलिक पर्यावरण के बारे में भी जानकारी ली जायेगी ...और तदनुसार प्रभावी निदान (डायिग्नोसिस) किया जाएगा!इसके लिए जी आई एस यानि जियोग्राफिक इन्फार्मेशन सिस्टम से युक्त एक साफ्टवेयर का प्रयोग आरम्भ हो चुका है जिसे इसरी (Esri)का नाम दिया गया है .
इसी इसरी प्रोग्राम से जुड़े हैं बिल डावेनहाल जिनसे इस नए चिकित्सा निदान पर अभी अभी एक  साक्षात्कार विज्ञान कार्यक्रमो के  अर्थस्काई नामक मशहूर बेबसाईट पर प्रकाशित हुआ है .जैसे चिकित्सक किसी भी रोगी की केस हिस्ट्री में उसके पारिवारिक इतिहास में रोगों की मौजूदगी .खुद उसके अतीत के रोगों ,खान पान की जानकारी लेते हैं अब यह नयी निदान -उपचार प्रणाली उसके परिवेश /वातावरण की भी जानकारी इकठ्ठा करके चिकित्सक को उपलब्ध करायेगी जिससे रोग के निदान और उपचार का कोर्स बेहतर तरीके से नियत किया जा सके.अपनी खुद की 'प्लेस हिस्ट्री' जानने के लिए इसरी का यह  कार्यक्रम अमेरिका में तो काफी लोकप्रिय हो रहा है!जाहिर है भारत में भी देर सवेर यह जुगत चिकित्सकों की मददगार साबित होगी .

चिकित्सीय निदान और उपचार की इस पद्धति में इन्विरानमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ई पी ऐ ) रोगी से सम्बन्धित पर्यावरण से जुड़े अनेक मानदंडों -प्रदूषकों की मौजूदगी,दीगर स्वास्थ्य कारकों की महत्वपूर्ण जानकारी में मदद कर रही है ...इस मामले में न्यूयार्क  के कुख्यात  लव कैनाल हादसे का हवाला दिया गया है जहाँ रेडियोधर्मी और अन्य विषाक्त तत्वों के विशाल डंपिंग ग्राउंड को पाट   कर उस पर एक आकर्षक लव कैनाल कालोनी बना दी गयी थी ..बाद में लोगों में अजीबोगरीब बीमारियाँ दिखनी शुरू हुयी ....और रोगियों के गुणसूत्र तक प्रभावित हो चले ....अब वह कालोनी ढहाई जा चुकी है मगर वहां से विस्थापित लोगों में अधिकाँश कैलीफोर्नियाँ में हैं और वहां की अगली पीढी में कुछ रोगों की बारम्बारता पर जब उनका स्थानिक इतिहास (प्लेस हिस्ट्री ) खंगाला गया तो लव कैनाल का मामला फ़ौरन   पकड़ में  आ गया -इलाज आसान हो गया!  
आप इस विषय पर और विस्तार से यहाँ जानकारी ले सकते हैं ...चिकित्सा की इस नव मुखरित जानकारी को हम तो यही कह सकते हैं जियो जियोमेडिसिन! 


Sunday, 17 July 2011

तोते अपने बच्चों को उनके नाम से पुकारते हैं

तोते आवाजों की नक़ल में उस्ताद तो हैं ही ,अब यह भी पता चला है कि वे अपने बच्चों का बाकायदा नामकरण करते हैं और उन्हें उन्ही नामों से पुकारते भी हैं .कार्नेल विश्वविद्यालय में वेनेजुएला के जंगलों में पाए जाने वाले हरी कूबड़ के तोतों पर हुए इस अध्ययन से पक्षी -प्रतिभा और व्यवहार की यह हैरतन्गेज जानकारी हुयी है .
प्रोसीडिंग्स आफ द  रायल सोसायटी बी के अभी हाल के अंक (१३ जुलाई ,२०११) में इस अध्ययन की रिपोर्ट आयी है .

यह पाया गया है कि हरे कूबड़ वाले तोतों की इस प्रजाति जो अपेक्षाकृत छोटे तोतों की एक प्रजाति है -६ से ७ अंडे अपने घोसलों में देती है और करीब एक पखवारे में इनसे बच्चे निकल आते हैं जो बहुत असहाय से होते हैं ...आपको पता होगा कि पक्षी जगत में दो तरह के बच्चे /चूजे जन्मते हैं -एक तो अंडे से बाहर निकलते ही दौड़ने भागने वाले 'प्रीकासिअल' और दूसरे असहाय से एक मांस लोथड़े के सदृश पड़े रहने वाले 'ऐलट्रिसीयल '....तोते इस दूसरे तरह के बच्चे देते हैं ....अध्येता कार्ल बर्ग कहते हैं कि ये तोते मनुष्य की भांति एक ख़ास अलग अलग "वोकल सिग्नेचर टोन "  से अपने बच्चों को बुलाते हैं और वे बच्चे भी उन्ही ध्वनि पैटर्न को अपने नाम के रूप में याद रखते हैं ! 
Green-rumped parrotlets from Venezuela. Image credit: Nicholas Sly

वैज्ञानिक बर्ग मनुष्य और तोतों के इस शिशु नामकरण व्यवहार के कई साम्यों की जिक्र करते हैं -मनुष्य -शिशु भी लम्बे समय तक असहाय से होते हैं और ये तोते के बच्चे भी -नाम से इनके संबोधन से दैनंदिन के इनके लालन पालन में इनके ध्यान के आकर्षण में सुभीता हो जाती है -तोते भी मनुष्य के बच्चों की तरह अपना नाम ताउम्र याद रखते हैं .उनके मां बाप  भी अपने बच्चों के नाम याद रखते हैं -और मां बाप ही नहीं  कुनबे के दूसरे लोग भी बच्चों को और उनके बड़े होने पर भी उनके नाम से संबोधित करते हैं -यह बात मनुष्य और तोते में कामन है ! है न मजेदार बात ? 


कोई आश्चर्य नहीं, मानव आबादी के निकट  रहने वाले तोते अपने मित्र और शत्रु मानवों का भी नामकरण न कर देते हों -कनवां,मर्कहवा ,कलूटवा,कलमुहिया टाईप नाम -क्या आप इस विषय पर शोध करना चाहेगें ? 


Wednesday, 22 June 2011

विज्ञान संचार के लिए ब्लागिंग लिटरैसी

 विगत दिनों (२० जून २०११) को पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में विज्ञान क्लब ने एक अनूठा कार्यक्रम आयोजित किया ..."विज्ञान संचार के लिए ब्लागिंग लिटरैसी" ..इस कार्यक्रम में छात्रों को ब्लागिंग के गुर बताये गए और अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम को कैसे विज्ञान संचार के लिए उपयोग में लाया जाय इसकी भी जानकारी दी गयी .....भारत में ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत यहाँ आम जन में वैज्ञानिक नजरिये के विकास के लिहाज से एक स्वागत योग्य कदम है ...भारत में साईंस ब्लागिंग की शुरुआत साईंस ब्लागर्स असोसिएशन से हुई और यह समूचे विश्व में भारत की एक पहल थी ....वैसे अब अंतर्जाल पर साईंस ब्लागिंग के कई निजी ,व्यक्तिपरक  प्रयास तो हैं मगर अब भी इस देशा में संगठित सामूहिक प्रयास कम ही हैं ....अब विज्ञान चिट्ठाकारिता का दायरा बस अन्तर्जाल के आभासी संचार तक ही सीमित नहीं रह गया है। विज्ञान चिट्ठों से जुड़ी गतिविधियों की धमक अन्तर्जाल से बाहर भी पहुँच रही है जिसके परिणाम हैंसांइस ब्लॉगिंग से जुड़े कई ऐसे सेमिनार, परिचर्चायें और कार्यशालाएं   ....

वैज्ञानिक चिन्तन के यज्ञ में नई जानकारियों और नजरिये के हविदान के लिए विज्ञान ब्लॉग श्रेष्ठ संचार माध्यम बन चले हैं। ये अन्तर्जाल युग के विज्ञान यज्ञ में हविदानकर्ता ब्लागर की सदैव सजग उपस्थिति के द्योतक भी हैं। विज्ञान ब्लॉग समाज सेवा की दीगर गतिविधियों की ही तरह `विज्ञान सक्रियकों´ की एक नई जमात को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ये समाज में व्याप्त अन्धविश्वास,और जड़ता के खिलाफ एक पुरजोर अभियान के रुप में सामने आ रहे हैं। यह विज्ञान की सामाजिक सक्रियता (Pro-Science activism) की एक मिसाल हैं।
विज्ञान क्लब देवरिया के संयोजक अनिल त्रिपाठी ने आयोजित की साईंस ब्लागिंग कार्यशाला 

अब ऐसा लग रहा है कि साइंस ब्लॉगिंग `विज्ञान के अन्तर्राष्ट्रीयकरण´ का भी तेजी से मार्ग प्रशस्त कर रही है जो `विज्ञान के संचार´  के परम्परागत ढ़ाँचे  में आमूल चूल परिवर्तन ला देगी। विज्ञान की आम समझ तो बढ़ेगी ही वैज्ञानिकों और आम लोगों के बीच की खाई भी पटती जायेगी। इसके चलते जहाँ कई स्थानिक मुद्दे वैश्विक ध्यानाकर्षण की परिधि में आ जायेंगे वहीं कई ग्लोबल मुद्दे स्थानीय परिप्रेक्ष्यों में प्रासंगिक हो सकेंगे। यह स्थानीय मुद्दों को वैश्विक नजरिये से हल करने के `ग्लोकल´ (ग्लोबल + लोकल=ग्लोकल) दृष्टिकोण का भी मार्ग प्रशस्त करेगा।

दरअसल पाठकों/उपभोक्ताओं के लिए ब्लॉग पत्रकारिता की दुतरफा संवाद सुविधा पारम्परिक विज्ञान पत्रकारिता में सहज रुप से सम्भव नहीं रही है। जानकारियों को शीघ्रता से अद्यतन करते रहने और पाठकों के लिए हर वक्तहर जगह (घर से कार्य स्थान तक कहीं भी) सहज ही ब्लॉग उपलब्ध हैंयहाँ तक मोबाइल के जरिये भी।

 विज्ञान ब्लॉगिरी (या ब्लॉगरी) की छतरी में ये सभी घटक सहज ही समाहित हो सकते हैं। इसी तरह ब्लाग वैयक्तिक यानि एक व्यक्ति संचालित या साझा यानि कई लोगों द्वारा मिलकर संचालित हो सकते हैं। देवरिया में सम्पन्न कार्यक्रम के प्रतिभागियों को ब्लागिंग साक्षरता का पाठ पढाया गया ..  विज्ञान संचार का एक नया (ब्लागिरी) युग आरम्भ हो गया है। जहाँ एक पाठक ही नहीं एक ब्लागर की हैसियत से भी आपका सिक्का जम सकता है।क्या आपकी रूचि साईंस ब्लागिंग में है?

भारत में ऐसी  शुरुआत सांइस ब्लॉगर सोसियेशन  से हो चुकी है जो सम्भवत विश्व में विज्ञान ब्लागरों को एक मंच पर लाने का  अनूठा  पहला प्रयास था ।हमें ऐसे सहयोगियों /फंडिंग एजेंसियों की मदद की दरकार है जो विज्ञान ब्लागिंग के जरिये भारत के विभिन्न प्रान्तों में विज्ञान संचार की मुहिम चला सकें ....कोई सरकारी या गैर सरकारी संस्था  मदद को आगे आयेगी? 


Tuesday, 14 June 2011

भारतीय सीमा में अनधिकृत रूप से आयी नयी मांगुर प्रजाति


 भारतीय सीमा में अनधिकृतरूप से आयी नयी मांगुर प्रजाति (?)
जी हाँ ,हम पहले से ही देश की सीमा में चोरी छिपे घुस आयी कई विदेशी मछलियों से जूझ रहे हैं  कि और नयी मछली आ धमक पड़ी है .कोलकाता के बाजारों में इसे चाइना मांगुर के नाम से जाना जा रहा है ..ज्ञात हो कि अफ्रीकी मूल की विदेशी मांगुर -अफ्रीकन शार्प टूथ कैटफिश(Clarias gariepinus)   के भारत में अनधिकृत रूप से आ धमकने से यहाँ के देशज मत्स्य संपदा के सामने संकट की स्थति आ गयी थी -क्योकि यह एक भयंकर मांसाहारी मछली है और अपने बच्चों तक को उदरस्थ कर लेती है ...मतलब इसमें स्वजातिभक्षण का भी दुर्गुण है ..प्राकृतिक जलस्रोतों में इनके दुर्घटनावश प्रवेश से देशज मत्स्य प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है -माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इसके पालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था ...
 और यह है भयंकर मांसाहारी अफ्रीकी  मांगुर 

अपनी देशी मांगुर(Clarias  batracus )   जहां अमूमन दो से ढाई सौ ग्राम की मिलती है विदेशी मांगुर बाजारों में डेढ़ दो किलो से सात आठ किलो तक उपलब्ध है ....यह ५० किलो से भी ऊपर तक हो सकती है ....अपनी देशी मांगुर अब तेजी से विलुप्त होने की और बढ़ रही है ...यह एक चिंताजनक स्थिति  है ..

 संकट में अपनी देशज मांगुर
अभी हम विदेशी मांगुर की समस्या से जूझ ही रहे थे कि यह नयी रंगीन मांगुर प्रजाति फिर बाहर से आ टपकी है ....यह चोरी छिपे थाईलैंड -बांग्लादेश -बंगाल के जरिये भारत में प्रवेश पा चुकी है ...कभी एक सिल्क रूट हुआ करता था जिससे चीन के रेशम का व्यापार होता था -अब अवैध मत्स्य प्रजातियों के लिए एक नया प्रतिबन्धित मत्स्य रूट वजूद में आ  चुका है ..जिसके सहारे यह नयी गुलाबी मांगुर प्रजाति भारत में प्रवेश पा चुकी है -इसकी प्रजाति पहचान के प्रयास हो रहे हैं -आरम्भिक पड़ताल से लगता है कि यह ऐक्वेरियम के लिए 
संभवतः लाई गयी थी मगर विदेशी मांगुर के बैन किये जाने और देशी मांगुर की उपलब्धता निरंतर कम होते जाने से उपजी रिक्तता का फायदा चालाक  मत्स्य व्यवसायी उठाना चाह रहे हैं ....यह नयी मछली अभिशाप होगी या वरदान यह जांच का विषय है -इसके जिन्दा नमूने (लाईव स्पेसेमेन ) नेशनल ब्यूरो आफ फिश जेनेटिक्स रिसोर्सेज लखनऊ को पहचान और विस्तृत दिशा निर्देश के लिए भिजवा दिए गए हैं जो देश में विदेशी मत्स्य प्रजातियों पर निगाह रखने के लिए नोडल विभाग है ....उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है!
प्रिंट मीडिया ने भी कवर किया इस पोस्ट को सौजन्य ब्लोग्स इन मीडिया 

Saturday, 28 May 2011

खगोलीय ग्रीष्म त्रिकोण को आपने देखा है क्या ?

इन दिनों शाम को उत्तर और पूर्व के कोने पर एक बड़ा सा टिमटिमाता तारा दिख रहा है -मैं इससे परिचित नहीं था तो मैंने अर्थस्काई से पूछ लिया -उन्होंने कन्फर्म कर दिया कि यह वेगा है -हिन्दी में अभिजित ....हिन्दी पंचांग अभिजित को २८वां नक्षत्र मानता है और कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम  राम का जन्म और विवाह अभिजित नक्षत्र में हुआ था मतलब उस समय सूर्योदय के समय चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र में थे.....

अब अभिजित तारा शुभ है या अशुभ यह तो मैं नहीं मानता मगर राम का जीवन तो यही बताता है कि उनका पूरा जीवन ही बहुत संघर्ष और कष्टमय बीता -मगर मैंने कल ही यह तारा देखा तो तुरंत ही सम्मोहित हो उठा ...कहते हैं इस तारे का उल्लेख महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के वन पर्व(अध्याय  230, श्लोक  8–11) में किया है जाहिर है इस तारे को लेकर हजारों वर्ष से लोगों को उत्सुकता रही है ..
खगोलीय ग्रीष्म त्रिकोण
वेगा यानि अभिजित एक खगोलीय ग्रीष्म त्रिकोण की निर्मिति करता है -मतलब  दो और तारों के शीर्ष पर रहकर एक त्रिभुज बनाता है.आप ऊपर के चित्र देखकर इस ग्रीष्म त्रिकोण की स्थिति भलीभांति समझ सकते है हैं -अन्य दोनों तारें हो सकता है आपको ठीक से न दिखें मगर अभिजित तो बड़ी ही प्रमुखता से सायंकालीन बेला और रात गए तक चमक रहा है -आप इसे रात साढ़े आठ बजे उत्तर और पूर्व के कोने पर आसानी से देख सकते हैं .

Monday, 16 May 2011

विज्ञान में ईमानदारी,गुणवत्ता और सौन्दर्य की सूझ

विगत वर्ष भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार का एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन -पी सी एस टी भारत में आयोजित थी और तभी यह घोषणा हो गयी थी कि अगला सम्मलेन  इटली में होगा .अब पी सी एस टी सम्मलेन -२०१२ का मुख्य विचार बिंदु (फोकल थीम ) अभी अभी घोषित की गयी है -विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार में गुणवत्ता ,ईमानदारी और सौन्दर्य ! आयोजन फ्लोरेंस, इटली में १८-२० अप्रैल २०१२ को नियत हुआ है .यह जिन वैचारिक पहलुओं पर केन्द्रित है उनमें प्रमुख हैं -
Welcome to PCST 2012!

  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार में गुणवत्ता का अर्थ 
  • विज्ञान के जन संचार का मूल्यांकन 
  • विज्ञान संचार की /में कलात्मक़ता 
  • पी सी एस टी के अकादमीय प्रकाशनों का दो दशक 
  • विज्ञान संचार की  नीति और सौन्दर्यशास्त्र 
  • सामाजिक विज्ञान का संचार 
  • पी सी एस टी के संचार की अनुवर्ती चुनौतियाँ 
  • विज्ञान संचार की उभरती प्रवृत्तियाँ और मुद्दे 
  • विज्ञान संचार के बदलते परिदृश्य (मीडिया ,फार्मेट ,माडल )
  • प्रौद्योगिकी संचार -पी सी एस टी की सोती सुन्दरी 
पंजीकरण खुला है ....यहाँ देखें!

Friday, 22 April 2011

शहर में मोर नाचा सबने देखा!

यह कहावत तो सभी ने सुनी होगी कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा? मतलब जो समृद्धता ,ख्याति ,प्रदर्शन प्रत्यक्ष न हो उसके होने न होने से फर्क ही क्या  पड़ता है ....मगर जमाना अब बदल गया है अब जंगल में नहीं मोर शहर में नाच रहे हैं ....हाथ कंगन को आरसी क्या ? आप खुद इस वीडियो में देख लीजिये! मगर यह अनहोनी हुयी तो क्यों ? क्या मोर यह ताने सुनते सुनते थक गया कि उसका जंगल में नाचना मनुष्यों को रास नहीं आ रहा और उसने शहर की राह पकड़ ली ...मगर गीदड़ की मौत वाले रास्ते पर नहीं बल्कि लोगों को अपने मनभावन नृत्य से लुभाने के अभियान पर ..यह मोर इन दिनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप  शहर में ही लोगों को अपने नृत्य से लुभा रहा है ...अब तो नर नारियां ही उसकी संगिनियाँ हैं जिन्हें देखते ही इस पक्षी का भी  मन मयूर मानो नाच हो उठता है और वह झूम उठता  है.

 पशु पक्षियों के प्राकृतिक रहवास -पर्यावास को मनुष्य ने तहस नहस कर डाला है ...यहाँ तक कि उनका पलायन शहरों की ओर  हो चला है ..कितने पक्षी अब शहरों को ही अपना प्राकृतिक वास बनाने में लग गए हैं -मोर भी ऐसा ही एक बेसहारा बिचारा पक्षी है जो मनाव आबादी के निकट  रहने की चाह में शहर की सड़कों पर चहलकदमी करने आ  पहुंचा है ....कहते हैं इनके नवजातों के दिमाग में मनुष्यों की छवियों की ऐसी    इमप्रिन्टिंग हो रही है कि वे इन्हे अपने जोड़े के रूप में भी देख रहे हैं -लिहाजा उनका सामीप्य पाने को अपना मशहूर कोर्टशिप प्रदर्शन भी करने से नहीं चूक रहे -क्या जाने किसी 'मनुष्य मोरिनी' का दिल आ ही जाय इन अदाओं पर :) 
अपने राष्ट्रीय पक्षी की इस अदा पर  मेरा दिल तो आ गया अब आपकी बारी है- (वीडिओ सौजन्य:प्रशांत शुक्ला )

Wednesday, 13 April 2011

चार सौ वर्ष पुराने कच्छप महराज घर से बेघर

वियेतनाम के सेंट्रल होएन कियेम  झील से जब २०० किलो के कच्छप महराज  सेना की काफी जद्दोजहद के बाद निकाले गए तो तमाशायी भीड़ नतमस्तक हो गयी -उनका पालनकर्ता, विघ्नहर्ता सामने था!वियेतनामी इस कछुए को अपनी समस्याओं का तारणहार मानते हैं -कु रुआ नाम्नी  पितामह का दर्जा प्राप्त यह कच्छप महराज कुछ अस्वस्थ हो गए थे ..किसी ने इनके शरीर पर घावों की पुष्टि की थी ..फिर तो इलाज लाजिमी था ....मामला सेना को सुपुर्द किया गया ....और अब काफी मशक्कत के बाद इलाज के लिए इन्हें झील से बाहर निकाल लिया गया है !


भारत में जैसे कच्छप को देवत्व प्राप्त है और विष्णु के एक अवतार  होने का भी गौरव इन्हें मिला हुआ है वैसे ही वियेतनाम में ख़ास कु रुआ को ही दैवीय दर्जा दिया गया है .किंवदंती हैं कि यह इसी कछुए का पुण्य प्रताप था कि होंन  कियेम की अतल गहराईयों से दंतकथाओं की स्वर्ण मंडित तलवार निकल आयी और पंद्रहवीं शती के वियेतनामी योद्धा ली लोई ने चीन के मिंग शासकों के अधिपत्य से वियेतनाम  को मुक्त करा लिया ..

दावा है कि यह कछुआ करीब ६०० वर्ष का है और जादुई क्षमताएं रखता है -ऐसे विचार इन दुर्लभ हो रहे जंतुओं के संरक्षण के लिए अभयदान बन जाते हैं! रफेटस  स्विनहोई वैज्ञानिक नाम(Rafetus swinhoei ) वाला यह कछुआ विश्व के दुर्लभतम कछुआ प्रजाति की नुमाईन्दगी  करता है -कहते हैं यह प्रजाति केवल अब चार की संख्या में ही रह गयी है -एक यह ,दो चीन में और एक हनोई में ...यद्यपि वियेतनाम और चीन में कछुआ थाली का एक सुस्वादु व्यंजन 'बा  बा ' है मगर कु रुआ के दैवीय स्टेटस के कारण इसे अभयदान मिला हुआ है! विश्व के  दुर्लभतम २५ कच्छपों में से १७ यहीं एशिया के ही हैं .

कु रुआ के चाहने  वाले उसके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं ....पर्यावरण विद कहते हैं कि उसकी दवा दारू वहीं उसके झील के पर्यावास में ही होनी चाहिए थी- मेरा भी यही मानना है और मैंने अपना मत भी टाईम पत्रिका की इस रिपोर्ट पर डाल दिया है ..आपका क्या विचार है?

Wednesday, 30 March 2011

फैलती जा रही है जापान में रेडियो धर्मिता

तमाम प्रयासों के बावजूद भी जापान के फुकूशिमा डायची नाभिकीय सयंत्रों से निकले  रेडियो आईसोटोप आस पास के वातावरण को दूषित कर रहे हैं -लोगों को दूर हटाया  जा रहा है -उत्तरी पश्चिमी भू भागों में खेती प्रतिबंधित कर दी गयी है .निकटवर्ती समुद्र से मछलियों के  पकड़ने पर भी रोक लगाई गयी है .यहाँ आयोडीन १३७ और सीजियम -१३१ ही मुख्य रूप से रेडियो धर्मिता के लिए जिम्मेवार हैं .लेकिन इनकी एक बड़ी मात्रा उठे विकिरण -गुबार के साथ प्रशांत महासागर में फ़ैल गयी है ...
 जापान में फैलती रेडियो धर्मिता: नेचर न्यूज पर डेक्लान  बटलर  की रिपोर्ट

फुकूशिमा प्लांट के ४० किमी के दायरे में रेडियो धर्मी आईसोटोप की मात्रा अधिक है जो ०.१२५ मिलिसीवर्ट प्रति घन्टे(mSv h−१) से अधिक है किन्तु ०.३mSv h−१  से कम ही है जो मनुष्य पर अधिक हानिकारक प्रभाव डालती है .मगर कुछ स्थानों पर एक वर्ष पहुँचते पहुंचते रेडियो धर्मिता १००० मिली सीवार्ट तक   जा पहुंचेगी जो घातक  प्रभाव ड़ाल सकती है. जैसे रक्त की श्वेत   कणिकाओं के कम हो जाने से शरीर की रोग निरोधक क्षमता का ह्रास आदि ..

सयंत्र के उत्तरी पश्चिमी  क्षेत्र में रेडियो धर्मिता बढ़ रही है और वहां से सम्पूर्ण आबादी का फौरी तौर पर हटाया  जाना अब तय हो गया है .इंटरनेशनल एटामिक इनर्जी एजेंसी (IAEA)ने इस आशय की चेतावनी  दी है .चारों सयंत्रों को अभी भी "शांत " करने में सफलता नहीं मिल पायी है जबकि दूसरा तो रेडियो धर्मिता की घातक मात्रा उत्सर्जित  करने के कगार पर है .

नाभिकीय ऊर्जा का यह अभिशाप हमें इस ऊर्जा स्रोत के पुनर्मूल्यांकन का सबक दे रहा है .

Monday, 28 March 2011

सात अखरोट रोजाना फिर काहें को दिल का रोना

सोचा यह जानकारी आपसे साझा कर लूं -दिल को  मजबूत रखने के लिए अखरोट को सब मेवो में मुफीद पाया गया है.  इसमें एंटीआक्सीडेंट की मात्रा भरपूर है और किसी भी मेवे ,बादाम काजू पिस्ता और चीनिया बादाम(मूंगफली ) से ज्यादा है . इसमें पाया जाने वाली  वसा  असंतृप्त -पाली अन्सैचुरेटेड फैटी एसिड(प्यूफा ) होती है जो रक्त वाहिकाओं में कोलेस्ट्राल को नहीं जमने देती .


अखरोट इतना फायदेमंद है मगर फिर भी लोग इसके बजाय काजू पिस्ता आदि मेवो को ज्यादा अहमियत देते हैं .यह अध्ययन अमेरिकन  केमिकल सोसाईटी में जो विन्सन ,पी एच डी ने प्रस्तुत किया है .   उन्होंने अपने अध्ययन  में पाया है कि अखरोट में विटामिन ई से भी ज्यादा एंटी आक्सीडेंट होता है -मालूम हो की की यही एंटी आक्सीडेंट शरीर के लिए हानिकर फ्री रेडिकल्स का शमन करते हैं .विन्सन के अनुसार महज सात अखरोट आपके दिल को पर्याप्त सुरक्षा पहुंचा सकता है .उच्च  गुणता का प्रोटीन ,मिनरल्स और डायिटरी  फयिबर्स के लिए भी मेवे खासकर अखरोट जाना  जाता है .
अगर दिल को मजबूत रखना है तो अखरोट का इस्तेमाल कर सकते हैं मगर कम से कम सात रोजाना!


Monday, 14 March 2011

जापान में अब परमाणु के प्रकोप की आशंका-एक ताजातरीन रिपोर्ट

 भूकंप और सुनामी के बाद  जापान सदी के अब तक के भयंकर परमाणु प्रकोप के मुहाने पर है .फूकुशिमा के तीन नाभकीय सयंत्रों में मेल्टडाउन  से  परमाणु विकिरण का खतरा उत्पन्न हो गया है .यहाँ कुल छः खौलते पानी वाले परमाणु रिएक्टर हैं जो १९७० दशक के दौरान बने थे .इनमें परमाणु से बिजली बनाने की क्रियाविधि एक  सी  है -सभी  में एक केन्द्रिक पात्र (कोर वेसेल )  है जिसमें कई सौ ईधन छड़ें  हैं जो एक मिश्र धातु जिर्कोनियम की बनी  है जिसके भीतर रेडिओ धर्मी  यूरेनियम और ३-५ फीसदी  आईसोटोप यू -२३५ भी  है . संयंत्र -३ में प्लूटोनियम -२३९ भी है .यहीं एक श्रृखला बद्ध प्रक्रिया के तहत नियंत्रित नाभिकीय विघटन शुरू होता है और उत्पन्न ताप से  इर्द गिर्द का पानी खौलता है और भाप को  टर्बायिनों  से गुजार  कर   बिजली पैदा की जाती है .फिर नलियों के जरिये वही अति शुद्ध ठंडा पानी इन्ही  रेडियो धर्मी ईधन के इर्द गिर्द से लगातार गुजारा जाता है जिससे कोर वेसेल ठंडा बना रहता है, नहीं तो इसके अभाव में यह  पिघल सकता है -जिसे ही मेल्ट डाउन कहते हैं .कोर वेसेल के मेल्ट डाउन का मतलब है रेडिओ धर्मी विकिरण का बाहर फ़ैल जाना ...फुकूशिमा के तीन  सयंत्रों में इसी  मेल्ट डाउन की नौबत आ पहुँची है ...


११ मार्च को आये भूकंप और सुनामी के बाद ठन्डे पानी के परिभ्रमण की यही प्रक्रिया अवरुद्ध हो गयी और यहाँ के कोर वेसेल लगातार गर्म होते जा रहे हैं ..इसी को ठंडा करने के जी तोड़ प्रयत्न हो रहे हैं और इनमें बाहरी समुद्री जल लाकर डाला जा रहा है जिसका मतलब यह है कि अब ये संयंत्र दुबारा इस्तेमाल लायक नहीं रहेगें ...समुद्री पानी नाभकीय संयंत्र को प्रदूषित कर देता है -लेकिन अब कोई विकल्प भी शेष नहीं है -अगर यह समुद्री पानी भी इस्तेमाल नहीं हुआ तो कोर वेसेल पिघल कर रेडियो धर्मिता को बिखेर देगा ....आशंका यही है कि मेल्ट डाउन की प्रकिया शुरू हो गयी है और जिर्कोनियम की छड़ें  पिघल कर भाप से क्रिया कर हाईड्रोजन बना रही हैं और सयंत्र एक और अब तीन में इसी ज्वलनशील हायड्रोजन का विस्फोट हो चुका है और इन सयंत्रों के कुछ हिस्से छतों के साथ उड़ गए ...


सबसे बड़ा खतरा यही है कि कोर वेसेल के पिघल जाने से नाभिकीय ईधन की अनियंत्रित विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी और यह परमाणु प्रकोप की शुरुआत होगी ...सारे दुनिया की आँखे अब इसी घटनाक्रम  पर लगी हैं -यह वक्त है कि हम अपने परमाणु सयंत्रों की सुरक्षा की जांच भी कर ले -प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने इस बारे में आज ही राष्ट्र को आश्वस्त भी किया है . लेकिन उनका वक्तव्य केवल मौके के राजनीतिक लाभ लेने वाला बयान  ही बनकर नहीं रह जाना चाहिए ...

Sunday, 13 March 2011

चाँद : चाहे रहो दूर चाहे रहो पास : फर्क न पड़ेगा कुछ खास

अंतर्जाल पर एक गपोडिये ने यह अफवाह  क्या उड़ा दी कि सुपरमून और सुनामी का रिश्ता है -हिन्दी के कई टी वी चैनेल इसी मुद्दे को लेकर चिचियाना शुरू कर चुके हैं .अब दिन रात यह चिल्ल पों मची हुयी है कि आगामी १९ मार्च को चाँद के धरती से निकटस्थ होने (पेरिगी ) के चलते ही जापान की सुनामी आयी है . दावे हैं कि जब जब भी अतीत में चाँद धरती के सबसे निकट रहा है ऐसी ही आपदाएं ,प्रलयंकारी दृश्य धरती पर दिखे हैं ....आईये मामले की तह में जाते हैं .लेकिन यह पहले ही बताकर कि यह केवल एक बकवास है और चाँद का जापान में आयी सुनामी से कुछ लेना देना नहीं है .और सबसे पहले तो  इस बेसिर पैर  की खबर को  एक  फलित ज्योतिषी ने उडाई थी -उसने एक नया नाम दे दिया -सुपरमून!  जो और कुछ नहीं धरती के सबसे निकट होने पर दिखने वाला  चाँद है जो नया(प्रथमा )  या पूर्णिमा का हो सकता है !

चाँद धरती की परिक्रमा एक अंडाकार पथ में करता है और इस लिहाज से कभी वह धरती के काफी पास और कभी काफी दूर होता है -जब वह बहुत पास होता है तो उस अवस्था को ' perigee '  और दूरस्थ अवस्था को 'apogee ' कहते हैं -पेरिगी पर यह धरती से  354000 किमी और ऐपोजी के समय 410000 किमी दूर हो जाता है ...चूंकि चाँद धरती की परिक्रमा प्रत्येक माह में कर लेता है यह हर पखवारे में इन निकटस्थ और दूरस्थ स्थितियों से गुजरता है ..मगर जब जापान में भूकंप और सुनामी आयी तो चाँद धरती के निकटस्थ कहाँ था? ११ मार्च को तो यह लगभग ४ लाख किमी दूरी पर था मतलब दूरस्थ स्थिति के लगभग करीब -यह तो  आगामी १९ मार्च को यह धरती के सबसे निकट होगा ...फिर दूर के चाँद के गुरुत्व से भला जापान की सुनामी कैसे आयी होगी? 
 चाँद : चाहे रहो दूर चाहे रहो पास : फर्क न पड़ेगा कुछ खास 
बाईं ओर का चाँद धरती के निकटस्थ होने और दायीं ओर का दूरस्थ  होने का अंतर दिखाता है


यह सही है कि चाँद के धरती से सन्निकट होने पर समुद्रों में ज्वार भाटे आते हैं मगर यह स्थति सबसे प्रभावपूर्ण तब होती है जब अन्तरिक्ष में सूर्य ,पृथ्वी और चाँद एक  सीध में आते हैं -इस स्थिति में धरती पर इन आकाशीय पिंडों के गुरुत्व का बल ज्यादा लगता है ....बड़े ज्वार और बड़े भाटे (जल उतार ) आते हैं ....ऐसी स्थितियां नए चन्द्र (प्रथमा /एक्कम ) और पूर्ण चाँद (पूर्णिमा ) के समय होती हैं ...और जब ऐसी स्थितियां चन्द्र -पेरिगी के समय होती हैं तो गुरुत्व का बल धरती पर ज्यादा असरकारी हो जाता है ....मगर इतना  भी नहीं कि सुनामी सी आफत आ जाय ....बस केवल थोडा बड़े ज्वार और भांटे आते हैं जिनसे खौफ खाने की जरुरत नहीं है .

फिल प्लेट जो मेरे पसंदीदा ब्लागर हैं ने इस मामले को अपने ब्लॉग बैड अस्ट्रोनोमी  पर उठाया है और अच्छी तरह से यह समझाया है कि धरती पर चाँद का गुरुत्व इतना अधिक नहीं होता की यहाँ बड़े मौसमी बदलाव आ जाएँ ,भूकम्प और सुनामी आये  या ज्वालामुखियों में विस्फोट हो जाय!तो आगामी १९ मार्च को भी कम से कम चाँद के कारण कुछ नहीं होने वाला है ....हाँ इतनी बड़ी दुनिया में कहीं न कहीं भूकंप भी आएगा और ज्वालामुखी भी फूटेगा मगर यह तो केवल संयोग ही है -चाँद का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है -खुद अपनी धरती  के विकार और मनुष्य की करतूतें इसका कारण भले ही हों ....

Saturday, 12 March 2011

सुनामी का सितम :सवाल और सबक

जापान में सुनामी के महाविध्वंस ने एक बार फिर जता  दिया है कि कुदरत के कहर के आगे मनुष्य कितना बौना और बेबस है .वैसे तो जापान भूकंप का देश ही कहा जाता है और इस लिहाज से वहां रोजाना की इस आपदा से जूझने को लोग तैयार रहते हैं मगर इस बार रिक्टर  स्केल पर ८.९ की तीव्रता के भूकंप के फ़ौरन बाद आयी विकराल सुनामी  ने मुझे फिल्म २०१२ के प्रलय -दृश्यों की याद दिला दी -फिल्म के कई दृश्य तो ऐसे हैं कि मानो फिल्म  निर्देशक ने जापान की इसी सुनामी को ही अपनी दिव्य दृष्टि से देख लिया हो ....किन्तु क्षोभ की बात यह है कि मानव मनीषा द्वारा  भविष्य का पूर्वाभास कर लेने के बाद भी इनसे निपटने की पुख्ता तैयारी  नहीं होती  और एक महाविनाश अपने दंश से मानवता को कराहता छोड़ जाता है ....काश भविष्य की  विभीषिकाओं का खाका खीचने वाली विज्ञान कथा फिल्मों से ही कुछ सबक लिया गया होता ...
 साई फाई फिल्म २०१२ का एक खंड प्रलय सा दृश्य 

कितना अभागा और अभिशप्त देश है जापान जिस बिचारे की मानों ऐसे ही हादसों से गुजरते रहने की नियति बन गयी है -दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाभकीय बमों ने दो शहरों-नागासाकी  और  हिरोशिमा  का लगभग खात्मा ही कर दिया था -आये दिन भूकंप वहां आते ही रहते हैं -फिर भी जापान वासियों का जज्बा तो देखिये वे फिर उठ बैठते हैं और  सीना ताने सिर उठाये खड़े ही नहीं हो जाते सारी दुनिया की एक बड़ी आर्थिक शक्ति भी बन जाते हैं ..जापान  विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति है ....मानवीय जिजीविषा की यह एक मिसाल है .इस बार तो जापान के बीस से ज्यादा शहरों  में सुनामी से कहर बरपा दिया -कई शहर तो नेस्तनाबूद हो गए हैं ! चलती ट्रेनें ,जहाज तक को लहरों ने लील लिया है ..लहर लहर शमशान का नजारा है   ....नाभिकीय आपात काल भी घोषित कर दिया गया है क्योकि  परमाणु रियेक्टरों को भारी क्षति पहुँची है .  परमाणुवीय  विकिरण का खतरा उत्पन्न हो गया है और इसके क्या गंभीर परिणाम हो सकते हैं इसे भला जापान से बेहतर कौन समझ सकता है जहाँ नागासाकी हिरोशिमा में आज भी विकिरण जनित जन्मजात विकलांगता अभिशाप बनी हुयी है .
 जापान में महासुनामी के  विध्वंस का एक दृश्य : १०-११  मार्च २०११

सबसे  हैरानी  वाली बात  यह है कि क्या जापान के भविष्य- नियोजकों ने इतने बड़े खतरे का कोई आकलन नहीं किया था? और यदि किया था तो क्या इसके लिए पर्याप्त तैयारियां नहीं की गयीं? कोई भी कह सकता है कि  भला कुदरत के आगे किसकी चल पाती है? मगर इस मुद्दे को ऐसे ही चलताऊ जवाब से नहीं टरकाया जा सकता ....हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी की किस प्रगति पर इतना गुमान करते हैं -मतलब साफ़ है प्रकृति की विनाश लीलाओं से निपटने के लिए अभी भी हमारे उपाय और तैयारियां नाकाफी है -हमारे जोखिम बचाव के इंतजाम  बचकाने हैं और आपदा प्रबंध शोचनीय!  अगर जापान जैसे देश में जोखिम पूर्वाभास ,हादसा मूल्यांकन और आपदा प्रबंध की यह स्थति है तो जरा सोचिये अपने भारत में अगर खुदा न खास्ता ऐसी बड़ी सुनामी आ  जाए तो क्या होगा? कुछ महानगरों का वजूद ही नक़्शे से मिट जाएगा .

भारत का एक बड़ा हिस्सा (पेनिस्युला ) समुद्र से घिरा है हमारे कई महानगर भी लबे तट हैं ..मुम्बई ,कोलकाता ,कोचीन गुजरात गोवा और द्वीपों की एक बड़ी श्रृखला सब सागर सहारे ही हैं ...हमें फ़ौरन जापान की इस महा काल सुनामी से सबक लेने होंगें -एक दूरगामी रणनीति बनानी होगी ..भगवान् भरोसे रहने की मानसिकता से उबरना होगा और तमाम अनुत्पादक परियोजनाओं ,कामों से ध्यान हटाकर एक ठोस परियोजना को मूर्त रूप देकर अपने बंदरगाहों और तटीय शहरों को यथासंभव सुनामी -प्रूफ करना होगा ...भारत की एक सुनामी हमें पहले ही चेतावनी दे चुकी है ...लेकिन हम अभी भी बेखबर है -यहाँ जोखिम और आपदा प्रबंध को लेकर कोई गंभीर सोच अभी भी नीति नियोजकों में नहीं है -और सबसे बढ़कर हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति को तो मानों काठ मार गया है  ...यह देश बड़े से बड़े घोटालों के लिए उर्वर बनता जा रहा है ...माननीय सासंदों के लिए निर्माण कार्यों का बजट २ करोड़ से पांच करोड़ करने का चिंतन तो यहाँ है मगर भारत के भविष्य के अनेक मुद्दों पर हमारी दृष्टि धुंधलाई सी हो गयी है ....यह स्थिति  कतई उचित नहीं कही जा सकती ..आईये हम इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठायें या फिर एक जापान  सरीखी किसी नियति के लिए तैयार रहें ...

Wednesday, 23 February 2011

सौर सुनामी चुपके से आयी और चली भी गयी.....

सारी दुनिया जब वैलेंटाईन समारोहों में मुब्तिला थी एक सौर लपट उठी और धरती को अपने आगोश में लेने चल पडी -मानो यह एक अन्तरिक्षीय वैलेंटाईन का नजारा हो!बहरहाल वैज्ञानिकों ने अब राहत की सांस ली है की इस सौर ज्वाला  ने धरती पर ज्यादा क़यामत नहीं ढाई ....जैसा कि २००३ में दुनिया के कई देशों में सौर ज्वालाओं के चलते ब्लैक  आउट की नौबत आ गयी थी -रेडिओ सिग्नल और विद्युत् आपूर्ति तक लडखडा गयी थी ..विगत  14 फरवरी  को सौर  ज्वालाओं का तूफान  पिछले अनेक सौर लपटों की तुलना में कम शक्तिशाली था , लेकिन इसने डरा  तो दिया ही था ....

 इक सौर लपट जो  उठी है अभी 
 
दरअसल सौर लपटें सूरज के सतह पर उसकी आंतरिक विद्युत चुम्बकीय गतिविधियों से निकली अपार ऊर्जा है जो कभी कभी सूरज की समस्त ऊर्जा के दस फीसदी तक भी जा पहुँचती है -यह अन्तरिक्ष में बेलगाम दौड़ पड़ती है ...और धरती तक भी दो चक्रों में आ पहुँचती है -जिसमें पहले चक्र में तो इसका प्रकाश है जो विद्युत् चुम्बकीय चमक के रूप में धरती तक बस मिनटों में आ पहुँचता है जो विगत १३ तारीख की ही रात में आ पहुंचा था और वैलेंटाईन की पूर्व संध्या पर ही धरती का संस्पर्श कर चुका था -दूसरा उप परमाणवी कणों का भभूका है जिसे धरती का चुम्बकीय कवच रोकने में सफल होगा ,हाँ  संचार प्रणालियां अस्त-व्यस्त जरुर हो सकती हैं और उपग्रहों और अंतरिक्षयात्रियों के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है।मगर लगता है संकट टल गया है .

दरअसल सौर गतिविधियों का एक ११ वर्षीय चक्र है जिसका नया दौर बस शुरू ही हुआ है .. और सौर ज्वालाओं जैसी गतिविधि की सक्रियता एक आम बात है -जिसे वैज्ञानिकों की भाषा में कोरोनल मॉस इजेक्शन भी      कहते हैं .कुछ लोगों ने इसका एक और रोचक नामकरण किया है -सौर सुनामी! फिलहाल यह समझ लीजिये कि एक सौर सुनामी चुपके से आयी और चली भी गयी है ..हाँ चुम्बकीय कणों ने ध्रुवों पर इन्द्रधनुषी आभा जरुर बिखेरी!आप स्पेस वेदर  डाट काम पर इन सौर लप्यों की ताजा तरीन जानकारी पर नजर रख सकते हैं!यूनिवर्स टुडे पर भी नजरें गडाई जा सकती हैं .





Wednesday, 2 February 2011

सैन्य अधिकारियों ने जब पूछा मछली मछली कितना पानी!

सैन्य अधिकारियों के एक हाई प्रोफाईल पंद्रह सदस्यीय दल ने कल शाम वाराणसी के राजकीय प्रक्षेत्र ऊंदी पर मछलियों की विविध प्रजातियों का अवलोकन किया और भारत में मत्स्य पालन की तकनीकों की जानकारी ली ..उन्होंने जाना कि भारत में प्रचलित मिश्रित (कम्पोजिट ) मत्स्य पालन में कैसे तीन देशज प्रजातियों कतला ,रोहू ,नैन और तीन विदेशी प्रजातियों ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प, और कामन कार्प को एक साथ तालाबों में पाला जाता है .इनसे एक वर्ष में एक हेक्टेयर के तालाब से आसानी से पांच हजार किलो मछली का उत्पादन कर एक लाख रूपये तक का शुद्ध लाभ लिया जा सकता है .
 उंदी मत्स्य प्रक्षेत्र की जल श्री -रोहू 

भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के नियंत्रणाधीन राष्ट्रीय रक्षा महाविद्यालय के मेजर जनरल अनिल मलिक के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका, जापान, मलेशिया, यूएई व भूटान सेना के अफसरों समेत 15 सदस्यीय दल के प्रत्येक सदस्य को राज्य अतिथि का दर्जा दिया गया था ...सभी सदस्यों ने मछलियों की पाली जा रही प्रजातियों ,उससे जुड़े क्षेत्रीय विकास ,लाभ लागत से जुडी अनेक जिज्ञासाएं प्रगट कीं ....जिनका समाधान वर्तमान में उंदी पर कृषि तकनीक प्रबंध समिति  (आत्मा -एग्रीकल्चर टेक्नोलोजी मैनेजमेंट कमेटी ) के अधीन गठित कृषक सहायता समूह के अध्यक्ष मक़सूद आलम और मेरे द्वारा दी गयी .
बनारस में उंदी मत्स्य प्रक्षेत्र पर वर्तमान में मछली पालन का एक प्रदर्शनीय माडल तैयार हो गया है जिसे दूसरी जगहों पर अंगीकार किया जा सकता है ...आप भी जब बनारस आयें तो इस मत्स्य प्रक्षेत्र पर आपका स्वागत है ,सैन्य अधिकारियों ने इसे पसंद किया तो आप भी पसंद कर सकते हैं ..

स्थानीय अखबारों ने इस खबर को सुर्ख़ियों में जगह दी है -

सैन्य अफसरों ने उंदी में देखा मत्स्य पालन



Saturday, 29 January 2011

चुम्बन विज्ञान यानि फिलेमैटोलाजी के बारे में क्या जानते हैं आप ?

कहाँ चुम्बन जैसा सरस मन हरष विषय और कहाँ विज्ञान की नीरसता ..आईये मानवीय सर्जना के इन दोनों पहलुओं में तनिक सामंजस्य बिठाने का प्रयास करे .. चुम्बन के विज्ञान(philematology )  पर एक  नजर डालते हैं! 
विज्ञान की भाषा में चुम्बन -आस्कुलेशन(osculation)   किन्ही भी दो व्यक्तियों के बीच की  सबसे घनिष्ठ अभिव्यक्ति है जिसके चलते कितनी ही साहित्यिक ,सांगीतिक और चित्रकलाओं की गतिविधियाँ उत्प्रेरित - अनुप्राणित हुयी हैं ...कहते हैं कुछ चुम्बनों या उनकी दरकार ने इतिहास के रुख को भी पलट दिया है ..मगर यह सब यहाँ विषयांतर हो जाएगा -यहाँ साईंस ब्लॉग की भी मर्यादा तो बनाए रखनी है न ..बाकी सब के लिए तो क्वचिदन्यतोपि है ही ....निश्चय ही  चुम्बन एक नैसर्गिक सी लगने वाली अनुभूति है मगर क्या यह सहज बोध प्रेरित गतिविधि है ? आकंडे कहते हैं कि दुनिया में तकरीबन दस फीसदी लोग आपस में अधरों का स्पर्श  तक नहीं होने देते ..तब  भी इसे आखिर क्या सार्वभौमिक सांस्कृतिक गतिविधि मान ली जाय ? बहुत से वैज्ञानिक इसे महज सांस्कृतिक गतिविधि नहीं मानते .....चुम्बनों का पारस्परिक विनिमय साथी के कितनी ही जानकारियों का अनजाने ही साझा करा देती है ...हम प्रेम रसायनों -फेरोमोंस का साझा करते हैं ....  प्रेम रसायनों(डोपा माईन,सेरोटोनिन आदि )    का एक पूरा काकटेल ही साझा हो जाता है और हमारे सामजिक बंध को और मजबूती दे देता है ,तनाव घटाता है ,उत्साह उत्प्रेरण और हाँ सुगम यौनिकता की राह भी प्रशस्त करता है यानि जैसा भी  संदर्भ /अवसर हो .....हम पर एक जनून तो तारी हो ही जाता है -यह सचमुच प्रभावकारी और सशक्त है -आजमाया हुआ नुस्खा है अगर किसी ने न आजमाया हो तो फिर हाथ कंगन को आरसी क्या ? 

सहज चुम्बन दिव्य सुखाभास की अनुभूति देता है ...और मस्तिष्क के 'प्रेमिल क्षेत्रों' को प्रेरित कर प्रेम रसायनों का एक पूरा डोज रक्त धमनियों में उड़ेल देता है ...यह सब महज सामाजिक औपचारिकताओं से भी निश्चय ही अलग एक कार्य व्यापार का संसार सृजित करता है ....हम जानते हैं हमारे नर वानर कुल के कुछ सदस्य अपने बच्चों को मुंह से मुंह खाना खिलाने के दौरान अधरों के संपर्क में आते हैं और शायद चुम्बन-व्यवहार का उदगम   इसी गतिविधि से ही  हुआ हो मगर ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि इसका उदगम और विकास साथी के लैंगिक चयन में भी  भूमिका निभाते हैं -इसी दौरान साथी की शारीरिक जांच भी इस लिहाज से हो जाती है कि उनका जोड़ा संतति वहन के लिए  पूर्णतया निरापद है भी या नहीं ...मतलब संतानोत्पत्ति और उनके लालन  पालन में तो कहीं कोई लफड़ा नहीं रहेगा -यह सब रासायनिक परीक्षण चुम्बन के  दौरान ही अनजाने हो जाता है ....कितने ही प्रेम सम्बन्ध इन्ही कारणों से आगे नहीं बढ़ पाते -रासायनिक लाल झंडी है चुम्बन ....फिर शुरू होता है तुम अलग मैं अलग की कहानी और असली माजरा समझ में नहीं आता ...कई बार तो पहला चुम्बन ही निर्णायक हो जाता है ..अवचेतन तुरत फुरत भांप जाता है की अरे यह नामुराद तो बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठा पायेगा ...वैज्ञानिकों की माने तो चुम्बन भावी घनिष्टतम संपर्कों की देहरी है ..लाघ गए तो चक्रव्यूह का  अंतिम फाटक भी फतह नहीं तो देहरी पर ही काम तमाम .....
तो यह चुम्बन -आलेख शेरिल किरशेंनबौम की 'द साईंस आफ किसिंग' पुस्तक से परिचय कराने के लिए और किसी को नजराने के लिये लिखा गया है ...और अगर आपमें और अधिक जिज्ञासा जगा सका तो अंतर्जाल अवगाहन का विकल्प तो आपके पास है ही -हम विज्ञान संचारको का काम बस प्यासे को कुंए तक पंहुचा देना भर है ....पानी आप खुद निकालिए और पीजिये .....
एक मिनट का यह वीडियो भी देख सकते हैं ....



http://www.youtube.com/watch?v=7ykfQANwS_w&feature=player_embedded

Wednesday, 26 January 2011

बात फिर उसी तारे की जिसे प्रलय का अग्रदूत माना जा रहा है...दीदार कर ही लीजिये ..

जी हाँ उस तारे की चर्चा यहाँ और यहाँ पहले भी हो चुकी है मगर बात अभी भी बाकी है ... ओरियान यानि हिन्दी के मृग नक्षत्र का बेटलजूस यानि  आर्द्रा तारा इन दिनों सुर्खियों में है ....कल रात मैंने भी इसकी भव्यता को नंगी आँखों से निहारा -आज रात या इन दिनों किसी भी रात आप इसे देख सकते हैं -यहाँ तक शहरों की चुंधियाती रोशनी में भी ...रात आठ साढ़े आठ बजे छत पर जाइए ...लगभग अपने सिर के ऊपर तनिक दक्षिण  दिशा में निहारिये -एक साथ तीन तारे त्रिशंकु सरीखे दिखेगें और इसी के थोडा बाएं तरफ ही तो है यह आर्द्रा तारा जो लाल चमक लिए है ...यह बस अपने अस्तित्व की अंतिम  घड़ियाँ गिन रहा है या फिर समाप्त हो चुका है और अब जो हम देख रहे हैं वह तकरीबन ६०० वर्ष पहले इस तारे के विनाश के ठीक पहले की लालिमा हो सकती है ....दावे हैं कि जब इसके सुपरनोवा बनने की रोशनी धरती पर आयेगी तो यह एक दूसरे सूरज की तरह चमक उठेगा ...मायन कलेंडर के अनुसार २०१२ में दुनिया ख़त्म हो जायेगी -अब कुछ कल्पनाशील लोग इस तारे यानि आर्द्रा के धरती के दूसरे सूरज बन जाने के साथ ही इसे क़यामत का तारा भी   मान    बैठे हैं ....
.ओरियान मंडल के तीन तारों के  बाईं ओर है आर्द्रा 

मजेदार बात तो यह हुई है कि एक खगोल -फोटोग्राफर स्टेफेन गुईसार्ड ने मायन सभ्यता के ध्वंसावशेष के एक मंदिर  के गुम्बज के ठीक ऊपर चमकते इस तारे की एक रोमांचपूर्ण तस्वीर  उतारी है जो यहाँ दिख रही है -यह उनकी तनिक शरारत सी है ताकि २०१२ वाले प्रलय के दावों में थोड़ी और नमक मिर्च लग जाए -मगर इस बात से दीगर जरा उस चित्र को तो देखिये जो सचमुच कितना  रोमांचपूर्ण लग रहा है अपने विनाश के मुहाने पर आ पहुंचे  इस तारे का दृश्य!आप प्रतिभा के धनी इस फोटोग्राफेर की सराहना किये बिना नहीं रह पायेगें ठीक वैसे ही जैसे बैड अस्ट्रोनामी ब्लॉग के फिल प्लेट उनकी फोटोग्राफी की प्रशन्सा करते नहीं अघाते ..

गौर करने की बात यह है कि मायन सभ्यता   ही नहीं हमारे कई मंदिरों और स्थापत्य के नमूनों की स्थापना में भी खगोलिकी का बहुत सहारा लिया गया है ...नक्षत्रों   से मंदिरों के  कोणों और परिमापों को संयोजित किया गया  है ....हमारे पूर्वज पोथी पत्रों   से नहीं बल्कि सीधे आसमान को निहारते थे और उन्हें आकाश में तारों और ग्रहों की स्थितियों का आज के बहुसंख्यक लोगों की तुलना में अच्छा ज्ञान भी था ....कन्याकुमारी के मंदिर में सूर्योदय की पहली किरण अपरिणीता पार्वती की नथ पर पड़ती है जो हीरे की है ..और सारा पूजा मंडप  आलोकित हो उठता है ......मतलब यह मंदिर प्रत्येक मौसम में सूर्योदय की किरणें किस्समान बिंदु पर अवश्य  पड़ेगी इस सटीक गणना के साथ निर्मित हुआ है .....इधर देखा जा रहा है कि  हमारे कुछ उत्साही लोग  अपने पूर्वजों की खगोलीय क्षमताओं की खिल्ली उड़ाते हैं मगर उन्हें खुद भी आकाशीय ग्रहों और तारों के बारे में अपने पूर्वजों की  तुलना में नगण्य सी जानकारी है ....मगर जैसा कि फिल कहते हैं उन्हें अतिज्ञानी  भी मानने की जरुरत नहीं है - कई मायनों  में उनकी बेबसी समझी  जा सकती है उनके पास   साधारण से दूरदर्शी तक न थे जिनकी एक विकसित श्रृखला हमारे पास आज है!उन्होने अपनी नंगी आँखों से ही खुले आसमान को निहारा और कृषि और बाद में धर्मों से अनेक  ग्रहों नक्षत्रों के सम्बन्ध जोड़े ...

यह कितना रोचक हैं न कि जिन तारों और नक्षत्रों को उन्होंने निहारा आज उनके वंशधरों के रूप में हम भी हम उन्ही  को देख रहे हैं और हमारी आगे की पीढियां भी उन्हें इसी तरह देखेंगी ....ये एक तरह से हमारी पीढ़ियों को जोड़ने वाले प्रकाश पुंज हैं ....मायन लोगों ने आर्द्रा तारे को क्यों मंदिर के गुम्बज के सापेक्ष प्राथमिकता दी होगी ? क्या उनके वंशधर इसकी गुत्थी सुलझा लेगें -या उन्होंने लाल तारे के रूप में उसके अवसान को अनुमानित कर लिया था और विदाई के तौर पर उसकी स्मृति में एक भव्य इमारत तैयार कर गए होंगें!

 आपसे गुजारिश है आज या किसी एक रात को पूरे परिवार के साथ असमान में  चमकते इस तारे -आर्द्रा का दीदार कर ही लीजिये ..पता नहीं यह कल हो या न हो!तारे को खोजने में यहाँ दिया चित्र उपयोग में लायें!


Tuesday, 18 January 2011

पाक शास्त्र की एक नयी विधि -निर्वात पाक -क्रिया यानि 'सौस वाईड' ...

खाने पीने के शौकीनों के लिए पाक विद्या की एक और विधि प्रचलन में है जिसे फ्रेंच शब्द सौस वाईड का नाम दिया गया है जिसका मतलब है निर्वात में पकाना -व्यंजनों के पकाने के लिए ब्रायलर सरीखी पारंपरिक विधियों में सबसे बड़ी खामी यह थी कि खाने का आईटम बाहरी से भीतरी परतों तक एकसार नहीं पकता था ....बाहरी परतें जहाँ अच्छी तरह पक जाती हैं अंदरुनी हिस्सा कभी कभी अनपका या अधपका ही रह जाता है .

 प्लास्टिक के निर्वात पैकेटों में पाक क्रिया 


निर्वात पाक विधि में पकाए जाने वाला भोज्य पदार्थ अच्छे किस्म की प्लास्टिक की निर्वात  थैलियों में भर कर धीमी आंच पर कई घंटे पकाए जाते हैं -यहाँ ऊँचा तापक्रम वर्जित है -पाक कला की यह निर्वात विधि इन दिनों देश विदेश के पांच सितारा होटलों में खूब लोकप्रिय हो रही है ...जहाँ तक मेरी जानकारी है कई मुगलाई खानों में धीमी आंच पर कई घंटे पकाने की पद्धति हमारे यहाँ भी रही है .....सौस वाईड    माँस पकाने की एक मुफीद विधि मानी जा रही है ...पाक क्रिया में लगने वाले बहुत अधिक समय को लेकर अकबर बीरबल के कुछ लतीफो को भी शायद  प्रेरणा मिली है -एक तो वही है जिसमें बीरबल दिन भर खिचडी पकाने की बात कहकर  दरबार में नहीं पहुँचते और बादशाह को खुद अपने पाक विद्या निष्णात (!)दरबारी को लेने उनके घर तक पहुंचना होता है -

खिचडी की बात से इस पोस्ट की याद आई क्योकि अभी कुछ ही दिन पहले सारे भारत में खिचडी का त्यौहार और ज्योवनार धूम धाम से आयोजित किया गया! ब्लॉग जगत में पाक कला पर कई उम्दा ब्लॉग हैं -वे इस विधि पर ज्यादा जानकारी यहाँ से और यहाँ से ले सकते हैं .

Sunday, 16 January 2011

गंगा में विदेशी मछलियों का डेरा

 आतंक की पर्याय विदेशी  मछलियाँ :कामन कार्प ऊपर टिलैपिया नीचे 
गंगा नदी जो एक  संस्कृति की प्रतीक भी है इन दिनों अनाहूत विदेशी मछली प्रजातियों से अटी पड़ रही है -कोई आधी दर्जन प्रजातियाँ यहाँ पर अपना स्थाई डेरा डाल चुकी हैं और हम हाथ पर हाथ घरे बैठे हैं.मैंने  इस समस्या  को पहले भी यहाँ उठाया था .मगर मुश्किल यह है कि विशाल और निर्बाध जल प्रवाह क्षेत्र से अब इनका उन्मूलन कैसे किया जाय. फिर ये बड़ी प्रजनन कारी है और सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है -देशी प्रजारियों पर भारी पड़  रही हैं जो धीरे धीरे खात्मे की ओर बढ रही हैं .

एक अच्छी खबर है कि अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक तकनीक ई डी एन ऐ पहचान की खोज की है जो इनके आरम्भिक उपस्थिति से आगाह कर सकती है ..मगर अपने यहाँ तो पानी सर से ऊपर जा चुका है .अब शायद  कुछ किया नहीं जा सकता ...वैसे गंगा -किनारे के मछुए अचानक इस बढ़ती संपत्ति से आह्लादित हो रहे हैं क्योकि नदी में देशी मछलियाँ वैसे ही काफी कम मिल रही थीं -अब यह वे इन विदेशी मछलियों को ईश्वरीय सौगात मान  रहे हैं जो उनके  पापी पेट को पालने में कारगर हो चली हैं जबकि उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है या जानबूझ कर समझना नहीं चाहते कि इन मछलियों की बढ़त से रही सही देशी मछलियों की अस्मिता पर ही बन आयेगी और उनमें कुछ तो शायद विलुप्ति के कगार पर ही न पहुँच जाएँ .आज   जरुरत इस बात की है कि इन्ही मछुआ समुदाय के लोगों में से ही कुछ चैतन्य लोगों को चुन कर दिहाड़ी आदि का प्रोत्साहन देकर संरक्षण समूह बनाये जायं जो  देशी मछलियों की रक्षा का संकल्प लें और उनके अंडे बंच्चों की रक्षा करें -जब तक देशी मछली प्रजनन योग्य न हो जाय उसे न मारे ताकि उनकी भावी संतति बची रहे !

विदेशी आक्रान्ता मछलियों में चायनीज कार्प की कुछ प्रजातियाँ प्रमुखतः कामन कार्प और शार्प टूथ अफ्रीकन कैट फिश यानि विदेशी मांगुर और अब नए रंगरूट के रूप में अफ्रीका मूल की  टिलैपिया  है जो वंश विस्तार के मामले में सबसे खतरनाक है .आज स्थति यह है कि आप कोई भी छोटा जाल गंगा में डाले तो किसी टिलैपिया के आने की संभावना नब्बे  प्रतिशत है और किसी भी देशी मछली की महज दस या उससे भी कम! जाहिर  है देशज मत्स्य संपदा एक घोर संकट की ओर बढ रही है -यह किसी  राष्ट्रीय संकट से कम नहीं है -गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा भी जो दिया जा चुका है!

Wednesday, 12 January 2011

सर्दी में सांप से सामना

सांप का नाम सुनते ही जहां लोगों के शरीर में एक सर्द सिहरन दौड़ जाती है वहीं अगर सर्दी में किसी सांप का सामना हो जाय तो सन्निपात का होना तय समझिये .ताज्जुब की बात यह है की मिर्जापुर शहर के महुवरिया मोहल्ले में पिछले आठ जनवरी की हाड कपाऊं ठण्ड में जबकि पारा पांच और तीन डिग्री सेल्शियस के बीच अठखेलियाँ कर रहा था सर्प महराज ने एक मेढक को पकड़ ही तो लिया -वे नाली के सहारे मकान में घुसने के फिराक में थे या शायद वहां पहले से ही मौजूद मेढक ने उन्हें ललचाया तो वे सर्दी में भी पेट पूजा को उद्यत हो गए .

धामन की  कुण्डली  में निरीह मेढक
      
 फिर तो वहां कोलाहल मचा ..मकान मालिकान लाठी बल्लम से लैस साँप पर भारी पड़े और कुछ ही पलों में शिकारी खुद शिकार हो गया ...आज भी किसी भी साँप चाहे वह कितना ही विषहीन और अहानिकर क्यूं न हो को देखते ही मार डालने की आदिम प्रवृत्ति बनी हुयी है ...हां मेढक राम बच गए और जाके राखे साईयाँ मार सके ना कोय की कहावत को एक बार फिर चरितार्थ कर गए .इस पूरे मामले में जो सबसे हैरत में डालने वाली बात है और जिसके कारण यह पोस्ट लिखनी पडी वह यह है की जाड़े में ये निम्न वर्गीय प्राणी शीत निष्क्रियता यानी हाईबर्नेशन में चले जाते हैं -यही कारण है मेढक छिपकली और सांप इन दिनों नहीं दीखते -इनमें वातावरण के तापक्रम के उतार चढाव के मुताबिक़ शरीर का तापक्रम बदलता रहता है -इसलिए शीत निष्क्रियता इनकी जीवन रक्षा का एक उपाय है -लेकिन इस समय भी सांप और मेढक की सक्रियता का  दिखना एक दुर्लभ दृष्टांत है जिसे यहाँ रिपोर्ट किया जा रहा है!

मेढक जिन भारतीय सापों के मीनू में सबसे ऊपर है वे हैं चेकर्ड कीलबैक पनिहा सांप -नैट्रिक्स पिस्कैटर जिसके शरीर पर शतरंज के खानों की तरह चित्र पैटर्न होते हैं और दूसरा है धामन सांप जिसे घोडापछाड़  के नाम से भी जानते हैं और जिसका वैज्ञानिक नाम है टायस  म्यूकोसिस है .ये दोनों ही नितांत निरापद और अहानिकर सांप है .पनिहा सांप जहां ज्यादा लंबा नहीं होता -यह औसतन केवल डेढ़ हाथ -साढे तीन से चार फीट लंबा होता है इसलिए इसका एक बोलचाल का नाम डेढ़हा है जबकि धामन ग्यारह फीट तक लम्बी हो सकती है .धामन को चूहे भी बहुत प्रिय हैं जबकि पनिहा सांप मेढक प्रेमी है ! 


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