Thursday, 12 February 2009

वह ऐतिहासिक यात्रा , ओरिजिन और विकासवाद !(डार्विन द्विशती )



बीगल की यात्रा (1831-1836)
मशहूर जलपोत एच0एम0एस0 बीगल पूरे पाँच वर्षों (1831-1836) तक समुद्री यात्रा पर रहा जहाँ डार्विन ने प्रकृति के विविधता भरे रुप को शिददत के साथ देखा-परखा। उनके प्रेक्षणों में एक वैज्ञानिक की सी सटीकता थी, तो उनकी कल्पनाशीलता भी किसी कवि से कम नहीं थी। बीगल की यात्रा के दौरान उनके अनुभव का संसार समृद्ध होता गया। एक बार, जब बीगल ब्राजील के तट पर लंगर डाले हुए था, डार्विन ने एक गुलाम नीग्रो महिला के साथ हुए अत्याचारों को देखा तो बहुत व्यथित हो गये। इस घटना ने उनके मन पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उन्होंने दासता प्रथा का जीवन भर कड़ा विरोध किया। डार्विन ने बीगल यात्रा में बहुत कष्ट सहे- मगर ज्ञान पिपासा की अपनी धुन में कितने ही दिनों भूखे प्यासे रहकर कीट-पतंगों के दंश को भी बर्दाश्त कर उनके नमूनों को इकट्ठा करने की अपनी मुहिम में जुटे रहते। समुद्री यात्रा की बीमारी, खासकर अपच से भी वे जूझते ही रहे। जब बीगल गैलापैगास द्वीप समूह पर पहुँचा तो डार्विन वहाँ पर फिन्च चिड़ियों की चोंच की विविधता को देखकर मन्त्रमुग्ध से रह गये। द्वीप समूह के अलग अलग द्वीपों पर फिन्च चिड़िया की चोंचों में स्थानिक खाद्य सामग्री-कीट पतंगों की विभिन्नता के चलते कुछ न कुछ बदलाव था- वे अब अलग स्पीशीज बन गई थीं। यह कहना उचित होगा कि डार्विन के मन में प्राकृतिक कारणों से जैविक बदलाव की सूझ यहीं कौंधी। कहते हैं कि बीगल की यात्रा आज भी उतनी ही रुमानी है जितनी कि अलिफ लैला की कहानियाँ।
विकासवाद
यद्यपि डार्विन के पहले भी दुनियाँ में विकास वाद पर चिन्तन मनन तो हुआ था- हिन्दू दशावतारों-मछली, कच्छप, नरसिंह आदि से पुरुषोत्तम राम तक का अवतरण, चीनी साहित्य में भी विकास के लगभग ऐसे ही आरिम्भक विचार के उदाहरण हैं। लैमार्क ने भी विकासवाद की एक रुपरेखा जिराफ के गरदनों की लम्बाई बढ़ते जाने के आधार पर बनाई थी।
लेकिन ईसाई मत द्वारा प्रवर्तित `सृजनवाद´ (सृष्टि का सृजन हुआ है!) के व्यापक प्रसार के चलते विकासवाद नेपथ्य में जा पहुँचा। यह डार्विन का ही प्रादुर्भाव था कि विकासवाद मानों पुनर्जीवित ही नहीं हुआ उसे एक वैज्ञानिक धरातल भी मिल गया।
डार्विन को यह आभास हो चला था कि पुरातनपन्थी उनके विकासवाद के सिद्धान्त का पुरजोर विरोध करेंगे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अपने एक मित्र प्रोफेसर असा ग्रे को उन्होंने लिखा, ``मैं पूरी ईमानदारी से कहना चाहता हूँ कि अपने सतत् अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जीवों का स्वतन्त्र सृजन नहीं हुआ है ... ... मुझे मालूम है कि यह सुनकर आप मुझसे खफ़ा हो जायेंगे .. ... ´´ यह तो शुरूआत भर थी ... ...। डार्विन ने फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। ... ...
`द ओरिजन´

उनकी पुस्तक-द ओरिजिन् आफ् स्पीशीज की सभी 1250 प्रतियाँ प्रकाशित होते ही हाथों हाथ बिक गई जिससे वैचारिक जगत में मानों एक भूचाल सा आ गया। इस पुस्तक ने अनेक भूगभीZय, जीवाश्मीय प्रमाणों से यह साबित कर दिया था कि धरती पर जीवों का सृजन नहीं हुआ है बल्कि सभी जीव एक वैकासिक प्रक्रिया की देन हैं। डार्विन ने यह क्रान्तिकारी वैचारिक पुस्तक आनन फानन में ही नहीं लिख डाली थी। बल्कि इसके प्रकाशन के 20 वर्षों पहले ही उन्होंने इसकी एक रुप रेखा 1839 में ही बना ली थीं फिर 1842 में उस रुपरेखा पर आधारित 35 पृष्ठों का आलेख तैयार किया जो 1844 में 230 पृष्ठों तक जा पहुँचा। अब पुस्तक प्रकाशन के लिए तैयार थी मगर उन्होंने अगले डेढ़ दशक तक इसकी सभी स्थापनाओं, आँकड़ों की बार-बार जाँच की, पुनर्सत्यापन किया।
जारी ........