Sunday 30 March 2008

रिपोर्ट :विज्ञान की जन समझ पर एक अन्तर्राष्ट्रीय पहल



विज्ञान की जन समझ पर एक अन्तर्राष्ट्रीय पहल [ सम्पूर्ण रिपोर्ट ]
{ इस आयोजन से लौटते ही मैंने एक अति लघु रिपोर्ट इस ब्लॉग पर दाल दी थी ...यह पूरी रिपोर्ट इस विषय पर कार्यरत अकादमिक व्यक्तियों ,संस्थाओं के लिए ही है -आम पाठक गण हाईलाटेड अंशों पर नजर फिरा कर मामला भांप सकते हैं .}

लन्दन की रायल सोसायटी ने `वैज्ञानिक समझ के अन्तर्राष्ट्रीय संकेतकों´ पर एक कार्यशिविर का आयोजन विगत् वर्ष (5-6 नवम्बर, 2007) किया था। इस बहुउद्देश्यीय आयोजन के अन्तर्गत वैश्विक जन समुदायों के विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान, विज्ञान की जनरूचि, आम आदमी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उनकी वैज्ञानिक साक्षरता आदि मुद्दों पर विषय विशेषज्ञों का व्यापक विचार विमर्श हुआ था। इसी अन्तर्राष्ट्रीय पहल की अगली कड़ी के रुप में ही विगत 7-8 मार्च, 2008 राष्ट्रीय विज्ञान, प्रौद्योगिक और विकास अध्ययन संस्थान नई दिल्ली (निस्टैड्स) के तत्वावधान में राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय विज्ञान ऑर प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एन0सी0एस0टी0सी0) नई दिल्ली के सहयोग से ``वैज्ञानिक संचेतना के परिमापन के राष्ट्रीय एवं वैश्विक प्रयास - एक अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समागम´ विषयक आयोजन विज्ञान संचारकों के लिए आकर्षण का सबब बना। यह आयोजन नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी, तीन मूर्ति भवन, सेमिनार हाल में सम्पन्न हुआ।
उद्घाटन समारोह में विषय का प्रवर्तन करते हुए इस आयोजन के संयोजक और विज्ञान की जन समझ पर कार्यरत प्रतिष्ठित वैज्ञानिक श्री गौहर रज़ा ने विषयगत अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला और विज्ञान की समझ के भारतीय परिप्रेक्ष्यों को भी इंगित किया। उन्होंने भारत सरीखे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश के लिए विज्ञान की जन समझ के मापने के नये संकेतकों की आवश्यकता पर भी बल दिया। राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के प्रमुख डॉ0 अनुज सिन्हा ने अपने विशिष्ट सम्बोधन में भारत में वैज्ञानिक जन जागरण के अब तक के उल्लेखनीय प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया और जन मानस में विज्ञान की समझ को बढ़ाने में विज्ञान जत्था, विज्ञान रेल आदि चर्चित अभियानों की भूमिका को खास तौर पर रेखांकित किया। निस्टैड्स प्रमुख डा0 पार्थ सारथी बनर्जी ने अपने संक्षिप्त सम्बोधन में भारत में विज्ञान की जन समझ के शोध सम्बन्धी पहलूऑ के सतत् प्रोत्साहन में निस्टैड्स के योगदानों की चर्चा करते हुए इस संस्थान में ऐसे अनुसंधान के लिए माकूल माहौल बनाये रखने के संकल्प को दुहराया।
उद्घाटन सत्र का विशेष आकर्षण था- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के निवर्तमान सचिव प्रोफेसर राममूर्ति द्वारा दिया गया मुख्य अभिभाषण। प्रोफेसर राममूर्ति ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू के ``वैज्ञानिक नजरिये´´ (साइंस टेम्पर) के प्रसार के समर्पित प्रयासों की चर्चा करते हुए कई उन विसंगतियों की भी चर्चा की जो भारत में विज्ञान की सहज जन समझ को विकसित करने में बाधाओं के रुप में चिह्नित होते आये हैं।
प्रोफेसर राममूर्ति ने कहा कि यहाँ की अनेक बोली भाषाओं ऑर अलग-अलग सांस्कृतिक परिवेशों में विज्ञान की जन समझ के किसी एक सर्वसम्मत सर्वग्राह्य अभियान का संचालन सचमुच एक चुनौती भरा दायित्व है- हमें वैज्ञानिक लोकप्रियकरण के प्रयासों का सजग अनुश्रवण करते रहने होगा ताकि उनकी अपेक्षित प्रभावोत्पादकता सुनिश्चित की जा सके। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि भारतीय परिवेश में जहाँ सब और विविधता-अनेकता ही परिलक्षित होती है, विज्ञान-जागरूकता के अनेक प्रयासों की सफलता के सूचकांकों को नियत करना कम चुनौती भरा नहीं है। उन्होंने विज्ञान की जन समझ के नवीन प्रयासों की शुरुआत का स्वागत तो किया किन्तु आगाह भी किया कि अभी इस दिशा के मानक तय होने हैं, संकेतकों की उपयुक्तता और औचित्य पर व्यापक विचार-विमर्श होना है, नये प्रश्नों को चिन्हित किया जाना है ताकि उनका सम्यक उत्तर मिल सके। विज्ञान की जन समझ का भारतीय परिदृश्य ऐसा है कि अभी यहाँ प्रश्नों को उत्तर की दरकार नहीं उल्टे उत्तर ही प्रश्नों की बाट जोह रहे हैं।
उन्होंने जन समस्याओं को हल करने में वैज्ञानिक हस्तक्षेपों की वकालत तो की किन्तु यह भी कहा कि अनेक वैकल्पिक माध्यम भी हैं जो जन समस्याओं के निवारण में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप उन्होंने राजधानी दिल्ली में परिवहन जनित वायु प्रदूषण को दूर करने में सी0एन0जी0 चालित वाहन परिचालन की व्यवस्था को सख्ती से लागू करने में न्यायिक सक्रियता की भूमिका का हवाला दिया। आशय यह कि भारतीय लोकतन्त्र में अभी भी शायद वैज्ञानिकों के विचारों-आह्वानों को व्यापक जनस्वीकृति मिल पाने का वातावरण नहीं बन पाया है।
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में नई दिल्ली स्थित संस्थान `नेशनल कौंसिल आफ अप्लॉयड इकोनोमिक रिसर्च´ के महानिदेशक श्री सुमन बेरी ने विज्ञान की जन समझ के परिमापन के विश्वव्यापी प्रयासों में संस्थान के सीनियर फेलो डॉ0 राजेश शुक्ला के योगदान की प्रशंसा करते हुए इस नये विषय में उनके द्वारा विकसित किये गये सांिख्यकीय विधियों खासकर `साइंस कल्चर इन्डेक्स´ की भी चर्चा की। उद्घाटन सत्र का समापन निस्टैड्स के वैज्ञानिक श्री दिनेश अबराल के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।
तदनन्तर आयोजित कुल छ: तकनीकी सत्रों में विज्ञान समझ के सम्बन्धित विश्लेषण मॉडलों के प्रस्तुतीकरण, आंकडा संग्रहण और आधारों की स्थापना, उपयुक्त सांिख्यकी विधियों का चयन, विज्ञान शिक्षा एवं समाज के अन्तर्सम्बन्ध, विज्ञान की जन समझ में शोध की नई सम्भावनायें जैसे अद्यतन विषयों पर गम्भीर विचार मन्थन हुआ। इन सत्रों की अध्यक्षता विज्ञान संचार की नामचीन हस्तियों-डॉ0 अनुज सिन्हा (भारत) डॉ0 हेस्टेर डू प्लेसिस (दक्षिण अफ्रीका), प्रोफेसर लोयेट लेडेसडार्फ (नीदर लैण्ड्स), डॉ0 राजेश शुक्ला (भारत), प्रोफेसर फ्यूजिओ निवा (जापान), डॉ0 जेनिफर मेटकाल्फ (आस्ट्रेलिया), द्वारा की गयी।
यथोक्त सत्रों में अफ्रीका में वैज्ञानिक संचेतना के परिमापन की कठिनाईयों, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में ब्रितानी आम जनता की संलिप्तता के स्तर पर ऑकलन, फिलीपीन में विज्ञान संचार के प्रयासों से विज्ञान की जन समझ को बढ़ाने के प्रयास, विज्ञान की जन समझ में मीडिया चैनलों का योगदान, विज्ञान की जन साक्षरता और संलिप्तता के संकेतकों का विकास, पशु प्रयोगों पर स्विटजैरलैंड के लोगों की प्रतिक्रिया, विज्ञान की समझ के सार्वभौमिक संकेतकों की पहचान, श्रीलंका में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की लोकगम्यता, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संग्रथित सूचकांकों की संरचना के अवधारणात्मक एवं पद्धतिगत स्वरुप का निर्धारण, समतामूलक समाज की स्थापना में जन विज्ञान आन्दोलनों की भूमिका, विज्ञान-पाठ्यक्रमों में सुधार के प्रयास, चीन में विज्ञान साक्षरता पर लिंग भेद के प्रभाव, जापान के अभिजात्य जीवन में प्रौद्योगिकी साक्षरता, क्षेत्रीय समाजार्थिकी के विकास में वैज्ञानिक गतिविधियों की प्रभावोत्पादकता आदि विषयों पर सारगर्भित शोध पत्र पढ़े गये और उन पर चर्चायें आमिन्त्रत की गयीं। शोधपत्रों को प्रस्तुत करने वालों में डा0 हेस्टेर डू प्लेसिस (दक्षिण अफ्रीका), सुश्री सैली स्टैयर्स (इंग्लैण्ड), श्री गौहर रज़ा (भारत), प्रोफेसर लोयेट लेडेसडार्फ (नीदरलैण्ड), सुश्री जेनिफर मेटकाल्फ (आस्ट्रेलिया), डा0 फेबिन क्रेटाज (स्विटजरलैण्ड), डा0 वैलेरी टोडोरोव (बुल्गारिया), सुश्री रोहिनी विजेरत्ने (श्रीलंका), डॉ0 राजेश शुक्ला (भारत), डॉ0 अनिल राय (भारत), डॉ0 ए0आर0 राव (भारत), डा0 बेवेरेली डैमोन्से (दक्षिण अफ्रीका), श्री दिनेश अबराल (भारत), डॉ0 किन्या शिमिजू (जापान), डा0 झैंग चाओ (चीन), प्रो0 फिल फूजिओ निवा (जापान), सुश्री प्रीति कक्कड़ (भारत), डॉ0 सीमा शुक्ला (भारत), डा0 वैगू ए (सेनेगल), डा0 टी0वी0 वेन्कटेश्वरन (भारत) आदि प्रमुख रहे।
दूसरे दिन सायंकाल आयोजित समापन समारोह में पारित संकल्पों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्नवत् रहा -
- विज्ञान की जन समझ के मापांकन हेतु संगठित प्रयास किये जाने और इस दिशा में आ¡कड़ों के संग्रहण और सूचीबद्ध करने के साथ ही व्यापक आ¡कड़ा-आधार बनाया जाये। विज्ञान की जन समझ सम्बन्धी अध्ययनों को सर्वसुलभ कराने हेतु के संकेतकों की एक `ओपेन एक्सेस वेबसाइट/पोर्टल´ को विकसित किया जाय।
- सूचनाओं और संसाधनों के सुचारु विनिमय की दृष्टि से `विज्ञान की जन समझ के क्षेत्र में कार्यरत अनुसन्धानकर्ताओं, विद्वानों के नेटवर्क का विकास किया जाय।
- विज्ञान की जन समझ को समर्पित शोध और शिक्षा संस्थानों की संस्थापना की जाय।
- ऐसे संस्थानों का दूसरे समान संस्थानों से सतत् सम्पर्क - समन्वय भी अभीष्ट है।
- विभिन्न स्तरों पर विज्ञान की जनसमझ के ऐसे सामान्य संकेतकों को चििºनत करना होगा जिनका विभिन्न `दिक्काल में सहज पारस्परिक मूल्यांकन किया जा सके।
- ऐसे अध्ययनों - प्रयासों के सातत्य हेतु धन मुहैया कराना भी एक बड़ी प्राथमिकता है।
समूचा आयोजन जन सामान्य पर विज्ञान संचार के विविध प्रयासों के आ¡कलन की दिशा में एक गम्भीर शैक्षणिक प्रयास के रूप में याद किया जायेगा। इस लिहाज से इसके आयोजकों की सूझ और श्रम की प्रंशसा की जानी चाहिए। खासकर डा0 गौहर रज़ा (निस्टैड्स) और डॉ0 राजेश शुक्ला (एन0सी0ए0ई0आर0) के लिए यह समूचा आयोजन इन्हीं के शब्दों में आवधारणा से मूर्त रुप लेने तक एक स्वप्न के साकार होने जैसा अनुभव रहा।
निश्चय ही यह आयोजन भारत में विज्ञान के सामाजिक सरोकारों और संदर्भों को व्याख्यायित करने की दिशा में मील का पत्थर बन गया है।
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Saturday 29 March 2008

चाँद ही नहीं सूर्य भी `कलंकित´ !


अनुरोध :कृपया इस पोस्ट को जल्दीबाजी मे न पढ़ें ,इत्मीनान से कई एक सत्रों मे पढ़ सकते हैं -इसका मतलब आपसे भी हो सकता है .अस्तु ,
चाँद का `कलंक´ तो बच्चे बूढ़े किसी से भी छुपा नहीं, सदियों से लोग चाँद पर धब्बों को देखकर विस्मित होते आये हैं और इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाते रहे हैं। चन्द्र सतह की भौगोलिक रचनाओं- ज्वाला मुखियों, पहाड़ों, गहवरों को किस्से कहानियों में `सूत कातती बुढ़िया´ से लेकर गौतम ऋषि द्वारा क्रोध में मृगचर्म के प्रहार से उत्पन्न चोट के निशानों के रुप में देखा गया है। किन्तु सूर्य भी कलंकित है- दागदार है इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है क्योंकि सूर्य को नंगी आ¡खों से निहारने की हिम्मत किसे है? सूर्य पर धब्बों की मौजूदगी चीनी खगोल शास्त्रियों को ईसा के 24 वर्ष पहले ही हो चुकी थी।
`कलंकित´ सूरज के ग्यारह वर्षीय चक्र वाले सौर धब्बों [ ``सौर चक्र - 24´´ ] विगत् 4 जनवरी 08 से आरम्भ हो गया है, जिससे धरती पर पावर ग्रिड , संवेदी सैन्य संस्थानों, नागरिक एवं उड्डयन संचार, जी0पी0एस0 सिग्नल, मोबाइल फोन नेटवर्क और यहाँ तक कि ए0टी0एम0 से नगदी के लेन-देन जैसी रोजमर्रा की मानवीय गतिविधियों के भी सहसा ही ठप हो जाने के खतरे बढ़ गये हैं- मशहूर अमेरिकी संस्थान, `नेशनल ओसियनिक एण्ड एटमास्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन´-`नोआ´ ने सौर धब्बों के नये चक्र के शुरूआत की चेतावनी अभी हाल ही में जारी की है।
अभी फलित ज्योतिषियों को शायद सौर धब्बों के इस नये चक्र का पता नहीं है, अन्यथा अखबारों की सुर्खियों में राजा-प्रजा पर पड़ने वाले `कलंकित´ सूर्य के अनेक प्रभावों, दुष्प्रभावों की चर्चा भी जरुर हो चुकी होती। सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में 4 जनवरी 08 से नये सौर धब्बों के दिखने के साथ ही २४ वां सौर धब्बा चक्र वजूद में आ गया है। फलत: उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र पर `ऑरोरा बोरियेलिस´ के नाम से विख्यात प्रकाश पुंजो की अद्भुत िझलमिलाहट भी उसी दिन देखी गयी। सौर वैज्ञानिकों का मानना है कि ये तो अभी आरिम्भक संकेत-शकुन भर हैं। `नोआ´ के `स्पेस वेदर प्रिडेक्शन सेन्टर´ के वैज्ञानिक डगलस बाइसेकर ने इस बार के सौर धब्बों के चक्र को उच्च सक्रियता वाला मानते हुए यह आशंका व्यक्त की है कि धरती पर इनका उत्पात 2011-12 के दौरान अपने चरम पर जा पहु¡चेगा। लेकिन भयावने सौर झंझावात - आंधियां धरती के वायु मंडल को अपने चपेट में कभी भी ले सकती हैं।

दिन ब दिन अन्तरिक्ष प्रौद्योगोकियों पर हमारी बढ़ती निर्भरता के लिहाज से इस नये सौर चक्र-24 को गम्भीरता से लिया जाना वाजिब है। मौसम के पूर्वानुमान और जी0पी0एस0 नैविगेशन के लिए उपयोग में लाये जा रहे सैटेलाइट सौर आँधियों के चपेट में आ सकते हैं, निष्क्रिय भी हो सकते हैं। यह चेतावनी `नासा´ की एक वेबसाइट के जरिये जारी की गयी है।
हवाई यात्रायें भी जोखिम भरी हो सकती हैं। क्योंकि प्रत्येक वर्ष अनेक अन्तर्महाद्वीपीय उड़ाने जो धरती के ध्रुवों से गुजरती हुई हजारों यात्रियों को गन्तव्य तक ले आ-जा रही हैं, सौर आँधियों के चपेट में आ सकती हैं। न्यूयार्क, टोक्यो, बीजिंग तथा शिकागों की उड़ाने `कम दूरी´ के उत्तर ध्रुवीय मार्ग को प्राथमिकता दे रही हैं। 1999 में `यूनाइटेड एअर लाइन्स´ द्वारा आर्कटिक के ऊपर से 12 उड़ानों का आवाजाही हुई थी जबकि 2005 तक यह तेजी से बढ़ती हुई 1, 402 तक जा पहु¡ची। सौर आँधियों की सक्रियता ध्रुवों पर ज्यादा ही होती है और इस लिहाज से ध्रुवीय रास्तों वाली इन उड़ानों को लेकर घबराहट शुरु हो गई है। `स्पेस वेदर प्रिडक्शन सेन्टर´ के खगोलविद स्टीवहिल कहते हैं- ``जब विमान ध्रुवों के ऊपर सौर आ¡धियों की चपेट में आयेंगे तो उनकी रेडियों संचार प्रणाली ठप पड़ सकती है। उनका मार्ग निर्देशन गडमड हो सकता है। ध्रुव क्षेत्रों को त्यागना ही कल्याणकारी हो सकता है। यद्यपि यह खर्चीला होगा´´

खगोलविद कहते हैं कि शुरूआती सौर चक्र-1 अपने चरम पर 1760 में था, यद्यपि उस समय और धब्बों की संख्या काफी कम थी। तब से जैसे अनवरत सौर चक्रों का दौर कायम रहा है, सौर चक्र 23 का उत्स 2001 में देखा गया था जो अब समाप्त प्राय:सा है, क्योंकि सौर चक्र-24 अब अंगड़ाइया¡ ले रहा है। यह 2011-12 में अपनी उच्चता पर जा पहुंचेगा । फिर बारी आयेगी सौर चक्र-25 की जिसके बारे मे अनुमान है कि वह बहुत न्यून गतिविधियों वाला होगा। यह अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए सकून का समय होगा क्योंकि तब - 2022 में अन्तरिक्ष यात्राओं में सौर विकिरणों का खतरा कम होगा।
यह वह अवसर होगा जब अन्तरिक्ष अन्वेषण की गतिविधियाँ अपने उत्कर्ष पर होंगी और अन्तरिक्ष पर्यटक अन्तरिक्ष में उछल-कूद कर रहे होंगे, अन्तरिक्ष यात्री चन्द्र पड़ावों से मंगल अभियानों को उन्मुख होंगे।

खगोलशास्त्रियों ने विगत 400 वर्षो में सौर धब्बों में उतार-चढ़ाव की अच्छी खोज खबर ले रखी है। वर्ष 1645 और 1715 के मध्य सौर धब्बे लगभग नदारद ही थे- इस अवधि को `मौन्डर न्यून´ कहा जाता है। यह जानकारी सबसे पहले एडवर्ड डब्ल्यू मौन्डर (1851-1928) ने दी थी। उक्त 30 वर्षों में मात्र 50 सौर धब्बे ही देखे गये। यह अवधि एक `लघु हिम युग´ के नाम से जानी जाती है जब सारी दुनिया खासकर उत्तरी गोलार्ध के देशों ने जाड़े की भयंकर ठिठुरन झेली थी। इस अवधि में धरती तक आने वाले सौर विकिरणों में कमी से यहाँ , बेरीलियम आइसोटोपों (कार्बन-14, बेरीलियम-10) में भी कमी देखी गई थी।
खगोल शास्त्रियों का अनुमान है कि विगत् 8000 वर्षों में करीब 18 ``मौन्डर न्यून´´ अवधियों गुजर चुकी है।
सौर धब्बों की दिन प्रतिदिन गणना करने का एक सरल फार्मूला सबसे पहले जोहान रुडोल्फ वोल्फ ने दिया था जो स्विटजरलैण्ड के एक प्रसिद्ध खगोलविद् थे। ज्यूरिख़, वियेना और बर्लिन विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले रुडोल्फ सौर धब्बों के अध्ययन में दीवानगी की सीमा तक मशगूल थे। वे 1844 में बर्न विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर और 1847 में बर्न की वेधशाला के निदेशक भी बने। इन्होंने पहली बार गणना करके बताया था कि सौर धब्बों का चक्र 11 वर्ष का होता हैं सौर धब्बों की सही-सही गणना की उनकी बताई हुई विधि आज भी प्रचलन में है।

Saturday 22 March 2008

आर्थर सी क्लार्क पर कुछ ऑर !

वादे के मुताबिक आर्थर सी क्लार्क पर मैं कुछ ऑर लेकर हाजिर हूँ मगर इधर उधर से जुटाए मैटर के आधार पर तैयार इस आलेख के बजाय हिन्दी ब्लॉग जगत मे इस महान शख्सियत पर चन्द्रभूषण जी का फर्स्ट हैण्ड लेखन ऑर उन्मुक्त जी की चिपकी जरूर देखी जानी जाहिए ।
आर्थर सी क्लार्क का जन्म 16 दिसबंर 1917 को इंग्लैण्ड में हुआ था। वे एक बार श्रीलंका में स्कूबा -समुद्री खेल प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंचे तो यहाँ की धरती से उन्हें ऐसा मोह पैदा हुआ कि वे यहीं के हो के रह गए। उन्होंने लगभग १०० किताबें लिखी लेकिन जिस किताब को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली वह है 1968 में लिखी '2001 ए स्पेस ओडिसी\ कथा प्रेमियों से इतर पाठकों मे भी लोकप्रिय हुयी । क्लार्क की इसी कृति पर स्टैनले कुब्रिक की फिल्म भी दुनिया भर मे चर्चा का विषय बनी । वे अपनी कथाओं में अंतरिक्ष यात्रा, स्पेस शटल, कंप्यूटर और सुपर कंप्यूटर के इस्तेमाल और संचार उपग्रहों के बारे में जिक्र करने के कारण दुनिया भर में पहचाने जाने लगे थे और \'इलेक्ट्रॉनिक कुटिया \'के पहले निवासी कहलाए थे।

क्लार्क ने १९४५ मे एक लेख लिखा था जिसमे यह दर्शाया गया था कि यदि भू स्थिर कक्षाओं मे उपग्रहों को स्थापित कर उनसे संचार संवहन कराया जाय तो समूची दुनिया मे एक साथ ही सहजता से संचार स्थापित हो सकता है .यद्यपि उन्होंने इस युक्ति को पेटेंट नही कराया मगर उनका यह स्वप्न जल्दी ही साकार हुआ और एक दशक बीतते बीतते पहला संचार उपग्रह धरती के भू स्थिर कक्षा मे स्थापित कर दिया गया . उन्होंने 1940 में यह भी घोषणा की थी कि मनुष्य सन १९८० के दशक तक तक चांद पर जा पहुंचेगा, चालीस के दशक में मनुष्य के चांद पर पहुंच जाने की कल्पना प्रस्तुत करने पर लोगों ने उनका उपहास किया,1969 में ही अमरीकी नागरिक नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर कदम रख दिए .तब अमरीका ने क्लार्क की सराहना करते हुए कहा था कि उन्होंने हमें चांद पर जाने के लिए बौद्विक रूप से प्रेरित किया.
आर्थर सी. क्लार्क महज लेखक ही नहीं एक भविष्यद्रष्टा थे, जिन्हे मानो दिक्काल की अनेक गुत्थियों के बारे मे आश्चर्यजनक रूप से मालूम हो जाता था . श्रीलंका में आजीवन रहे इस ब्रिटिश लेखक ने अभी पिछले दिसम्बर मे अपने 90 वें जन्मदिवस पर कुछ गिने चुने श्रोताओं के सामने अपनी \'अन्तिम इच्छा \'व्यक्त की थी कि श्रीलंका में जातीय संघर्ष खत्म हो जाए, दुनिया को स्वच्छ ऊर्जा का अजस्र स्रोत मिल जाए और अंतरिक्ष में बुद्धिमान प्राणियों से सम्पर्क बन जाय .
आसिमोव के रोबोटिक्स के तीन नियमों की ही तर्ज पर उन्होंने भी तीन नियमों की सौगात दी है -
1-यदि कोई मशहूर और सीनियर वैज्ञानिक कहता है कि अमुक चीज संभव है, तो वह निश्चित ही सही है। मगर यदि वह कुछ असंभव मानता है, तो वह संभवत: गलत हो सकता है।
2- संभावना की सीमाओं की थाह पाने के लिए असंभव की तरफ बढ़ना चाहिए और
3- कोई भी नई आधुनिक प्रौद्योगिकी किसी जादू से कम नहीं होती।
अनेक विज्ञान कथाकारों की ही भाति उनका भी मत था कि भविष्य के बारे में कोई नहीं बता सकता, अलबत्ता अगर कोई लेखक किसी आविष्कार का जिक्र करता है तो वह असल में एक संभावित दुनिया की बात कर रहा होता है जो वजूद मे आ सकती है और नही भी आ सकती है. अंतरिक्ष के बारे में क्लार्क के मन में निरंतर जिज्ञासा बनी रही ,यह बात दीगर थी के वे वैध लाईसेंस के बावजूद भी कभी ड्राईव नही किए . 1998 में महारानी ब्रिटानिया द्वारा नाइट की उपाधि से सम्मानित क्लार्क शीतयुद्ध के तनाव से परेशान थे, इसकी झलक उनके उपन्यासों में मिलती है।

वर्ष 1960 से पोलियो से ही ग्रस्त क्लार्क कभी-कभी व्हील चेयर का भी इस्तेमाल करते थे।
मृत्यु से पूर्व उन्होंने लिखित निर्देश छोड़ा था, जिसमें उन्होंने अपने अंतिम संस्कार में किसी तरह की धार्मिक रीति का पालन करने से मना किया है .

Tuesday 18 March 2008

विज्ञान कथा के मसीहा आर्थर सी क्लार्क नही रहे !


आज सुबह सुबह ही उन्मुक्त जी
से जानकारी मिली कि विज्ञान कथा के मसीहा आर्थर सी क्लार्क नही रहे .यह विज्ञान कथा प्रेमियों के लिए किसी सदमे से कम नही है .विज्ञान कथा की मशहूर तिगड़ी आइज़क आजीमोव ,राबर्ट हीन्लिनऑर क्लार्क का यह आख़िरी पाया आज बिखर गया .यह वही क्लार्क हैं जिन्होंने १९४५ मे संचार उपग्रहों की सूझ रखी थी जिसके जरिये आज हम इंटरनेट पर उंगलियाँ थिरका रहे हैं .उनकी कई किताबों ,लगभग १०० मे मुझे रान्दिवू विथ रामा ऑर २००१ अ स्पेस ओडिसी बहुत प्रभावशाली लगी थी .क्लार्क ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पाने के बाद भी १९५६ से श्रीलंका मे स्थायी तौर पर रह रहे थे ।
हम जल्दी ही उन पर हिन्दी ब्लागर्स के लिए विस्तृत चर्चा करेंगे अभी तो यह त्वरित प्रतिक्रिया थी एक अलग फॉरम पर हम एक शोक गोष्ठी आयोजित कर रहे हैं -
http://in.groups.yahoo.com/group/indiansciencefiction/message/1325

Sunday 16 March 2008

विज्ञान की जन समझ !

विगत ७-८ मार्च को नयी दिल्ली मे नेशनल इन्सटीचयूट आफ साईंस ,टेक्नोलॉजी एंड डेवलेपमेंटल स्टडीज [NISTADS] की पहल पर आम जनता की वैज्ञानिक समझ के मुद्दे पर एक अंतररास्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ .यह पिछले वर्ष लंदन की रायल सोसायटी द्वारा आहूत वैज्ञानिक समागम की ही भारतीय आवृत्ति थी .मैंने भी इस आयोजन मे शिरकत की .इसमे विमर्श का मुद्दा यह था कि आम लोगों की विज्ञान संबन्धी समझ को कैसे मापा जाय ? कैसे ऐसे सार्वभौमिक संकेतांक विकसित किए जायं जो विभिन्न सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद भी दुनिया भर मे लोगों के विज्ञान की समझ का एक आकलन कर सके .दुनिया भर से आए विज्ञान संचारकों और इस विषय पर शोध कर रहे विद्वानों ने अपने अपने शोध माडल प्रस्तुत किए जो ज्यादातर सान्खिकीय प्रस्तुतियां थी और मेरे जैसे साधारण सी प्रतिभा वाले व्यक्ति की समझ के परे थे ।
लेकिन इस विषय पर अब अध्ययन की शुरुआत भारत मे हो चुकी है और रिचक परिणाम सामने आयेंगे जैसे के केरला मे लोगों की विज्ञान संबन्धी समझ एनी राज्यों की तुलना मे अच्छी है जबकि बंगाल मे यह काफी कम है ,बिहार से भी कम /अपना उताम प्रदेश भी कयिओं से आगे है -अब यह गोबर पट्टी नही कही जायेगी .