Tuesday, 6 November 2007

किसे हम सोम माने -कस्मे सोमाय हविशा विधेम !

कुछ चिट्ठाकार प्रेमियों ने वैदिक सोम वनस्पति के बारे मी जिज्ञासा दिखाई है .अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईशा के पहले ही इस बूटी /वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गयी .ऐसा भी कहाजाता है कि सोम[होम] अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों ने इसकी जानकारी आम लोगो को नही दी ,उसे अपने तक हीसीमित रखा और कालांतर मे ऐसे अनुस्ठानी ब्राह्मणों की पीढी /परम्परा के लुप्त होने के साथ ही सोम कीपह्चानभी मुश्किल हो गयी .सोम को पहचान पाने की विवशता की झलक रामायण युग मे भी है -हनुमान दो बारहिमालय जाते हैं ,एक बार राम और लक्ष्मण दोनो की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर ,मगरसोम की पहचान होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं: दोनो बार -लंका के सुषेण वैद्य ही असली सोम की पहचानकर पाते हैं यानी आम नर वानर इसकी पहचान मे असमर्थ हैं [वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड,७४ एवं १०१ वां सर्ग] सोम ही संजीवनी बूटी है यह ऋग्वेद के नवें 'सोम मंडल 'मे वर्णित सोम के गुणों से सहज ही समझा जा सकता है .
सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक ,ओज्वर्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है ,साथ हीअनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है .सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट पीस कर तथा भेंड के ऊन कीछननी से छान कर प्राप्त किये जाने वाले सोमरस के लिए इन्द्र,अग्नि ही नही और भी वैदिक देवता लालायित रहतेहैं ,तभी तो पूरे विधान से होम [सोम] अनुष्ठान मे पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे , बाद मे प्रसाद के तौर पर लेकर खुद स्वयम भी तृप्त हो जाते थे .आज के होम भी उसी परम्परा के स्मृति शेष हैं परसोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है जो सोम की प्रतीति भर है.कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों मे देवताओं को सोम अर्पित कर पाने और वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने कि ग्लानि और क्षमा याचना की सूक्तियाँ भी हैं
मगर जिज्ञासु मानव के क्या कहने जिसने मानवता को सोम कलश अर्पित करने की ठान रखी है और उसकी खोज
मधु ,ईख के रस ,भांग ,गांजा ,अफीम,जिन्सेंग जैसे पादप कंदों -बिदारी कंद सरीखे आयुर्वेदिक औषधियों से कुछ खुम्बियो [मशरूमों ] तक पहुँची है जिनके बारे मे अगले चिट्ठे मे .............
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