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Monday, 30 June 2008

देवासुर संग्राम से चंगेज खान के वंशजों तक का सफर -जीनोग्रैफी का जलवा !

डीएनए की इन्ही गुत्थियों मे उलझी है मानवता की विरासत
सबसे रोचक और चौकाने वाले तथ्य तो भारत में मानव के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति को लेकर उभर रहे हैं। डीएनए चिन्हकों (एम-174, एम-130) से तो यही संकेत मिलते हैं कि सबसे पहले मानव पुरखों का आगमन दक्षिण भारत में करीब 50 से 60 हजार वर्ष वर्ष पूर्व सीधे अफ्रीका से अरब सागर के जरिये हुआ था । इन्हें अफ्रीकी आदि मानवों के समुद्र तटवर्ती समूह के रुप में (एम-20) जाना गया है। इसी तरह-एम 69, एवं एम-52 जीन चिन्हकों को भारतीय चिन्हकों का दर्जा दे दिया गया है जो मध्य पूर्व देशों से प्रवास कर उत्तर पश्चिम की ओर से कालान्तर में भारत में प्रवेश करने वाली आदिम मानव टोली थी। यह घुमन्तू टोली तकरीबन 25000 वर्ष पहले भारत में उत्तर से आ पहुँची थी । कहीं इसी टोली ने तो सिन्धु घाटी की सभ्यता को जन्म तो नहीं दिया?

भारत में दक्षिण से मानव पुरखों का प्रवेश तो पहले ही हो चुका था। पामेर की पहािड़यों को ला¡घकर एक अन्य घूमन्तू टोली 30 हजार साल पहले मध्य पूर्व से भारत में प्रवेश करती हुई दक्षिण तक पहु¡चती दीखती है, जो एम-20 के रुप में चििन्हत हुई है। इन जीन चिन्हकों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि उत्तर पश्चिम से भारत में प्रवेश पाने वाली टोलियों ने दक्षिण भारत के तटवर्ती समूहों में पहले से ही बसी हुई आबादियों पर आक्रमण किया होगा, नर समूहों का समूल नाश कर मादाओं से संसर्ग कर आगामी वंशों/सन्तति को जन्म दिया होगा। इस स्थापना का एक पुख्ता प्रमाण यह है कि मौजूदा दक्षिण भारतीय जनसंख्या में आदि स्थानिक नर चिन्हकों का सर्वथा लोप हो गया है। कहीं यथोक्त घटनायें ही जन स्मृतियों में आज भी देवासुर संग्राम और कालान्तर के राम-रावण युद्ध के मिथकों के रुपों में तो नहीं अक्षुण हैं? कहीं यही घुमन्तू टोलिया¡ ही तो आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों की जनक और तदन्तर उनमें आमेलन की साक्षी तो नहीं रहीं?

आज `जीनोग्राफी´ ने फिर से इन मुद्दों को चर्चा में ला दिया है। स्पेंंसर की टीम ने अभी हाल ही में तेरहवी शती के मंगोल आक्रान्ता चंगेज खा¡ के वंशजों को भी ढू¡ढ़ निकाला है जो आज भी `हजारा कबीलाई समूह´ के नाम से पाकिस्तान में गुजर बसर कर रही हैं। कहते हैं कि चंगेज खा¡ की बर्बर सेना के योद्धा पराजित सेनाओं, प्रान्तों की औरतों को अपने हरम में सिम्मलित कर लेते थे और उन्होंने ही बहुपत्नी जैसी प्रथा का भी सूत्रपात किया। इस तरह चंगेज खा¡ ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया और करीब 1करोड़ लोगों में अपने पुरखों के एक खास `जेनेटिक चिन्हक´ को हस्तान्तरित किया। पाकिस्तान के `हजारा आदिवासियों, में यही चिन्हक आज भी मौजूद हैं। स्पेन्सर की टीम अब यह भी जानने में जुटी है कि कहीं सिकन्दर की विशाल सेना द्वारा भी कोई जेनेटिक चिन्हक´ आगामी पीढ़ियों तक हस्तान्तरित तो नहीं किया गया? और क्या महान सेनानी सिकन्दर के वंशज आज भी भारत या भारत के बाहर कहीं मौजूद हैं?

इसी परिप्रेक्ष्य में एक जेनेटिक मार्कर एम 124 का पता चला है जिसे `वाई गुणसूत्र´ हेप्लोग्रुप´ - आर-2 का नामकरण भी दिया गया है और जिसके वाहक वंशज यूरेशिआई देशों से चलकर उत्तर भारत, पाकिस्तान और मध्य दक्षिण भारत तक आबाद हुए और आज भी विद्यमान हैं। किन्तु कुल आबादी की तुलना में इनका अनुपात मात्र 5 या 10 प्रतिशत ही है।

मानव की इन आदि घुमन्तू टोलियों की जिजीविषा तो देखिये कि 50 हजार वर्ष की लम्बी कालावधि में आये दो हिमयुगों में भी वे बच निकले और अलास्का से होते हुए अन्तत: अमेरिका तक भी जा पहुंचे और वहाँ की निर्जन धरती पर भी मानवता का परचम लहरा दिया।

जैसा कि प्राय: युगान्तरकारी विचारों या मान्यताओं के साथ होता आया है, जीनोग्रैफिक परियोजना के उद्देश्यों पर भी असहमति की उंगलियाँ उठ रही हैं। इसे एक ओर जहाँ नस्लभेदी संस्कृति की एक नई मुहिम कहा जा रहा है, वहीं यह आशंका भी जतायी जा रही है कि देशज/मूल मानव वंशजों की `जीन सामग्री´ का कहीं चोरी छिपे व्यावसायिक लाभ न उठा लिया जाय या फिर उनके खास प्रक्रमों को पेटेन्ट न करा लिया जाय। यह भी शंकायें उठायी जा रही है कि इतिहास की पुनव्र्याख्या से कहीं नये विवाद और जनान्दोलनों की शुरुआत न हो जाय और सामाजिक विघटन की एक नयी तस्वीर उभरने लगे।

स्पेन्सर ने इन सभी आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका तो यही मानना है कि जीनोग्राफी परयिोजना की नीयत बिल्कुल साफ है और इसके परिणामों में जन कल्याण की भावना ही निहित है। लेकिन कई विचारकों की राय में इसी तरह के कार्यों के लिए ही `गड़े मुर्दे उघाड़ना´ सरीखे मुहावरे गढ़े गये हैं जिनका शािब्दक अर्थ ही है- `अनावश्यक कार्य करना।´

अब जीनोग्राफिक परियोजना कोई अनावश्यक कार्य है या फिर मानवता के हित में एक परमावश्यक मुहिम यह तो आने वाला समय (2010?) बतायेगा, जब परियोजना अपनी पूर्णता पर पहुंचेगी और प्राप्त आ¡कड़ों के विश्लेषण तथा व्याख्या का दौर शुरु होगा। तब तक तो हमें इंतज़ार ही करना होगा ।

समापन किश्त ........

Sunday, 29 June 2008

जंह जंह चरण पड़े संतों के .......


जीनोग्राफिक परियोजना के तहत अभी तक सम्पन्न शोधों के आधार पर जिस मानव वंश बेलि की तस्वीर उभरती है, उससे यह निर्विवादत: स्पष्ट होता है कि मौजूदा सभी मानवों का उद्भव अफ्रीका में हुआ था। अन्यान्य प्रभावों के चलते अफ्रीका से उनका अनवरत पलायन विश्व के अनेक भागों तक होता रहा है। इस तरह स्पेन्सर मानव विकास के `बहुप्रान्तिक विकास मॉडल´ का खण्डन करते हुए, मानव की अफ्रीकन उत्पित्त का पुरजोर समर्थन करते हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि मौजूदा मानव 60 हजार वर्ष पहले के अफ्रीका वासी एक खास पुरुष पुरातन का ही वंशज है।

विश्वभर में `जीनोग्राफी´ के अध्ययन को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए कुल दस देशों में अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की गयी हैं। ये देश हैं- अमेरिका, ब्राजील, फ्रांस, लेबनान, दक्षिणी अफ्रीका, ब्रिटेन, रुस, चीन, आिस्ट्रया और भारत। भारत में यह जिम्मा मदुराई कामराज विश्वविद्यालय तमिलनाडु को सौंपा गया है .इम्यूनोलाजी (शरीर प्रतिरक्षा) विभाग के मुखिया प्रोफेसर रामास्वामी पिचप्पन ने `जीनोग्राफी´ अध्ययन की कमान सभा¡ली है। उन्होंने अभी तक जो अध्ययन किया है उसमें तमिलनाडु के एक वर्ग और उड़ीसा के गोण्ड जनजातियों में आश्चर्यजनक समानतायें पाई गयी हैं।
भारत में `जीनोग्राफी´ की शुरुआत तो एक दशक पहले ही हो चुकी थी जब स्पेन्सर वेल्स ने स्वयं यहाँ आकर मदुराई के एक गावं ज्योतिमानिकम से वहाँ के मूल निवासियों के 700 से भी अधिक रक्त - नमूने लिए थे। स्पेन्सर ने तब कहा था कि उन मूल निवासियों के एकत्रित रक्त नमूनों की हर एक बूँद जीनों की भाषा में लिखे उनके वंश इतिहास को समेटे हुए है। सचमुच जब उन नमूनों की जांच का परिणाम मिला तो भारत में मानव के पदार्पण के अब तक के ज्ञात इतिहास की मानों चूलें ही हिल गयी।

जीनों की भाषा ने यह स्थापित कर दिया कि भारत में मानव के आदि पुरखों के चरण सबसे पहले दक्षिण भारत के पश्चिमी समुद्रतटीय प्रान्तों में पड़े थे, जहाँ से आगे बढ़ते हुए वे (रामसेतु से होते हुए? ) श्रीलंका और आस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे .होंगे स्पेन्सर ने अपनी इस स्थापना के पक्ष में एकत्रित नमूनों के डीएनए में `पुनर्संयोजन रहित वाई गुण सूत्रों´ के एक खास चिन्ह (एम-130) का सहारा लिया, जो 60 हजार वर्ष पहले के अफ्रीकी नर जीवाश्मों और मौजूदा आस्ट्रेलियाई आदिवासियों में पाया गया है। इसी अध्ययन से ही वेल्स रातों रात मशहूर हुए और अमेरिका के प्रसिद्ध गेटवे कम्प्यूटर्स के संस्थापकों द्वारा स्थापित वैट्ट फैमिली फाउण्डेशन ने इस अध्ययन कार्य को बढ़ावा देने का फैसला कर लिया।

चार करोड़ डालर के अनुदान से यह वैिश्वक अध्ययन-अभियान अब अपने परवान पर है। जीनोग्रैफी परियोजना का मुख्य उद्देश्य अभी तक तीन विचार बिन्दुओं पर केिन्द्रत है।

1- मानव के उद्भव सम्बन्धी पुराजीवािश्मकी का अध्ययन।

2- आदि मानव के प्रवास/भ्रमण पथ की जानकारी,

3- मानव जनसंख्या के फैलाव/बिखराव और विविधता से जुड़े अध्ययन।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए परियोजना के तहत अपनायी जाने वाली रणनीति में विश्व भर में फैले मैदानी अध्ययन केन्द्रों पर अनुसन्धान के साथ ही व्यापक जनसहभागिता के लिए जनजागरण अभियानों की शुरुआत की गयी है। साथ ही एक जीनोग्रैफी कोष की भी स्थापना की गयी है जिसमें कोई भी व्यक्ति नेशनल जियोग्राफिक की वेबसाइट पर जाकर `जीनोग्रैफिक´ किट खरीद कर भागीदारी कर सकता है। इस `किट´ का मूल्य 100 डालर (लगभग चार हजार रुपये) है तथा इसमें दानदाता के मु¡ह के अन्दरुनी भाग (गाल) के खुरचन से ही नमूने की जांच की मुकम्मल व्यवस्था की जाती है। नमूने कुछ खास उपस्करों-सूक्ष्म नलिकाओं में डालकर नेशनल जियोग्राफी के जा¡च केन्द्रों को भेज दिया जाता है। चन्द सप्ताहों में ही जा¡च परिणाम उपलबध करा दिया जाता है जिसे दिये गये एक `कोड´ के जरिये दानदाता वेबसाइट पर जा¡च परिणाम और उसकी विस्तृत व्याख्या से अवगत हो सकता है।

अभी तक की जा¡च परख से जेनेटिक चिन्हकों तथा मानव के आदि प्रवास पथो की जो जानकारी मिली है उससे ज्ञात इतिहास की कई अवधारणाओं को गहरा धक्का लगा है। आज की मौजूदा 90 से 95: गैर अफ्रीकी मानव की आबादी के मूल में अफ्रीका से तकरीबन 60 हजार वर्ष पहले पलायन करने वाले एम-130, एम-89, आदि चिन्हको वाले मनु वंशी पहचाने जा चुके हैं। कालान्तर में इनके अन्य शाखाओं के डीएनए में उत्परिवर्तनों से ऊपजे एम-9 चिन्हकों की मौजूदगी आज उत्तरी अमेरिकियों और पूर्वी एशियाई देशों के कबीलों में देखा जा रहा है। इन जेनेटिक चिन्हकों की विभिन्न देशज मानव आबादियों में पायी जा रही उपस्थिति से जो तस्वीर उभरती है उसके अनुसार अफ्रीकी महाद्वीप के केई पूर्वी प्रान्तों (इथोपिया, तंजानिया¡, केन्या आदि) से 60 हजार वर्ष पहले मानवों का पहला महाप्रवास आरम्भ हुआ था। इनके यायावरी दल नये शिकार स्थलों की खोज में उत्तर की ओर आगे और आगे बढ़ते हुए मध्य पूर्वी खाड़ी के देशों से अनातोलिया (अब टर्की ) होकर 30-40 हजार वर्ष पहले एक ओर तो ईरान, मध्य एशिया के अछूते चारागाहों-शिकार स्थलों तक जा पहु¡चा तो दूसरी ओर उन्ही यायावरों का एक दल (एम-9) यूरोपीय देशों तक जा पहु¡चा। इसी एम-9 से अलग हुई एक टोली यूरेशिया में हजारो वर्षों तक आबाद रही किन्तु इसके दक्षिण मध्य एशियाई देशों तक की यात्रा में विशाल पर्वत उपत्कायें बड़ी बाधा बन गई।

हिन्दूकुश, नियानशाह और हिमालय इनके मार्ग में अवरोध बन गये, लिहाजा इस यायावरी टोली के वंशधर अन्य दिशाओं की ओर आगे बढ़ चले। इन्हीं की एक शाखा (एम-49) हिन्दूकुश, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, दक्षिणी साइबेरिया तक भी आबाद हुई। एम-173 प्रशारवा ने यूरोपिआई देशों पर कब्जा जमाया और `होमोसेपियेन्स´ के भी पूर्वज नियेन्डर्थल मानवों का निर्ममता से सफाया कर डाला और अपना एक छत्र राज्य स्थापित किया। इनके वंशधर आज भी स्पेन, इटली में विद्यमान हैं ।
चित्र में राम सेतु है जिससे होकर म१३० मनु वंशी कभी गुजरे होंगे .........
अभी और भी है यह दास्ताने मनु -सतरूपा .......

Saturday, 28 June 2008

आप जीनोग्रैफी पढ़े ही क्यों ?

पुरूष पुरातन का भ्रमण पथ
आज जीनोग्रैफी को लेकर हल्का सा विज्ञान बतियाता हूँ पर कोशिश यह रहेगी कि यदि आप थोडा सा समय निकाल कर इसे पढ़ लेगें तो यदि आपका विज्ञान का बैकग्राउंड नही भी है तो आप मामले को समझ जायेंगे ।

अब प्रश्न यह है कि इन आलतू फालतू चीजों को आप पढ़े ही क्यों ?यह आपकी बढ़ती महंगाई में कोई मदद तो नही करने वाली है .मगर मुझे जानकारी है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में एक से एक ज्ञान पिपासु जन हैं जिन्हें मानव के अतीत में रूचि हो सकती है .यह उनके लिए ही है.और सौ पते की बात यह कि मैं अपना काम कर रहा हूँ बाकी आप जानें ।

स्पेन्सर वेल्स ने `नेशनल जियोग्राफिक´ के वेबसाइट `नेशनल जियोग्राफिक डाट काम´ पर इस परियोजना में अपनायी जाने वाली डीएनए विश्लेषण प्रविधि का विस्तृत व्योरा दिया है।

आप सभी जानते ही हैं कि डीएनए वह आनुवंशिक, जैवरासायनिक पदार्थ है जो मनुष्य के विकास की दिक्कालिक यात्रा में कई नैसर्गिक उत्परिवर्तनों को समेटता रहता है और ऐसे उत्परिवर्तनों को जांचने के तरीके आनुवंशिकीविदों द्वारा विकसित किए जा चुके हैं, फलस्वरुप खास चिन्ह धारक मानव वंशजों/विरासतों वाली आबादियों को स्पेन्सर द्वारा पहचाना और वर्गीकृत किया जा रहा है। इसी प्रक्रिया को ही `जीनोग्राफी´ का नामकरण मिला है। यानी पारम्परिक `जियोग्राफी´ (धरती का मान चित्रण-भूगोल) के बाद, अब ज्ञान की एक नई शाखा `जीनोग्राफी´ यानि कि `जीन मानचित्रण।


धरती के विभिन्न भूभागों में रहने वाली देशज मानव आबादियों के सन्दर्भ में इस जीन मानचित्रण के महत्व को विशेष रुप से आँका जा रहा है। मनुष्य के जीन मानचित्रण में वाई गुण सूत्रों तथा माइटोकािन्ड्रल डीएनए की प्रमुख भूमिका है। वाई गुणसूत्र जहाँ एक अन्तर्नाभिकीय रचना है, माइटोकािन्ड्रयल डीएनए नाभिक के बाहर साइटोप्लाज्म में पाये जाने वाले `ऊर्जा भण्डारों´ यानि माइटोकािन्ड्रया के भीतर मिलता है, किन्तु इसकी भी प्रकृति आनुवंशिक होती है। वाई गुणसूत्र जहाँ पिता से मात्र पुत्र की वंश परम्परा में अन्तरित होता चलता है, माइट्रोकािन्ड्रयल डीएनए मां से पुत्रियों की वंशावली में भी संवाहित होता है।

नृशास्त्रियों और आनुवंशिकी विदों की टोलियों ने मानव के वंश परम्परा के उद्गम-अतीत की खोज में ऐसे `आदि मनु´ (!) और ऐसी `आदि (सतरुपा!) के जीवाश्मों को ढूंढ निकाला है, जिनसे मौजूदा मानवों का उद्भव हुआ है। दरअसल हमारी आदि मां जो आज के सभी नर-नारियों की निकटतम पुरखा मानी गई है, अफ्रीका के इथोपिया प्रान्त में करीब डेढ़ लाख वर्ष पहले गुजर बसर कर रही थीं। स्पेन्सर के अनुसार हमारी-आदि पुरखा मां की यह खोज ``जैव-आणुविक´´ घड़ी तकनीक के सहारे सम्भव हुई है, जिसमें व्यतीत हुए समय और मातृ परम्परा के डीएनए में हुए वंशाणुवीय विचलनों के अन्तर्सम्बन्धों को जाँचा जाता है। इससे मानव के विकास से जुड़ी कड़ियों की जानकारिया¡ हासिल की जाती हैं। इसी तरह, वाई गुणसूत्रों के चिन्ह की पुरखों तक हुई खोजबीन से यह जानकारी मिली है कि हम जिस आदि पुरुष (मनु या आदम) के वंशधर हैं वह अफ्रीका में करीब 60 हजार वर्ष पहले जीवनयापन करता था। डीएनए चिन्हकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मनु या सतरुपा/आदम और हव्वा से जुड़ी हमारी पौराणिक मान्यताओं के विपरीत इनके काल खण्डों में बड़ा अन्तराल है, यानि हमारी आदि मां तथा आदि पिता -मनु में समय का फासला लगभग एक लाख वर्ष का है। मतलब यह कि `जेनेटिक´ आदम और हौवा (या मनु और सतरुपा) न तो धरती पर साथ जन्में और न ही एक साथ रह पाये!

अभी आगे भी है .........

Friday, 27 June 2008

आख़िर जीनोग्रैफी परियोजना है क्या बला ?

जीनोग्रैफी परियोजना के बारे में मेरी पिछली पोस्ट पर कुछ मित्रों ने कई तरह की जिज्ञासाएं प्रगट की हैं .अतः इसके बारे में थोडा परिचित हो लें ।
मशहूर अमेरिकी संस्था, नेशनल जियोग्रैफिक और आई0बी0एम0 (कम्प्यूटर) प्रतिष्ठान ने मिलकर एक लाख से भी अधिक मनुष्यों के डी0एन0ए0 की जा¡च का बीड़ा उठाया है। अप्रैल, 2005 में शुरू हुई पाँच वर्षीय इस मुहिम का नाम `जीनोग्रैफिक प्रोजेक्ट´ रखा गया है। उद्देश्य है अफ्रीकी महाद्वीप से, मनुष्यों के उद्भव/उद्गम के उपरान्त धरती के कोने-कोने तक फैल चुकी मानव आबादियों के प्रवास गमन मार्गों की खोज और डी0एन0ए0 के विश्लेषण से विभिन्न देशज मानव आबादियों की आपसी समानताओं और विभिन्नताओं की पड़ताल करना। यह महत्वाकांक्षी परियोजना लोगों को उनके आदि पुरखों और वंश - इतिहास की भी मुकम्मल जानकारी मुहैया करायेगी। साथ ही, इस परियोजना के चलते भारत तथा विश्व इतिहास तथा पुराण के कई अन्धेरे पक्षों को भी आलोकित हो उठने की उम्मीदें जग गई हैं।
मसलन, भारत में मनु पुत्रों के पहले पग चिन्ह कब और कहाँ पड़े? भारत में आर्य बाहर से आये या नहीं। सिन्धु घाटी की सभ्यता से पूर्व भी क्या भारत में कोई सभ्यता मौजूद थी? पुराणों में वर्णित देवासुर-संग्राम तथा राम रावण युद्ध का यथार्थ क्या है, आदि, आदि। इसी तरह वैिश्वक इतिहास के अनेक अध्यायों को पुनर्परिभाषित किये जाने की स्थिति भी उत्पन्न हो गयी है। शायद यही कारण है कि इस परियोजना के प्रयोग परिणामों की ओर अनेक बुिद्धजीवियों, इतिहासकारों, प्राच्यविदों की सतर्क निगाहें उठ चुकी हैं और वे पल-पल इसकी प्रगति की जानकारी ले रहे हैं। इस परियोजना के मुखिया स्पेन्सर वेल्स स्वयं एक प्रतिभाशाली इतिहास वेत्ता रहे हैं और वे एक जाने माने आनुवंशिकी विशेषज्ञ भी हैं।एक मणि कांचन संयोग . उन्होंने विश्वभर में फैले कई देशज/मूल निवासियों के डीएनए में पाये जाने वाले खास जीन चिन्हकों की पहचान कर ली है जिससे समान या असमान मानव वंशजों की खोज खबर काफी आसान सी हो गई है। यही नहीं अब अनेक वंशावलियों के प्राचीन जेनेटिक-इतिहास को जानना भी सम्भव हो चला है। चालीस लाख डालर के शुरुआती फंण्ड से संचालित इस जीन मानचित्रण परियोजना को वैट्ट फैमिली फाउण्डेशन का भी उदात्त सहयोग मिला है।
क्रमशः ........

Wednesday, 25 June 2008

धत्त तेरे की ,मैं आयतुल्ला खुमानी के खानदान का थोड़े ही हूँ!


इन दिनों जेनेटिक्स की दुनिया में जीनोग्रैफी जांच की बड़ी चर्चा है .इस जांच से यह पता चल सकता है कि आप के पुरखों का उदगम कहाँ हुआ .और अब आप के साथ आपके पुरखों की वंश बेलि इस धरा पर कहाँ कहाँ बनी हुयी है ?यानि यह जांच आपकी जेनेटिक जड़ों और जमीन को उजागर कराने वाली है .मेरी भी बेतहाशा इच्छा हुयी कि मैं भी इस जांच के परिधि में आ जाऊं .लिहाजा डीएनए जांच किट का आर्डर दे दिया -यह मुझे आईबीएम , नेशनल जिओग्राफिक और वैट फाउन्दैशन अमेरिका के संयुक्त प्रतिष्ठान से साढे चार हजार रूपये में प्राप्त हुयी.और निर्देशानुसार मैंने गाल के अंदरूनी खुर्चनों को वहाँ से आए परखनली के सरंक्षक घोल में डाल कर भेज दी .और अब मेरी जांच रिपोर्ट इन्टरनेट पर है -यहाँ .आपको इस कोड - FWSNPLP48Lसे लागिन करना होगा -समय मिले तो देखें .इस सारे तामझाम का नतीजा यह है कि मेरे Y क्रोमोसोम के चिन्ह्कों ने यह उजागर किया है कि मैं M-9 समूह का सदस्य हूँ और ४०००० वर्ष पहले मेरे एक परम आदरणीय आदि पुरखे इरान या मध्य एशिया में कहीं जन्मे और मेरे इस चिन्हक M-9 को धारण किया और तब से M9 धारी जन इस धरा को धन्य कर रहे है -M9 का यह जेनेटिक गोत्र यूरेशियन CLAN कहलाता है .यह रोजी रोटी -शिकार की तलाश में आगे बढ़ा तो दक्षिणी मध्य एशिया के विशाल पर्वतों -हिदूकुश ,तियन शाह और हिमालय -पामेर नॉट ने रास्ता रोक लिया .मजबूर हो ये तजाकिस्तान से ही वापस मुडे -एक दल मध्य एशिया की और चला गया और दूसरा आज के पाकिस्तान से होते हुए भारत में पश्चिम उत्तर से घुसे -मेरे पूर्वज भी इन्ही में से थे .आज चेकोस्लोवाकिया ,मध्य एशिया और इरान के कई हिस्सों में मेरे समूह के लोग आबाद है -भारत में हिन्दी बोलने वाले करीब ३५% लोग मेरे M9 समूह के ही हैं .उत्तरी अमेरिका में भी यह चिन्हक पाया गया है .आज मेरे बन्धु बांधव पूरी दुनियाँ में फैले हुए हैं -अगर कोई वैश्विक सरकार बनी तो मेरे चुनाव जीतने के चांसेस हैं !