Thursday 29 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण - छाती पर मूंग दलने की बारी !

भी मौजूद हैं छाती पर बाल !
वज्र की छाती ,छाती पर मूंग दलना ,छाती का गज भर फूल जाना कुछ ऐसे मुहावरे हैं जो प्रायः पुरुषों के ही संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं .दरअसल शिकारी जीवन की लम्बी वैकासिक प्रक्रिया के दौरान पुरुषों की छाती /सीना चौडा होता गया जिससे फेफडों को अधिक आक्सीजन मिल सके और शिकार के पीछे भागते समय धौकनी की तरह सक्रिय सीने से आक्सीजन की लगातार समुचित मात्रा तो मिले ही लंबे समय तक स्टेमिना भी कायम रहे ! आज भी पुरूष अपनी उसी विरासत को ढोते हुए गर्व से सीना फुलाए फिरता है .जबकि आज वह शिकारी नही रह गया है ।
आज भी कई लोगों के सीने पर बालों की अच्छी खासी फसल यही इंगित करती है कि शिकारी जीवन के दौरान इन्ही बालों से ऊष्मा के तीव्र ह्रास से कलेजे को भाग दौड़ के समय भी ठंडक पहुँचती रहती थी ! मगर अब शिकारी जीवन तो रहा नहीं और न ही उस तरह का लगातार परिश्रम इसलिए छाती से बालों की फसल भी अब तेजी से खात्में पर आ रही है .मनुष्य की चौड़ी छाती उसके पौरुष और शौर्य का प्रतीक है .वह सुरक्षा, संरक्षा और आराम का आश्वासन भी देती है -ब्लॉग जगत की एक समादृत कवयित्री के शब्दों में '' मेरा तो मन करता है कि पुरूष सीने पर सर रख कर कुछ वैसे ही पुरसकूँ और निश्चिंत सी हो जाऊं जैसे एक गौरिया अपने घोसलें में दुबक कर सुरक्षित हो जाती है
अब छाती जब दिल को कवर करती है तो मामला रोमांटिक होना लाजिमी ही है -कई स्नेह सम्बन्धों का सेतु छाती बनती ही है -अब आप ही बताईये आप नन्हे से प्यारे शिशु को गोंद मे लेते हैं तो वह छाती के किस ओर रहता है -बाईं ओरही न ! पूरी दुनिया में बच्चों को बाईं ओर गोंद में लेने (कोरां उठाने ) का ही चलन है -दायीं ओर बस अपवाद तौर पर ही बच्चों को गोंद में उठाया जाता है .ऐसा नही है कि बच्चों को बायीं ओर गोंद में लेने के लिए किसी को सिखाया जाता हो -ऐसा अवचेतन में ही है ! बायीं ओर दिल हैं न ,इसलिए बच्चा बाई ओर के सीने से जा लगता है जहाँ उसे सकून मिलता है और हम भी ऐसा अवचेतन में ही करते हैं -मैंने बच्चों को दाहिनी ओर लेने की चैतन्य आदत डाली और देखा दाहिनी ओर भी बच्चे को लेना आसान है पर बच्चों को उन्हें दाहिनी ओर गोंद में लेने पर कैसा लगता है यह नही जाना जा सका है क्योंकि छोटे बच्चों से बड़ों जैसा सवाल जवाब सम्भव नही है ।

छाती /सीना पीटने का रिवाज भी कुछ संसकृतियों में शौर्य का प्रदर्शन या गम का इजहार है .छाती पर क्रास बनाना ,दाहिने हाथ का बायीं ओर की छाती पर टिकाना ये सभी शान्ति और सौहार्द के संकेत हैं .

Wednesday 28 January 2009

धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? (डार्विन द्विशती )

आकर चार लाख चौरासी ?
कभी आपके मन में यह सवाल कौंधा है कि इस धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? यह सवाल हमारे पूर्वजों के मन को भी मथता रहा है । बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में इसे यूँ कूता -

आकर चार लाख चौरासी ,जाति जीव जल थल नभ वासी -मतलब चौरासी लाख जीव जंतु जमीन ,वायु और पानी में निवास करते हैं ! इस मामले में वैज्ञानिक किसी निश्चित संख्या तक नही पहुँच पाए हैं बल्कि ये मानते हैं कि इस ग्रह पर जीव जन्तुओं की संख्या पाँच लाख से १० करोड़ तक कुछ भी हो सकती है मगर अभी तक पहचाने गए जीवों की संख्या १५ लाख नवासी हजार तीन सौ इकसठ है -मतलब अभी तक तुलसी दास द्वारा आकलित संख्या तक जीवों की पहचान नही हो पायी है नित नए जीव खोजे जा रहे हैं .

जो जीव अभी तक पहचाने गए हैं उनमें अकेले कीट पतंगों की ही प्रजाति संख्या ९ लाख पचास हजार है .५ हजार चार सौ सोलह स्तनधारी हैं , 9,956 चिडियां हैं , 8,240 रेंगने वाले जीव यानि सरीसृप हैं , 6,१९९ मेढक सरीखे जल और थल दोनों जगह रहने वाले जीव हैं .ये तो रहे रीढ़ वाले प्राणि .अब बिना रीढ़ वाली प्रजातियाँ जो जानी जा सकी हैं 1,203,375 हैं ! 297,326 पेड़ पौधों की प्रजातियाँ हैं - कुछ अन्य जातियों में लायिकेन दस हजार ,मशरूम सोलह हजार .और भूरे शैवाल दो हजार आठ सौ उनचास है .कुल 1,589,361 !

अब हम फिर अपने पुराने सवाल पर लौटते हैं क्या इन सभी प्रकार के जीवों को ब्रह्मा या अल्लाह मियाँ या गाड ने फुरसत से अलग अलग गढा है ? जैसे कुम्भार अपनी चाक पर मिट्टी के तरह तरह खिलौने और बर्तन बनाता है ? एक वैज्ञानिक हुए हैं कैरोलस लीनियस (१७०७-१७७८) उन्होंने जीवों की इस अपार विविधता को समझने बूझने में बड़ा मन लगाया और उनकी पहचान की एक द्विनामी पद्धति लागू की जो आज भी प्रचलन में है .अब जैसे उसी द्विनामी पद्धति में मनुष्य यानी हम सब का दुहरा नाम है -होमो सैपिएंस जिसमें होमो शब्द हमारे बृहद गण को बताता है जिसमें केवल हमारी ही प्रजाति अब धरती पर है शेष की हालत है कि रहा न कुल कोऊ रोवन हारा -होमो इरेक्टस ,होमो हैबिलिस आदि जातियाँ कब की काल के गल में समां चुंकी ! होमो नियेनडरथेलेंसिस काफी करीबी रिश्ते में था पर वह भी धरा से मिट गया -हमारे आगे वह भी टिक नही पाया ! आज होमो गण की अकेली सैपिएंस प्रजाति यानि हम सब समूची धरा पर अकेले काबिज है ! पर कब तक ??
तो क्या हमारी प्रजाति और दीगर जीव जंतुओं में कोई संबध भी है या अलाह मियाँ ने मनुष्य और दीगर जीवों को अलग अलग बनाया है ? ऐरिस्टाटिल (३८४-३२२ ईसा पूर्व ) कुछ कुछ अवतारवाद की ही तर्ज पर माना कि जीव रूपाकार बदल कर दूसरे तरह तरह के जीवों में बदलते जाते हैं .उन्होंने यह माना कि पदार्थ जीवों में बदलते हैं जिसे अंडे के भीतर के पदार्थ का मुर्गे /मुर्गी में रूपांतरण हो जाता है ! मगर फिर यह सवाल आया कि पहले कौन पैदा हुआ मुर्गी या अंडा ? यह सवाल अभी भी हंसी मजाक में लोग बाग़ पूंछते हैं मगर जवाब देने वाला गंभीर हो जाता है ।
इस कड़ी की अगली पोस्ट तक आप भी इस मुद्दे पर थोडा विचार कर लें कि पहले अंडा आया या मुर्गी ? अगर अंडा तो वह कहाँ से आया ? और अगर मुर्गी तो वह बिना अंडे से कहां से धमक पडी ?











Monday 26 January 2009

आख़िर ये दुनिया किसने बनाई ? (डार्विन द्विशती श्रृंखला )

ये है पशु और मनुष्य का मिश्रित रूप -अवतार नृसिंह
इतने ढेर सारे जीव जंतु -पशु पक्षी ,पेड़ पौधे ,कीडे मकोडे आखिर किसने बनाया इनको ? और कब बनाया ? सृष्टि कैसे और कब वजूद में आयी ? आज भले ही नब्बे फीसदी लोग इन सवालों पर सोच विचार न करते हों मगर हमारे पुरखों ने इन पर खूब विचार मंथन किया था .हिन्दू पुराण कहते हैं कि क्षीर सागर में सोये विष्णु की नाभि से एक कमल नाल उगी और जिसमें कमल के खिलने के साथ ब्रह्मा भी उसी से पैदा हो गये -फिर जीव जंतुओं से लेकर आदमीं तक सारी सृष्टि उन्होंने रच डाली ! उनकी स्पर्धा में आगे विश्वामित्र भी आए और कुछ चीजें जैसे नारियल ,ऊँट आदि उन्होंने बनाया ! जब एक बार महा प्रलय आयी तो विष्णु ने ही मछली का अवतार लेकर एक नौका में मनु और सतरूपा की देखरेख में सृष्टि को सर्वनाश से बचाया .यह प्रलय की कथा का दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों में में जिक्र है -बाईबल में इसे आर्क आव नोवा कहते हैं ,कुरान में हजरत नूह की कश्ती ! साथ ही बाईबिल में ईश्वर के हीद्वारा इडेन के बगीचे में आदम और हौवा के सृजन की विस्तार सेचर्चा ही जिन्होंने वर्जित फल खा कर आगे की आबादी को अंजाम दिया ,
क्या पुरानों और धर्मों की इन मान्यताओं को आप सच मानते हैं ? या आपके मन में जीव जंतुओं के अस्तित्व और उनकी विविधता को लेकर कोई और ख्याल आता है ? क्या सच में इन्हे ईश्वर ने ही बनाया ?? हिन्दू दर्शन जीवों के उत्तरोत्तर विकसित होने की एक अवधारणा जिसे हम अवतारवाद जह सकते हैं ,रखता है -पहले मछली ,फिर कच्छप ,फिर घोडे सदृश प्राणी ,फिर वाराह ,फिर पशु और फिर मनुष्य के बीच का नरसिंह अवतार और फिर पूर्ण विकसित मनुष्य , भगवान राम ,कृष्ण और संभावित कल्कि आदि ! तो धरती पर जीवजंतुओं के आगमन और उनके विकास की एक झलक हिन्दू मिथकों में तो मिलती है .मगर सच क्या है ?
क्या सचमुच किसी ईश्वरीय शक्ति ने ही जीवों को सृजित किया है ? आप क्या सोचते हैं ? यह पूरा वर्ष अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन की द्विशती मना रहा है -उनका जन्म १२ फरवरी १८०९ को श्रूस्बेरी इंग्लैंड में हुआ था .इन महाशय ने तो जीव जंतुओं के वजूद को लेकर पहले के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि जीव जंतुओं की इतनी विविधता महज इसलिए है कि उनका विकास हुआ है और मछली से मनुष्य तक बनने में करोडो वर्ष लगे हैं .सभी जीव जंतु पृथक पृथक नही सृजित हुए हैं बल्कि उनमें गहरा सम्बन्ध है !
चिंतन के इतिहास में इस विचार से मानों जलजला आ गया ! चर्च ने तो डार्विन को गहरे फटकारा ! पर आज सुनते हैं दो सौ सालो बाद चर्च ने डार्विन से सरेआम माफी मांग ली है और स्वीकार कर लिया है कि तब के पादरियों से डार्विन को समझने में भूल हो गयी थी !

"The statement will read: Charles Darwin: 200 years from your birth, the Church of England owes you an apology for misunderstanding you and, by getting our first reaction wrong, encouraging others to misunderstand you still. We try to practise the old virtues of 'faith seeking understanding' and hope that makes some amends."
-Rev Dr Malcolm Brown, the Church's director of mission and public affairs,The Church of England .
चलो देर आयद दुरुस्त आयद !पर हिन्दू आज इस मसले पर क्या सोचता है ? क्या सृष्टि को सचमुच ईश्वर ने नही बनाया ? इस्लाम के अनुयायी क्या सोचते हैं ?

Wednesday 21 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -एक उंगली उठी !

थम्ब्स अप ! मगर क्या समझे ? (स्रोत विकीपीडिया )
आप भले ही निन्यानवे काम ठीक करें मगर अनजाने में भी एक भी ग़लत काम हो गया तो लोगों की उंगलियाँ उठने लगती हैं ! किसी की भी दसों उंगलियां हमेशा घी में नही रहतीं और घी भी कोई सीधी उंगली से थोड़े ही निकलता है !यह सही है कि किसी की भी पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होतीं मगर भारत की तो बात ही मत कीजिये यहाँ लोकतंत्र का ऐसा जलवा है कि एक अंगूठा छाप भी हमारा राष्ट्रपति बन सकता है .ये बातें आपको किसी सीनोफ्रेजिक का असम्बद्ध प्रलाप लग सकती है मगर इनमें एक बात जों समान है वह उँगलियों का महात्म्य है .
हमारी पाँचों उंगलियाँ भले ही परिमाप में बराबर नहीं हैं लेकिन कई मामलों में कोई भी किसी से कम नहीं बल्कि बढ़ चढ़ है ! मगर मजे की बात यह है कि इन उँगलियों के नाम तक भी ठीक ठीक लोगों को पता नही रहता ! आप ही बताईये क्या आप जानते हैं कि आपकी अनामिका उंगली कौन है ? और इसे अनामिका क्यों कहा जाता है ? इसी तरह क्या फोरफिंगर ,इंडेक्स फिंगर और तर्जनी उंगली एक ही हैं या अलग अलग ! जरा अपनी वह उंगली आगे कीजिये जिसमें इलेक्शन की स्याही लगती है -यह कौन सी उंगली है ? क्या नाम है इसका !
चलिए एक अन्गुलि -परिचय सेशन हो जाय .
पहले अंगूंठा ,भला इससे कौन अपरिचित होगा ! जमीन जायदाद के अनेक दस्तावेजों पर यही तो अपनी अन्तिम मुहर लगाता है ! यूनान मे यह प्रेम की देवी वीनस को समर्पित है ,इस्लाम में मुहम्मद को ! मगर इशारों की भाषा में यह फैलिक बोले तो लैंगिक इशारे से अपमान के बोध का भी बायस बनता है .एक लिफ्ट मांगने वाले का अंगूठा ही उठता है और सबकुछ ठीक ठाक है -ओ के का सिग्नल भी अंगूठा ही देता है .लेकिन कई पारंपरिक युद्धों -मल्ल युद्धों में झटके से अंगूठे को नीचे गिराने का आशय था कि प्रतिपक्षी को मार दिया जाय ! जबकि अंगूठे को झटके से ऊपर उठाने का मतलब अभयदान से था जों आगे चल कर थम्ब्स अप या ओके सिग्नल में तब्दील होता गया ! लेकिन कई देशों में अंगूठे को ऊपर उठा कर ओके का इशारा /लिफ्ट लेने का इशारा अश्लील अर्थों में ले लिया जाता है -तो अगर आप सीरिया, सउदी अरब और ऑस्ट्रेलिया, ग्रीस ,सार्देनियाँ आदि देशों में पर्यटक बन के जा रहे हैं तो किसी से लिफ्ट लेने के लिए अंगूठा मत उठायें मार पड़ सकती है -वहाँ उठे अंगूठे को देखते ही अश्लील भाव का संचार होता है कि आ मेरे इस अंगूठे पर बैठ जा !
तर्जनी -तर्जनी के अनेक नाम है -यही फोरफिंगर है ,इंडेक्स फिंगर है .बारीक कामों में अंगूठे की हमजोली है .ट्रिगर यही दबाती है ,दिशा दर्शक है .फोन के डायल पर यही थिरकती है ,लिफ्ट की बटन यही दबाती है .कथोलिक लोग इसे होली घोस्ट का दर्जा देते हैं ,इस्लाम में लेडी फातिमा से सम्बन्धित है .हाथ देखने वाले इसे बृहस्पति से जोड़ते हैं .कही कहीं इससे अश्लील इशारों का काम लिया जाता है .इसे बिल्कुल ऊपर उठा कर रखा जाय तो यह ब्रह्म एक है का बोध कराता है -कालिदास -विद्योतमा शास्त्रार्थ में इस उंगली का महात्म्य जग जाहिर है ।लघु शंका इच्छा /अनुमति की भी यही संकेतक है !
अब बारी है मध्यमा की -हाथ की उँगलियों में सबसे बड़ी उंगली है मगर कुछ देशों में इसे आगे कर अगल बगल की दोनों उँगलियों को पीछे मोडे रहकर अश्लील लैंगिक इशारा किया जाता है ! कैथोलिक इसे ईशा मसीह से जोड़ कर देखते हैं तो इस्लाम में फातिमा के खाविंद को समर्पित है .
शादी व्याह के रस्म से जुडी अंगुली है अनामिका यानी रिंग फिंगर जिसमें मंगनी /व्याह की अंगूठी पहनी /पहनाई जाती है .ऐसी मान्यता रही है की इससे निकलने वाली एक शिरा/नर्व ह्रदय तक पहुँचती है हालाँकि इसकी वैज्ञानिक पुष्टि नहीं है .हस्तरेखाविद इसे सूर्य से या सूर्यपुत्र से जोड़ कर देखते है ,इस्लाम हसन से और ईसाई इसे आमेन फिंगर -आशीर्वाद अंगुली मानते हैं .मगर इसका अनामिका नामकरण क्यों ? कहते है विद्वानों में एक बार गणना होने लगी की सबसे बड़ा कवि कौन -तो कनिष्ठा उंगली से गणना शुरू होने पर पहले ही कालिदास का नाम आ गया पर फिर उसके बाद विद्वानों को यह लगा की ठीक कालिदास के बाद की भी जगह कोई ले नही सकता इसलिए दूसरी अंगुली अनामिका हो गयी !
अन्तिम उंगली कनिष्ठा है जो मन से सम्बन्धित है विनम्रता से सम्बन्धित है .अब जो उंगली कालिदास से जुड़ गयी है उसका सम्बन्ध मन और विनम्रता से क्यों न हो -आख़िर उच्च्च विद्वता विनम्रता ला ही देती है .
यह तो रही संक्षेप में उँगलियों की पृथक पृथक दास्तान ! सब मिलकर कई संकेत इशारों को जन्मदेती हैं -विजय की मुद्रा में उंगलियाँ अंगरेजी का अक्षर वी बनाती हैं तो एकसाथ मिलकर मुक्का बन जाती है .पर सावधान कई पश्चिमी देशों में वी बनाईये तो ध्यान रहे हथेली आगे की ओर हो नहीं तो हथेली अपनी और करके कहीं आपने वी बनाया तो समझिये खैर नही -यह अश्लील संकेत है !

Sunday 18 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण : कैसे कैसी हस्तरेखाएँ !

शौक से कीजिये हस्त दर्शन
हथेलियों की आड़ी तिरछी रेखाओं ने सीधे साधे लोगों को खूब छकाया है और सदैव भाग्य वाचकों के रहमों करम पर छोडा है -मगर आज का विज्ञ संसार यह भली भाति जानता है की हाथों की रेखाओं और मनुष्य के भाग्य के बीच कोई सम्बन्ध नही है -और भाग्य जैसी कोई चीज होती भी है इसे लेकर विद्वानों में बड़ा मतभेद है .दरअसल मनुष्य का जीवन कई संयोगों ,मौकों को हासिल करने और गवाने का समग्र प्रतिफल होता है उसे हाथ की रेखाओं के सहारे समझना मूढ़ता ही है !इसलिए महज मनोविनोद के लिए तो हस्त रेखाओं का खेल खेला जा सकता है लेकिन इसे गंभीरता से लेने के अपने कई खतरे हैं -हाँ आनुवान्शिकीविदों ने कुछ तरह की बीमारियों में ख़ास हस्त रेखा पैटर्नों की जांच पड़ताल शुरू की है पर अभी कुछ भी अन्तिम रूप से तय नही हो सका है ।

मगर हस्तरेखा विशारदों ने एक फायदे का काम जरूर किया है .उन्होंने हस्तरेखाओं का इतना रोचक नामकरण किया है कि इनके नाम याद करना बेहद आसान हो गया ! कोई भी बस ज़रा सी स्मरण शक्ति के इस्तेमाल और ध्यान देने से छोटा मोटा हस्त ज्योतिषी बन सकता है .मनुष्य की हथेली / गदोरी (palm ) में मूलतः चार रेखाएं ही होती हैं -दायें बाएं दो आड़ी रेखाएं -एक तो ऊपर वाली ह्रदय रेखा और दूसरी नीचे वाली मस्तक /मस्तिष्क रेखा ! इसी तरह एक जोड़ी -यानि दो रेखाएं अन्गूंठे के नीचे से बेडे निकलती हैं .अन्गूंठे के पास वाली जीवन रेखा कहलाती है और बिल्कुल मध्य में ऊपर की ओर जाने वाली रेखा भाग्य रेखा कहलाती है .एक क्षीण सी स्वास्थ्य रेखा भी इसी के बगल बायीं ओर हो सकती है .वनमानुषों /दीगर कपि प्रजातियों में मस्तक रेखा और ह्रदय रेखाओं का अलग वजूद नही होता बल्कि केवल एक रेखा ही मिलती है -मजे की बात यह कि कुछ लोगों में भी वनमानुषों की ही तरह महज एक ही रेखा -सायिमियेन क्रीज होती है -इसका मतलब यह नही कि वे आज भी वनमानुषों के सरीखे हैं .

अंगूंठे की बारीक लाईने या अँगुलियों की बारीक लाईने जिन्हें नंगी आखों से बहुत साफ़ देखने में दिक्कत होती है टेंशन लाईन कहलाती हैं -क्योंकि इनसे ही तनाव के समय स्वेद ग्रन्थियों से निकलते हुए पसीने से हथेली भींग सी जाती है .पसीना इन बारीक उभारों को और भी फुला सा देता है जिससे हाथ में पकड़े हुए वस्तुओं की पकड़ और मजबूत हो जाती है -ऐसे व्यवहार का उदगम हमारे आदि पुरखों से है जिन्हें प्रायः तनाव की स्थितियों का सामना करना पड़ता था और हाथ के शस्त्र और आयुधों पर मजबूत पकड़ उनके लिए जीवन और म्रत्यु का प्रश्न बन जाता है ।
अंगुलिछाप यानि फिंगर प्रिंट आज भी पहचान का एक भरोसेमंद तरीका है जबकि अब तो डी एन ए फिंगर प्रिटिंग का ज़माना है -मगर फिंगर प्रिंट भी स्थाई होते है उन्हें अगर कांट छांट दिया जाय तब भी फिर से जम जाते हैं बिल्कुल पहली वाले ही पैटर्न पर -इसलिए फिंगर प्रिंटों को बदलना शातिर से शातिर अपराधी के लिए भी सम्भव नही है ! फिगर प्रिंटों में मुख्यतः तीन तरह का पैटर्न होता है .ज़रा अपने उँगलियों के पोरों को ध्यान से तो देखिये -धनुषाकार ,घेरा नुमा (लूप ) और भंवर्नुमा (whorl ) .ज्यादातर लोग मेरे जैसे घेरानुमा अन्गुलिछापों के वाहक होते हैं और यह शोधों से प्रमाणित है कि उनमें स्पर्शीय संवेदन शीलता दूसरे अन्गुलिछापों वाले लोगों से ज्यादा होती है ।

हथेलियों में से पसीने का निकलना एक ऐसी घटना है जो हमारे तनाव के स्तर को इंगित करती है ! रात में सोते समय हमारी हथेलियाँ सूखी रहती हैं .यानि आप तनाव मुक्त होते हैं -हथेलियों से पसीना निकलने ,उनके लगातार गीला बने रहने का मतलब है आप तनाव में हैं .ज्यादा तनाव की स्थितिओं में ये पसीने से तर बतर हो जाती हैं ।मुम्बई में आतंकवादी घटना के समय औरकुछ दिन उपरांत तक भी समूहों तक में समूचे देश में लोगों की हथेलियाँ पसीना पसीना होती पायी गईं थीं ! मैंने ख़ुद पड़ताल की थी ! अब हमारी हथेलियाँ तेजी से सूखती जा रही हैं तो क्या माना जाय कि अब युद्ध की कोई आशंका नही रह गयी है ?

Wednesday 14 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण : कभी न थकने वाले मेहनतकश हाथ !

मनुष्य के शरीर के सबसे व्यस्त ,मेहनतकश अंग हाथ हैं -मगर क्या कभी आपने किसी से भी अपने हाथों को थकने की शिकायत सुनी है ?जबकि पैरों के थकने के गिले शिकवे अक्सर सुनने को मिलते रहते हैं .अब देखिये न हाथों और उँगलियों की व्यस्तता के बाबत लिखते हुए मेरे हाथों की उंगलियाँ की बोर्ड पर थिरक कर अपनी व्यस्तता ख़ुद बयाँ कर रही हैं .एक आकलन के मुताबिक किसी भी सामान्य उम्र वाले आदमी की उंगलियाँ उसके जीवन काल में कम से कम पचीस करोड़ बार मुड़ती सिकुड़ती हैं !

बचपन से ही सक्रिय हो उठते हैं मानव शिशु के हाथ (चित्र सौजन्य -करेंट डाट काम )






हमारी जैवीय विरासत ने पुरुषों की मुट्ठियों की पकड़ को ज्यादा ताकतवर (पावर ग्रिप ) बनाया है .क्योंकि उन्हें शिकार आदि में शस्त्रों के संधान में मजबूत मुट्ठी की पकड़ की निरंतर जरूरत थी ! आज भी ऐसे कई कामों में जिनमें मुट्ठी की मजबूत पकड़ की जरूरत रहती है पुरुषों का दबदबा कायम है जैसे बढ़ईगीरी आदि के काम ! यह तो रही पावरग्रिप की बात ,इसके अलावा एक और हुनर जिसमें मनुष्य को समूचे पशु जगत में महारत हासिल है वह है -

प्रीसीसन ग्रिप -उँगलियों की बारीक महीन पकड़ ! पावर ग्रिप में तो समूचे अंगूठे और समूची पूरी उँगलियों का रोल होता है जो विपरीत दबाव डाल कर फौलादी पकड़ को अंजाम देती हैं मगर प्रीसीसन ग्रिप में बारीक नाजुक काम अंगूठे और उँगलियों के पोरों के योगदान से सम्भव होता है जिसमें नारियों को महारत हासिल है .आज भी सिलाई ,कढाई ,बुनाई और सजावटी-नक्काशी के महीन कामों का जो हुनर नारी हाथों का है उसकी बराबरी आम तौर पर पुरूष नही कर पाते !

कहते हैं कि कुम्हारों के चाक के वजूद में आने के पहले मिट्टी और सिरामिक के बर्तनों पर नक्काशी का सारा काम नारी के ही जिम्मे था -प्राचीन प्रस्तर काल में मिटी के बर्तनों -मृद्भांडों(पाटरी ) पर रंग रोशन और चित्रकारी ही प्रमुख कला कौशल था -सर्जनात्मक कलात्मकता बस इन्ही कामों में झलकती थी और ये काम मुख्य रूप से नारियों के ही हाथ में थे तो यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की लम्बी विकास यात्रा में कलात्मकता का सूत्रपात नारी के ही करकमलों से ही हुआ ! यह एक ऐसा पहलू है जिसे प्रायः इतिहासकार और पुरातत्वविद भी अनदेखा करते जाते हैं -पर पुरूष पर्यवेक्षण में यह पहलू एक महत्वपूर्ण लैंगिक विभेद के रूप में उभरता है !
तो इस तरह यह तय पाया गया है कि पाषाण युग से ही नर नारी के संदर्भ में एक "हैण्ड बायस " बना रहा है -जिसमें ताकत (पावर ग्रिप ) तो पुरुषों की मुट्ठी में आ समाई है तो उँगलियों के महीन काम की सौगात कुदरत ने नारी को सौपी है !

तो फिर भला बताईये परस्पर पंजा लडाने के खेल में नर नारी में से कौन जीतेगा ? ( जारी ....)

Thursday 8 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -कांख का कमाल,सुगंध का धमाल !

काँखों के कुदरती सुगंध के कारखाने के बावजूद क्रत्रिम सुगंध का फलता फूलता व्यवसाय
व्यवहार विदों के सामने मुश्किल सवाल था कि जब कुदरती तौर पर मनुष्य के पास ख़ुद मोहक गंध का खजाना उसकी कांख - बगलों(आर्म पिट्स )मे ही छुपा है तो फिर तेल फुलेल , इत्र पाऊडर का इतना बड़ा वैश्विक व्यापार कैसे वजूद में आता गया .और यह भी कि मनुष्य फिर क्यों क्यों इस कुदरती सगन्ध स्रोत को प्रायः नेस्तनाबूद करने के उपक्रमों में लगा रहता है -मसलन बगलों की नियमित साफसफाई ,धुलाई, बाहरी गंध छिड़काई और देह -शुचिता पसंद महिलाओं द्वारा लोमनाशन (डेपिलेशन ) तक भी ! दरसल इसका उत्तर मनुष्य के पहनने ओढ़ने की आदतों में छुपा है .
विडम्बना यह है कि सभ्य मनुष्य का शरीर लक दक कपडों से ढंका छुपा रहता है जिससे हमारी त्वचा लाखों करोड़ों दुर्गन्ध उत्पादी जीवाणुओं की प्रजनन स्थली बनी रहती हैं जिसके चलते हमारी जैवीय मोहक गंध भी तीव्र से तीव्रतर होती बदबूदार गंध में तब्दील हो जाती है .यही कारण है कि बगलों की सफाई और उसे सुगन्धित रखने या उसके दुर्गंधनाशन के साजोसामान का व्यवसाय धड़ल्ले से चल रहा है .व्यवहार शास्त्री कहते हैं कि यह साफ सफाई जिन लोगों में एक कम्पल्सिव आब्सेसन की सीमा तक जा पहुँचता है वह अपने कुदरती गंध स्रोतों को मिटा कर ख़ुद अनजाने में अपना ही अहित कर रहे होते हैं -डेज्मांड मोरिस कीसिफारिश तो यह है कि साबुन भी रोजाना न लगाकर दो तीन दिन के अन्तराल से लगाया जाय तो कुदरती गंध फेरोमोन के माकूल असर को बिना उसके दुर्गन्ध में बदले बरकरार रखा जा सकता है .प्रेमी जन इस नुस्खे पर अमल कर सकते हैं ( भक्त जन कृपया दूर दूर रहें , रोज रोज नहायें और हो सके तो डीओदेरेंट और यूं डी कोलोन से नहायें -उन्हें अश्थि चर्म मय देह का मोह तो रहा नहीं ?)
शोधों से पता चलता है कि नर और नारी के फेरोमोन भी लैंगिक विभिन्नता लिए होते हैं और विपरीत लिंग को सहज ही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में आकर्षित करते रहते हैं .यह अवचेतन में काम करती रहती है और आप अनजाने ही किसी के वशीभूत होते रहते हैं .बिना मूल कारण जाने ! मगर एक मार्के की बात या मुसीबत यह है कि पूरबियों (ओरिएनटलस् ) में ये गंध ग्रंथियां बगलों में कमतर होती गयी हैं ज्यादातर कोरियाई लोगों में तो ये एक तरह से नदारद ही हैं .जापानियों में भी ये काफी कम हैं -भारतीयों में ? अफ़सोस कोई शोध सूचना नहीं !! पर पूरबियों में इनकी कमीं के जैवीय निहितार्थ क्या हैं कहना मुश्किल है !
और अंत में कांख (बगल ) की एक और महत्ता को बताने के लिए आपको उस पुराकथा की याद दिला दें जब अंगद रावण संवाद में अंगद रावण से यही पूंछता है ना कि क्या तुम वही रावण तो नही जिसे मेरे पिता श्री बालि अपनी कांख में छः माह दबोचे रहे ?

Monday 5 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -बलिष्ठ बाहें और बला की बगलें !

बला की बगल या बगल की बला ?
सौजन्य -विकीमेडिया
.......तो पर्यवेक्षण चर्चा बलिष्ठ बाँहों की चल रही थी जो आज भी थोडा आगे बढेगी और बला की बगलों (काँखों -आर्मपिट ) तक जा पहुंचेगी .अपने देखा की किस तरह विकास के दौरान पुरूष की बाहें नारी की तुलना में अधिक बलिष्ठ और शक्तिशाली होती गयीं जो उनमें कार्य विभाजनों का परिणाम थीं .पुरूष शिकार गतिविधियों में लगा रहता था जहाँ अस्त्र शस्त्र संधान के चलते उसकी बाहें उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गईं .आज भी पुरूष द्वारा भाला फ़ेंक प्रतिस्पर्धाओं का उच्चतम आंकडा ३१८ फीट तक जा पहुंचा है जबकि नारी प्रतिस्पर्धकों का उच्चतम रिकार्ड २३८ फीट रहा है .अन्य खेल स्पर्धाओं जिसमें हाथ की भूमिका गौण है परफार्मेंस का यह अन्तर जहाँ महज दस फीसदी ही है भाला फ़ेंक प्रतियोगिताओं में यह फासला ३३ प्रतिशत का है ।
इसी तरह नारी पुरूष की बाहों में एक अन्तर कुहनी का है -कुहनी के जोड़ से नारी अपनी बाहों को ज्यादा आगे पीछे कर सकती हैं जबकि पुरूष में यह लचीलापन नही है ।
बलिष्ठ बाँहों की चर्चा बिना बगलों के उल्लेख के अधूरी रहेंगी .आईये कुछ देखें समझें इन बला की बगलों को या फिर बगलों की बला को ! बगलें बोले तो कांख जो प्रायः अन्यान्य कारणों से शरीर का एक उपेक्षित किंतु प्रायः साफ़ सुथरी ,मच सेव्ड ,सुगंध उपचारित हिस्सा रही हैं इन्हे जीवशास्त्री अक्सिला(axilaa ) बोलते हैं जो एक अल्प रोयेंदार (hairy ) क्षेत्र हैं मगर जैवरासायनिक संदेश वहन में अग्रणी रोल है इनका .नए अध्ययनों में पाया गया है की नर नारी के सेक्स व्यवहार के कतिपय पहलुओं में इनकी बड़ी भूमिका है .
कहानी कुछ पुरानी है पर नतीजे नए हैं ।पहले कुछ पुरानी कहानी -हमारे आदि चौपाये पशु पूर्वजों के यौन संसर्गों में नर मादा की मुद्रा ऐसी थी कि उभय लिंगों की बगलें चेहरों से काफी दूर होती थीं -लेकिन विकास क्रम में आगे चल कर मनुष्य के दोपाया उर्ध्वाधर मुद्रा के अपनाते ही यौन संसर्ग भी पीछे के बजाय अमूमन आमने सामने से हो गया ,लिहाजा इन घनिष्ठ आत्मीय क्षणों में प्रणय रत जोडों के चेहरे भी आमने सामने हो गए .नतीजतन यौन रत संगियों की नाकों और उनके बगलों का फासला काफी कम हो गया उनमें निकटता आ गयी .अब विकास के दौरान मनुष्य -उभय पक्षों की बंगलों के रोएँ ऐसी ग्रंथियों से लैस होने लगीं जिनसे यौनोत्तेजक स्राव -गंध का निकलना शुरू हुआ जिन्हें अब फेरोमोंस ( सेक्सुअल अट्रेकटेंट ) के नाम से जाना जाता है .बगल के रोएँ से जुडी इन एपोक्रायिन ग्रंथियों से निकलने वाला स्राव स्वेद (पसीने ) स्रावों से अधिक तैलीय होता है .ये किशोरावस्था /तारुण्य /यौवनारंभ से ही स्रावित होने लगते हैं .बगल के रोएँ इनकी सुगंध को रोके -ट्रैप किए रहते हैं ।
अंग्रेजों और हमारे कुछ आदि कबीलाई संस्कृतियों में जोड़ा चुनने के लिए युवा जोडों के नृत्य अनुष्ठानों के आयोजन की परम्परा रही है .अंग्रेजों के एक ऐसी ही लोक नृत्य परम्परा में नवयुवक जिसे किसी ख़ास नवयौवना की चाह होती है के सामने नृत्य के दौरान ही सहसा अपने कांख में छुपाये गये रुमाल को लहराना होता है -प्रत्यक्षतः तो वह अपना श्रम दूर करने के लिए मुंह पर हवा देने का काम रूमाल से करता है पर निहितार्थ तो कुछ और होता है -प्रकारांतर से वह अपनी यौन गंध को ही नृत्य साथिन की ओर बिखेर रहा होता है और भावी संगी को फेरोमोन के घेरे में लेने को उद्यत होता है .यह एक पारम्परिक लोक नृत्य है मगर इसके दौरान वह वही काम अंजाम दे रहा होता है जिसमें आजके कई इतर फुलेल डिओडेरेंट उद्योग दिन रात् लगे हुए हैं और जो तरह तरह के अंडर आर्म डिओडेरेंट के उत्पादन में एक आदिम गंध को ही मुहैया कराने का दावा करते नहीं अघाते .हमारे यहाँ महाभारत के मूल में शांतनु और मत्स्य/योजन गंधा की कथा से कौन अपरिचित है ? (जारी )
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )

Thursday 1 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण :बलिष्ठ बाहों का जलवा !

मुश्क और इश्क छुपाये नही छुपता :चित्र सौजन्य फ्लिकर
मनुष्य की विकास यात्रा में उसकी चौपाये पशु विरासत से मुक्ति और केवल दो पैरों पर खडा हो जाना एक बड़ी घटना थी. इसे अगले दोनों पावों की हाथों के रूप में मिली स्वच्छन्दता के जश्न के रूप में भी देखा समझा जाता है .अब मनुष्य के हाथ आखेटों /शिकार के दौरान पूरा सहयोग करने को स्वतंत्र हो चुके थे . हाथों के जरिये हथियार फेंकना ,मजबूत पकड़ के साथ कही चढ़ जाना ,किसी विरोधी को मारना पीटना और थपडियाना और यहाँ तक कि उँगलियों से बारीक काम करना मनुष्य की दिनचर्या बनती गयी -अब चूंकि इनमें से ज्यादातर काम पुरूष के जिम्मे था अतः उसकी बाहें विकासयात्रा के दौरान उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गयीं .
हाथ में कंधे से नीचे के ऊपरी हिस्से में अकेली ह्यूमर हड्डी और कुहनी के जोड़ से नीचे की दुकेली हड्डियों -अल्ना और रेडियस ने मनुष्य की दिनचर्या की अनेक उलझनों को संभाल लिया -बताता चलूँ कि कनिष्ठा (कानी ) उंगली की सिधाई में हमारी अल्ना हड्डी होती है तो अंगूठे की सिधाई में रेडियस ! और जो बाँहों की मुश्कें उभरती हैं ..अरे क्या कहा आपने ?आप नहीं जानते मुश्कों को (याद कीजिये वह कहावत -इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते ) हाँ तो वही मुश्कें ह्यूमर हड्डी यानी बाहों के ऊपरी हिस्सों में ही तो उभरती हैं ।और ढेर सारी मांसपेशियां भी हैं जो बाहों को गति देती हैं और तरह तरह के कामों में सहायता करती हैं -ब्रैकियेलिस ,कोरैसो ब्रैकियेलिस ,ट्रायिसेप , फ्लेक्सर ,इक्सेंटर ,प्रोनैटर ,सुयीटर आदि मांसपेशियां हाथों की तरह तरह की गतिविधियों को अंजाम देती रहती हैं -हाथों को आगे पीछे करना ,कलाईयों को घुमाना ,हथेली ऊपर नीचे करना अदि आदि ...नियमित रियाज से बाहों की मुश्कों को काफी उभारा जा सकता है जैसा कि पुरूष सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में शरीक हो रहे मिस्टर बनारस से लेकर मिस्टर यूनिवर्स तक का यह प्रिय शगल है जो अपनी अपनी मुश्कें उभार कर अतिशय पौरुष का प्रदर्शन करते हैं .बली ,महाबली और खली बन जाते हैं .मगर कुछ सर्वेक्षणों से आश्चर्यजनक रूप से जो बात सामने आई है वह यह है कि ऐसे "खली " मर्दों की मर्दानगी ज्यादातर महिलाओं को फूटी आँख भी नही सुहाती -व्यवहार मनों- विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे पुरुषों की अपने देह यष्टि के प्रति अतिशय विमोह और आत्ममुग्धता के चलते नारियां अवचेतन रूप में उनसे विकर्षित होती जाती हैं .ऐसे आत्मरति इंसानों को अपनी अपनी सहचरी की कहां सुधि ? ऐसे आत्मविमोही नर नारीसौन्दर्य के प्रति सहज रुझान को भी त्याग ख़ुद के ही शरीर को आईने में देख देख आत्मरति की सीमा तक जा पहुँच आत्ममुग्ध होते रहते हैं -अब कोई रूपगर्विता इसे बर्दाश्त भी कैसे कर सकती है भला !-लिहाजा नारियां ऐसे मुश्क वालों से दूर दूर खिंचती जाती हैं .
यद्यपि पुरूष शरीर सौष्ठव की ये पराकाष्ठा नारी को हतोत्साहित करती है तथापि स्वस्थ और संतुलित रूपसे विकसित सुगठित बाहें एक तीव्र लैंगिक संकेत तो संप्रेषित करती ही हैं -कई जैविक लैंगिक विभेदों में बाहों की भी खास भूमिका है .पुरूष की उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती बाहों की तुलना में नारी की बाहें अमूमन छोटी ,कमजोर और पतली हैं -इसके पार्श्व में एक लंबे वैकासिक अतीत की भूमिका रही है जिसमें सामाजिक कार्य विभाजनों मेंपुरुषों के जिम्मे नित्य प्रति शिकार करने के दौरान अस्त्र शस्त्र संधान अदि सम्मिलित थे !
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )