मैं ज्ञान विज्ञान के प्रति अपने दायित्व से चूक जाउंगा यदि यह जानकारी आप से साझा नही करता।
इसी १ जुलाई को एक उस क्रांतिकारी विचार के १५० वर्ष पूरे हो गए जिसमें चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड वालेस नामक वैज्ञानिक द्वय के संयुक्त अध्ययन के परिणामों की घोषणा लन्दन में हुयी थी.कुहराम मच गया जब वैज्ञानिक तथ्यों को आधार लेकर यह जाहिर किया गया कि मनुष्य किसी दैवीय सृजन का परिणाम नहीं बल्कि जीव जंतुओं के विकास का ही प्रतिफल है .इससे बाईबिल की मान्यताओं की चूले हिल गयीं जो यह बताते नही अघाता था /है कि किस तरह इश्वर ने संसार का सृजन किया और आदमी की पसली से हौवा निकली .डार्विन -वैलेस के सिद्धांत ने इन विचार धाराओं को अन्तिम धक्का दे दिया ।
बड़ी चिल्ल पों मची -लन्दन की लीनियन सोसायटी ने बहस मुहाबिसे आयोजित किए -इसमे से ही एक में चर्च के बिशप विल्बरफोर्स ने डार्विन के पुरजोर समर्थक और उनके बुलडाग कहे जाने वाले थामस हेनरी हक्सले से पूछा था कि -
'जनाब आप किस तरफ़ से बन्दर के औलाद हैं अपने नाना की तरफ से या बाबा की ओर से .....'
निर्भीक हक्सले ने जो जवाब दिया वह इतिहास की सुर्खियों मे सज गया ।
उन्होंने कहा कि ,विल्बर फोर्स की तरह वाचाल और धूर्त ज्ञानी दम्भियों -नए ज्ञान को जानबूझ कर विवादित बनाए वाले किसी मनुष्य की बजाय वे एक बन्दर का वंशज होना पसंद करेंगे ।
जुलाई माह में ही इस तकरार के १५० वर्ष पूरे हो रहें हैं मगर अफ़सोस कि आज भी समूची दुनिया में सृजन्वाद अपना फन फैला रहा है .वैचारिक क्रान्ति का क्या फायदा हुआ ?
अभी तो इतना ही इस विषय पर साईब्लोग एक सीरीज करेगा जल्दी ही -जो डार्विन के प्रति मेरी श्रद्धांजलि होगी !