Sunday 23 December 2007

नेचर के 'न्यूज़मेकर ऑफ़ द ईयर' बने पचौरी

वैज्ञानिक शोधों को प्रकाशित करने वाले विश्वप्रसिद्ध ब्रितानी वैज्ञानिक जर्नल नेचर ने जानेमाने पर्यावरणविद और जलवायु परिवर्तन के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त अंतर-सरकारी पैनल के प्रमुख आरके पचौरी को 'न्यूज़मेकर ऑफ़ द ईयर' घोषित किया है.नेचर पत्रिका के अनुसार पचौरी का योगदान पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से अतुलनीय है और इस विषय पर अनेक रिपोर्टों को प्रकाशित करना वस्तुतः सैकड़ों वैज्ञानिकों का काम था जो अकेले उन्ही की पहल पर सम्भव हो सका . यह इन्ही के कठोर परिश्रम का ही फल रहा कि संयुक्त राष्ट्र के पैनल आईपीसीसी को अमरीका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर के साथ जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार मिला .पचौरी ने चेतावनी दी है कि प्राकृतिक संपदा की अनदेखी समूचे विश्व के लिए हानिकारक साबित होगी. विगत दस दिसंबर 07 को अपना पुरस्कार लेते हुए पचौरी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चेतावनी दी थी कि दुनिया की संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में लगातार की जा रही अनदेखी मानव जाति के लिए अंततः हानिकारक साबित हो सकती है.

गौरतलब है कि इस साल की शुरूआत में आईपीसीसी ने वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके असर के बारे में नीति निर्धारकों के मार्गदर्शन के लिए अपनी चौथी आकलन रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमे यह भी कहा गया था कि जैव विविधता पर कुछ ऐसे असर भी हो सकते हैं जिन्हें बाद में पलटना मुमकिन न हो.

नेचर पत्रिका ने अब से प्रत्येक वर्ष वैज्ञानिक क्षेत्र मे युगान्तरकारी कार्य के लिए 'न्यूज़मेकर ऑफ़ द ईयर' नामक एक नए सम्मान का आगाज कर दिया है और यह हमारे लिए गौरव की बात है कि पहला सम्मान एक भारतीय को मिला है .

Sunday 25 November 2007

पर्यावरण के दो नए भारतीय हीरो !

पर्यावरण के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार 2007 का शोर अभी थमा भी नहीं है कि विश्व प्रसिद्ध `टाइम´ पत्रिका के 29 अक्टूबर, 2007 विशेषांक ने अपने सालाना आकर्षण `टाइम्स हीरोज´ के रुप में जिन महान हस्तियों का नाम जगजाहिर किया वे भी पर्यावरण से ही जुड़े हैं और उनमें दो भारतीय चेहरे भी शामिल हैं। `हीरोज आफ द इनविरानमेन्ट´ शीर्षक के तहत पर्यावरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करने वाले जिन विभूतियों को `टाइम´ पत्रिका ने विश्व के कोने-कोने से ढूढ़ निकाला है उनमें शामिल भारतीय चेहरे हैं- डी0पी0 डोभाल और तुलसी तान्ती। डी0पी0 डोभाल एक ग्लेशियर विद हैं, वहीं तुलसी तान्ती एक इंजीनियर-उद्योगी।
डी0पी0 डोभाल मूलत: एक वैज्ञानिक हैं- सर सी0वी0 रमन की ही परम्परा के एक प्रकृति अन्वेषी विज्ञानी जो वैज्ञानिक अनुसन्धानों के लिए यांत्रिक ताम-झाम और उपकरणों को ज्यादा तरजीह नहीं देते। उन्होंने हिमालयी ग्लेशियरों की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई स्थानीय तौर पर उपलब्ध बांस की खपिच्चयों/डंडियों के सहारे ही नाप डाली है। विगत कुछ वर्षों से ये ग्लेशियर वार्मिंग)के चलते तेजी से पिघल रहे हैं, `गरमाती धरती´ के इसी रुख पर मौसम विज्ञानियों की चौकस नजर है। उत्तरी ध्रुव, ऐल्प्स की घाटियों के पिघलते ग्लेशियर पर मौसम विज्ञानियों का विपुल अध्ययन हो चुका है, किन्तु विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला-हिमालय के ग्लेशियरों पर आश्चर्यजनक रुप से काफी कम अध्ययन हुआ है। डोभाल मूलत: भूगर्भ विज्ञानी हैं जो भारत सरकार पोषित `वाडिया इन्स्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी´ के लिए अनुसन्धान कर रहे हैं। उनका अध्ययन हिमालय के तेजी से पिघल रहे ऊ¡चाई वाले हिमनदों से मैदानी नदियों में सम्भावित जल प्लावन और दूरगामी सूखे की स्थितियों के आकलन पर केिन्द्रत है।
नदियों में हिमनद पिघलाव से प्रेरित जल प्लावन और कालान्तर के सूखे की भयावहता का मसला भारत के मैदानी इलाकों के करोड़ों लोगों की आजीविका या कहें कि जीवन मृत्यु से जुड़ा हुआ है। इस `हिमालयी हीरो´ के कारनामें को `टाइम´ के संवाददाता साइमन राबिन्सन ने `कवर´ किया है। डी0पी0 डोभाल सहसा ही भारत के पर्यावरण विज्ञानियों के बीच चर्चित हो उठे हैं।
`टाइम´ के दूसरे भारतीय पर्यावरण के हीरो हैं- तुलसी तान्ती। जिनकी पवन-चक्कियों से उत्पादित विद्युत के अजस्र स्रोत ने `टाइम´ संवाददाता आर्यन ब्रेकर का ध्यान अपनी ओर खींचा। तुलसी तान्ती पेशे से इंजीनियर रहे हैं और 1995 के दौरान वे अपनी एक टेक्सटाइल कम्पनी की स्थापना में जी जान से जुटे थे। किन्तु अनियमित विद्युत आपूर्ति और जले पर नमक की भांति प्रति माह आने वाले भारी भरकम बिजली के बिल ने उनकी सारी महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया। 49 वर्ष के इस इंजीनियर ने तब विद्युत उत्पादन के नये किफायती और टिकाऊ स्रोत के विकास का संकल्प लिया। और एक दशक से भी कम समय में उन्होंने ऊर्जा के एक वैकल्पिक किन्तु भरोसेमन्द सस्ते स्रोत को विकसित करने और उसके औद्योगिक उपयोग में सफलता हासिल कर ली।
उन्होंने कपड़ों के निर्माण-उत्पादन के अपने आरिम्भक एजेण्डे को दूसरे नम्बर पर करके पहली प्राथमिकता पवन चक्कियों के विकास को दे दी है और उनकी कम्पनी `सजलोन´ ने `विण्ड टरबाइन के उत्पादन का काम संभाला है और आज `सजलोन´ की चार महाद्वीपों में शाखायें और `विण्ड फार्म´ हैं। यह विश्व की चौथी बड़ी `विण्ड टरबाइन - निर्माता कम्पनी बन चुकी है। इसका वािर्षक लाभ 85 करोड़ डालर तक जा पहुंचा है। इसके बदौलत ही तान्ती भारत के टाप टेन के धन कुबेरों में भी अपना नाम दर्ज करा चुके हैं. मुख्य फैक्टरी पाण्डिचेरी में है जो केवल पवन ऊर्जा से संचालित है।
पर्यावरण के इन दोनो नए चेहरों को सलाम !

Saturday 17 November 2007

ईश्वर को प्रिय है ज्ञान मार्ग

क्या सचमुच मनुष्य दैवीय सृजन का प्रतिफल है ?या फिर जैवीय विकास के फलस्वरूप वह निम्न प्राणियों से ही धरती पर अवतरित हुआ है -चार्ल्स डार्विन ने इस मसले को पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर अपनी युगान्तरकारी पुस्तक 'डिसेंट ऑफ़ मैन' [1871] मे हल कर दिया था, जिसमे बहुत ही प्रभावशाली तरीके से समझाया गया था कि मनुष्य भी दीगर जीवों की तरह एक लम्बी वैकासिक प्रक्रिया का प्रतिफलन है और वह नर-वानर कुल का ही वंशज है -उसके आदि पुरखे कभी वानरों सदृश ही रहे होंगे . मतलब की आज के गोरिल्ला ,चिम्पांजी तथा मानव किसी एक वंश कड़ी की ही उपज हैं .मतलब यह कि मनुष्य किसी दैवीय उत्पाद का हकदार नही है , ईश्वर ने उसे सृजित नही किया बल्कि वह नीची विरासत का अवतरित प्राणी हैयह धर्म के नाम पर रोजी रोटी कमाने वालों के मुह पर एक करारा तमाचा था .डार्विन की बड़ी खिल्लियाँ उडाई गयी ,चर्च ने बड़ा हो हल्ला मचाया -मगर वैज्ञानिक पद्धति से निष्कर्षित तथ्यों के आगे उनकी आवाज थमती गयी .लेकिन आश्चर्य तो यह है कि अभी भी ऐसे लोग है जो बडे ही प्रायोजित तरीके से सृजनवाद के प्रचार प्रसार मे लगे हैं .आख़िर अज्ञान के प्रसार से उन्हें क्या मिलेगा ?.जबकि कई धर्मों की मान्यता यही है कि खुद भगवान को भी ज्ञान मार्ग ही सबसे प्रिय है -'प्यारे भक्तों' को वे भी दूसरे दर्जे पर रखते हैं .

Wednesday 14 November 2007

कहीं यही तो नही है सोम?


सोम के लिए नयी दावेदारी -यार -त्सा - गम्बू [yar-tsa-gambu] एक फन्फूद [कवक] और एक किस्म के मोथ [पतंगे] का मिश्रित रुप है.तिब्बती बोल चाल मे यार त्सा गम्बू का मतलब है 'जाड़े मे कीडा और गर्मी मे पौधा 'यह एक रोचक मामला है. होता यह है कि एक मोथ [पतंगा ]गर्मियों मे पहाडों पर अंडे देता है जिससे निकले भुनगे तरह तरह की वनस्पतियों की नरम जड़ों से अपना पोषण लेते हैं .इतनी ऊंचाई पर और कोई शरण होने के कारण जाड़े से बचाव के उपक्रम मे ये भूमिगत हो जाते हैं और तभी इनमे से कुछ हतभाग्य एक मशरूम प्रजाति की चपेट मे जाते है जो अब इन भुनगों से अपना पोषण लेते हैं .जाड़े भर यह परजीवी मशरूम और अब तक मृत भुनगा जमीन के भीतर पड़े रहते हैं और मई माह तक बर्फ पिघलने के साथ ही मशरूम की नयी कोपल मृत भुनगे के सिर से फूटती है -यह विचित्र जीव -वनस्पति समन्वय ही स्थानीय लोगो के लिए यार सा गम्बू है .इससे अब् व्यापारिक स्तर पर एक रसायन -कर्डीसेप्तिन का उत्पादन शुरू हो गया है जो बल-ओज ,पुरुसत्त्व और खिलाडियों की स्टेमिना बढाने मे कारगर है - इसकी कीमत प्रति किलो . लाख है .यह तिब्बत और उत्तरांचल की पहाडियों खास कर पिथौरागढ़ मे मिल रहा है और अब तो इसकी कालाबाजारी भी हो रही है .कहीं यही तो सोम नही है ?यदि सोम की प्रमाणिकता साबित हो जाती है और भारत अपनी बौद्धिक दावेदारी इस चमत्कारी
वनस्पति पर साबित कर लेता है तो बस पौ बारह समझिए .

Tuesday 6 November 2007

किसे हम सोम माने -कस्मे सोमाय हविशा विधेम !

कुछ चिट्ठाकार प्रेमियों ने वैदिक सोम वनस्पति के बारे मी जिज्ञासा दिखाई है .अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईशा के पहले ही इस बूटी /वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गयी .ऐसा भी कहाजाता है कि सोम[होम] अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों ने इसकी जानकारी आम लोगो को नही दी ,उसे अपने तक हीसीमित रखा और कालांतर मे ऐसे अनुस्ठानी ब्राह्मणों की पीढी /परम्परा के लुप्त होने के साथ ही सोम कीपह्चानभी मुश्किल हो गयी .सोम को पहचान पाने की विवशता की झलक रामायण युग मे भी है -हनुमान दो बारहिमालय जाते हैं ,एक बार राम और लक्ष्मण दोनो की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर ,मगरसोम की पहचान होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं: दोनो बार -लंका के सुषेण वैद्य ही असली सोम की पहचानकर पाते हैं यानी आम नर वानर इसकी पहचान मे असमर्थ हैं [वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड,७४ एवं १०१ वां सर्ग] सोम ही संजीवनी बूटी है यह ऋग्वेद के नवें 'सोम मंडल 'मे वर्णित सोम के गुणों से सहज ही समझा जा सकता है .
सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक ,ओज्वर्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है ,साथ हीअनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है .सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट पीस कर तथा भेंड के ऊन कीछननी से छान कर प्राप्त किये जाने वाले सोमरस के लिए इन्द्र,अग्नि ही नही और भी वैदिक देवता लालायित रहतेहैं ,तभी तो पूरे विधान से होम [सोम] अनुष्ठान मे पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे , बाद मे प्रसाद के तौर पर लेकर खुद स्वयम भी तृप्त हो जाते थे .आज के होम भी उसी परम्परा के स्मृति शेष हैं परसोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है जो सोम की प्रतीति भर है.कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों मे देवताओं को सोम अर्पित कर पाने और वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने कि ग्लानि और क्षमा याचना की सूक्तियाँ भी हैं
मगर जिज्ञासु मानव के क्या कहने जिसने मानवता को सोम कलश अर्पित करने की ठान रखी है और उसकी खोज
मधु ,ईख के रस ,भांग ,गांजा ,अफीम,जिन्सेंग जैसे पादप कंदों -बिदारी कंद सरीखे आयुर्वेदिक औषधियों से कुछ खुम्बियो [मशरूमों ] तक पहुँची है जिनके बारे मे अगले चिट्ठे मे .............
]

Wednesday 31 October 2007

चलो अन्तरिक्ष घूम आयें

अन्तरिक्ष पर्यटन का एक भरापूरा उद्योग उभर रहा है? दरअसल, इस उद्योग के आकर्षण ढेरों हैं - एक अनिर्वचनीय, अविस्मरणीय और नायाब अनुभव के साथ ही अन्तरिक्ष से जीवन प्रसूता नीली धरती को अपलक निहारने का आनन्द, अन्तरिक्ष यात्री बनने का अनूठा `स्टेटस सिम्बल´ और भारहीनता की विलक्षण अनुभूति. भारतीय हिन्दू मिथकों में `सशरीर´ स्वर्ग की यात्राओं को त्रिशंकु, युधििष्ठर, अर्जुन , सावित्री, नचिकेता आदि पात्रों के जरिये विस्तार से दर्शाया गया है। हाँ , भारतीय सोच अमूमन मृत्यु के बाद ही आत्मा द्वारा स्वर्ग के सैर की है, `सशरीर´ स्वर्गारोहण - अन्तरिक्ष भ्रमण आज तक महज अपवाद के रुप में ही यथोक्त भारतीय कथा कहानियों में वर्णित हुआ है- किन्तु अब अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों ने सशरीर तथा सकुशल वापसी वाले अन्तरिक्षीय सैर सपाटे के नये युग का शंखनाद कर दिया है।अमेरिकी नागरिक और व्यवसायी डेनिस टीटो ने पहला अन्तरिक्ष प्रयाण किया और `इन्टरनेशनल स्पेस स्टेशन´ पर दस दिनों के रैन बसेरे (28 अप्रैल- 6 मई 2001) के बाद सकुशल धरती पर आ लौटे।कम्प्यूटर उद्योगपति मार्क शटल वर्थ ने भी उनके `नभ चिन्हों´ का अनुसरण कर 25 अप्रैल से 5 मई 2002 तक अन्तरिक्ष में विराम किया।ग्रेगरी ओल्सेन तीसरे अन्तरिक्ष पर्यटक बने और 2005 में इन्टरनेशनल स्पेस स्टेशन पर पहुंच 1 अक्टूबर से 11 अक्टूबर 2005 तक उन्होंने कई प्रयोग परीक्षण भी किये।अनोऊशेह अन्सारी (18 सितम्बर से 29 सितम्बर 2006) तथा हंगेरिया में में जन्में कम्प्यूटर साफ्टवेयर व्यवसायी चाल्र्स सिमोन्यी (7 अप्रैल से 21 अप्रैल, 2007) नेchauthe और पांचवे अन्तरिक्ष पर्यटक बनने का अपना ख्वाब पूरा कियाभारतीय सैलानियों के लिए भी एक खुशखबरी है। ब्रितानी मूल के अन्तरिक्ष व्यवसायी रिचर्ड ब्रैंसन ने स्पेसशिप-1 से अन्तरिक्ष की देहरी तक सैर सपाटे के लिए भारतीय पर्यटकों को दो लाख डालर-तकरीबन 80 लाख रुपये के एक किफायती `स्पेस टूर´ पैकेज का शुरूआती आफर दिया है। यह किफायती पैकेज उनकी निजी कम्पनी वर्जिन गैलेिक्टक की भारतीय शाखा `स्पाजियो´ के जरिये मुहैया होगी। बुकिंग शुरु भी हो गयी है। विर्जिन गैलेिक्टक इन अन्तरिक्ष पर्यटकों को विधिवत प्रशिक्षण भी देगी। लाइन में लगे सौ लोग प्रशिक्षण प्राप्त भी कर चुके हैं। आप भी ज्यादा सोच विचार न कीजिए यदि टेंट में माल हो तो जीवन के इस एक बारगी अनुभव के लिए अभी से लाइन में लग लीजिए। कौन जाने आपका नम्बर आते आते किसी भारी किफायती पैकेज का लाभ ही आपको मिल जाये!

Friday 12 October 2007

ॐ शांति ॐ शांति -पर्यावरण पर नोबेल शांति सम्मान

शांति पृथ्वी ..शांति वनस्पत्य्हा ..शांति औषध्यः ..ॐ शांति शांति ..कभी पर्यावरण से/में शांति की कामना करने वाले भारतीय मनीषियों के ही स्वर को बुलंद करते हुये इस बार का शांति नोबेल पुरस्कार पर्यावरण के क्षेत्र मे दिया गया है ।
..नोबेल शांति पुरस्कार का ट्रेंड बदल सा गया है ,पिछले वर्ष सूक्ष्म वित्तीयन [माइक्रो फिनेंसिंग ] के लिए यह सम्मान बंगलादेशी मुहम्मद यूनुस को मिला था और इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र के संगठन आईपीसीसी (इंटरगर्वन्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) और जलवायु परिवर्तन के मामले में दुनिया भर में अभियान चलाने वाले अमरीका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को संयुक्त रुप से नोबेल शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गई है. भारत के पर्यावरण वैज्ञानिक आरके पचौरी आईपीसीसी के अध्यक्ष हैं और वे संगठन की ओर से यह सम्मान ग्रहण करेंगे.
नोबेल सम्मान समिति मानती है कि जलवायु परिवर्तन इस समय दुनिया की एक बहुत बड़ी समस्या है. वह चाहती है कि दुनिया का ध्यान जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या की ओर खींचा जाए और नुक़सान पहुँचाए बिना विकास हो सके. विकासशील देशों को सोचना होगा कि वे किस हद तक विकसित देशों के ढर्रे पर चल सकते हैं और किस हद तक उनकी ग़लतियों को दोहराने से बच सकते हैं.आर के पचौरी ने कहा की उन्होंने नहीं सोचा था कि आईपीसी को यह सम्मान मिलेगा. यह उनकी अतिशय विनम्रता है . संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी में जलवायु परिवर्तन से जुड़े तीन हज़ार से अधिक वैज्ञानिक काम करते हैं.
अल गोर ने राजनीति से संन्यास लेने के बाद अपना पूरा ध्यान जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित कर रखा है .बिल क्लिंटन के कार्यकाल में वे उप राष्ट्रपति थे, उन्होंने 2001 में जॉर्ज बुश के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए थे.. मेघालय में बसने वाली खासी जनजाति ने उन्हें जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए पहले ही सम्मानित करने का फ़ैसला ले लिया था . खासी पंचायत के नेताओं ने उन्हें ग्रासरूट डेमोक्रेसी अवार्ड देने की घोषणा की थी .खासी जनजाति पंचायत का मानना है कि वे अल गोर की डाक्युमेंट्री 'द इनकन्विनिएंट ट्रुथ' से बहुत प्रभावित हुए हैं और उन्हें सम्मानित करना चाहते हैं. डाक्युमेंट्री मे ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है. यह सम्मान 'दरबार ' यानी जनता की संसद में छह अक्तूबर को प्रदान किया जाना था मगर गोर पहुँच नही पाये , इसका आयोजन उस जंगल में किया गया जिसे खासी जनजाति पवित्र मानती है और उसे 700 वर्षों से पूरी तरह सुरक्षित रखा है. सम्मान के रूप में स्थानीय कलाकृतियाँ और 'मामूली धनराशि' भेंट की जानी थी .[स्रोत साभार :बी बी सी हिंदी सेवा ]

Wednesday 3 October 2007

साइब्लाग की भूमिका नंबर दो-धर्म और विज्ञान

धर्म और विज्ञान पर किसी भी चर्चा को शुरू करने के पहले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के इस कथन को उधृत कर देने का लोभ संवरण कर पाना मुश्किल हो जाता है कि "धर्म के बिना विज्ञान लंगडा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा " आख़िर वह कौन सी सोच रही होगी जिसके तहत आइन्स्टीन ने उक्त विचार व्यक्त किए. साइब्लाग की भूमिका नंबर दो मे इसका थोडा विश्लेषण किया जाए .पहले ,धर्म के बिना विज्ञान के अंधा होने की बात .दरअसल विज्ञान सत्य की खोज तो करता है किंतु वह सत्य मानव का हित साधक है या अहितकारी इससे विज्ञान का कुछ लेना देना नही है . जबकि हमारी प्रबल मान्यता सत्यम शिवम सुन्दरम की रही है .यह एक धार्मिक सोच है -सत्य वह हो जो सुंदर हो ..शिव हो यानी मंगलकारी हो -बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो .विज्ञान हमे कोई जीवन दर्शन अभी तक नही दे सका है ,शायद यह इसकी प्रकृति मे नही है या कह सकते हैं कि जीवन दर्शन देना विज्ञान का धर्म नही है -और यही वह पहलू है जो विज्ञान को अधूरा बनाता है ,लंगडा कर देता है- इस अर्थ मे कि वह मानवता के व्यापक हित मे नही है . यहीं धर्म का मार्गदर्शन जरूरी हो जाता है -वह धर्म जो अच्छे बुरे का संज्ञान देता हो ,आदर्श जीवन की रूपरेखा बुनता हो .मानव मानव के बीच प्रेम सदभाव और भाईचारे का बीज बोता हो ,विज्ञान की खोजों का बहुजन हिताय मार्ग बताता हो .एक आदर्श और उपयुक्त जीवन की आचार संहिता बुनता हो .विज्ञान के साथ इस तरह का धर्म अगर जुड़ जाय तो बस बात बन जाए.

आईये अब सिक्के के दूसरे पहलू पर .धर्म बिना विज्ञान के अंधा क्यों है ? इसलिए की आज धर्म के जिस रूप से हम परिचित हैं वह अद्यतन नही है ,एक अवशेष है ,रूढ़ हो चला है .धर्म के शाश्वत मानवीय मूल्यों जो जन जन के हित की बात सर्वोपरि रखता है -परहित सरिस धर्म नही भाई के बजाय हम सभी उसके पोंगापन्थी स्वरूप को बनाए रखना चाहते हैं -हम अभी भी लोगों को स्वर्ग नरक के चक्कर मे अपने निहितार्थों के चलते फंसाये रहते हैं .धर्म के नाम पर मार काट तक मचा देते है .आज जरूरत एक संशोधित धर्म की है जो तार्किकता और विज्ञान के आलोक मे एक नया जीवन दर्शन दे, अपने अच्छे शाश्वत मूल्यों को बनाए रखते हुए भी .आज विज्ञान की आंखें उसका मार्गदर्शन कराने को तत्पर हैं .

विज्ञान और धर्म का समन्वय काल की सबसे बड़ी पुकार है .

Sunday 30 September 2007

आस्था और विज्ञान:साइब्लाग की भूमिका

आस्था और विज्ञान को लेकर इन दिनों काफी चर्चाएँ हो रही हैं .यह एक जटिल विषय है .सवाल यह है कि क्या मानव मस्तिष्क की सबसे खूबसूरत और परिस्कृत खूबी-तार्किकता को दरकिनार कर हमे आस्था का दामन ही थामे रहना चाहिए ?अगर ऐसा होता तो हम गुफा जीवन से आगे नही बढ़ पाते. आज हम जिस मुकाम पर हैं अपनी तर्क शक्ति के सहारे हैं .आज हमारे सामने इन तमाम सवालों के सही जवाब मौजूद हैं कि बादल क्यों गरजते हैं ,पानी क्यों बरसता है?सूर्य और चंद्र ग्रहन क्यों लगता है?आज इन मामलों मे इंद्र ,राहू केतु की कोई भूमिका नही है .हाँ कभी हमारे ज्ञानी पुरखों ने लोगो की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए रोचक जवाबों को ,मिथकों को रचा था .उनकी कल्पना शक्ति अद्भुत थी .लेकिन हम आज भी उन्ही जवाबों को लकीर के फकीर की तरह मान लिए बैठे हैं ,अपनी आस्था से जोडे हुये हैं .आज के ज्यादातर मिथक हमे मनुष्य की उर्वर कल्पना शक्ति की एक झलक दिखाते हैं. उनमें तत्कालीन विज्ञान की समझ भी हो सकती है ,मगर आज के विज्ञान की जानकारियों के मुताबिक उन्हें अद्यतन करने के बजाय हम उन्हें जस का तस् स्वीकार किये बैठे हैं -आस्था के नाम पर.

आज के विज्ञान से जोड़कर हमअपनी अतीत की अनेक आस्थाओं को नया कलेवर दे सकते हैं ,नए आयाम दे सकते हैं .ठोस आधार देकर उनकीपुनर्रचना कर सकते हैं.आज का विज्ञान ही दरअसल मानवता की सबसे बड़ी आस्था होनी चाहिए . हाँ, मानव चमत्कार और अनुष्ठान प्रेमी भी है ,तो उसके लिएभी विज्ञान सम्मत रास्ते हैं.आज भगवान् आनलाइन हैं ,शमसान के बजाय आधुनिक दाह गृह हैं जो हमारीअनुष्ठान प्रियता को बनाए रख कर भी हमारे मनचाहे कर्मकांडों को पूरा कर सकते हैं .आस्था के नाम पर हम कब तक पुरातन अवशेषों को सर पर लिए फिरतें रहेंगे .रही धर्म और विज्ञान की बात तो उसकी भी चर्चा हम इस ब्लॉग की भूमिका मे आगे करेंगे .

साईब्लाग [sciblog]: साईब्लाग का नामकरण !

साईब्लाग [sciblog]: साईब्लाग का नामकरण !

Saturday 29 September 2007

साईब्लाग का नामकरण !

मेरे अनुज और मित्र जाकिर ने http://zar-lit.blogspot.com/2007/05/zakir-ali-rajneesh.html सुझाया है कि मैं राम सेतु जैसे विषयों की चर्चा अपने ब्लॉग ://indiascifiarvind.blogspot.com/पर न करूं .ठीक भी है वह ब्लॉग विज्ञान कथा को समर्पित है ,इतर विषय शायद उसके अनुरूप नही हैं.यही सोच कर और एक मित्र के अनुरोध पर ऐसे विज्ञान के विषय जो आम आदमी से क़रीब हों ,इस नए ब्लॉग के विषय बनेंगें.
मगर साईब्लाग नामकरण क्यों ?मैं पहले तो वही शेक्स्पीरियन जुमले का इस्तेमाल कर अपनी जान छुडाना चाहूंगा -नाम मे क्या रखा है ,मगर शायद कुछ चिट्ठाकार भाई इससे संतुष्ट न हों इसलिए कुछ और भी अर्ज है-
यहाँ साई का अर्थ विज्ञान से है साईंस से साई और उससे ब्लॉग को जोड़ कर बन गया है- साईब्लाग।मतलब विज्ञान की नित नयी खबरों पर मेरी अपनी समझ के मुताबिक़ टीका टिप्पणी ।मैंने इस ब्लाग के नामकरण पर काफी सोचा विचारा ,हिन्दी मे कुछ रखने का प्रयास किया ,पर हिन्दी चिट्ठाकार भाइयों ने कोई कोर कसर ही नही बाकी रखी है जिससे मैं इस नए ब्लॉग का नाम हिन्दी मे रख पाता.
मेरा मानना है कि ब्लॉग एक खुली डायरी है ,वेब दुनिया का एक सर्वथा नया प्रयोग .अभिव्यक्ति का एक नया दौर .एक डायरी चिट्ठा कैसे बन गयी /या बन सकती है मेरा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा.फिर चिट्ठे से कच्चे चिट्ठे जैसी बू भी आती है .मगर चूँकि नामचीन चिट्ठाकारों ने इस पर मुहर लगा दी है और यह शब्द भी अब रूढ़ सा बन गया है मैंने पूरे सम्मान के साथ असहमत होते हुए भी इसे स्वीकार तो कर लिया है पर अपने हिन्दी ब्लॉग पर इस प्रयोग के दुहराने की हिम्मत नही कर पाया -इसलिए देवनागरी मे ही अंगरेजी के शब्दान्शों को जोड़ कर काम चलाने की अनुमति आप सुधी जनों से चाहता हूँ.इस ब्लॉग पर मैं विज्ञान के विविध विषयों पर अपना दिलखोल विचार रख सकूंगा .यह ब्लॉग तो अभी इसके नामकरण पर ही आधारित है .आगे विज्ञान की चर्चा होगी .