Thursday 31 July 2008

अब आ पहुंचे हैं नारी की खूबसूरत टांगो तक ......

सौजन्य -शटरस्टाक
नारी की `लम्बी´ टांगे खूबसूरती का प्रतीक मानी गयी है। यौन परिपक्वता की उम्र आते - आते टांगे अपनी अधिकतम लम्बाई ले लेती हैं। इसलिए इनकी अतिरिक्त लम्बाई ``अति लैंगिकता ´´ का प्रतीक बन जाती है ।तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन/प्रदर्शन में नारी की टांगों को प्रमुखता से दिखाया जाता है। भले ही उत्पाद विशेष और नारी की टांगों का दूर दराज का भी कोई सम्बन्ध न हो। यह उपभोक्ताओं को आकिर्षत करने की एक चालाकी भरी युक्ति है ।
यह भी गौरतलब है कि विश्वसुन्दरियों की प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने वाली रूपसियों की टाँगे अपेक्षाकृत लम्बी होती हैं। इन लम्बी टांगों को ऊंची ऐड़ी के जूतों पर साध कर उन्हें और भी लम्बा (खूबसूरत) बना दिया जाता है। फैशन की दुनिया में स्कर्ट की घटती बढ़ती लम्बाई भी टांगों के सौन्दर्य प्रदर्शन से नियमित होती रही है। नारी की जांघों का प्रदर्शन काफी कामोद्दीपक माना गया है ऐसा इसलिए है कि जांघे नारी योनि की निकटता का बोध कराती हैं।

Wednesday 30 July 2008

एक क्रांतिकारी विचार के १५० वर्ष !

डार्विन का खूब उपहास उडाया गया
मैं ज्ञान विज्ञान के प्रति अपने दायित्व से चूक जाउंगा यदि यह जानकारी आप से साझा नही करता।

इसी १ जुलाई को एक उस क्रांतिकारी विचार के १५० वर्ष पूरे हो गए जिसमें चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड वालेस नामक वैज्ञानिक द्वय के संयुक्त अध्ययन के परिणामों की घोषणा लन्दन में हुयी थी.कुहराम मच गया जब वैज्ञानिक तथ्यों को आधार लेकर यह जाहिर किया गया कि मनुष्य किसी दैवीय सृजन का परिणाम नहीं बल्कि जीव जंतुओं के विकास का ही प्रतिफल है .इससे बाईबिल की मान्यताओं की चूले हिल गयीं जो यह बताते नही अघाता था /है कि किस तरह इश्वर ने संसार का सृजन किया और आदमी की पसली से हौवा निकली .डार्विन -वैलेस के सिद्धांत ने इन विचार धाराओं को अन्तिम धक्का दे दिया ।

बड़ी चिल्ल पों मची -लन्दन की लीनियन सोसायटी ने बहस मुहाबिसे आयोजित किए -इसमे से ही एक में चर्च के बिशप विल्बरफोर्स ने डार्विन के पुरजोर समर्थक और उनके बुलडाग कहे जाने वाले थामस हेनरी हक्सले से पूछा था कि -

'जनाब आप किस तरफ़ से बन्दर के औलाद हैं अपने नाना की तरफ से या बाबा की ओर से .....'

निर्भीक हक्सले ने जो जवाब दिया वह इतिहास की सुर्खियों मे सज गया ।

उन्होंने कहा कि ,विल्बर फोर्स की तरह वाचाल और धूर्त ज्ञानी दम्भियों -नए ज्ञान को जानबूझ कर विवादित बनाए वाले किसी मनुष्य की बजाय वे एक बन्दर का वंशज होना पसंद करेंगे ।

जुलाई माह में ही इस तकरार के १५० वर्ष पूरे हो रहें हैं मगर अफ़सोस कि आज भी समूची दुनिया में सृजन्वाद अपना फन फैला रहा है .वैचारिक क्रान्ति का क्या फायदा हुआ ?

अभी तो इतना ही इस विषय पर साईब्लोग एक सीरीज करेगा जल्दी ही -जो डार्विन के प्रति मेरी श्रद्धांजलि होगी !

Tuesday 29 July 2008

नासा के जन्मदिन की अर्धशती !

नासा -नॅशनल एरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनीस्ट्रेशन अपने जन्म की अर्धशती मना रहा है .जुलाई 29, 1958, को इसे गठित किया गया था .जब रूसी स्पुतनिक ने १९५७ में अन्तरिक्ष की ओर छलांग लगाई थी तो अमेरिका ने इसे एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा था .नासा उसी चुनौती का एक माकूल जवाब था .और तभी से अन्तरिक्ष को लेकर एक ऐसी होड़ मची जो अब मानव को चाँद और मंगल की देहरी तक ले जा पहुँची है .अन्तरिक्ष पर्यटन का युग भी देखते देखते आ पहुंचा है और लोग अन्तरिक्ष की भारहीनता में भी हनीमून और 'फ्री ग्रेविटी ,फ्री सेक्स ' के मनसूबे बना रहे हैं .नासा के इस जश्न के क्षणों को आप यहाँ के खूबसूरत चित्रों के साथ साझा कर सकते हैं ।
नासा से मेरा भी एक संवेदना का रिश्ता रहा है .अन्तरिक्ष यानों में रोगाणुओं का यात्रियों पर क्या असर पड़ सकता है इस अभियान में मेरे सगे चाचा जी डॉ .सरोज कुमार मिश्रा का भी योगदान रहा .उनका यह साझा शोध पत्र पेटेंट के लिए भी संस्तुत हुआ .नासा ने गोपनीय कारणों से एक ,करग नेशनॅशनल का गठन किया और उसी के जरिये कई शोध कार्य कराये जिसमे डॉ सरोज कुमार मिश्रा का उद्धृत शोध पत्र ,उसी के सौजन्य से था .अब चाचा जी नासा में नही हैं -उन्होंने वहाँ से त्याग पत्र दे दिया -पर क्यों ,मुझे यह उन्होंने गोपनीय रखने को कहा है .और मैं विवश हूँ -भले ही असहज महसूस कर रहा हूँ ।
जो कुछ भी हो नासा की उपलब्धियों से मैं प्रभावित हूँ और इस जश्ने अन्तरिक्ष में मैं भी शामिल होता हूँ -थ्री चीयर्स के साथ .....

Monday 28 July 2008

प्रेम के इस प्रतीक चिह्न से कौन अपरिचित है ?


पहले एक निवेदन :

इस सौन्दर्य यात्रा पर कुछ सुधी पाठकों की जेनुईन आपात्तियां मिली हैं -मेरा आग्रह है कि यह आवश्यक नहीं कि जो कुछ यहाँ व्यक्त हो रहा है उससे मेरी अनिवार्यतः सहमति ही हो .व्यवहार शास्त्री कैसे मनुष्य को अन्य पशुओं के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं यह लेखमाला उसी के एक पहलू पर पर केंद्रित है .आगे अन्य विषय भी आते ही रहेंगे ।अस्तु ,

[नितम्बों की अगली कड़ी ......जारी .]

सभ्य समाज में भी कई नृत्य प्रारूप नारी नितम्बों के आकार को बढ़ा-चढ़ा कर ही प्रस्तुत करते है। यह सब यही सिद्ध करता है कि नारी नितम्बो की विकास यात्रा में उनके यौनाकर्षण की प्रबल भूमिका रही है। यह सही है कि हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्ष पहले ही चार पैरों पर चलना छोड़ दिया था किन्तु आज भी हमारे अवचेतन मन से नारी नितम्बो के प्रति प्रबल मोह का भाव मिटा नहीं है। कहते हैं कि प्रेम का वैिश्वक प्रतीक चिन्ह (हृदयाकृति) दरअसल नितम्ब की ही सरलाकृति है।

इस चिन्ह के ऊपर के मध्यवर्ती गड्ढे (दरार) को देखिए और फिर खुद फैसला कीजिए कि यह दिल सरीखा लगता है या फिर नितम्ब जैसा? अपने प्रबल यौनाकर्षण की क्षमता के चलते नारी नितम्बों को ``चिकोटीबाजों´´ की अप्रिय हरकतों को भी ``सहना´´ पड़ता है।

इटली में चिकोटी बाजों का इतना आतंक है कि शायद ही कोई खूबसूरत (नितम्बों वाली) लड़की अपने अजनबी प्रशंसको को ``चिकोटी´´ से अनछुई बच जाय। भारत में भी भीड़-भाड़ भरे नगरी क्षेत्रों पिकनिक स्थलों पर चिकोटी बाजों की बन आती है। खुशवन्त सिंह की मशहूर कहानी `चिकोटी बाज´ ऐसे दृष्टान्तों की मनोरंजक झलक देती है। व्यंग पर मशहूर इतालवी पुस्तक ``हाऊ टू बी एन इटालियान´´ में नितम्ब चिकोटीबाजी की श्रेणियों तक का मजेदार वर्णन है। वहा¡ तीन तरह की चिकोटिया¡ बतायी गयी हैं। नौसिखियों के लिए ``द पिजिकैटो´´ है जिसमें अंगूठे और मध्यमा के सहयोग से अतिशीघ्रता से चिकोटी काटने का कला का वर्णन है। ``द विवैसी´´ में कई अगुलियों के समवेत प्रयास से एक ही चरण में शीघ्रता से कई बार चिकोटिया¡ काटने की विधि का व्योरा है। ``दु सोस्टेन्यूटों´´ श्रेणी के अन्तर्गत काफी देर तक चिकोटी का जमाव/दबाव नितम्बों पर बनाये रखने की सिफारिश है।

यह महज विवरण है इसकी कोई सिफारिश यहाँ अभिप्रेत नहीं है [सरल हृदयी पाठकों के लिए नोट ]

Saturday 26 July 2008

नारी-नितम्बों तक आ पहुँची सौन्दर्य यात्रा !

आज जीवित प्राइमेट (नरवानर) समुदाय) प्रजाति के लगभग २०० सदस्यों में से केवल मानव प्रजाति को ही अभारयुक्त गोलाकार नितम्बो की सौगात मिली है। नितम्बों का विकास तभी से आरम्भ हुआ जब मानव दो पाया बना और सीधे खड़े होकर चलने लगा। नितम्बों के साथ सबसे दिलचस्प बात यह है कि वे मानव शरीर के ``जोक रीजन´´ का प्रतिनिधित्व करते हैं। यानि हंसी ठट्ठे का केन्द्र हैं वे !

फिर भी नारी नितम्बों का सौन्दर्य पक्ष अनदेखा नहीं किया जा सकता। नितम्बों का आकार एक सशक्त कामोद्दीपक नारी अंग की भूमिका निभाता है और हमारे उस पशु अतीत की ध्यान दिलाता रहता है, जब कामोन्मत्त नर कपि रति क्रीड़ाओ हेतु मादा के पृष्ठ भाग पर आरोही हो रहे थे। पुरुष की तुलना में नारी के नितम्ब भारी और अधिक उभार वाले होते हैं। इतना ही नही नारी कूल्हों के ``मटकाने´´ के गुणधर्म के चलते नारी-नितम्बों का यौनाकर्षण बढ़ जाता है। इस तरह नारी नितम्ब की तीन प्रमुख विशेषताए¡-अधिक चर्बी , उभार और मटकाने (अनडुलेशन) की स्टाइल उसे पुरुष के लिए एक अत्यन्त प्रभावशाली यौनाकर्षण का केन्द्र बिन्दु बना देती हैं।

प्रख्यात व्यवहार शास्त्री डिज्माण्ड मोरिस तो यहाँ तक कहते हैं कि अतीत की नारी के नितम्ब यौनाकर्षण की अपनी भूमिका में इतने बड़े और भारी होते गये कि रति क्रीडा का मूल उद्देश्य ही बाधित होने लगा । लिहाजा मानव को सामने से यौन संसर्ग (फ्रान्टल कापुलेशन) का विकल्प चुनना पड़ा। कालान्तर में नारी स्तनों ने नितम्बो के `सेक्स सिग्नल´ की वैकल्पिक भूमिका अपना ली और तब कहीं जाकर नारी नितम्बो के बढ़ते आकार पर अंकुश लग सका।

किन्तु आज भी एक जैवीय स्मृति शेष के रूप में विश्व की कई आदिवासी संस्कृतियों में नारी नितम्बों को बहुत उभार कर दिखाने की प्रथा है। अफ्रीका की ``वुशमेन´´ आदिवासी´´ औरतें अपने नितम्बों को एक विशेष पहनावे के जरिये बहुत उभार कर ``डिस्प्ले´´ करती हैं।

Thursday 24 July 2008

छत्तीस के नहीं हैं कूल्हे और कमर के रिश्ते-सौन्दर्य के अगले पड़ाव पर !

कूल्हे और कमर के रिश्ते की पड़ताल :चित्र सौजन्य -ट्रेंड हंटर मैगजीन
कूल्हे मटकाना एक चर्चित मुहावरा है। इसका अर्थ चाहे जो कुछ भी हो इतना तो स्पष्ट है कि यह अपनी ओर ध्यान आकिर्षत करने की नारी की अनेक अदाओं में एक है। किसी रूप गर्विता का कूल्हे मटकाकर कहीं से निकलना कई रसिक जनों की दिल की धड़कनो को बढ़ा सकता है। पर जैवीय दृष्टि से नारी के `बड़े´ कूल्हें का फायदा शिशु के आसान प्रसव से जुड़ा है।

भारी भरकम कूल्हा नारी की उर्वर जनन क्षमता का प्रतीक है। नारी के कूल्हे जोरदार यौनाकर्षण के केन्द्र भी हैं अत: इन्हें साभिप्राय ``उभारकर´´ प्रदर्शित करने का प्रचलन भी रहा है। सौन्दर्य शिल्पकार अपनी नारी मूर्तियों के कूल्हों को खासों कोणों से उभार कर गढ़ते हैं। एक समय ब्रिटेन में कूल्हों की चौड़ाई सौन्दर्य का पैमाना मानी जाती थी। सबसे खूब सूरत लड़की वह होती थी जिसकी कमर की माप (इंचों में) ठीक उसके पिछले जन्म दिन की उम्र के बराबर होती थी। यानी जितनी पतली कमर होगी कूल्हे उतने ही चौड़े दिखेंगे।

कमर पतली रखने का कुछ ऐसा फैशन चला कि ब्रितानी महिलायें कुछ निचली पसलियों की शल्य क्रिया कराकर कमर की गोलाई कम करने में सफल हुईं .इस तरह कमर की सूक्ष्मतम माप 13 इंच तक जा पहुँची .अंग्रेज मेमों की पतली कमर देखकर ही शायद किसी शायर ने यह फिकरा कसा कि ``सुना है सनम को कमर ही नहीं है, खुदा जाने नाड़ा कहाँ बांधती हैं।´´

कमर की गोलाई को कम रखने की अनेक जुगतों ने कई समस्याओं को भी जन्म दिया। गर्भपातों की संख्या बढ़ने लगी श्वास रोगों में बढ़ोत्तरी हुई और यहाँ तक की आयु सीमा घटने लगी। चिकित्सकों ने कमर को पतला बनाने के अभियान का पुरजोर विरोध किया लेकिन विगत शती के पाँचवे दशक तक ऐसे पहनावों का बोलवाला रहा है, जो `पतली कमर´ को उभार कर प्रदर्शित करते हैं।
नारी की पतली कमर उसकी मासूमियत, कमसिन होने और अक्षत यौवना होने का भी प्रतीक रही हैं यदि किसी षोडशी के कमर की माप 22 इंच है, तो उसके मां बनने पर यह 28 से 30 इंच तक ``मोटी´´ हो सकती है। इसलिए धारणा यहा बनी कि कमर की माप जितनी कम होगी नारी की ``सेक्सुअल अपील´´ उतनी ही अधिक होगी। लेकिन अब सौन्दर्य बोध के प्रतिमान काफी बदल गये हैं।

विगत् वर्षों की भुवन सुन्दरियों की प्रति स्पर्धाओं में वक्ष कमर और कूल्हों का आदर्श अनुपात 36-24-36 का रहा है। इस जैव आंकडे में कमर और कूल्हों की माप के बड़े अन्तर को देखिए। कूल्हों को एक खास लय ताल में गति लेकर चहलकहदमी की आदत हालीवुड/बालीवुड की अफसराओं से लेकर आम नवयौवनाओं की भी रही है। कई नृत्य शैलियों में भी कूल्हों की विभिन्न गतियों को प्रमुखता मिली हुई है।
पुरुष नृत्यों में कूल्हों की गतियों पर वैसे तो काफी अंकुश रहा है किन्तु इधर हाल में इस प्रतिबन्ध के प्रति विद्रोह मुखरित हो रहा है, फिर भी कूल्हों को मटकाने का प्रकृति प्रदत्त अधिकार केवल महिलाओं को ही मिला हुआ है। इस मामले में तो वे निश्चित रूप से पुरुषों से बाजी मार ले गयीं हैं .

Wednesday 23 July 2008

नाभि अलंकरण :नख शिख सौन्दर्य यात्रा का अगला विराम

नाभि अलंकरण :फोटो सौजन्य -iStockphoto
नारियां तोंद मुक्त होती हैं .उनके पेट की बनावट ही कुछ ऐसी होती है कि मोटी से मोटी महिला भी तोंद रहित लगती है। यहाँ तक कि गर्भ धारण में भी उनके पेट का आकार तोंदनुमा नहीं दिखता। वसा के अधिक जमाव के बावजूद भी उनका पेट आगे निकले के बजाय चौड़ाई में फैलता है और कूल्हों को घेर लेता है। पुरुष की तुलना में नारी का पेट अधिक लम्बा व गोलायमान होता है, नाभि और गुप्तांग के बीच की दूरी भी अधिक होती है।

महिलाओं के पेट की इसी सुघड़ता ने कला चित्रकारों का मन हमेशा आलोडित किया है, जो इस नारी अंग को पुरुषों के लिए लैंगिक आकर्षण का एक पसंदीदा विषय मानकर अपनी तूलिका को गति देते रहें हैं। यहाँ (पापी) पेट का सवाल एक दूसरे नजरिये से उभरता है और कितने ही नारी ``माडल´´ अपने सुघड़ पेटों की बदौलत ऐश्वर्य सुख भोगती हैं। उनकी इस पेट की कमाई में उनकी नाभि का योगदान कुछ कम नहीं है।

दरअसल नारी पेट की कामोद्दीपकता में उसकी नाभि चार चाँद लगाती है। नारी की नाभि की आकृति गोलाकार अथवा लम्ब रूप (वर्टिकल) हो सकती है। मोटी महिलाओं की नाभि ज्यादातर मामलों में गोलाकार तथा पतली महिलाओं की नाभि लम्बरूप लिए होती हैं। लम्बरूप नाभि सौन्दर्यबोध के पैमाने पर ज्यादा आकर्षक लगती है, अत: नारी मॉडलों में प्राय: नाभि का आकार लम्बरूप ही होता है। व्यवहार विज्ञानी नाभि के इस लम्बरूप आकार की लोकप्रियता में उसका योनि -साम्य होना पाते हैं। चूंकि नारी की नाभि योनि प्रतीक बन गयी है अत: वह पुरातन ,वादियों परम्परावादियों की आंखों में खटकती रही है।

``द अरेबियन नाइट्स´´ फिल्म के निर्माताओं पर सेन्सर का वज्रपात `नाभि प्रसंग´´ को लेकर हुआ था। सेन्सर ने फिल्म की नृत्यांगनाओं के नाभि प्रदर्शन पर कड़ी आपत्ति की थी और कई नाभि प्रदर्शक नृत्यों को फिल्म से निकलवा दिया था। हालीवुड फिल्मों में भी नाभि प्रदर्शन पर एक बार प्रतिबन्ध लग चुका है। काम क्रीड़ा की कई पुस्तकों में नारी की नाभि को लघु योनि के रूप में भी चित्रित किया गया है।

एलेक्स कम्र्फट द्वारा लिखित और मेरी आल टाइम पसंदीदा रही मशहूर सेक्स विषयक विज्ञान सम्मत सचित्र पुस्तक ``द ज्वॉय आफ सेक्स´´ में नाभि की कामोद्दीपक भूमिका पर रोशनी डाली गयी है।[हाईली रेकमेंडेड ]``बेली नर्तकिया¡´ अपनी विभिन्न नृत्य मुद्राओं में नाभि को उत्तेजक ढंग से प्रदर्शित करती दिखायी देती हैं .और अब तो नाभि के अलंकरण का दौर भी शुरु हो चुका है- नाभि-नथुनियाँ भी कितनों के दिल पर सीधे वार कर रही हैं .

Tuesday 22 July 2008

दोहरी भूमिका में हैं नारी के वक्ष -भाग 2

मानव की `आदर्श भौतिक उम्र´ 25 वर्ष की मानी गयी है। इस अवस्था तक पहुंचते -पहुंचते समस्त शरीरिक विकास पूर्णता तक पहुँच चुका होता है। अत: इस उम्र तक नारी स्तन का विकास अपने उत्कर्ष पर जा पहुंचता है और भरपूर यौनाकर्षण की क्षमता मिल जाती है। ठीक इसके पश्चात् ही मातृत्व का बोझ नारी स्तन की ढ़लान यात्रा को आरम्भ करा देता है और वे अधोवक्षगामी होने लगती है।


जैवविदों के अध्ययन के मुताबिक पतली तन्वंगी नायिका के स्तन विकास की यात्रा धीमी होती है। जबकि हृष्ट-पुष्ट (बक्जम ब्यूटी) नायिका के स्तनों का विकास तीव्र गति से होता है। अब तो सौन्दर्य शल्य चिकित्सा (कास्मेटिक सर्जरी) के जरिये प्रौढ़ा के भी स्तनों में नवयौवना के स्तनों सा उभार ला पाना सम्भव हो गया है। विभिन्न तरह के वस्त्राभूषणों पहनावों के जरिये किसी भी उम्र की नारी अपने उसी ``नवयौवना´´ काल के स्तनों की ही प्रतीति कराती है।

परम्परावादियों की कोप दृष्टि हमेशा नारी स्तनों पर रही है। विश्व की कई संस्कृतियों में सामाजिक नियमों के जरिये नारी स्तनों को ढ़कने छिपाने के कड़े प्रतिबन्ध जारी किये जाते रहे हैं। ऐसी कंचुकियों/चोलियों के पहनाने पर विशेष बल दिया गया जिनसे नारी स्तनों का उभार प्रदर्शित न होता हो .सत्रहवी शताब्दी की स्पेनी नवयौवनाओं के स्तनों को सीसे की प्लेटों से दबाकर रखने का क्रूरता भरा रिवाज था, जिससे वे अपना कुदरती स्वरूप न पा सकें यानी बहुत पहले ही नारी स्तनों की यौन भूमिका जग जाहिर हो चुकी थी।

नारी स्तन की कुदरती अर्द्धगोलाकार स्वरूप की नकल कितने ही चित्रकार, छायाकार अपनी ``रचनाओ´´ में करके उनको सौन्दर्यबोध की नित नूतन परिभाषाए¡ प्रदान करते हैं। न्यूड मैगजीन के मध्यवर्ती पृष्ठों पर नारी स्तनों की कामोद्दीपकता वाली छवि के पाश्र्व में एक छायाकार को बड़ी मेहनत मुशककत करनी पड़ती है। उसे अपने सही मॉडल के तलाश में कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते .

नारी स्तनों को उनके सर्वोत्कृष्ट कामोद्दीपक स्वरूप में दर्शाने के लिए एक छायाकार को एक उस षोडशी की खोज होती है, जिसके स्तन पूरी तरह विकसित हो चुके हों-अपने अर्द्धगोलाकार रूप की चरमावस्था में पहु¡च चुके हों किन्तु अभी भी उनकी `स्थिरता´ बनी हुई हो- यह विरला संयोग सहज सुलभ नहीं होता।

हम यही जानते हैं कि मानव मादा के बस दो ही स्तन होते हैं, पर यह सच नहीं है, हकीकत यह है कि प्रत्येक दो तीन हज़ार महिलाओं में से एक को दो से अधिक स्तन होते हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है- ऐसी घटना हमें अपने उस जैवीय अतीत की याद दिलाती है, जब हमारे आदि पशु पूर्वजों की मादायें एक वार में एक से अधिक बच्चे जनती थीं-एक साथ कई बच्चों का गुजर बसर बस जोड़ी भर स्तनों से कहा¡ होने वाला था। किन्तु कालान्तर में मानव मादा के आम तौर पर एक शिशु के प्रसव या अपवाद स्वरूप जुड़वे शिशुओं के जन्म के साथ ही स्तनों की संख्या दो पर ही आकर स्थिर हुई होगी। किन्तु अभी भी कुछ नारिया¡ दो से अधिक स्तनों की स्वामिनी होकर हमें अपने जैवीय इतिहास पुराण की याद दिला देते हैं।

रोमन सम्राट एलेक्जेण्डर की मा¡ को कई स्तन थे, जिसके चलते उनका नाम जूलिया मेमिया पड़ गया था। हेनरी अष्टम की अभागी पत्नी एन्नजोलिन के तीन स्तन थे। इस ``अपशकुन´´ के चलते बेचारी को अपनी जान गवानी पड़ी थी अतिरिक्त स्तनों वाली नारी को आज भी कई यूरोपीय देशों में अभिशप्त माना जाता है एवं उन्हें चुड़ैलों का सा दरजा प्राप्त है।

Sunday 20 July 2008

दोहरी भूमिका में हैं नारी के वक्ष ...1

नारी वक्ष की दो रोल हैं- एक तो शिशु का पोषण (दुग्धपान) तथा यौनाकर्षण। किन्तु व्यवहारविदों की राय में नारी स्तनों की यौनाकर्षण वाली भूमिका ही ज्यादा अहम है। समूचे नर वानर समुदाय (प्राइमेट्स) में मानव मादा ही इतने उभरे अर्द्धगोलाकार मांसल स्तनों की स्वामिनी है। इससे यह स्पष्ट है कि मानव प्रजाति में मादा के स्तनों की मात्र शिशु पोषण वाली भूमिका ही नहीं है, जैसा कि वह नर-वानर वर्ग के कितने ही अन्य सदस्यों-चिम्पान्जी गोरिल्ला, ओरंगऊटान आदि वनमानुषों में हैं।
यह गौर तलब है कि वनमानुषों की मादाओं का स्तर अपेक्षाकृत बहुत पिचका और बिना उभार लिए होता है। नारी स्तनों की सबसे अहम भूमिका दरअसल यौनाकर्षण (सेक्सुअल सिगनलिंग) ही है। व्यवहार विज्ञानियों ने नारी वक्ष की यौनाकर्षण वाली भूमिका की एक रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि नर वानर कुल के तमाम दूसरे सदस्यों में मादाओं के नितम्ब प्रणय काल के दौरान तीव्र यौनाकर्षण की भूमिका निभाते हैं - उनके रंग आकार में सहसा ही तीव्र परिवर्तन हो उठता है। उनके नर साथी इन नितम्बों के प्रति सहज ही आकर्षित हो उठते हैं। यह तो रही चौपायों की बात किन्तु मानव तो चौपाया रहा नहीं।

विकास क्रम में कोई करोड़ वर्ष पहले ही वह दोपाया बन बैठा-दो पैरों पर वह सीधा खड़ा होकर तनकर चलने लगा। वैसे तो और उसके पृष्ठभाग में नितम्ब अपने कुल के अन्य सदस्यों की ही भा¡ति अपनी यौनकर्षण वाली भूमिका का परित्याग नहीं कर पाये हैं- किन्तु मानव के ज्यादातर कार्य व्यापार आमने सामने से ही होने लगे, और नितम्ब पीछे की ओर चले गये। अब जरूरत आगे, सामने की ओर ही वैकल्पिक यौनाकर्षक `नितम्बों´ की थी और यह भूमिका ग्रहण की नारी स्तनों ने। नारी के वक्ष दरअसल उसी आदि यौन संकेत का ही बखूबी सम्प्रेषण करते हैं - सेक्सुअल नितम्बों का भ्रम बनाये रखते हैं, मगर सामने से मानव मादा के स्तनों की यह नयी यौन भूमिका कुछ ऐसी परवान चढ़ी कि उसके मूल जैवीय कार्य यानी शिशु को स्तनपान कराने में मुश्किलें आने लगीं।

अपने उभरे हुए गुम्बदकार स्वरूप में नारी के स्तन शिशुओं का मुंह ढ़क लेते हैं, स्तनाग्र अपेक्षाकृत इतने छोटे होते हैं कि शिशु उन्हें ठीक से पकड़ नहीं पाता। उसकी नाक स्तन से ढक जाती है और वह सांस भी ठीक से नहीं ले पाता। प्राइमेट कुल के अन्य सदस्यों के शिशुओं को यह सब जहमत नहीं झेलनी पड़ती। क्योंकि उनकी मा¡ओ के स्तन छोटे पतले और पिचके से होते हैं और चूचक लम्बे, जिन्हें शिशु आराम से मु¡ह में लेकर दुग्ध पान करते हैं।

नारी के पूरे जीवन में स्तनों की विकास यात्रा सात चरणों में पूरी होती है। जिनमें बाल्यावस्था के `चूचुक स्तन´, सुकुमारी षोडशी के उन्नत शंकुरूपी स्तन, नवयौवना के स्थिर उभरे स्तन तथा मातृत्व और प्रौढ़ा के पूर्ण विकसित, अर्द्धगोलाकार - गुम्बद रूपी स्तन और वृद्धावस्था के सिकुड़े स्तन की अवस्थाए¡ प्रमुख हैं।

क्रमशः

भई गति कीट भृंग की नाई..... !!

यह है कीट भृंग गति !
भारतीय विद्या भवन मुम्बई की आमुख हिन्दी पत्रिका नवनीत के ताजे जुलाई अंक में उक्त शीर्षक का मेरा लेख प्रकाशित हुआ है ।
यह रामचरित मानस के उस प्रसंग के उल्लेख से आरम्भ होता है जब रावण मारीच को स्वर्ण मृग बन कर सीता हरण की योजना में मदद करने को बाध्य करता है ,लेकिन मारीच यह कहकर अपनी असमर्थता प्रकट करता है -

भई गति कीट भृंग की नाई..... जह तंह मैं देखऊँ दोऊ भाई !

दरअसल नवनीत का उक्त लेख मेरी उस अर्धाली के अर्थबोध की लम्बी प्रक्रिया और शोध का फल है ।

आध्यात्म में कीट भृंग गति की बड़ी चर्चा है .आख़िर यह कीट भृंग गति है क्या ?

उक्त लेख में यही विस्तार से विवेचित है .वैस्प-ततैये [बिलनी] की कुछ प्रजातियाँ घरों में मिट्टी के घरौदें बनाती हैं .चूंकि इनका जीवन बस कुछ माह का ही होता है ये घरौंदे बनाकर उसमें अंडे देकर अल्लाह मियाँ को प्यारी हो जाती हैं -अंडे से निकल कर आख़िर इल्लियों को खिलायेगा कौन -मान बाप तो गुजर चुके .इसलिए ततैये कुछ किस्म के कीटों को अपने डंक से मारकर उसी घरौंदे में डाल कर ,घरौंदे का मुंह बंद कर अपने दायित्व के इतिश्री कर लेते हैं ।
अपने डंक से जो रसायन वे कीटों में छोड़ते हैं उनसे कीट मरता नही बल्कि एक तरह की पैरालाईजड अवशता की स्थिति मे जा पहुंचता है .अब वह चूंकि मरा नही है अतः सड़ता गलता नही .ततैये के अंडे से फूट कर निकले बच्चे रखे रखाए भोज की दावत उडाते हैं और फिर अपने मात्र एक वर्ष के जीवन की लीला आरम्भ कर देते हैं ।

कीट भृंग के इस व्यवहार ने सदियों से प्रकृति प्रेमी संत मुनियों को आकर्षित किया होगा और उन्होंने इससे जुडी आध्यात्मिक उपमाएं सोची विचारी होंगी -

मारीच का कहना है कि उसकी गति तो राम लक्ष्मण को देखते ही भृंग के सामने कीट सी हो जाती है -वह बेबस और लाचार है .उसे ताड़का वध के समय राम के उस बाण की याद आती है जिसने उसे सौ योजन दूर जा पटका था ।

नवनीत का लेख थोडा और विस्तृत सन्दर्भों को समेटे हुए है .कहीं मिल जाए तो पढ़ना चाहें .

Saturday 19 July 2008

अब बारी है सुराहीदार गरदन की ....

साभार :थाईलैंड लाइफ
नायक की तुलना में नायिका की सुराहीदार गरदन अधिक लम्बी और लचीली होती है। यहाँ तक कि लम्बे अभ्यास के बावजूद भी बैले नर्तक अपनी गरदनें सहनर्तकियों के समान लम्बी नहीं कर पाते। दरअसल नारी के ग्रीवा के नीचे का अंग `थोरैक्स´ पुरुष की तुलना में छोटा होता है। एक चित्रकार/कार्टूनिस्ट की नजर में नारी की ग्रीवा का भी अपना विशेष स्थान है। जहाँ उसे नारी अंगों को उभारने की आवश्यकता होती है वह गरदन को भी बड़ी करने से नहीं चूकता। नारीत्व की एक पहचान के रूप में गरदन लम्बी करने की ऐसी होड़ विश्व की कुछ संस्कृतियों में देखने को मिलती है जो वस्तुत: क्रूरता की सीमा लांघती हैं।

बर्मा की जिराफ ग्रीवा नारियों, की व्यथा कथा कुछ इसी तरह की है। यहाँ करने जनजाति के पडांग शाखा की लड़कियों को बचपन से ही पाँच पीतल के छल्ले गरदन में डाल देते है। उम्र के बढ़ने के साथ ही छल्लों की संख्या भी बढ़ने लगती हैं ,यहाँ तक कि यौवन की दहलीज लाघते-लाघते 22 से 24 छल्ले उनकी गरदन की लम्बाई के 15 इंच से भी उपर तक जा पहुँचती हैं ।यदि इस दशा में इनकी गरदन से पीतल के छल्ले निकाल दिये जाय तो सिर एक ओर लुढ़क जायेगा। नारी की लम्बी ग्रीवा सिर की कई तरह की भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित करने में भी मददगार है।

सिर के कुछ प्रमुख अभिप्राय पूर्ण संकेतों में जैसे सिर का आगे पीछे हिलाना (हामी भरना) सिर झुकाना (समर्पण), सिर का आगे पीछे हिलाना (इन्कार) आदि गरदन की मदद से सम्भव होता है। शायद यही कारण है कि रसिक जनों को नारी ग्रीवा सहज ही आकर्षित करती रहती है।

Thursday 17 July 2008

ये होंठ है या पंखुडिया गुलाब की -नख शिख सौन्दर्य ,अगला पड़ाव !

क्या कहते हैं ये होठ ?फोटो साभार : Cult Moxie
ये होठ हैं या पंखुडिया गुलाब की ....जी हाँ सौन्दर्य प्रेमियों ने नारी के होठों के लिए गुलाब की पंखुिड़यों, रसीले सन्तरे कीफांक जैसी कितनी ही उपमायें साहित्य जगत को सौपी हैं। मानव होंठो की रचना अन्य नर वानर कुल के सदस्यों से ठीक विपरीत है। यह बाहर की ओर लुढ़का हुआ है, यानि मानव होठ की म्यूकस िझल्ली बाहर भी दिखती है जबकि अन्य नर वानर कुल के सदस्यों में यह भीतर की ओर है। यही म्यूकस िझल्ली नारी होंठों को भी एक विशेष यौनाकर्षण प्रदान करती है। काम विह्वलता के दौरान यही होठ अतिरिक्त रक्त परिवहन के चलते फूल से जाते हैं, रक्ताभ उठते हैं। व्यवहार विज्ञानियों की राय में नारी होठ यौनेच्छा का `सिग्नल´ देते हैं।
यहा¡ डिज्माण्ड मोरिस की एक दलील तो बड़ी दिलचस्प है। वे कहते हैं कि चूंकि नारी के योनि ओष्ठों (वैजाइनल लैबिया) और उसके होठों के भ्रूणीय विकास का मूल एक ही है, अत: यौन उत्तेजना के क्षणों में ये दोनो ही अंग समान जैव प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। उनकी प्रत्यक्ष लालिमा `योनि ओष्ठों´ की अप्रत्यक्ष लालिमा की भी प्रतीति कराती है। इन दोनों नारी अंगों के इस अद्भुत साम्य का कारण भी व्यवहार विज्ञानीय (इथोलाजिकल) है।
नर वानर कुल के प्राय: सभी सदस्यों में जिनमें सहवास पीछे से (मादा के पाश्र्व से) सम्पन्न होता है- मादा के यौनांग एवं पृष्ठ भाग (रम्प) प्रणय काल के दौरान रक्ताभ और अधिक उभरे हुए से लगते हैं जो नर साथियों को आकिर्षत करते हैं। किन्तु मानव जिसमें न तो कोई खास प्रणय काल (बारहों महीने प्रणय) होता है और सहवास की क्रिया भी आमने सामने से होती है, नर को आकिर्षत करते रहने का कोई विशेष अंग सामने की ओर दृष्टव्य नहीं होता। योनि ओष्ठ, वस्त्रावरणों के हटने के बावजूद भी प्रमुखता से नहीं दिखते। इन स्थितियों में प्रकृति ने नारियों के होठो को उनके वैकल्पिक रोल में अपने पुरुष सखाओं को रिझाने को जैवीय भूमिका प्रदान कर दी। यह प्राकृतिक व्यवस्था नारियों के हजारो वर्षों से अपने होठों को रंगते आने की आदत को भी बखूबी व्याख्यायित करती है।
यह भी गौरतलब है कि परम्परावादियों को नारियों के होठो की लाली फूटी आ¡ख भी नहीं सुहाती।

Wednesday 16 July 2008

कामोद्दीपक भी हैं नारी के कान ...मनोरम यात्रा का नया पड़ाव ....

कामोद्दीपक हैं नारी के कान
साभार :istockphoto
नारी के कानों का भी अपना अनूठा सौन्दर्य है .व्यवहार विज्ञानी डा0 डिजमण्ड मोरिस की राय में मानव कर्णों , खासकर नारी के कानों का सबसे खास गुण हैं उनकी कामोद्दीपक भूमिका। प्रणय प्रसंगों के दौरान नारी के कानों के मुलायम मांसल हिस्से (लोब्स) रक्त वर्ण हो उठते हैं, इनमें खून की आपूर्ति यकायक बहुत बढ़ जाती है, वे फूल से उठते हैं और स्पर्श के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हो जाते हैं। प्रणय बेला में कानों का विविध ढंगों से प्रेमस्पर्श नारी को काम विह्वल कर सकता है। प्रख्यात काम शास्त्री किन्से की राय में तो कुछ विरलें मामलों में मात्र कानों को उद्दीपित करने से ही नारी को मदन लहरियों (आर्गेज्म ) का सुख प्राप्त होना देखा गया है। इस तरह नारी के कान उसकी समूची देह रचना में एक महत्वपूर्ण ``कामोद्दीपक क्षेत्र´´ की भूमिका निभाते हैं।

कानों को नारी गुप्तांग का भी प्रतीक मिला हुआ है। उसकी आकार रचना ही कुछ ऐसी है। विश्व की कुछ संस्कृतियों-लोक रिवाजों में कानों का बचपन में छेदना दरअसलन एक तेरह से ``नारी खतने´´ (फीमेल सर्कमसिजन) का ही प्रतीक विकल्प हैं। किशोरियों के कान छिदवाने की प्रथा के पार्श्व में भी सम्भवत: यही अप्रत्यक्ष भावना रही होगी, भले ही प्रत्यक्ष रूप में इसका कारण श्रृंगारिक दिखता हो।

मिस्र में किसी व्यभिचारिणी की आम सजा है- कानों को तेजधार की छुरी से काट देना। नारी कानों को उसके गुप्तांग (योनि) का विकल्प मानने का ही एक उदाहरण है। महाभारत का एक रोचक मिथक सूर्य पुत्र कर्ण के जन्म को कुन्ती के कानो से मानता है। गौतमबुद्ध भी कुछ दन्तकथाओं के अनुसार कर्ण प्रसूता है। कानों में बालियों [कुण्डल]के पहनने का प्रचलन बहुत पुराना है। आरिम्भक कांस्ययुग (चार हजार वर्ष से भी पहले) से ही कानों में कुण्डल धारण करने का रिवाज विश्व की कई संस्कृतियों में रहा है। आरम्भ में तो कर्णफूल/बाली आदि आभूषणों को पहनने के पीछे किसी काल्पनिक खतरे से निवारण का प्रयोजन/(अन्ध) विश्वास हुआ करता था। किन्तु अब यह कानों के आभूषण `स्टेटस सिम्बल´ का भी द्योतक बन गया है। यह धनाढ्यता और सामाजिक स्तर को प्रतिबिम्बत करता है। कानों में आभूषणों का पहनाव नारी के सौन्दर्य को बढ़ाता है, क्योंकि यह नारी के कानो के कुदरती स्वरूप को और भी उभार देता है।

Monday 14 July 2008

"मैं शर्म से हुई लाल ...."बात है गालों की लाली की ...

चित्र सौजन्य :द इन्डियन मेक अप दिवा
नारी के नरम चिकने गाल मासूमियत और सुन्दरता की सहज अभिव्यक्ति हैं। ऐसा इसलिए कि बच्चों के से उभरे नरम गालों के गुण नारी में यौवन तक बने रहते हैं और सहज ही आकिर्षत करते हैं। प्रेम विह्वलता के सुकोमल क्षणों में गालों का रक्त वर्णी हो उठना, उनका प्रणय सखा द्वारा तरह-तरह से स्पर्श आलोड़न उनके एक प्रमुख सौन्दर्य अंग होने का प्रमाण है

´´ मैं शर्म से हुई लाल´´ में दरअसल यह गालों की ही लाली है जो एक विशेष मनोभाव को गहरी और सशक्त अभिव्यक्ति देती है। गालों के रक्त वर्ण हो उठने को एक तरह का यौन प्रदर्शन (सेक्सुअल डिस्प्ले) माना गया है। यह कुंवारी सुलभ अबोधता (विरिजिनल इन्नोसेन्स) का खास लक्षण है। ``ब्लशिंग ब्राइड´ के नामकरण के पीछे भी यही दलील दी जाती है।

व्यवहार विज्ञानियों का तो यहाँ तक कहना है गालों की लाली कुछ हद तक नारी के अक्षत यौवना होने का भी संकेत देता है। सम्भवत: यही कारण था कि प्राचीन गुलाम बाजारों में उन लड़कियों की कीमतें ज्यादा लगती थी जिनकी गालों पर (शर्म की) लाली अधिक देखी जाती थी। चेहरे के मेकअप में गालों को `रूज´ से सुर्ख करने की पीछे `विरिजिनल इन्नोसेन्स´ को ही प्रदर्शित करने की चाह होती है।

बहुत सी आधुनिकाओं के वैनिटी बैग में नित नये कास्मेटिक उत्पादों की श्रेणी में कई तरह के `ब्लशर्स´ भी शामिल हैं जो बनावटी तौर पर ही सही गालों को रक्तवर्ण बना देते हैं। सामाजिक मेल मिलापों और पार्टियों में इन `ब्लशर्स´ के जरिये अधिक वय वाली नारियां भी सुकुमारियों (टीनएजर्स) सरीखी दिखने का स्वांग करती है, अपना `सेक्स अपील´ बढ़ा लेती हैं।

गालों पर तिल होने की भी अपनी एक सौन्दर्य कथा है। मिथकों के अनुसार सौन्दर्य की देवी वीनस के मुंह पर भी एक जन्मजात दाग (सौन्दर्य बिन्दु) है। हिन्दी साहित्य की नायिका चन्द्रमुखी (दाग सहित) है ही। यदि ऐसा है तो फिर भला कौन नारी वीनस या चन्द्रमुखी दिखने से परहेज करेगी। लिहाजा गालों की सुन्दरता में एक धब्बे का स्थान भी ध्रुव हो गया है। नारी मुख का आधुनिक मेक अप शास्त्र `गाल पर तिल´ होने की महत्ता को बखूबी स्वीकारता है- यह काम मेकअप पेिन्सल बड़ी ही खूबसूरती से अन्जाम देती है ,

गाल पर धब्बों के बढ़ते फैशन ने अट्ठारहवीं सदी के आरम्भ में ही एक तरह से राजनीतिक रूख अिख्तयार कर लिया था जब यूरोप की दक्षिणपन्थी महिलाओं ने दायें गाल तथा वामपंथी महिलाओं ने बाये गाल को कृत्रिम तिल से अलंकृत करना आरम्भ किया था। रंगों के अलावा गालों के आकार की भी बड़ी महिमा है। यूरोप में गालों में गड्ढे़ (डिम्पल) को सौन्दर्य की निशानी माना जाता है- यहाँ तक कि इसे ईश्वर की अंगुलियो की छाप के रूप में देखा जाता है। ``ए डिम्पल इन योर चीक/मेनी हर्टस यू बिल सीक´´ गीत-पंक्ति गाल में गड्ढे की महिमा को बखाना गया है .गालों के जरिये मन के कुछ सूक्ष्म भाव भी प्रगट होते हैं
` मुंह फुलाने´´ की नायिका (मानिनी ) की अदा से भला कौन रसिक (प्रेमी) अपरिचित होगा? रूठने और मनुहार के बीच गालों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है।

Sunday 13 July 2008

नाक ऊंची या नीची -फ़र्क पङता है !

फोटो सौजन्य :आर्टिस्टिक रियलिस्म आर्ट स्टूडियो
सामान्यत: नारी की नाक पुरुष की अपेक्षा छोटी होती है-पर यह सौन्दर्य का प्रतीक है, किसी तरह की हीनता का नहीं।

सौन्दर्य प्रेमियों की दृष्टि में ही नहीं वरन व्यवहारविदों की भी राय यही है कि नारी की नाक बहुत कुछ बचपन सरीखी नाक-संरचना को बनाये रखती है। बच्चों की छोटी नाक सहज ही बड़ों को आकिर्षत करती है। चूंकि नारी में अपने सहकर्मी की ओर से सुरक्षा की चाहत रहती है, अत: प्रकृति भी उसकी नाक को बच्चों सरीखा बनाये रखती है। ताकि उसके पुरुष सखा अनजाने ही उसकी देखभाल और सुरक्षा के प्रति सचेष्ट रहें ।

नारी की बड़ी नाक विश्व की बहुतेरी सम्यताओं में कुरूपता की निशानी मानी गयी है। बड़ी नाक वाली महिलाओं के प्रति पुरुषों के मन में सुरक्षा प्रदान करने का ``सहज बोध´´ (इंस्टिंक्ट ) जागृत नहीं होता। मॉडल सुन्दरियों या फिर अभिनेत्रियों में छोटी नाक का होना बहुतों के लिए उन्हें और भी आकर्षक बना देता है। इसलिए पाश्चात्य सम्यता में अधिक सुन्दर दिखने की चाह के चलते नारियों में अपनी नाकों को प्लािस्टक सर्जरी के जरिये छोटा बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं। विश्व के बहुत से देशों में नाक में आभूषण पहनने का चलन है। भारत में भी महिलायें अलंकरण के लिए तरह-तरह के आभूषण -नथनी, नथ, बुलाक, बेसर आदि पहनती है।

नगर बधुओं में `नथ´ से जुड़ी एक रस्म का सम्बन्ध तो कौमार्यता से भी है। इन आभूषणों और उनके पहनावों से महिलाओं की एक विशिष्ट जाति पहचान भी जुड़ी हुई हैं।

Friday 11 July 2008

अब आँखें हैं नया पड़ाव !

इन दोनों आंखों मे से कौन आपको ज्यादा खूबसूरत लग रही हैं ?
मुझे तो दायीं वाली आँख ज्यादा खूबसूरत लग रही है क्योंकि इसकी पुतली बेलाडोना के प्रभाव में अधिक फैल गयी है !!

एक जैव विज्ञानी की नजर में आँखे मानव शरीर की बहुत प्रभावी संवेदी अंग हैं। नारी की आंखों का तो कहना ही क्या। साहित्य में नारी की आंखों पर बहुत कहा सुना गया है। लोकजीवन में आंखों को लेकर कितने ही मुहाबरे गढ़े गये है- नजरें चुराना, नजर लगाना, नजर दिखाना/मिलाना आदि आदि। वैज्ञानिको की राय में बाहरी दुनिया की 80 प्रतिशत जानकारी हमें इन आंखों के जरिये ही मिलती है।
उन संस्कृतियों में भी जहाँ नारी शरीर की सभी इन्द्रियों /ज्ञानेिन्द्रयों ,यहाँ तक कि मुंह को ढ़क कर रखने का रिवाज है, आंखों को खुला रखने की आजादी है। नारी के आंखों की तुलना में नर की आँखें जरा बड़ी होती हैं। हाँ ,नारी की आंखों की सफेदी ज्यादा जगह घेरती है। बहुत से समुदायों में नारी की अश्रुग्रिन्थया¡ काफी सक्रिय पायी गयी हैं। किन्तु ऐसा वहाँ के सांस्कारिक परिवेश की देन है। (जिसमें नर को बचपन से ही कम भावुक होने की हिदायत दी जाती है)आंखों आंखों के बीच होने वाले कुछ संकेत/इशारे उल्लेखनीय है जैसे आंखों की पलकों को चौड़ा कर विस्मय प्रगट करना।
भारतीय नृत्यांगनाओं में इस भाव को मेकअप के जरिये और भी उभार दिया जाता है। इसी तरह एक आँख का दबाना (आँख मारना) एक भेद भरा संकेत है, जिसका आदान-प्रदान घनिष्ठ लोगो-प्रेमी या मित्रों के बीच ही किया जाता है। इस संकेत का मतलब है कि `उन दोनों में कुछ ऐसा है जिससे दूसरे बेखबर हैं´´। किसी अनजान विपरीत सेक्स (पुरुष) की ओर इस संकेत के सम्प्रेषण का मतलब विपरीत लिंगी आकर्षण की मूक किन्तु स्पष्ट स्वीकारोक्ति भी हो सकती है। इसी भांति आँखें चार होना वह स्थिति है जिसमें प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे की आ¡खों में खोये हुए रह सकते हैं। पर इस संकेत का आदान-प्रदान दो घृणा करने वाले लोगों के बीच भी हो सकता है। वे भी काफी देर तक एक दूसरे को घूरते रह सकते हैं।
आंखों के ``मेकअप´´ में पलकों की विभिन्न शेड भी शामिल है- ताकि चेहरे के पूरे भूगोल में उनका प्रभुत्व विशेष रूप से बना रहे। जिससे लोग बरबस ही ऐसी आंखों और उसकी स्वामिनी की ओर आकिर्षत हो जाय। आंखों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए आंखों में कुछ रसायनों (बेलाडोना) के प्रयोग का भी प्रचलन रहा है। इन रसायनों के प्रभाव में आंखों की पुतलिया¡ फैल जाती हैं, जो इन्हे और भी आकर्षक बनाती है।
प्रयोगों में यह स्पष्ट रूप से पाया गया है कि फैली/बड़ी पुतलियों वाले नारी चित्रों ने सिकुड़ी हुई पुतलियों वाले नारी चित्रों की तुलना में अधिक लोगों को आकिर्षत किया। यह भी देखा गया है कि ``प्यार की दृष्टि´ के दौरान महिलाओं की आंखों की पुतलिया¡ कुदरती तौर पर फैल जाती है और उनके आकर्षण में इजाफा करती हैं- आकर्षक दिखने के लिए इससे अच्छा और मुफ्त नुस्खा भला व दूसरा क्या होगा--बस ``देखिए मगर प्यार से ........."

Thursday 10 July 2008

अब आता है नारी सुन्दरता का अगला पडाव -भौहें !

फोटो साभार Killer Strands


मन के भावों की मूक अभिव्यक्ति में भौहें अपनी भूमिका बखूबी निभाती हैं। भारत की कई नृत्य शैलियों में भौहों के क्षण-क्षण बदलते भावों को आपने देखा सराहा होगा। तनी भृकुटि और चंचल चितवनों की मार से भला कौन घायल नहीं हुआ होगा। भौहों के जरिये कई तरह के अभिप्राय पूर्ण इशारे किये जाते हैं- जिसमें प्रेम, क्रोध, घृणा जैसे मनोभावों की अभिव्यक्ति शामिल हैं।
पुरुषांें की तुलना में नारी भौहें (आईब्रोज) कम बालों वाली होती हैं। नारी के इसी प्रकृति प्रदत्त विशेष लक्षण को चेहरे के `सौन्दर्य मेकअप´ में उभारा जाता है- भौहों को सफाचट करके या फिर कृत्रिम भौहे बनाकर। ऐसा इसलिए ताकि नारी सुलभ कुदरती गुण/सौन्दर्य को बनावटी तरीके से ही सही और उभारा जा सके- नारी सुन्दरता में चार-चा¡द लगाया जा सके। किन्तु पश्चिम में खासकर हालीवुड की अभिनेत्रियों में अब भौहों को सफाचट करने का फैशन नहीं रहा, कारण वे अब पुरुषोंचित गुणों की बराबरी में आना/दिखना चाहती हैं। वहा¡ अब ``आई ब्रो पेिन्सलें` वैनिटी बैंगों में ढ़ूढे नहीं मिलतीं। कभी इंग्लैण्ड में भौहों के कुदरती बालों को साफ कर चूहों की चमड़ी चिपकाने का भी अजीब रिवाज था और यह सब महज इसलिए की नारी सौन्दर्य में इजाफा हो सके।

Tuesday 8 July 2008

इस जुल्फ के क्या कहने .........!

सौजन्य :मीडिया मग्नेट
नारी की केश राशि पर किसी शायर का कुछ कहा आपको याद है ? मुझे तो याद है मगर यह किस शायर का कलाम है याद नही आ रहा ....

इस जुल्फ के क्या कहने जो दोश पे लहराई ,सिमटे तो बनी नागिन बिखरे तो घटा छाई !

और पन्त जी की यह ललक तो देखिये कि ``बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।´´ जी हाँ हमारा यह पहला पड़ाव ही काफी उलझाव भरा है। थोड़ी देर के लिए नारी केशों पर कवियों के कहे सुने को भूलकर आइये सुने क्या कहते हैं वैज्ञानिक नारी के गेसुओं के बारे में। व्यवहार विज्ञानियों की नजर में नारी के लम्बे घने केश समूचे जैव जगत में उसे एक खास ``पहचान´´ प्रदान करते हैं- किसी मादा कपि-वानर के सिर पर कभी इतनी लम्बी केश राशि देखी आपने नहीं न ? यह हमारी ``स्पीशीज पहचान´´ है। वैसे नारी और पुरुष केशों में कोई मूलभूत ताित्वक भेद नहीं है। यह तो हमारे सांस्कृतिक और सौन्दर्य बोधक प्रवृत्तियों का तकाजा है कि नर और नारी के सिर के बालों को अलग-अलग ढंग से सजाया सवारा जाता है। वरना अनछुये बाल चाहे वे नर के हो या नारी के, छ: वर्षों में 40 इंच तक लम्बे हो जाते हैं और फिर कुछ वर्षों के अन्तराल पर गिर जाते हैं-नये बाल उगते हैं। यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है ।

नारी केश राशि को संभालने सजाने सवारने के कितने ही तौर तरीके आज प्रचलित हैं। नारी के सुन्दर घने बालों के देखभाल की भी अच्छी व्यवस्था प्रकृति ने की है- प्रत्येक बाल के जड़ के निकट ही सिबेसियस ग्रंथियां होती हैं जिनसे एक तैलीय पदार्थ निकलकर बालों को रूखा होने से बचाता है, उन्हें अच्छी हालत में बनाये रखता है। बालों को अधिक धोने से उनमें छुपे धूल के कण तो साफ हो जाते है, किन्तु कुदरती तैलीय पदार्थ `सेबम´ भी नष्ट होता है। व्यवहार विज्ञानियों की राय में बालों को बिल्कुल न धोना या बहुत कम या बहुत ज्यादा धोना उनकी सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है। समूची दुनिया¡ में बालों के तीन मुख्य प्रकार पहचाने गये हैं- नीग्रो सुन्दरियों के ``सिलवटी´´ बाल काकेशियन युवतियों के लहरदार केश तथा मंगोल नारियों के सीधे खड़े बाल। बालों का यह भौगोलिक विभेद आनुवंशिक कारणो से है। जिसके चलते विभिन्न मानव नस्लों को एक खास ``जातीय पहचान´´ मिली हुई है, किन्तु यह एक रोचक तथ्य यह है कि चाहे वह कोई भी मानव नस्ल हो-नर-नारी के केश (बालो) में कोई खास अन्तर नहीं हैं। यानी इनमें कोई लैंगिक विभेद नहीं है। यदि पुरुष के सिर के बाल भी समय-समय पर न काटे जाय तो वे भी नारी के समान घने (काले) और लम्बे होते जायेंगे। पर हमारे सांस्कृतिक संस्कारों ने केशों के आधार पर नर नारी भेद का बड़ा स्वांग रचाया है।

दरअसल मानव की सांस्कृतिक यात्रा ने दो तरह के केशीय प्रतीकों (हेयर सिम्बोलिज्म) को जन्म दिया है। एक केशीय प्रतीकवाद तो वह है जिसमें पुरुष के बड़े घने बाल उसकी शक्ति पौरूष और यहा¡ तक कि पवित्रता का द्योतक बन गया है- उदाहरणस्वरूप `सीजर´ शब्द की व्युत्पत्ति को देखे- `कैजर´ और `त्सार´ दो शब्दों के मेल से बने इस शब्द का मूलार्थ है- लम्बे बाल जो कि महान नेताओं के लिए सर्वथा शोभनीय माना गया है। विश्व के कई सम्यताओ में नेताओं के लम्बे बालों का प्रचलन आज भी है। बालो की अधिकता पौरूष का भी प्रतीक बनी है-इसलिए किसी पुरुष के सिर के बालों को कटाना/सफाचट कराना, उसका अपमान करने के समान है, उसकी दबंगता को कम करना है। यही कारण है कि ईश्वर के सामने नत मस्तक होने के लिए भिक्षुओं में सिर मुड़ाने की परम्परा है। इन परम्पराओं के ठीक विपरीत नारी केशों के लम्बे होने को नारीत्व या नारी सौन्दर्य का प्रतीक माना जाने लगा।

भारत में विधवा स्र्त्रियों के सिर मुड़ाने के पीछे भी यही मन्तव्य लगता है कि वे अनाकर्षक लगें- (नारी) सौन्दर्य से रहित विश्व की अनेक संस्कृतियों में कई संस्कारों के समय स्त्रियों को बाल ढकें रखने के कड़े नियम भी हैं। चूंकि नारी के खुले लम्बे केश सौन्दर्य कामोददीयकता के कारण बन सकते हैं- सार्वजनिक स्थलों पर बालों को खुले छोड़ देना कई संस्कृतियों में ``बदचलन औरत´´ के लक्षण माने गये हैं। विश्व में शायद ही कोई ऐसी जगह हों जहाँ नारी केशो के सजाने संवारने और निखारने का प्रचलन न हो। ऐसी परम्परा हजारों वर्षो से रही है। बाल रंगे जाते हैं, काढ़े जाते हैं, तरह-तरह की स्टाइलों में सजाये संवारे जाते हैं। आज `जूड़ा बा¡धने´ की विभिन्न स्टाइलों में इसे देख सकते हैं- गोल कद्दूनुमा `जूड़े´ से लेकर `साही´ के कंटीले बालों के सरीखे दिखते बाल, मानव की कलात्मक कल्पना की अनूठी मिसाले हैं।

Monday 7 July 2008

व्यवहार विज्ञानी निरख रहे हैं नारी का सौन्दर्य !

व्यवहार वैज्ञानिकों की नजर में नारी सौन्दर्य
नारी सौन्दर्य-नख से शिख तक एक मनोरम यात्रा

नारी के नख-शिख सौन्दर्य पर भारतीय कवियों-साहित्यकारो ने खूब लेखनी चलायी है। महाकवि कालिदास की सौन्दर्य परक रचनाओं से लेकर रीतिकालीन कवि बिहारी लाल के श्रृंगारिक ``दोहों´´ में नारी सौन्दर्य की भारतीय अवधारणा अपने विविध रूपों में बिखरी दिखाई देती है। नायिका भेद से लेकर नारी के अंग प्रत्यंगों पर भी श्रृंगार/सौन्दर्य प्रेमी कविजनों की नज़रे उठी हैं। किसी ने प्राकृतिक सुन्दरता के विविध रूपों को अपनी नायिका/प्रेयसी में निहारा है तो कोई नायिका विशेष की सुन्दरता को ही प्रकृति में बिखरा हुआ पाता है- तभी तो कविवर सुमित्रानन्द पन्त कह पड़ते हैं - छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।

कविवर बिहारी लाल का नायक चित्रकार नायिका के नख शिख सौन्दर्य को अपनी तूलिका से उकेरने में खुद को असफल पाता है, क्योंकि वह लक्षित सौन्दर्य को क्षण-क्षण में बदलता हुआ पाता है। नारी सौन्दर्य के वर्णन में वैज्ञानिक के पीछे नहीं है। व्यवहार वैज्ञानिकों (इथोलाजिस्ट) ने भी नारी सौन्दर्य का बड़ा ही रस सिक्त वर्णन किया है। मगर उनके अध्ययन-मनन का एक सिलसिलेवार तरीका है और इसलिए उन्होंने भी चुना है वही नख से शिख तक का क्रमवार अध्ययन। मशहूर ब्रितानी व्यवहार विद डिज्माण्ड मोरिस कहते हैं कि उन्होंने पूरे नारी तन को एक निराले लैण्डस्केप के रूप में निहारा है, जैसे कोई पर्यटक किसी अनजानी किन्तु मनचाही जगह पर अपनी नजरें दौड़ाता है और फिर उस अनजाने प्रदेश के हिस्से दर हिस्से को उसकी सम्पूर्णता में निरखता परखता है। गरज यह कि नारी की केश राशि से शुरु होकर यह मनोरम यात्रा पावों के अंगूठे पर जा विराम पाती है, रास्ते के यही कोई बीसेक पड़ावों पर मौजमस्ती करते, ठहरते-सुस्ताते। तो आइये, डिज्माण्ड मोरिस तथा कुछ दूसरे व्यवहार बिदों के साथ ही हम भी नारी सौन्दर्य की इस पुनरान्वेषण यात्रा पर निकल चलें ...........

यह मनोरम यात्रा शिमला की खिलौना ट्रेन के तरह अपने गंतव्य पर पहुंचेगी .हौले हौले स्टेशनों पर रुकते सुस्ताते ......हाँ कभी कुछ खटक जाय या शब्द नागवार गुजरें तो जरूर टोकें ....वैसे मेरी कोशिश रहेगी कि अपनी संस्कृति ऑर सोच के मुताबिक ही शब्द ऑर अभिव्यक्ति को विस्तार मिले ......

Sunday 6 July 2008

"इस साँप का काटा सुबह की रोशनी नही देखता "

करैत जो नाग से भी ज्यादा विषैला है !

"इस साँप का काटा सुबह की रोशनी नही देखता " जैसी धारणा संभवतः करैत साप को लेकर ही है .यह एक सुस्त साँप है जो गाँव के कच्चे मकानों में प्रायः घर के अन्दर बिलों में अपना डेरा जमाता है .

मैं समझता हूँ कि यही वह सांप है जिसके डसने से आदमी का बचना मुश्किल है ,हाँ समय से एंटीवेनम मिल जाय तो जान बच सकती है .यह रात को ही असावधान रहने पर या चारपाई पर पहले से ही मौजूद रहने पर सोते में काट सकता है .मुश्किल यह है कि इसके काटने पर कोई ज्यादा या कभी कभी तो बिल्कुल सूजन ही नही होती .और विषदंत भी कोबरा की तुलना में महीन होते हैं ,जिससे ये भी प्रमुखता से नही दिखते.अब यह पहचान मुश्किल हो जाती है कि किसी विषैले साँप ने काटा भी है या नही .

हाथ ,पैर का बेजान पडना एक लक्षण है जो थोडा विलंब से शुरू होता है लेकिन जल्दी ही गंभीर रूप ले लेता है .नतीजतन जिसे यह रात में काट ले और एंटीवेनम मिले तो समझिये काम तमाम !

इसका मात्र माईक्रोग्राम ही किसी की जान लेने में पर्याप्त है .

इस साँप से सबसे अधिक सावधान रहने की जरूरत है .ऊपर के चित्र में इसे पहचान लें यह काले रंग का नीली आभा लिए होता है और शरीर पर सफ़ेद धारियाँ दिखती हैं -कभी कभी वोल्फ स्नेक[संखारा या कौडिसाप] जो विषैला नही होता है को लोग भ्रम से करैत मान लेते हैं -दरअसल वोल्फ स्नेक भूरापन लिए होता है और पालतू बन जाता है .

एंटीवेनम को रखने के लिए किसी लाईसेंस की जरूरत नही है .बड़े मेडिकल स्टोरों पर यह मिल जायेगा .यह पाउडर फार्म में होता है और डिस्टिल्ड वाटर के साथ मिला कर घोल बना कर इंजेक्ट होता है .इसे यहाँ से भी प्राप्त किया जा सकता है -

Serum Institute of India

283 Mahtma Gandhi Road

Poona-४११००१

हिमाचल प्रदेश में भी सोलन जिले के कसौली नामक स्थान पर सर्पविष शोध और निर्माण संस्थान है .

मेरी कामना है कि किसी की भी सर्प दंश से मौत हो ....आप भी कृपा कर सापों के बारे में लोगो में जागरूकता लायें .......

अब इस दहशत भरे माहौल से आपको बाहर लायें .....ईथोलोजी पर एक सौन्दर्यपरक श्रृखला की प्रतीक्षा करें -

नारी -नख शिख सौन्दर्य -नारी सौन्दर्य -व्यवहार विदों की नजर में

प्रतीक्षा करें ...........


Saturday 5 July 2008

सर्पदंश: बचाव और उपचार


सर्पदंश: बचाव और उपचार

यदि आप गावों में रहते हैं तो टॉर्च या पर्याप्त रोशनी के साथ ही बाहर जाएँ ,बरसात में ख़ास तौर पर .पैरों को गम बूट ज्यादा सुरक्षा देते हैं मगर नही है तो ऐसा जूता रहे जो पैर को ऊपर तक अच्छी तरह ढक सके .साथ में एक डंडा और गमछा भी रखें .

यह सापों का प्रणय - प्रजनन काल भी है -ख़ास तौर पर नाग -कोबरा का .यह एक आक्रामक साँप है .यह अपनी टेरिटरी बना कर रहता है यानी एक ऐसा क्षेत्र जिसमें किसी को भी आने पर इसे नागवार लगता है .यदि प्रणय काल में कोई इस क्षेत्र से गुजरता है तो यह आक्रमण कर सकता है .इस पर पैर पड़ जाय तो यह काट ही लेगा .अगर किसी की अचानक नाग से भेट हो जाय तो वह अपना गमछा या कोई भी कपडा तुरत फुरत निकाली हुयी शर्ट या गंजी उस पर फेक दें.यह आदतन उससे उलझ लेगा और वह रफू चक्कर हो सकता है .कोबरा को लाठी से मारना ज़रा अभ्यास का काम है .लाठी तभी इस्तेमाल में लायें जब मरता क्या करता की पोजीशन हो जाय .क्योंकि ऐसा देखा गया है कि निशाना यदि उसके मर्म स्थल [फन और इर्दगिर्द का हिस्सा ]पर नही पडा और आदतन लाठी मारने वाले ने लाठी उठायी तो वह उसके शरीर पर गिरेगा .और फिर वह क्रोध में काटेगा और विष भी ज्यादा निकालेगा .

विषैले सापों में दो विषदंत आगे ही ऊपर के जबड़े में होता है और विष की थैली इसी से दोनों और जुडी रहती हैं

खुदा खास्ता साँप काट ही ले तो -

धैर्य रखें ,दौड़ कर जाएँ -भागें ,इससे विष रक्त परिवहन के साथ जल्दी ही पूरे शरीर में फैल जायेगा .रूमाल ,गमछा से जहाँ दंश का निशान है उसके ऊपर के एक हड्डी वाले भाग यानी पैर में काटा है तो जांघ में और हाथ में काटा है तो कुहनी के ऊपर बाँध दे ,बहुत कसा हुआ नही .पुकार कर किसी को बुलाएं या धीरे धीरे मदद के लिए आस पास पहुंचे .और तुंरत एंटीवेनम सूई के लिए पी एच सी पर या जिला अस्पताल पर पहुंचे .यह सूई अगर आसपास किसी बाजार हाट के मेडिकल स्टोर पर मिल जाय तो इंट्रामस्कुलर भी देकर अस्पताल तक पहुंचा जा सकता है -जहाँ आवश्यकता जैसी होगी चिकित्सक फिर इंट्रा वेनस दे सकता है . अगर आप के क्षेत्र में साँप काटने की घटनाएँ अक्सर होती है तो पी एच सी के चिकित्सक से तत्काल मिल कर एंटी वेनम की एडवांस व्यवस्था सुनिशचित करें - मेडिकल दूकानों पर भी इसे पहले से रखवाया जा सकता है . अगर शरीर में जहर ज्यादा उतर गया है तो एंटीवेनम के ५-१० वायल तक लग सकते हैं . एंटीवेनम १० हज़ार लोगों में एकाध को रिएक्शन करता है -कुशल चिकित्सक एंटीवेनम के साथ डेकाड्रान/कोरामिन की भी सूई साथ साथ देता है -बल्कि ऐसा अनिवार्य रूप से करना भी चाहिए .

कोबरा के काट लेने के लक्षण क्या हैं -काटा हुआ स्थान पन्द्रह मिनट में सूजने लगता है .यह कोबरा के काटे जाने का सबसे प्रमुख पहचान है .ध्यान से देखें तो दो मोटी सूई के धसने से बने निशान -विषदंत के निशान दिखेंगे .

प्राथमिक उपचार में नयी ब्लेड से धन के निशान का चीरा सूई के धसने वाले दोनों निशान पर लगा कर दबा दबा कर खून निकालें .और किसी के मुहँ में यदि छाला घाव आदि हो तो वह खून चूस कर भी उगल सकता है .

विष का असर केवल खून में जाने पर ही होता है यदि किसी के मुंह में छाला पेट में अल्सर आदि हो तो वह सर्पविष बिना नुकसान के पचा भी सकता है .

कोबरा का १२ माईक्रो ग्राम आदमी को मार सकता है मगर वह एक भरपूर दंश में ३२० माईक्रोग्राम विष तक मनुष्य के शरीर में उतार सकता है .मगर प्रायः लोग पावों को तेज झटक देते हैं तो पूरा विष शरीर में नही पाता .इसलिए कोबरा का काटा आदमी - घंटे तक अमूमन नही मरता .और यह समय पर्याप्त है एंटी वेनम तक पहुँच जाने के लिए।

करैत सुस्त साँप है मगर इसका मिक्रोग्राम ही मौत की नीद सुला सकता है .यानी कोबरा के जहर की केवल आधी ही मात्रा .इसके बारे में कल ......