Saturday 22 November 2008

कंधे पर लदी पुरूष सौन्दर्य यात्रा !

पुरूष का कंधा नारी के लिए अतीत से आज तक सिर टिकाने को सहज ही उपलब्ध है
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जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -
चर्चा पुरूष कन्धों की विशालता को लेकर हो रही थी -चिम्पान्जियों को अपने कंधे तब ऊंचे करने पड़ते हैं जब कोई घुसपैठिया उनकी टेरिटरी में आ धमकता है -ऐसे समय में चिम्पांजी अपने कंधे की एक भयावह भंगिमा बनाता है और उसके कंधे के बाल भी ऊर्ध्वाधर खड़े हो जाते है -घुसपैठिया आम तौर पर भाग खडा होता है .हमारे (पुरुषों) कंधे के एकाध बचे बाल दरअसल आज भी हमें हमारे उसी "बालयुक्त" अतीत की ही प्रतीति कराते हैं .आज हमारे कंधे बाल विहीन से भले हो गए हों मगर अब भी कंधे को भरा पूरा दिखाने के अवसर मिलते रहते हैं और मजे की बात यह कि आज भी एकाध बचे खुचे बाल चिम्पांजी के बाल सरीखे सीधे खड़े हो उठते हैं ।
वे माने या माने पर आज भी पुरुषों का कंधा नारी के बोझिल से हुए सर को एक सकून भरा आसरा देते हैं -एक आम पुरूष की लम्बाई आम नारी से कम से कम पाँच इंच अधिक होती है जिससे पुरूष के ऊंचे कंधे नारी को सिर टिकाने का मानों शाश्वत आमंत्रण देते रहते हैं .पुरूष का कंधा नारी आज भी नारी के सिर को टिकाने के एक सुरक्षित और भरोसेमंद स्थल के रूप में सहज ही उपलब्ध है.यह आश्वस्ति भरा पुरसकून स्थल गुफाकाल से ही नारी के आश्रय के लिए उपलब्ध रहा है ।
अब चूंकि विकास की प्रक्रिया बहुत धीमीहै और जीनों में सहज परिवर्तन भी लाखो वर्षों में होता है अभी भी पुरूष के इस पोस्चर में कोई बदलाव नही आया है .और अभी तो लाखो वर्षों ऐसयीच ही चलेगा भले ही पुरूष अपने शिकारी अतीत को काफी पीछे छोड़ आया है -आफिस में कलम घिस्सू या पी सी के की बोर्ड पर उंगली थिरकू बने रहने के बाद भी पुरूष का कंधा नारी को आराम दिलाने के अपनी आतीत सौहार्द के साथ उपलब्ध है .
क्या कंधे भी देह की भाषा में कुछ योगदान करते हैं ? जी बिल्कुल ! दो स्कंध भंगिमाएं तो बिल्कुल जानी पहचानी हैं .एक तो शोल्डर शेक है तो दूसरा शोल्डर स्रग -पहला तो मनोविनोद के क्षणों मे कन्धों की ऊपर नीचे की गति है तो दूसरा विभिन्न सिचुयेशन में 'मैं नही जानता ' ,'मुझसे क्या मतलब ?','अब मैं क्या कर सकता हूँ ','अब तो कुछ नही हो सकता ' की इन्गिति करता है -आशय यह कि यह भंगिमा नकारात्मक भावों को इंगित करती है .

Wednesday 19 November 2008

मजबूत कन्धों पर आ टिका अब पुरुष पर्यवेक्षण !

विकास के दौर में जब मनुष्य चौपाये से दोपाया बना तो उसके स्वतंत्र हो गए दोनों बाहुओं के संचालन की एक नयी जिम्मेदारी उस पर आ पडी .लिहाजा बाहुओं को सपोर्ट करने वाले कन्धों को प्रकृति ने मजबूत मांसपेशियों से लैस करना शुरू कर दिया . जिसके चलते हाथों को शिकार पकड़ने में तरह तरह के आयुधों के सहज संधान में काफी सुविधा हुई .जाहिर है पुरुषों के कंधे ऑर बाहें आम स्त्री की तुलनामें मजबूत होते गए .दोनों हाथों के संधि क्षेत्र यानी कंधा पुरूषों में काफी मजबूत होता गया ऑर एक स्पष्ट से लैंगिक विभेद का बायस बन बैठा .पुरुषों का कंधा नारी की तुलना मे ज्यादा चौडा ऑर भारी होता गया है .एक सामान्य पुरुष का शरीर कंधे से नीचे से पतला होता जाता है जबकि ठीक इसके उलट नारी कंधे से नीचे फैलाव पाती जाती है -यह नारी विभेद कूल्हों के चलते और उभर उठता है ।

अब इतने स्पष्ट लैंगिक विभेद के अपने सांस्कृतिक फलितार्थ /निहितार्थ तो होने ही थे .अब पुरुषों को मर्दानगी के प्रदर्शन एक और जरिया मिल गया था .अब कन्धों को उभारने वाली साज सज्जा और अलंकरण का चलन चल पडा .राजा महराजाओं ,राजकुमारों के पहनावों में कंधे उभार पाने लगे -आज भी ज़रा सेना के किसी कमीशंड अधिकारी को देखे कैसा उसका कंधा चौडा और अलंकरणों से लदाफदा होता है .जापानी थियेटर के काबुकी पात्र और अमेरकी फुटबाल खिलाड़ियों के भारी भरकम कन्धों को आपने भी देखा होगा .जापानी पुरुष अपने कंधे को उभारने के लिए जो परिधान -ब्रोकेड पहनता है कामी नारीमू कहलाता है .इसी तरह अमेरिकी फुटबालर अपने कन्धों से अधिक पुरुशवत लगते हैं ।
मगर मजे की बात तो यह है कि इतिहास ऐसे भी उदाहरणों का गवाह बना है जब पश्चिम में नारी मुक्ति आन्दोलनों की कुछ झंडाबरदार जुझारू नारी सक्रियकों ने पुरुष्वत दिखने की चाह में अपने कन्धों को उभार कर दिखाने का उपक्रम शुरू किया .नारी मुक्ति की अगुआ महिलाओं ने १८९० मे ही यह अनुष्ठान आरम्भ कर दिया था -लैंगिक समानता की चाह लिए महिलाओं को मानो 'शोल्डर समानता ' रास आ गयी थी .इस प्रवृत्ति ने फैशन विशेषगयों .इतिहासकारों का धयान अपनी ओर खींचा .ब्रितानी नारियों ने १८९५ के आस पास ऐसी पोशाकें पहननी शुरू की कि ऐसा लगता था कि उस परिधान के स्कंधिका -ब्रोकेड के भीतर फूले हुए गुब्बारे रख दिए गएँ हों .ऐसी मुक्त हो चली नारियां पुरुषों से हर कदम से कदम मिला कर विश्वविद्यालय की डिग्रियां .खेल के मैदानों और उनके पारम्परिक पुरुष कार्य क्षेत्र तक चहल कदमी करने लगीं थीं .मगर यह भी कोई बात हुई कि उनके पुरुष्वत परिधानों के भीतर अभी भी कोरसेट और पेटीकोट मौजूद हुआ करते थे .वे सार्वजनिक रूप से तो पुरुशवत तो हो चली थीं मगर निजी तौर पर कमनीया नारी ही थीं .....जारी !

Friday 14 November 2008

विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा का समापन ....

विज्ञान कथा पर पहली राष्ट्रीय परिचर्चा ( १०-१४ नवम्बर , 08 ) का कल समापन हो गया ! यदि आपको रुचिकर लगे तो यहाँ आप मिनट टू मिनट कार्यक्रम और यहाँ अतिथि प्रतिभागियों का विवरण देख सकते हैं -कल ही परिचर्चा का समापन हुआ है और आज अचानक ही सब सूना सूना सा हो गया है .पूरे विवरण को ब्लॉग करना है पर शायद कुछ समय लग जाय ,क्योंकि अभी तो सिर पर आयोजक का भूत ही सवार है, रचना धर्मिता डरी सहमी पिछवाडे से झाँक सी रही है की यह मुआ आयोजक हटे तो मैं कुछ अर्ज करुँ -तो मित्रों थोडा सब्र करें ! इस बीच चाँद पर हमारा तिरंगा लहर उठा है -यह हमारे लिए अपूर्व गौरव और स्वाभिमान की बात है .इस पर भी कुछ लिखना है -एक अलग फोरम की मित्र मंडली ने एक चर्चा यहाँ पहले ही छेड़ दी है -आप चाहें तो वहाँ पधार सकते हैं .

Tuesday 11 November 2008

राष्ट्रीय परिचर्चा -विज्ञान कथा ,सत्र चालू आहे !

मित्रों ,जल्दी जल्दी कुछ बातें -कल उदघाटन सत्र और तीन तकनीकी सत्र पूरे हुए -यह मामला छाया रहा की विज्ञान कथा को मुख्य धारा के साहित्य में लानी के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए -या फिर इसे मुख्य धारा से बचा कर इसकी विधागत शुचिता को बचाए /बनाएं रहना चाहिए .क्योंकि मुख्यधारा की कई बुराईयों के समावेश से यह विधा अपनी विशिष्ट पहचान ही खो देगी .दूसरा मुद्दा यह रहा कि क्या विज्ञान कथा केवल पश्चिमी साहित्यिक सोच की उपज है या फिर इसके उदगम सूत्र भारत में भी तलाशे जा सकते हैं .आम मत से यह तय पाया गया कि भारत में मिथकों के प्रणयन और विज्ञान में फंतासी के प्रगटन में गहरा साम्य है -इन दोनों मुद्दों पर गहन विचार विमर्श से उद्भूत नवनीत -विचार को बनारस दस्तावेज -विज्ञान कथा -०८ में समाहित किया जायेगा .
कल के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जे आर एच विस्वविद्यालय के कुलपति महान गणितग्य प्रोफेस्सर एस एन दूबे थे जिन्होंने विज्ञान कथा की जड़ों को भारतीय पुराणों में स्थित पाया .अध्यक्षता प्रसिद्ध विज्ञान संचारक और राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार परिषद् नयी दिल्ली के निदेशक डॉ पटेरिया ने किया जिन्होंने विज्ञान कथा को विज्ञान के सहज संचार के माध्यम के रूप में विकसित करने पर बल दिया .
भारत की विभिन्न आंचलिक भाषाओं में भी विज्ञान कथा को प्रोत्साहन को बल दिया गया ,मराठी में तो यह पहले से ही समादृत है -
सत्र चालू आहे ......

Monday 10 November 2008

बनारस में शुरू हुई राष्ट्रीय विज्ञान कथा परिचर्चा !

मित्रों ,मेरी व्यस्तता का अनुमान आप लगा सकते है -उक्त परिचर्चा के संयोजन का भार मेरे ही कमजोर कन्धों पर आ पडा है जो कल से इस धार्मिक नगरी में आरम्भ हो गयी है -कल हम लोगों ने जीशान हैदर जैदी लिखित विज्ञान कथा बुड्ढा फ्यूचर का पुतल रूपांतर देखा .शायद किसी विज्ञान कथा के पुतल रूपांतर का विश्व में यह पहला प्रयास रहा -लोगों ने इस प्रदर्शन की भूरि भूरि प्रशंसा की .दूसरे ,अमेरिकी लेखक और प्रोड्यूसर मार्क लुंड की फ़िल्म फर्स्ट वर्ल्ड का प्रीमियर शो भी हुआ जो यह इंगित करता है कि धरती पर परग्रही आ भी चुके हैं और छुप कर हमसे हिल मिल कर रह रहे हैं .यह तथ्य नासा को भी मालुम है पर वहाँ के लोग अपना होठ सिये हुए हैं ।
.कल ही विश्व विज्ञान दिवस भी था ,इस मौके को लक्ष्य कर हमने इसरो से आए वैज्ञानिक डॉ नेल्लाई एस मुथु से चाँद -कल्पना और यथार्थ पर एक बहुत ही रोचक और जानकारी वाला व्याख्यान सुना .
उक्त परिचर्चा में देश के कोने कोने से लगभग १०० प्रतिभागी आए हुए हैं .
पल प्रतिपल का कार्यक्रम आप यहाँ देख सकते हैं .

Tuesday 4 November 2008

एक और दक्षिण -ऊत्तर मिलन :विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा !

हज़ार साल पहले केरल से चलकर शंकराचार्य ने मानव की ज्ञान बुभुक्षा के एक महायग्य में हविदान के लिए बनारस तक की पदयात्रा की और यहाँ आकर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया .आज ज्ञान यज्ञ की उसी परम्परा के संवहन में दक्षिण भारत के दो दर्जन आधुनिक शंकराचार्य काशी पधार रहे हैं -एक नए समकालीन ज्ञानयग्य में भाग लेने .और मैं उसका साक्षी बन रहा हूँ ! यह मेरे लिए गौरव और रोमांच का क्षण है -
विज्ञान कथा -साईंस फिक्शन दरसल मानव ज्ञान की वह विधा है जिसमें मानव के भविष्य और आने वाली दुनिया- समाज के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा होती है -कहानियों के जरिये समाज पर पड़ने वाले विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संभावित प्रभावों का रोधक वर्णन किया जाता है -इस विधा को पश्चिमी साहित्य में बड़ा सम्मान मिला हुआ है मगर भारत में इसका वह विकास नही हुआ जो अपेक्षित था -मुख्य कारण तो यही है की साहित्यकारों ने इस ओर ज्यादा रूचि नही दिखाई -भारत में अब इस विधा के उन्नयन मे नयी पहल हुई है ।
अब होने वाली रास्त्रीय परिचर्चा की मुख्य बातों को इस ब्लॉग के माध्यम से मैं आप तक लाने का प्रयास करूंगा ।
यह रास्ट्रीय परिचर्चा से १४ तक है ।तैयारियां फुल स्विंग पर हैं !

Sunday 2 November 2008

पुरूष पर्यवेक्षण :गरदन पर आ रुकी यात्रा !

ये पुरूष पर्यवेक्षण अब मेरे गले की हड्डी बनता जा रहा है -यह पर्यवेक्षण यात्रा के गर्दन तक आ पहुचने पर शिद्दत के साथ अहसास हो रहा है .अभी कोई आधे दर्जन ख़ास पड़ाव बाकी हैं और मेरा ध्यान उचट रहा है .वैज्ञानिक विषयों के निरूपण के साथ यही समस्या है -यदि पूरे मनोयोग से उनका निर्वाह नही हुआ तो फिर विषय के साथ न्याय भी नही हो पाता .यह भी दिख रहा है की जिस उत्साह के साथ बन्धु बाधवियों ने नारी -नखशिख सौन्दर्य यात्रा को लिया था वह सहकार पुरूष यात्रा में नही दिख रहा है .बहरहाल मैंने यह संकल्प लिया है तो पूरा तो करूंगा ही -
भले ही शनैः शनैः ....
आईये जल्दे जल्दी गर्दन की कुछ छूटी बातें हो जांय .गर्दन कई महत्वपूर्ण इशारों /भंगिमाओं को प्रगट करने में बड़ी मददगार है .यह वही अच्छी तरह रियलायिज कर सकता है जिसकी गरदन अकड़ गयी हो . जैसे हाँ या ना कहना ,दायें बाएँ गर्दन हिला कर नहीं (इनकार )और ऊपर नीचे गर्दन हिला कर हाँ (स्वीकार)के इशारे तो बहुत आम हैं .दूर से कोई जाना पहचाना आता दिखता है तो हम गर्दन कुछ पीछे की और ले जाकर अपनत्व दिखाते हुए उसका खैर मकदम करते हैं और गर्दन को झुका कर उसके सम्मान में अपनी पोजीशन डाउन दिखाते है -मगर यह बाद वाला सिग्नल ज्यादातर औपचारिकता ही है .यह किसी दबंग के सामने गर्दन झुकाने वाली भंगिमा नही है .नतमस्तक तो हम ईस्वर या ईश्वरीय सत्ता सरीखे के समक्ष ही होते हैं -मत्था टेकते हैं किसी बहुत ही आदरणीय के सम्मुख !
गले की मुसीबतें भी कुछ कम नही हैं अभी कल ही अनूप शुक्ल जी ने एक सन्दर्भ में टेटुआ दबाने का जिक्र छेड़ा था -लोगबाग आत्महत्या के निर्णय में इसी बिचारे गले के ही गले पड़ जाते हैं -चूंकि गर्दन से ही श्वास नलिका गुजरती है -फांसी का गहरा दंश इसी गले को ही झेलना पड़ता था .दंड देने के नृशंस प्रथाओं में धड से गर्दन को अलग करने का ही उपक्रम प्रमुख रहा है .
मनुष्य की विकास यात्रा में बिचारे गले ने क्या क्या नही झेला है फिर भी आज हम बहुतो की गर्दन सही सलामत है तो समझिये हम बहुत ही भाग्यशाली हैं .
एक निवेदन : पुरूष पर्यवेक्षण की यह यात्रा अभी कुछ समय तक इसी गर्दन पर ही सवार रहेगी -कुछ ऐसा आ पड़ा है की मुझे अपनी गर्दन की फिक्र हो आयी है -यह चर्चा अब एक पखवारे का विराम मांगती है सुधी जनों से .हाँ मैं कहीं जा नही रहा पर अभी ये चर्चा यहीं रुकेगी ! इस बीच मैं मित्रों के ब्लागों को देखता रहूँगा पर १५ नवम्बर तक टिप्पणी सक्रियक न रह पाऊँ .
आप से गुजारिश है कि भूलियेगा मत ! तो एक पखवारे के लिए विदा !