मुश्क और इश्क छुपाये नही छुपता :चित्र सौजन्य फ्लिकर
मनुष्य की विकास यात्रा में उसकी चौपाये पशु विरासत से मुक्ति और केवल दो पैरों पर खडा हो जाना एक बड़ी घटना थी. इसे अगले दोनों पावों की हाथों के रूप में मिली स्वच्छन्दता के जश्न के रूप में भी देखा समझा जाता है .अब मनुष्य के हाथ आखेटों /शिकार के दौरान पूरा सहयोग करने को स्वतंत्र हो चुके थे . हाथों के जरिये हथियार फेंकना ,मजबूत पकड़ के साथ कही चढ़ जाना ,किसी विरोधी को मारना पीटना और थपडियाना और यहाँ तक कि उँगलियों से बारीक काम करना मनुष्य की दिनचर्या बनती गयी -अब चूंकि इनमें से ज्यादातर काम पुरूष के जिम्मे था अतः उसकी बाहें विकासयात्रा के दौरान उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गयीं .
हाथ में कंधे से नीचे के ऊपरी हिस्से में अकेली ह्यूमर हड्डी और कुहनी के जोड़ से नीचे की दुकेली हड्डियों -अल्ना और रेडियस ने मनुष्य की दिनचर्या की अनेक उलझनों को संभाल लिया -बताता चलूँ कि कनिष्ठा (कानी ) उंगली की सिधाई में हमारी अल्ना हड्डी होती है तो अंगूठे की सिधाई में रेडियस ! और जो बाँहों की मुश्कें उभरती हैं ..अरे क्या कहा आपने ?आप नहीं जानते मुश्कों को (याद कीजिये वह कहावत -इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते ) हाँ तो वही मुश्कें ह्यूमर हड्डी यानी बाहों के ऊपरी हिस्सों में ही तो उभरती हैं ।और ढेर सारी मांसपेशियां भी हैं जो बाहों को गति देती हैं और तरह तरह के कामों में सहायता करती हैं -ब्रैकियेलिस ,कोरैसो ब्रैकियेलिस ,ट्रायिसेप , फ्लेक्सर ,इक्सेंटर ,प्रोनैटर ,सुयीटर आदि मांसपेशियां हाथों की तरह तरह की गतिविधियों को अंजाम देती रहती हैं -हाथों को आगे पीछे करना ,कलाईयों को घुमाना ,हथेली ऊपर नीचे करना अदि आदि ...नियमित रियाज से बाहों की मुश्कों को काफी उभारा जा सकता है जैसा कि पुरूष सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में शरीक हो रहे मिस्टर बनारस से लेकर मिस्टर यूनिवर्स तक का यह प्रिय शगल है जो अपनी अपनी मुश्कें उभार कर अतिशय पौरुष का प्रदर्शन करते हैं .बली ,महाबली और खली बन जाते हैं .मगर कुछ सर्वेक्षणों से आश्चर्यजनक रूप से जो बात सामने आई है वह यह है कि ऐसे "खली " मर्दों की मर्दानगी ज्यादातर महिलाओं को फूटी आँख भी नही सुहाती -व्यवहार मनों- विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे पुरुषों की अपने देह यष्टि के प्रति अतिशय विमोह और आत्ममुग्धता के चलते नारियां अवचेतन रूप में उनसे विकर्षित होती जाती हैं .ऐसे आत्मरति इंसानों को अपनी अपनी सहचरी की कहां सुधि ? ऐसे आत्मविमोही नर नारीसौन्दर्य के प्रति सहज रुझान को भी त्याग ख़ुद के ही शरीर को आईने में देख देख आत्मरति की सीमा तक जा पहुँच आत्ममुग्ध होते रहते हैं -अब कोई रूपगर्विता इसे बर्दाश्त भी कैसे कर सकती है भला !-लिहाजा नारियां ऐसे मुश्क वालों से दूर दूर खिंचती जाती हैं .
यद्यपि पुरूष शरीर सौष्ठव की ये पराकाष्ठा नारी को हतोत्साहित करती है तथापि स्वस्थ और संतुलित रूपसे विकसित सुगठित बाहें एक तीव्र लैंगिक संकेत तो संप्रेषित करती ही हैं -कई जैविक लैंगिक विभेदों में बाहों की भी खास भूमिका है .पुरूष की उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती बाहों की तुलना में नारी की बाहें अमूमन छोटी ,कमजोर और पतली हैं -इसके पार्श्व में एक लंबे वैकासिक अतीत की भूमिका रही है जिसमें सामाजिक कार्य विभाजनों मेंपुरुषों के जिम्मे नित्य प्रति शिकार करने के दौरान अस्त्र शस्त्र संधान अदि सम्मिलित थे !
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )