Thursday, 25 June 2009

नर नारी के जैवीय कार्यक्षेत्र और लक्ष्मण रेखायें (मानव एक नंगा कपि है ! -डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -समापन किश्त ))

आज भी नारियों की `गृह स्वामिनी´ की भूमिका सर्वोपरि और प्रकृति सम्मत है कदाचित वह इससे सर्वथा विमुख रहकर न तो स्वयं की और ना ही अपने परिवार को सुख-शांति प्रदान कर सकती है। नर आज भी घर के बाहर अपने उसी आदिम कपि का जज्बा लिए उन्मुक्त विचरण कर रहा है !

तो क्या नर के आधुनिक कार्यक्षेत्रों (जो प्राचीन शिकार क्षेत्रों के समतुल्य है) में नारियों का आना वर्जित होना चाहिए? क्योंकि इन कार्य क्षेत्रों में पुरुषों की टोलियों (प्राचीन नर शिकारी झुण्ड) का भ्रमण लाखों वर्षों से प्रकृति सम्मत रहा है। परन्तु पिछली एक दो सदियों और ख़ास कर विगत कुछ दशकों से स्थिति तेजी से ठीक इसके विपरीत होती जा रही है। पुरुषों के आधुनिक `शिकार क्षेत्रों´ में नारियों की भी घुसपैठहो चली है।यही नहीं उनकी आदिम भूमिकाएँ भी आमूल चूल रूप से बदलती दिख रही हैं -तेजी से रोल रिवर्जल हो रहा है ! क्या यह स्वंय नारियों, उनके परिवार और अन्तत: मानव समुदाय के लिए मुफीद साबित होगा ?

इन्हीं परिस्थितियों में हमारे जैवीय और सांस्कृतिक `मनों´ और मूल्यों में जोरदार संघर्ष होता है। मानव मन `व्यथित´ हो उठता है। वह सुख और शांति के बारे में नये सिरे से विचार करने लगता है। मगर उससे कहाँ भूल हो गयी है? इस प्रश्न पर उसका ध्यान नहीं जाता। सचमुच यदि हमें सुख और शांति से रहना है तो अपने जैवीय एवं सांस्कृतिक संस्कारों में तालमेल बिठाना होगा, सामंजस्य लाना होगा नहीं तो आधुनिक प्रगति का रास्ता हमें विनाश के गर्त में ढकेल सकता है।


आज की दिन ब दिन बढ़ती सामाजिक असंगतियों, बुराइयों के पाश्र्व में कहीं मानव का अपने `पशु मन´ को ठीक से समझ कर उसके अनुरूप कार्य न कर पाने की असमर्थता ही तो नहीं है। बाºय आवरणों, कपड़ों से शरीर भर ढँक लेने तथा सुख-ऐश्वर्य की चमक-दमक में हम अपनी मौलिक अभिव्यक्ति नहीं भूल सकते। आज के मानवीय समाज में बलात्कारों (पशु बलात्कार नहीं करते?), तलाकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसा नारियों का, पुरुषों के आदिम अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ का नतीजा तो नहीं है? आज की अत्याधुनिकाओं व तथाकथित आदर्शवादियों का यह नारा कि नारी हर क्षेत्र में पुरुष से `कन्धा से कन्धा´ मिलाकर चले सर्वथा अजैविकीय, अप्राकृतिक है। प्रकृति ने तो दोनों के कार्यक्षेत्रों का बँटवारा स्वयं कर रखा है।

एक `घर´ की `स्वामिनी´ दूसरा घर के बाहर का `स्वामी´- यही व्यवस्था प्रकृति सम्मत रहीं है, वर्तमान में है और कम से कम से कम एकाध लाख वर्ष के पहले तो नहीं जा सकती। यदि इस `व्यवस्था´ को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास यूं ही चलते रहे तो, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण आदि मानव जनित समस्याओं के अपने घातक रूप दिखाने के पहले ही हमारे भविष्य का कोई न कोई निर्णायक फैसला हो जायेगा।

यदि हमें सुख-चैन से इस धरा पर रहना है, अपना सफल वंशानुक्रम चलाना है तो अपने `जैवीय´ मन के अनुरूप ही कार्य करना होगा। आज का वैज्ञानिक चिन्तन हमें यही मार्ग सुझाता है। विश्व के दार्शनिकों, आम बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों तथा समाज सुधारकों को इन बातों को गम्भीरता से देखना-समझाना होगा क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के संचालन का भार मुख्यत: उन्हीं के कन्धों पर रहता है। वैज्ञानिक अपने जीवनकाल में प्राय: लोकप्रिय नहीं हुआ करते। वे केवल सुझाव दे सकते हैं। उसे व्यवहार में लाना दुर्भाग्य से उनके स्वयं के वश में नहीं हो पाता।

टिप्पणी :इस विषय को लेकर अभी कोई अन्तिम मत नही उभरा है -वैज्ञानिकों -जैव विदों ,समाज जैविकी विदों और व्यव्हारशास्त्रियों के बीच विचार मंथन जारी है ! यहाँ प्रस्तुत मत को अनिवार्यतः मेरा दृष्टिकोण समझा जाय !