Sunday 12 August 2012

विज्ञान और मानविकी की गहराती खाईयां

वैसे तो ब्रितानी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी पी स्नो ने विज्ञान और मानविकी विषयों और प्रकारांतर से वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के फासलों को बहुत पहले ही १९५० के आस पास "दो संस्कृतियों " के नाम से बहस का मुद्दा बनाया था मगर आज भी यह विषय प्रायः बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहता है कि विज्ञान और मानविकी या फिर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के अलगाव के कौन कौन से पहलू हैं? हम क्यों किसी विषय को विज्ञान का तमगा दे देते हैं और किसी और को कला या साहित्य का? 

इस विषय पर ई ओ विल्सन जो आज के जाने माने समाज -जैविकीविद हैं ने विस्तार से फिर से प्रकाश डाला है . पहले हम मानविकी का अर्थ बोध कर लें -मानविकी के अधीन प्राचीन और आधुनिक भाषाएँ ,भाषा विज्ञान ,साहित्य और इतिहास ,न्याय ,दर्शन और पुरातत्व ,संस्कृति , धर्म ,नीति शास्त्र ,आलोचना ,समाज शास्त्र आदि आदि विषय आते हैं . दरअसल मानव परिवेश और उसके वैविध्यपूर्ण अतीत,परम्पराओं और इतिहास और उसके आज के जीवन से जुड़े अनेक पहलू मानविकी के अंतर्गत हैं. मगर यह आश्चर्यजनक है कि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान के अनेक अनुशासनों में लम्बे अरसे से कोई उल्लेखनीय समन्वय नहीं रहा है. इस दूरी को कम करने का तो एक तरीका यह है कि इन दोनों अनुशासनों के प्रस्तुतीकरण के तौर तरीकों -लिखने के तरीके में कुछ साम्य सुझाया जाय. मतलब लिखने की शैली और सृजनात्मक तरीकों में कुछ समानतायें बूझी जायं. यह उतना मुश्किल भी नहीं है जितना प्रथम दृष्टि में लगता है . इन दोनों क्षेत्रों के अन्वेषक मूलतः कल्पनाशील और कहानीकार की प्रतिभा लिये होते हैं.

अपने आरम्भिक अवस्था में विज्ञान और कला/साहित्य /कविता की कार्ययोजना एक सरीखी ही होती है. दोनों में संकल्पनाएँ होती हैं -संशोधन और परिवर्धन होते हैं और अंत में निष्पत्ति या अन्वेषण का अंतिम स्वरुप निखरता है- किसी भी वैज्ञानिक संकल्पना या काव्य कल्पना का अंत क्या होगा,निष्पत्ति क्या होगी शुरू में स्पष्ट नहीं होती.....और निष्पत्ति ही शुरुआत की संकल्पना को मायने देती है ...उपन्यासकार फ्लैनेरी ओ कोनर ने वैज्ञानिकों और साहित्यकारों दोनों से सवाल किया था," ..जब तक मैं यह देख न लूं कि मैंने क्या कहा मैं कैसे जान सकता हूँ कि मेरे कहने का अर्थ क्या है?"यह बात साहित्यकार और वैज्ञानिक दोनों पर सामान रूप से लागू होती है -दोनों के लिए निष्पत्ति -अंतिम परिणाम/उत्पाद ही मायने रखता है...एक सफल वैज्ञानिक और एक कवि आरम्भ में तो सोचते एक जैसे हैं मगर वैज्ञानिक काम करता एक बुक कीपर जैसा है-वह आकंड़ो को तरतीब से सहेजता जाता है . वह अपने शोध प्रकल्पों/परिणामों के बारे में कुछ ऐसा लिखता है जिससे वह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू) में पास हो जाय .समवयी समीक्षा के साथ ही तकनीकी और आंकड़ो की परिशुद्धता भी विज्ञान के परिणामों के दावों के लिए बेहद जरुरी है .इस मामले में एक वैज्ञानिक की ख्याति ही उसका सर्वस्व है. और यह ख्याति प्रामाणिक दावों पर ही टिकी रह सकती है. यहाँ हुई चूक एक वैज्ञानिक का कैरियर तबाह कर सकती है. धोखाधड़ी तो एक वैज्ञानिक के कैरियर के लिए मौत का वारंट है . 

मानविकी साहित्य में धोखाधड़ी के ही समतुल्य है साहित्यिक चोरी(प्लैजियारिज्म).मगर यहाँ कल्पनाओं का खुला खेल खेलने में कोई परहेज नहीं है बल्कि फंतासी /फिक्शन साहित्य की तो यह आवश्यकता है. और जब तक साहित्य की स्वैर कल्पनाएँ सौन्दर्यबोध के लिए प्रीतिकर बनी रहती हैं,उनका महत्व बना रहता है. साहित्यिक और वैज्ञानिक लेखन में मूलभूत अंतर उपमाओं के इस्तेमाल का है ...वैज्ञानिक रिपोर्टों में जब तक दी गयी उपमाएं महज आत्मालोचन और विरोधाभासों को अभिव्यक्त करनें तक सीमित रहती हैं,ग्राह्य हैं. जैसे एक वैज्ञानिक यह लिखे तो मान्य है," यदि यह परिणाम साबित हो पाया तो मैं आशा करता हूँ यह अग्रेतर कई भावी फलदायी परिणामों के दरवाजे खोल देगा " मगर यह वाक्य कदापि नहीं-" हम यह विचार रखते हैं कि ये परिणाम जिन्हें हम बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाए हैं अग्रेतर परिणामों के ऐसे झरने होंगें जिनसे निश्चय ही शोध परिणामों के कई और जल स्रोत फूट निकलेगें " यह शैली विज्ञान में मान्य नहीं है . 

विज्ञान में शोध के परिणाम का महत्व है और साहित्य में कल्पनाशीलता,उपमाओं की मौलिकता महत्वपूर्ण है. कव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ साहित्य में रचनाकार के मन से पाठक तक संवेदनाओं/भावनाओं के संचार का जरिया हैं . मगर विज्ञान का यह अभीष्ट नहीं है बल्कि यहाँ उद्येश्य तथ्यों को वस्तुनिष्ठ तरीके से पाठकों तक पहुंचाते हुए उसके सामने अन्वेषण की सत्यता और महत्व को प्रमाणों और तर्क के जरिये प्रस्तुत कर उसे संतुष्ट करना होता है . साहित्य में भावनाओं को साझा करने की जितनी ही प्रबलता होगी भाषा शैली जितनी ही काव्यात्मक /गीतात्मक होती जायेगी. एक साहित्यकार के लिए सूरज का उगना,दोपहर में शीर्ष पर चमकना और सांझ ढले डूब जाना जीवन के आरम्भ, यौवन का आगमन और जीवन की इति का संकेतक हो सकता है यद्यपि वैज्ञानिक जानकारी के मुताबिक़ सूर्य ऐसी कोई गति नहीं करता ...किन्तु साहित्य में पूर्वजों से चले आ रहे ऐसे प्रेक्षण आज भी मान्य हैं.काव्य सत्य हैं! साहित्य में वैज्ञानिक सचाई कि सूर्य स्थिर है, धरती ही उसके इर्द गिर्द घूमती है समाहित होने में अभी काफी वक्त है!