हमने अभी तक देखा कि गुफाकाल से ही नर नारी के कार्य विभाजनों में फर्क के बावजूद भी उनके बीच सामाजिक स्तर का कोई फर्क नहीं था बल्कि पुरुषों की तुलना में नारियां एक समय में एक साथ ही कई कामों का कुशलता से संचालन करती थीं और उनकी यह क्षमता आज भी विद्यमान है. जबकि अमूमन पुरुष एक समय में किसी एक मुख्य कार्य में ही ध्यानस्थ हो जाता है जो उसके प्राचीन काल की आखेटक प्रक्रति /प्रवृत्ति की ही जीनिक अभिव्यक्ति -शेष है. प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में में नर और नारी को तब के कबीलाई समाजों में बराबर का स्थान था बल्कि कहीं कहीं नारी ज्यादा प्रभावी रोल में थी -ईश्वरीय शक्ति से युक्त भी क्योकि वह सृष्टि -सर्जक थी -प्रजनन और संतति संवहन की मुख्य अधिष्ठात्री -यही कारण था कि पहले के कितने समाज मातृसत्तात्मक भी थे-नारियों की तूती बोलती थी और यहाँ तक कि ईश्वर का आदि स्वरुप भी खुद ममत्व का ,नारी का ही था -आदि शक्ति रूपी देवियाँ पहले प्रादुर्भाव में आयीं -अगर हम खुद अपने सैन्धव सभ्यता की बात करें तो भी यही इंगित होता है कि तत्कालीन समाज में नारी का स्थान ऊंचा था और आर्यों से पराजित और पुरुषों का समूह संसार होने के बाद आर्यों द्वारा पोषित वैदिक संस्कृति में भी नारी पूर्व की ही भांति प्रतिष्ठित बनी रही -वैदिक काल की अनेक ऋषि पत्नियों का सम्मान जनक उल्लेख हमें इसकी याद दिलाता है -यहाँ विस्तार विषय से विचलन हो जायेगा .. अस्तु ...मगर कालांतर में स्थितियां बदलीं और तेजी से बदलती रहीं.
नर नारी की समानता का संतुलन तब डगमगाता गया जब मानव जनसंख्या तेजी से बढी ,नगर और कस्बे बढ़ते चले गए और कबीलाई मानव नागरिक बनने लग गया -मानवीय संदर्भ में एक नए सांस्कृतिक विकास की देंन -धर्म (रेलिजन ) के बढ़ते प्रभावों ने अब कई विकृतियों को जन्म देना शुरू किया -नागरीकरण और धर्म के मिलेजुले अजीब सम्बन्धों ने आदि शक्ति स्वरूपा देवियाँ को विस्थापित कर देव -देवताओं को केंद्र में लाना शुरू किया -ममत्व की जीवंत मूर्तियाँ अब अधिकारवादी पुरुष देवों में बदलती गयीं -स्त्रीलिंग ईश्वर अब पुल्लिंग बन गया था! आदर्श हिन्दू जीवन शैली जो आज भी सैन्धव और आर्य संस्कृति का समन्वय किये हुए है आदि शक्ति रूपी देवियों और आदि देवों के बीच समान साहचर्य ,समान श्रद्धा की ही पोषक बनी हुई है,किन्तु धर्म के सैद्धांतिक -कर्मकांडी स्वरुप में ही, व्यवहार में स्थिति बदल चुकी है .
लगता है प्रतिशोधी पुरुष देवो ने पूरी दुनिया में ही अपने पवित्र प्रतिनिधियों के जरिये कालांतर में और निरंतर भी खुद की धनाढ्य सत्ता और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपनी पद- प्रतिष्ठा और अनुयायी पुरुष जमात को उच्च सामाजिक स्तर देने का सिलसिला जारी रखा रखा है -नारी की अस्मिता को भी दांव पर लगाते हुए जो उत्तरोत्तर निम्न से निम्नतर सामाजिक स्तर पर पहुँचती रही -उससे उसके सामाजिक उच्चता का वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार भी पुरुष देवताओं के बढ़ते वर्चस्व से छिनता चला गया - दरअसल उसी वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार की पुनर्प्राप्ति के प्रयास के तौर पर नारीवादी आंदोलनों को पहले तो पश्चिम से और अब उचित ही पूर्व से समर्थन मिला है .वे आज अपनी "आदि शक्ति" रूपी सामाजिक सम्मान की वापसी के लिए संघर्षरत हैं -अधिकारों की मांग कर रही हैं .और यह जायज भी है कम से कम भारतीय मनीषा के लिए तो अवश्य ही! देर सवेर उन्हें यह प्राप्त होकर ही रहेगा .मगर इन आंदोलनों को सही परिप्रेक्ष्य और स्पष्ट लक्ष्य की ओर संचालित होना होगा .वे कुछ भी नया नहीं मांग रही हैं बल्कि वास्तविकता तो यही है कि वे अपनी उसी खोयी हुई प्रतिष्ठा और ताकत की पुनर्वापसी चाहती हैं जो उन्हें अपने आदिकाल की भूमिका में प्राप्त था -स्वप्न साकार होने लग गए हैं!