Thursday, 17 May 2012

दैत्याकार होते मनु पुत्र !

अभी इसी वर्ष की बीती फरवरी में  रूसी वैज्ञानिकों के एक अभियान दल ने अन्टार्कटिका में एक इतिहास रच दिया .विगत तकरीबन एक दशक से यहाँ के विपरीत मौसम में भी प्रयोग परीक्षणों में जुटे इन वैज्ञानिकों ने ठोस बर्फ की ३.२ किमी गहरी  खुदाई पूरी करते ही एक ऐसा दृश्य देखा कि अभिभूत हो उठे ...यहाँ एक ग्लेशियर नदी कल कल कर बह रही थी ...जो करीब ३.४ करोड़ वर्ष पहले से वहां दबी पडी थी और इतने लम्बे अरसे से सूर्य के किरणों से उसका मिलन नहीं हुआ था .यह युगों से शान्त स्निग्ध बहती जा रही थी .....अभिभूत वैज्ञानिकों ने इसका नाम रखा वोस्टोक...मगर  एक और पहलू भी था, वोस्टोक के जल में करोडो वर्षों पहले के माईक्रोब -सूक्ष्म जीव भी हो सकते थे जिनसे आज की मानवता परिचित नहीं है -और ये अनजाने आगंतुक किसी नयी महामारी को न्योत दें तब ? वोस्टोक के जल का ताप और संघटन बृहस्पति के एक उपग्रह /चाँद यूरोपा की प्रतीति कर रहे थे ...वैज्ञानिकों को यह सूझ कौंधी कि वोस्टोक के विस्तृत अध्ययन से सौर मंडल के समान पर्यावरण वाले ग्रहों -उपग्रहों ,ग्रहिकाओं का भी अध्ययन धरती पर बैठे ही हो सकेगा .. 
वोस्टोक 
ऊपर का दृष्टांत मनुष्य की अन्वेषी और सर्वजेता बनने की भी प्रवृत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करती है .आज मनुष्य ने धरती के  बर्फ से बिना ढके तीन चौथायी से अधिक के भू /जल भाग की जांच पड़ताल कर रखी है .मानव चरण वहां पड़ चुके हैं . और एक कहावत हैं न- जहं जहं चरण पड़े संतों के तहं तहं बंटाधार ...ऐसी ही स्थिति अब उजागर होने लगी है क्योकि मनुष्य जहाँ जहाँ पहुँच रहा है पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है ,प्रकृति का ताम झाम बिखर रहा है . धरती के ४.५ अरब के इतिहास में मनुष्य अभी कुछ पलों पहले ही अवतरित हुआ है मगर कारनामें ऐसे कि धरती के तीन चौथायी हिस्से पर कब्ज़ा हो चुका है .. दुनिया  के ९० प्रतिशत पेड़ पौधे मनुष्य की छाया में आ गए हैं . अब तक हमने कितने ही वनों उपवनों को उजाड़ डाला है और हजारों प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का दुष्कृत्य कर डाला है मगर हमारे पाँव अभी थमे नहीं हैं . सागरों को हमने अपनी गतिविधियों से मथ डाला है ,सागर संपदा का भयंकर दोहन किया है ,मछलियाँ खात्में के कगार पर हैं ..समुद्रों  में भी कई 'रेगिस्तानी जोन' बन गए हैं जो सीधे सीधे हमारी गतिविधियों की ही देन हैं .

मनुष्य की गतिविधियाँ इतनी तेजी से धरती का हुलिया बिगाड़ रही हैं जो वैज्ञानिकों की पेशानी पर बल डाल रही हैं .अभी तो १०-१२ हजार साल पहले ही  धरती एक हिमयुग से मुक्त हुयी और मानव ने खुद का विस्तार शुरू किया था ...और इतने शीघ्र सब कुछ इतना बदल गया? कहने को तो यह धरती युग 'होलोसीन इपोक'  कहलाता है मगर वैज्ञानिकों ने इस युग का नया नाम ढूंढ लिया है -अन्थ्रोपोसीन, मतलब मनुष्य का युग .यह नामकरण देते हुए नोबेल लारियेट  पौल क्रुटजेन ने कहा है कि" मनुष्य और प्रकृति के बीच वस्तुतः अब कोई लड़ाई ही न रही ,यह अब एकतरफा मामला है -अब मनुष्य ही यह निर्णय कर रहा है कि कुदरत का क्या होना है और भविष्य में वह कैसी रूप लेगी ? "

 अभी मुश्किल से १५-२० हजार साल पहले तक मनुष्य केवल एक गुफावासी आखेटक हुआ करता था ,फिर तकरीबन दस हजार वर्ष पहले से ही मनुष्य ने  कृषि कर्म अपनाया और धरती का चेहरा बदलने लगा . आज धरती के  बर्फ से रहित भाग का ३८% कृषि योग्य जमीन में तब्दील किया जा चुका है ..बर्फ पर खेती संभव नहीं हो पायी है नहीं तो वह वहां भी हरियाली बिखेर चुका होता ..कहते हैं कृषि के चलते मनुष्य की रक्तबीजी जनसंख्या भी बढ़ चली है . मगर १८०० की औद्योगिक क्रान्ति ने तो मनुष्य की विकास की गतिविधियों में मानों एक "विस्फोट ' सा कर दिया ....और अन्थ्रोपोसीन युग की नींव डाल दी ....हम देखते देखते १ अरब से सात अरब के ऊपर जा पहुंचे हैं और हमारे इस तेज वंश वृद्धि पर प्रसिद्ध समाज जैविकीविद ई ओ विल्सन ने चुटकी लेते हुए कहा है कि यह वृद्धि तो जीवाणुओं की प्रजननशीलता को भी मात करती है . आज धरती पर मनुष्य का जैवभार उन सभी दैत्याकार छिपकलियों -डायनासोरों से भी सौ गुना ज्यादा हो चुका है जिनका कभी धरती पर राज्य था ...
इतनी बड़ी महा दैत्याकार जनसंख्या  के पोषण में हमारे कितने ही खनिज ,तेल आदि संसाधन स्वाहा हो रहे हैं . अन्थ्रोपोसीन धरती का बुरा हाल किये दे रहा है . इसके अंगने में अब प्रकृति का कोई काम ही नहीं रहा ....नैसर्गिकता के दिन लद चले हैं ...हाँ संरक्षणवादियों चिल्लपों तो मची है मगर उनकी आवाज विकास के पहिये के शोर में अनसुनी सी रह जा रही है . आखिर हम धरती को अब और कितना रौंदेगें? मगर क्या कोई विकल्प बचा भी है ?