Thursday 30 July 2009

कैसे कैसे स्वयम्बर ?-पशु पक्षियों के प्रणय सम्बन्ध (8)-(डार्विन द्विशती विशेष)

अब एरेना डिसप्ले मतलब रंगभूमि प्रदर्शन की कुछ बानगी भी देखिये जो आपके सामने यह भी खुलासा करेगी कि चिडियों की कुछ प्रजातियों में स्वयम्बर की क्या रूप रेखा है -मादाएं नर का चुनाव कैसे करती हैं ?

एक पक्षी है यूरोपियन सैंड पाईपर -भारत में भी प्रवासी है -ruff नर को कहते हैं reeve मादा को ! हिन्दी नाम है गेह वाला या कहीं कहीं बागवाद ! नर की उन्नत कलंगी होती है जो अपने रंगीले परो व कालर से सहज ही पहचाना जा सकता है .ये बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही कुछ पारम्परिक रंग भूमियों पर अपना अनंग आसन जमा लेते हैं -नरों में उच्च अनंग आसन यानी पर्वत की चोटी को हथियाने की होड़ और घमासान मचता है. मतलब रंगभूमि का यह हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण होता है जहां ज्यादा से ज्यादा नर पहुचने की कवायद करतेहैं- यह नरों की जमावट के कारण फूलों की सेज सा दीखता है -पहाड़ की चोटी , और सेज पिया की,वाह! क्या कहने! सबसे दबंग नर यहाँ कब्जा जमा लेते हैं और ढेर सारे दब्बू नर इर्द गिर्द जमा होते हैं !

मादाएं परिधि के दब्बू नरों की उपेक्षा कर चोटी के गहरे रंगों की कलगी वालों नरों की और आकर्षित होती हैं -उनके आगमन के साथ ही नर प्रणय याचन का जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं -मादाएं मनचाहे नर का वरण करती हैं और घनिष्ठ संसर्ग के बाद स्वयंबर सम्पन्न हो जाता है ! प्रणय संसर्ग संपन्न होते ही मादाएं नरों को अलविदा कह देती हैं और अपने वात्सल्य बसेरे की और लौट चलती हैं जहां नीड का निर्माण और अंडे देने ,सेने ,शिशुओं का लालन पालन खुद करती हैं ।रंगभूमि में मादाओं का आगमन और प्रणय प्रसंग कुछ मिनटों में ही निपट जाता है .

यहाँ कुछ हैरतअंगेज भी घटता है. दरअसल इस महा -स्वयम्बर में दो तरह के नर होते है ,एक तो 'सेज पिया की ' पर कब्जा किये अखाडिया नर (रेसिडेंट मेल्स ) और दूसरे अखाडे के किनारे पर जमे लग्गू भग्गू या भडुआ नर (सैटेलाईट मेल्स )। अखाडिया नरों की कलगी गहरे रंग की होती है जबकि भडुआ नर फीकी कलगी वाले होते हैं ! मादा के साथ मुख्य यौन संसर्ग तो अखाडिया नर ही करते हैं मगर भडुआ नर भी किनारे से मादा पर कामुक गिद्ध दृष्टि जमाये रहते हैं ! और मजे की बात तो ये कि अखाडिया नरो से भडुआ नर बिलकुल भी नहीं झगड़ते बल्कि उनकी मिजाज पुरसी /ठकुर सुहाती में लगे रहते हैं! तो फिर इनकी जैवीय जरूरत ही क्या है ? रंगभूमि में फिर इनका क्या काम ?


जोहन फ्रेडरिच नौमान (1780-1857) का "लेक " का चित्रण


दरअसल भडुए नर अपनी उपस्थिति से चोटी /सेज पिया पर काबिज नरों की भीड़ का हिस्सा बनते हैं और मादाओं को दूर से यह अहसास दिला देते हैं कि वहां नरों की भीड़ अधिक है ! इस तरह वे अखाडिया नरो की मदद ही कर रहे होते हैं ! मादाओं का अवचेतन "अधिक नर ,उपयुक्त के चयन के अधिक अवसर " का अनुसरण करता है और वे पिया की सेज पर आ धमकती हैं ! फिर भी इससे भडुआ नरों का क्या सीधा लाभ ? क्या वे निरपेक्ष भाव से केवल अखाडिया नरों के यौन लाभ के लिए आत्मोत्सर्ग कर रहे होते हैं ? नहीं ! ये भी मौके की तलाश में होते हैं और अखाडिया नरो की आपसी प्रतिस्पर्धा जनित द्वंद्व युद्धों में यौनोन्मत्त मादा से क्षण भर के लिए भी विरत नर के स्थान पर ये सहसा ही आ धमकते हैं और ख़ुद द्वारा चयनित नर के युद्ध कौशल को निहार रही और उसके वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रही मादा पर आरूढ़ हो जाते हैं -मानो कुदरत भी एक विचित्र असमंजस की स्थिति को बनाये रहती है और मादा के प्रतिकार के पूर्व ही भडुआ नर अपना शुक्र दान कर चुके रहते हैं -विजयी नर के आते आते ये फिर फुर्र से अखाडे के किनारे उड़ चलते हैं -परिस्थितियों का पूरा लाभ उठाने वाले घोर अवसरवादी भडुआ नर बस इन्ही चुराएं हुए काम केलि के तोहफों पर जीवन गुजार देते हैं।

कुछ और पक्षी प्रजातियों में स्वयम्बर की दास्तान जारी रहेगी .......