सोयाबीन की दाल का है इंतज़ार
पारम्परिक अरहर सरीखी दालों का प्रोटीन घटक २०-२५ फीसदी लिए होता है जो आंटे(१०-१२% )से दो गुना अधिक ,चावल (४-६%)से चौगुना है .इसलिए दैनिक भोजन में इनकी काफी जरूरत रहती है .वैसे भी ,भारत मे गरीबों के बच्चों में प्रोटीन की कमी की दर अभी भी अन्य कई देशों की तुलना में ज्यादा ही है और उन्हें प्रोटीनयुक्त पुष्टाहार की बड़ी जरूरत है .मगर दालों का उत्पादन १९९० से ही १.४ करोड़ टन पर ठहरा हुआ है जबकि इस दौरान जनसंख्या में ३५ करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है -जाहिर है सभी को कम दाम में दालें उपलब्ध करना अब संभव नहीं रहा .दूसरे देश दालें कम उगाते हैं क्योकि उनका काम प्रोटीन के दूसरे बड़े स्रोतों से जैसे मुर्गा मछली और मांस से चल जा रहा है .इस तरह आयात की संभावनाएं भी धूमिल हैं .यहं भी धनाढ्य वर्ग मांस मछली और अरहर की दाल से अपनी प्रेतींप्रोटीन की जरूरते पूरा कर ले रहा है, मगर गरीब के निवाले में प्रोटीन कम होती जा रही है .
सोयाबीन जिससे हम अब अपरिचित नहीं हैं ,दुनिया के कई हिस्सों में 'पल्स'(दाल ) के रूप में भी चिह्नित है .चूंकि इससे तेल भी प्राप्त होता है इसलिए बहुधा इसे दाल की श्रेणी में नहीं रखते .सोयाबीन में १८-२० प्रतिशत तेल तो होता ही है मगर प्रोटीन प्रतिशत तो जबरदस्त ,३६-३८ फीसदी है .और तेल निकालने पर तो यह प्रोटीन ५० प्रतिशत तक हो जाता है .अब हम सोयाबीन से उतने अपरिचित भी नहीं रहे -शायद ही कोई हो जिसने सब्जी में 'न्यूट्री नगेट ' न खाया हो .मगर अभी भी सोयाबीन से तेल निकलने के बाद की खली जानवरों के आहार के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रही है .जानवर उम्दा प्रोटीन झटक रहे हैं और मनुष्यों को इसके लाले पड़े हैं -इसे कहते हैं सुनियोजन का अभाव .सोयाबीन की पैदावार जहाँ १९८० के आसपास नगण्य थी वहीं अगले दशकों में इसका उत्पादन एक करोड़ टन प्रतिवर्ष तक जा पहुंचा है . इसके उत्पादन पर विशेष ध्यान देकर इसके प्रसंस्कृत रूपों को गरीबों की दाल के रूप में व्यापक तौर पर बढ़ावा दिया जा सकता है .
स्वामीनाथन का प्रस्ताव है कि न्यूट्री नगेट की ही तर्ज पर सोया दालों का प्रचलन किया जाय और इनके दालों सरीखे प्रसंस्कृत रूप को विज्ञापनों के जरिये प्रचारित प्रसारित करते हुए पचीस रूपये प्रति किलो की दर पर बाजारों और सार्वजानिक वितरण प्रणाली में ले जाया जाय .जहाँ तक स्वाद का सवाल है लोगों को धीरे धीरे आदत पड़ती जायेगी जैसे आरम्भिक ना नुकर के बाद लोगों ने न्यूट्री नगेट को अपना लिया है .यह अरहर की दाल से तो काफ़ी सस्ता होगा -बस २५ रूपये किलो के आस पास .
उत्तराखंड के गरीबों ने तो सोयाबीन को हाथो हाथ लिया है .देश के दूसरे हिस्सों में इसके उपयोग /खपत बढ़ने का इंतज़ार है ...देखिये सरकारी संगठनों और निजी व्यवसायियों को कब चेत आती है .व्यवसाय की एक बड़ी संभावना अंगडाईयां ले रही है ........