बात मनुष्य के वृषणो (अन्डकोशों ) की चल रही थी -कभी मनुष्य के पशु पूर्वजों की उदरगुहा में कैद अन्डकोशों का बाहर आकर अब मानों कैद से मुक्ति मिल गयी थी ! मनुष्य योनि में वे अब बाहर आ झूल से गए थे -मगर असुरक्षित भी हो गए थे ! भले ही उनकी लगातार ९८.४ फैरेनहाईट के तापक्रम से मुक्ति हो सक्रियता बढ़ चुकी थी ! अब सबसे बड़ी जैवीय समस्या थी इन झूलते हुए अन्डकोशों की सुरक्षा का -हमें यह प्रायः पता नही लग पाता या हम नोटिस नहीं लेते आज भी अन्डकोशों की अपनी एक रक्षा व्यवस्था वजूद में है । अब तीव्र ठंडक में, क्रोध,भय ऑर रतिक्रिया के बेहद गहन क्षणों में ये सहसा ऊपर की ओर चढ़ जाते हैं ! जिससे इन्हे कोई क्षति न पहुंचे ! अन्तरंग क्षणों में एक बात और होती है -इनका आकार भी अंशकालिक रूप से बढ़ जाता है .यह अतिरिक्त रक्त प्रवाह के कारण होता है जो रक्त वाहिकाओं के संजाल में उभार ला देता है .यह अंशकालिक वृद्धि प्रायः ५० फीसदी और कभी कभी तो सौ फीसदी तक पहुच जाती है ।
यह भी पाया गया है कि तकरीबन ८५ फीसदी पुरुषों का बायाँ अंडकोष दायें की तुलना में ज्यादा नीचे लटका हुआ होता है मगर जब दोनों अंडकोष ठण्ड,क्रोध या रतिक्रिया की तीव्रता में अपने को ऊपर की ओर रक्षार्थ खींचते हैं तो उनका तल एक ही स्तर पा जाता है ! बाएं अंडकोष का ज्यादा नीचे होना अभी भी उपयुक्त व्याख्या की बाट जोह रहा है ।
अन्डकोशों का विकास के क्रम में बाहर लटक आना शुक्राणुओं की सक्रियता के लिहाज से जहाँ ठीक था वहीं पुरुषों के लिए एक हादसे का भी रूप ले बैठा .अब मनुष्य को कठोर दंड देने के मामलों में सहसा ये आंखों की किरकिरी बन गये -कठोरतम और नृशंस दंडों की फेहरिस्त में अब जबरदस्ती बधिया /बंध्याकरण भी जुड़ गया था ! और कहीं बादशाहों के हरमों के चौकीदारों को भी आजीवन बंध्याकरण का विप्लव भोगना पड़ता था ! गैर कुदरती हिजडों की आबादी की वृद्धि में भी यही प्रवृत्ति जारी है .शायद आप न जानते हों वेटिकन के ईसाई चर्चों में कभी लड़कों का इसलिए जबरदस्ती बधियाकरण हो जाता था जिससे उनके आवाज की बाल्य मधुरता आजीवन बनी रहे ! यह न्रिशन्सता १८७८ तक बदस्तूर जारी रही और एक सच्चे पहुंचे हुए पोप के हस्तक्षेप से समाप्त हुई !
अन्डकोशों में जैसा कि हम जानते ही हैं कि शुक्राणुओं की उत्पादन फैक्टरी है .यदि कोई पुरुष पाठक इसी समय यह पढ़ रहे हैं तो तनिक मेरे साथ गिनिये -एक सौ ,दो सौ .तीन सौ ,चार सौ ,पाँच सौ और लीजिये आपके ख़ुद के शुक्राणुओं में इतनी ही देर में १५००० नए शुक्राणु का इजाफा हो गया हैं -गरज यह कि शुक्राणु अहर्निश बिना रुके पल पल दिन रात बस बनते ही रहते हैं, इसकी वृद्धि दर है -३००० /सेकेड ! यही कारण है कि किशोरों -सद्य युवाओं में यदि यौन भावना का सहज शमन नही हो पाता तो रात्रि स्वप्न में इनका सहज और स्वाभाविक निर्गमन हो जाता है .और कदाचित स्वप्न में भी इनका बहिगर्मन न हो सका तो अन्डकोशों की दीवारें इन्हे जज्ब कर लेती हैं ! मतलब अवशोषित ! शुक्राणु उत्पादन अन्तिम यात्रा की तैयारी तक चलता रहता है ! इस मामले में पुरुष नारी से बिल्कुल अलग है जिसमें अंड उत्पादन ज्यादा से ज्यादा ५० -५५ वर्षतक ही आम तौर पर होता है !
एक स्वस्थ सामान्य व्यक्ति एक बार में २० करोड़ से ४० करोड़ तक शुक्राणु निःसृत कर देता है ! मगर इतनी विशाल संख्या के बावजूद पिन के सिर के बराबर की जगह में इतना शुक्राणु समां सकता है .शुक्राणु प्रोस्टेट ग्रंथियों से निकले एक तरल द्रव -सेमायिनल फ्लूयिड में सरक्षित हो लेता है जो कई विशिस्ट प्रोटीनों ,इन्जायिम , वसा और शर्करा से युक्त होता है और अति सूक्ष्म मात्रा में स्वर्ण ,जी सोना भी इसमें होता है .यह क्षारीय होता है जोशुक्राणुओं की उत्तरजीविता बढाता है ! और साथ ही नारी शरीर में प्रवेश करते ही मिलने वाले अम्लीय माधयम को प्रभावहीन भी कर देता है ताकि शुक्राणु सक्रिय रह सकें ! इस सेमायिनल द्रव या कहें तो पौरुष द्रव की मात्रा अमूमन ३.५ एम् एल होती है और आपवादिक मामलों में ,रतिक्रिया बुभुक्षितों में यह इस मात्रा से चार गुना तक अधिक भी हो सकती है .और जरा इसके प्रक्षेपण गति को भी जान लीजिये ! ७-८ इंच से तीन फुट की दूरी तक ! ( शुक्र है गिनेज वर्ल्ड रिकार्ड वालों की नजर इस पर अभी तक नहीं पडी -अन्यथा एक स्पर्धा और उनकी किताब में दर्ज हो गयी होती ! ) जारी ....