Sunday, 28 September 2008

पुरूष पर्यवेक्षण : बात गालों की ,बात दाढी की !


पुरूष पर्यवेक्षण : डाढी और बिना दाढी का फ़र्क
नारी की ही भांति पुरूष के भी नरम ,मुलायम चिकने चुपड़े गाल उसकी सुन्दरता ,मासूमियत और सुशीलता के द्योतक रहे हैं .खासकर ये बच्चों के ही उभरे और क्यूट से गालों की ही प्रतीति कराते चलते हैं जिनसे मन में एक तरह का वात्सल्य भाव उमड़ता है .गाल भी मनुष्य की देह का एक कोमल हिस्सा है. मार्क ट्वैन ने एक बार फरमाया था की मनुष्य ही एकमात्र अकेला प्राणी है जिसके गालों पर लज्जा की लाली आती है .व्यवहार विदों की माने तो गालो पर लज्जा की लाली ही नहीं बल्कि क्रोध की तमतमाहट भी साफ़ देखी जा सकती है .मनुष्य के गाल उसकी बदलती भाव भंगिमा की कलई खोलते हैं .जैसे चेहरा सफ़ेद पड़ना किसी के सहसा भयग्रस्त होने की पुष्टि करता है -आदि आदि ।
पर एक पौरुष आवरण ऐसा है जो नर के गालों को नारी से बिल्कुल एक अलग पहचान देता है .
जी हाँ ,गालों और दाढी का आपसी गहरा रिश्ता है -गालों के विस्तीर्ण उपजाऊ मैदान पर ही दाढी की फसल लहलहाती है .यह दाढी ही पुरूष को नारी से अलग एक जबरदस्त प्रत्यक्ष लैंगिक पहचान देती है .किसी औसत आदमी की दाढी दो वर्षों में करीब १ फुट लम्बी हो जाती है .५-६ वर्षों में तो यह काफी भरी पूरी और नीचे तक लटकने वाली हो जाती है .किसी भी दीगर नर वानर कुल के सदस्य की दाढी इतनी भव्यता लिए नही होती .किशोरावस्था का आगमन हुआ नहीं कि पहली मूंछ रेख दिखाई दे जाती है .यह नर हारमोनों की सक्रियता के चलते होता है .वैसे तो एक क्षीड़ सी रोएँ वाली रेखा(peach -fuzz) तो नवयौवना नारियों में भी दूर से तो नही ,काफी करीब जाने पर दिखती है पर , औसत नारी चहरे पर बालों का प्रदर्शन बस इसके आगे रूक जाता है .मगर इसके ठीक उलट किशोरों में यह रोयेंदार मूछ बालों की एक बड़ी फसल का आहट दे देती है .धीरे धीरे यह बाल ,किशोरों के गाल ,ठुड्डी ,पूरे जबड़ों और गले के ऊपरी हिस्सों को भी अपने घेरे में ले लेते हैं .बालों की इस फसल की रोजमर्रा की वृद्धि करीब एक इंच के ६० वें हिस्से के बराबर होती है .मतलब यह कि यदि इनसे कोई छेड़ छाड़ न करे तो ये बाल इसके गर्वीले स्वामी को १ फ़ुट लम्बी लाबी दाढे का तोहफा दो वर्षों में दे डालेंगे .
दाढी का जैवीय महात्म्य क्या है ? पहले तो कुछ जानकारों ने कहा कि यह एक कुदरती स्कार्फ है जो नाजुक गले को शीत गरम से बचाता है .जब हमारे आदि पूरवज गुफाओं से बाहर निकल प्रकृति की शीत और ऊष्मा को झेलते थे यह दाढी ही उनकी रक्षा करती थी -इसलिए ही पुरूषों की दाढी है और इसके विपरीत बाह्य वातावरण के आतप से सुरक्षित गुफा जीवन में रहने वाली नारियों में इसकी कोई जरूरत ही नहीं रही इसलिए कुदरत ने इन्हे इस सौगात से मुक्त रखा !मगर इस दावे को दूसरे जैवविदों और व्यवहार शास्त्रियों का समर्थन नही मिला -उनका प्रतिवाद था यदि कुदरत को गले को शीत गर्मीं से बचाने की इतनी ही फिक्र थी तो वह कोई और कारगर तथा स्थायी तरीका अपनाती -कोई स्थायी चर्म आवरण जैसा कुछ ! साथ ही उन्होंने एस्किमों जातियों का उदाहरण भी दिया जिनमें दाढी के बाल बहुत छोटे होते है जबकि उनका पाला एक अति आक्रामक वातावरण पड़ता है -तो फिर प्रकृति ने मनु पुत्रों को दाढी की सौगात क्यों बख्शी ?
जानेंगे अगले अंक में !