नारी की केश राशि पर किसी शायर का कुछ कहा आपको याद है ? मुझे तो याद है मगर यह किस शायर का कलाम है याद नही आ रहा ....
इस जुल्फ के क्या कहने जो दोश पे लहराई ,सिमटे तो बनी नागिन बिखरे तो घटा छाई !
और पन्त जी की यह ललक तो देखिये कि ``बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।´´ जी हाँ हमारा यह पहला पड़ाव ही काफी उलझाव भरा है। थोड़ी देर के लिए नारी केशों पर कवियों के कहे सुने को भूलकर आइये सुने क्या कहते हैं वैज्ञानिक नारी के गेसुओं के बारे में। व्यवहार विज्ञानियों की नजर में नारी के लम्बे घने केश समूचे जैव जगत में उसे एक खास ``पहचान´´ प्रदान करते हैं- किसी मादा कपि-वानर के सिर पर कभी इतनी लम्बी केश राशि देखी आपने नहीं न ? यह हमारी ``स्पीशीज पहचान´´ है। वैसे नारी और पुरुष केशों में कोई मूलभूत ताित्वक भेद नहीं है। यह तो हमारे सांस्कृतिक और सौन्दर्य बोधक प्रवृत्तियों का तकाजा है कि नर और नारी के सिर के बालों को अलग-अलग ढंग से सजाया सवारा जाता है। वरना अनछुये बाल चाहे वे नर के हो या नारी के, छ: वर्षों में 40 इंच तक लम्बे हो जाते हैं और फिर कुछ वर्षों के अन्तराल पर गिर जाते हैं-नये बाल उगते हैं। यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है ।
नारी केश राशि को संभालने सजाने सवारने के कितने ही तौर तरीके आज प्रचलित हैं। नारी के सुन्दर घने बालों के देखभाल की भी अच्छी व्यवस्था प्रकृति ने की है- प्रत्येक बाल के जड़ के निकट ही सिबेसियस ग्रंथियां होती हैं जिनसे एक तैलीय पदार्थ निकलकर बालों को रूखा होने से बचाता है, उन्हें अच्छी हालत में बनाये रखता है। बालों को अधिक धोने से उनमें छुपे धूल के कण तो साफ हो जाते है, किन्तु कुदरती तैलीय पदार्थ `सेबम´ भी नष्ट होता है। व्यवहार विज्ञानियों की राय में बालों को बिल्कुल न धोना या बहुत कम या बहुत ज्यादा धोना उनकी सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है। समूची दुनिया¡ में बालों के तीन मुख्य प्रकार पहचाने गये हैं- नीग्रो सुन्दरियों के ``सिलवटी´´ बाल काकेशियन युवतियों के लहरदार केश तथा मंगोल नारियों के सीधे खड़े बाल। बालों का यह भौगोलिक विभेद आनुवंशिक कारणो से है। जिसके चलते विभिन्न मानव नस्लों को एक खास ``जातीय पहचान´´ मिली हुई है, किन्तु यह एक रोचक तथ्य यह है कि चाहे वह कोई भी मानव नस्ल हो-नर-नारी के केश (बालो) में कोई खास अन्तर नहीं हैं। यानी इनमें कोई लैंगिक विभेद नहीं है। यदि पुरुष के सिर के बाल भी समय-समय पर न काटे जाय तो वे भी नारी के समान घने (काले) और लम्बे होते जायेंगे। पर हमारे सांस्कृतिक संस्कारों ने केशों के आधार पर नर नारी भेद का बड़ा स्वांग रचाया है।
दरअसल मानव की सांस्कृतिक यात्रा ने दो तरह के केशीय प्रतीकों (हेयर सिम्बोलिज्म) को जन्म दिया है। एक केशीय प्रतीकवाद तो वह है जिसमें पुरुष के बड़े घने बाल उसकी शक्ति पौरूष और यहा¡ तक कि पवित्रता का द्योतक बन गया है- उदाहरणस्वरूप `सीजर´ शब्द की व्युत्पत्ति को देखे- `कैजर´ और `त्सार´ दो शब्दों के मेल से बने इस शब्द का मूलार्थ है- लम्बे बाल जो कि महान नेताओं के लिए सर्वथा शोभनीय माना गया है। विश्व के कई सम्यताओ में नेताओं के लम्बे बालों का प्रचलन आज भी है। बालो की अधिकता पौरूष का भी प्रतीक बनी है-इसलिए किसी पुरुष के सिर के बालों को कटाना/सफाचट कराना, उसका अपमान करने के समान है, उसकी दबंगता को कम करना है। यही कारण है कि ईश्वर के सामने नत मस्तक होने के लिए भिक्षुओं में सिर मुड़ाने की परम्परा है। इन परम्पराओं के ठीक विपरीत नारी केशों के लम्बे होने को नारीत्व या नारी सौन्दर्य का प्रतीक माना जाने लगा।
भारत में विधवा स्र्त्रियों के सिर मुड़ाने के पीछे भी यही मन्तव्य लगता है कि वे अनाकर्षक लगें- (नारी) सौन्दर्य से रहित विश्व की अनेक संस्कृतियों में कई संस्कारों के समय स्त्रियों को बाल ढकें रखने के कड़े नियम भी हैं। चूंकि नारी के खुले लम्बे केश सौन्दर्य कामोददीयकता के कारण बन सकते हैं- सार्वजनिक स्थलों पर बालों को खुले छोड़ देना कई संस्कृतियों में ``बदचलन औरत´´ के लक्षण माने गये हैं। विश्व में शायद ही कोई ऐसी जगह हों जहाँ नारी केशो के सजाने संवारने और निखारने का प्रचलन न हो। ऐसी परम्परा हजारों वर्षो से रही है। बाल रंगे जाते हैं, काढ़े जाते हैं, तरह-तरह की स्टाइलों में सजाये संवारे जाते हैं। आज `जूड़ा बा¡धने´ की विभिन्न स्टाइलों में इसे देख सकते हैं- गोल कद्दूनुमा `जूड़े´ से लेकर `साही´ के कंटीले बालों के सरीखे दिखते बाल, मानव की कलात्मक कल्पना की अनूठी मिसाले हैं।