मनुष्य के संज्ञानबोध का फलक बहुत सीमित है .हम एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के उपरी छोर के गामा विकिरणों और निचले स्तर के अल्ट्रा वायलेट फ्रीक्वेंसी के बीच हिस्से के प्रति ही संवेदित हो पाते हैं ,उसका संज्ञान ले पाते हैं . यही हमरा दृश्य क्षेत्र है . इसे हमारा दृश्य संवेदी अंग रंगों में देखता है जहाँ नीले के ठीक ऊपर अल्ट्रा वायलेट -परा बैगनी क्षेत्र है जिसे कीट पतंगे तो देख लेते हैं मगर हम नहीं ...यही बात आवाज के साथ भी है जहाँ हमारी सीमाएं निर्धारित हैं -चमगादड़ उच्च तरंग दैर्ध्य वाली वे परा ध्वनियाँ सुन लेते हैं जिनका हमें भान तक नहीं होता ...और हाथी बहुत कम तरंग दैर्ध्यो वाले आवाज में संवाद कर सकते है और वह भी हमारे पल्ले नहीं पड़ता .
कुछ मछलियाँ विद्युत् तरंगों के सहारे गंदे पानी में भी गंतव्य तक जा पहुँचती हैं और यह क्षमता भी मनुष्य में नदारद है . हम धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की अनुभूति से भी वंचित हैं जिसका लाभ उठाकर बहुत से पक्षी प्रवास गमन करते हैं . और हम बरसात के बादल भरे दिनों में आकाश के उन सूर्य -प्रकाश के ध्रुवित पुंजों को भी लक्षित नहीं कर पाते जिनसे मधुमक्खियाँ सहारा पा अपने छत्ते और फूलों के बीच आने जाने का रास्ता तय करती हैं ...
मगर हमारी सबसे बड़ी अक्षमता है स्वाद और गंध के मामले की जिसमें हम सभी जीव जंतुओं से पिछड़ गए हैं .जीव जगत के ९९ फीसदी सदस्य चाहे वे बड़े जानवरों से लेकर कीड़े मकोड़े तक क्यों न हो रासायनिक /गंध के इस्तेमाल से संवाद कर लेते हैं . इन रसायनों को वैज्ञानिक फेरोमोन कहते हैं . गंध की क्षमता में ब्लड हाउंड कुत्तों और रैटल स्नेक के सामने हम निरे लल्लू ही हैं ... अपनी गंध और स्वाद की अनुभूति की अक्षमताओं ने मनुष्य को इतना लाचार कर दिया है कि इनसे जुड़े बहुत से अनुभवों के लिए वह तरह तरह की उपमाएं ढूंढता फिरता है .. मतलब गंध और स्वाद के बखान के लिए मनुष्य के पास बहुत कम शब्द संग्रह है . हालांकि मनुष्य इन कमियों की भरपाई के लिए तरह तरह के यंत्र /डिवाईस-जुगतें बना रहा है . कृत्रिम संवेदी नाक है तो जीभ की कृत्रिम स्वाद कलिकाएँ प्रयोगशालाओं में बनायी जा रही हैं जिनके लिए जीव जंतु माडल के रूप में चयनित किये गए हैं .
नए प्रयोगों में मनुष्य की निर्भरता जीव जंतुओं पर बढ़ती जा रही है ..फिर भी हम अपने को सर्वोच्च मानने के मुगालते में ही हैं ....