Saturday 2 August 2008

पांवों के पड़ाव पर विराम पाती सौन्दर्य यात्रा !

सौन्दर्य की अधिष्ठात्री प्रेम की देवी वीनस
"आप के पाँव बहुत खूबसूरत हैं ,इन्हे जमीन पर मत रखियेगा नहीं तो ये गंदे हो जायेंगे ", मशहूर फिल्म पाकीजा की शुरूआत ही नायक द्वारा नायिका के खूबसूरत पावों की प्रशंसा से होती हैं। सिन्ड्रेला या लालपरी की कहानियों का जन्म स्थान चीन माना जाता है,जहाँ नारी के छोटे पावों को सदियों से खूबसूरत माना जाता रहा है। अभी कुछ समय पहले तक चीन में लड़कियों के पावों को बर्बरता पूर्वक छोटा बनाये रखने का रिवाज था। उन्हें बहुत छोटे आकार के ``जूते´´ पहनाये जाते थे। पावों की ऐड़ी और अग्रभाग को मिलाकर बांध दिया जाता था ताकि उनका सामान्य विकास रूक जाय।
चीन में ही नन्हें पावों को ``सुनहले कमल´´ की संज्ञा मिली हुई है। व्यवहारविदों की राय में इन सुनहले कमलों की भी भूमिका रही है। प्रेम संसर्ग के आत्मीय क्षणों में प्रेमीजन इन कमलवत पावों को चूमने से नहीं अघाते। अपने पैरों की विकृति के कारण सहजता से चलने फिरने में लाचार चीनी रूपसियाँ अपने को पूरी तरह से पुरुष सहचरों की दया पर निर्भर पाती है। यौनासक्त चीनी पुरुषों के ``अहम´´ को इससे तुष्टि मिलती है।
सुन्दरता की ओट में क्रूरता का यह घिनौना खेल क्या परपीड़ा से सुख प्राप्ति की विकृत मानसिकता का परिचायक नहीं है। आश्चर्य की बात है कि अभी भी चीन में नारी के ``कमलवत पांवों´´ के उपासकों की कमी नहीं है। कहाँ हैं नारी स्वतन्त्रता के पक्षधर?
सेक्स प्रतीकों की दुनिया में नारी पावों को ढकने वाले जूतों को ``योनि´´ के रूप में भी देखा गया है। कई विदेशी संस्कृतियों में जूतों के विभिन्न आकार प्रकार योनि प्रतीक को उभारते हुए नजर आते हैं। पावों के अलंकरण में भारतीय नारी की अग्रणी भूमिका रही है। किसी भरतीय नृत्यांगना के पावों को देखिए। मेंहदी और घुंघरूओं से उसके पावों की खुबसूरती में चार चा¡द लग जाते हैं। भारतीय नारी के श्रृंगार विधान में पावों का अलंकरण प्रमुखता से मुखरित होता है। नाना प्रकार के आभूषण और मेंहदी की डिजाइनें नारी पावों को सौन्दर्य के शिखर पर ला देती हैं।
नारी देह के मनोरम स्थलों की सुखद यात्रा के इस पड़ाव पर पहुँच मन एक अलौकिक प्रशान्ति भाव से भर उठता है। नारी के नख-शिख सौन्दर्य की यह शोध यात्रा यही उसके चरणों में विराम लेती है। किन्तु यहाँ नख शिख का कोई भेद नहीं है। यह रूप संसार की वह खोज यात्रा है जहाँ अन्त में आप प्रस्थान बिन्दु पर फिर वापस हो लेते हैं ।
नारी के रूप बन्ध से मुक्ति कहां ? मगर शायद इसीलिये महाकवि इस रूप्जाल में उलझ कर जीवन के उत्तर्दाय्त्वों के प्रति विमुखता से आगाह भी करता है -
दीप शिखा सम युवति तन ,मन जन होऊ पतंग
यह श्रंखला यहीं संपन्न होती है -मुझे इस पर विपरीत विचारों के अनेक जन्झावात भी झेलने पड़े ,शायद परिप्रेक्ष्य को सही नजरिये से देख पाने के कारण कई ब्लॉगर बंधुओं से संवादहीनता की स्थिति बनी रही ...कुछ स्नेही औरपरिप्रेक्ष्य को समझ रहे ब्लॉगर बंधुओं ने मुझे लगातार प्रोत्साहित किया -मैं उन सभी सहयोगी साथियों और असहयोगी साथियों का भी आभार प्रगट करता हूँ जिन्होंने सम्मिलित रूप से इस सौन्दर्य यात्रा के जीवन्तता बनाए रखी -विज्ञान में विरोध की बड़ी अहमियत है -वादे वादे जायते तत्व्बोधःएक विचार यह भी आया कि विज्ञान के नजरिये से नर नारी को लेकर पक्षपात क्यों ? पुरूष सौन्दर्य वर्णन क्यों नही ? यह प्रश्न साहित्यकारों से पूछा जाना चाहिए -तथापि मैं पुरूष सौसठव् पर भी एक श्रृखला अवश्य करना चाहता हूँ ........