Sunday 6 December 2009

बिना वजूद के ही याद हो आये जो वो ड़ेजा वू है .....

हर शख्श के अपने जायज रंजो गम हैं ,गमे रोजगार और गमे मआश हैं ,हमारे आपके भी हैं और लवली कुमारी जी के भी हैं और इसके बाद और बावजूद भी जब वे समय निकाल कर ब्लॉग दुनिया के लिए  योगदान करती  हैं तो सहज ही साधुवाद की अधिकारिणी बन जाती हैं -अब चूंकि  अकादमिक सरोकारों से हम भी बंधे से हैं तो जरूरी हो जाता  है कि कुछ ऐसे ब्लागरों की उन रचनाओं पर एक सार्थक संवाद करें ,भले ही चाहे अनचाहे , जिनका अकादमीय महत्व हो और जहां  कुछ जरूर कहा जाना चाहिए ! लवली कुमारी जी इन दिनों मनोविश्लेषण  पर एक श्रृंखला कर रही हैं ! वे उस अकादमीय 'स्कूल' की हैं जहाँ बात पाठ्य पुस्तकीय शुचिता को हूबहू बनाए रखे हुए  प्रस्तुत की जाती है  ,किसी भी तरह के सरलीकरण से परहेज किया जाता है;भले ही कुछ शब्दों और वाक्यांशों को समझने में गुनी जनों के भी माथे पर पसीने ही क्यों न झलक आयें -उनकी ताजातरीन पोस्ट इसका उदाहरण है -मैं कुछ मदद करने आया हूँ यह विश्वास दिलाते हुए कि मेरा मन   साफ़ है और एक नैतिक तकाजे   के तहत ही मैं कुछ कहना चाहता हूँ -विज्ञान का लोकप्रियकरण मेरा शौक है -मेरी मंशा पर कोई शक न किया जाय ! यह पोस्ट लवली कुमारी जी की इंगित पोस्ट की कोई आलोचना नहीं है -बल्कि एक अंश ("जो कोई दृश्य आप अचानक देखते हैं और आपको लगता है की इस स्थान से मैं पहले गुजर चूका हूँ ..अथवा यह मैंने सपने में या कहीं और (कल्पना में ) देखा है.") की यथा शक्ति सरल प्रस्तुति है! और यह पोस्ट समय को समर्पित है क्योकि वे  गंभीर विषयों के प्रेमी हैं मगर उनकी पोस्ट भी प्रायः  उसी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता की पैरोकारी करती हैं -बल्कि वे यथोक्त स्कूल के डीन हैं!



इंगित पोस्ट में मस्तिष्क के कुछ उन विचित्र अनुभवों की चर्चा हुई है जिन्हें फ्रेंच भाषा में डेजा वू (Déjà vu) कहते हैं -जब कभी किसी जगह जाने पर  आपको ऐसा लगे  कि वहां तो आप पहले ही आ चुके हैं जबकि हकीकत में आप वहां नहीं गए  हों या किसी अगले पल घटने वाली घटना का पूर्वाभास सा हो जाय जो ठीक वैसी ही घट जाए जैसा आपने अभी अभी सोचा हो तो ऐसे अनुभव डेजा वू कहलाते हैं .फ्रेंच भाषा में डेजा वू का अर्थ है 'पहले से देखा हुआ -आलरेडी सीन' ! ऐसा होता क्यूं है? लवली कुमारी जी की पोस्ट से इतर आईये समझते हैं इस दिमागी गुत्थी को ! दरअसल मनुष्य की याददाश्त भी कई घटकों में बटी होती है -जैसे लम्बे समय की याददाश्त ,थोड़े समय की याददाश्त या किसी घटना मात्र से जुडी 'इपिसोडिक' याददाश्त और महज तथ्यों से जुडी याददाश्त और इन सभी स्मृति -घटकों के लिए दिमाग के दीगर हिस्से जिम्मेवार होते हैं जहां मस्तिष्क की कोशायें इन तरह तरह की यादों को संजोये रखती हैं .हिप्पोकैम्पस एक ऐसा ही हिस्सा है जो नई स्मृतियों को सहेजता है . इन हिस्सों को प्रयोगशालाओं में रासायनिक और बहुत हलके विद्युत् स्फुलिंगों द्वारा उद्वेलित करने पर कुछ वैसी ही अनुभूतियाँ होती है जैसा कि प्रायोगिक प्राणी -मनुष्य को भी वैसा सचमुच का काम करने पर होतीं -उनके उद्वेलन से बिना सहचर की उपस्थिति के ही  नर मादा में चरमानंद की अनुभूति भी प्राप्त कर ली गयी ! बल्कि ऐसी अनुभूति के लालच में कुछ प्रायोगिक प्राणियों से श्रम साध्य कार्य भी करा लिए गए !

मनुष्य का मस्तिष्क समान सी यादों में फर्क भी कर सकता है और 'समान मगर ठीक वैसी ( आईडंनटीकल ) नहीं ' का भी फर्क जिसे वैज्ञानिक पैटर्न सेपरेशन कहते हैं ! जब यह स्मृति प्रणाली फेल कर जाती है तो मति भ्रम /दृष्टि भ्रम /दिशा भ्रम जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ता है ! डेजा वू भी एक ऐसी ही स्मृति विभ्रम की घटना है ! मिर्गी के मरीज ऐसे अनुभूतियों से प्रायः गुजरते रहते हैं .डेजा वू में मस्तिष्क के दो हिस्सों न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस की पारस्परिक अनुभूतियों में फ़र्क हो जाने से विचित्र  अनुभव होते हैं -न्यूरो कार्टेक्स जहाँ यह  इन्गिति देता है कि आप किसी ऐसी स्थिति में वास्तव में नहीं हैं जिनमे आप दरअसल होते हैं और हिप्पोकैम्पस ठीक उसी समय हकीकत की अनुभूति कर रहा होता है -लिहाजा इन परस्पर विरोधाभासी स्मृति अनुभूतियों के करण डेजा वू जैसी अनुभूति हो जाती है ! यूं कहिये यह याददाश्त प्रणाली का ही एक साईड इफेक्ट है ! इसी तरह जामिया ( jamiya )  वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही  नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!

क्या लवली जी या समय साहब मुझे आप अपनी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता  का कुछ पाठ पढायेगें प्लीज और आप दोनों जन कुछ सरलीकरण /लोकप्रियकरण  के गुर सीख लेगें ? ये दोनों ही स्थितियां वैयक्तिक अतिवाद की परिचायक है -कुछ समझौते क्यूं न किये जायं  ?  
संदर्भ :नोबेल लारीयेट सुसुमु टोनेगावा और थामस मैकफ़ के शोध से सारांशित ,टाइम पत्रिका (अगस्त ,20,2007 ,
व्यक्तिगत संकलन)