Sunday, 21 December 2008

विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा -कतिपय चित्र स्मृतियाँ !


कहते हैं कि याददाश्त बेहद ख़राब दोस्त है जो कि ठीक ऐन वक्त पर धोखा दे देती है .इसलिए बनारस में पिछले माह ,नवम्बर में संपन्न राष्ट्रीय विज्ञान कथा परिचर्चा के कुछ फोटो यहाँ सहेज रहा हूँ ताकि धुंधली पड़ती यादों को कभी कभार ताजा कर सकूं ।ऊपर का चित्र है विषय प्रवर्तन का और यह भार मुझे ही वहन करना पडा! डायस
सुशोभित है विज्ञानं कथा के पुराधाओं से -महाराष्ट्र के डॉ वाई एच देशपांडे ,राजस्थान के एस एम् गुप्ता ,दिल्ली से डॉ मनोज पटैरिया (अध्यक्ष ) .जे आर एच विश्विद्यालय के वाइस चांसलर और मशहूर गणितग्य प्रोफेसर एस एन दुबे ( मुख्य अतिथि ),लखनऊ से साहित्यकार हेमंत कुमार , बाल भवन दिल्ली की पूर्व निदेशक डॉ मधु पन्त ,डॉ राजीव रंजन उपाधायाय !

यह चित्र है विशिष्ट प्रतिभागी जनों का ,सामने गेरुए रंग के वस्त्र में दिख रहे हैं पूर्व एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी जी .
कौन है चित्र में दक्षिण भारत से आयी कई विज्ञान कथा विभूतियाँ हैं .राजस्थान के मशहूर विज्ञान कथा लेखक हरीश गोयल भी हैं ! (नीचे )



नीचे चित्र है उस यादगार पल का जब माईकल क्रिख्तन जिसने जुरासिक पार्क बनायी थी की मृत्यु पर शहनाई की शोक धुन श्रद्धांजलि देते हुए मरहूम भारत रत्न बिस्मिल्ला खां के भतीजे उस्ताद अली अब्बास खान और सहयोगी !

एक प्रतिभागी समूह परिचर्चा का दृश्य है नीचे जिसमें डॉ मधु पन्त के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय की सुश्री रीमा सरवाल ,बिट्स पिलानी की डॉ गीता बी आदि हैं .


एक प्रतिभागी बड़े मनोयोग से क्षेत्रीय भाषाओं के विज्ञान कथा प्रकाशनों को देख रहे हैं .



Saturday, 22 November 2008

कंधे पर लदी पुरूष सौन्दर्य यात्रा !

पुरूष का कंधा नारी के लिए अतीत से आज तक सिर टिकाने को सहज ही उपलब्ध है
Image Reference: VC019055
जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -
चर्चा पुरूष कन्धों की विशालता को लेकर हो रही थी -चिम्पान्जियों को अपने कंधे तब ऊंचे करने पड़ते हैं जब कोई घुसपैठिया उनकी टेरिटरी में आ धमकता है -ऐसे समय में चिम्पांजी अपने कंधे की एक भयावह भंगिमा बनाता है और उसके कंधे के बाल भी ऊर्ध्वाधर खड़े हो जाते है -घुसपैठिया आम तौर पर भाग खडा होता है .हमारे (पुरुषों) कंधे के एकाध बचे बाल दरअसल आज भी हमें हमारे उसी "बालयुक्त" अतीत की ही प्रतीति कराते हैं .आज हमारे कंधे बाल विहीन से भले हो गए हों मगर अब भी कंधे को भरा पूरा दिखाने के अवसर मिलते रहते हैं और मजे की बात यह कि आज भी एकाध बचे खुचे बाल चिम्पांजी के बाल सरीखे सीधे खड़े हो उठते हैं ।
वे माने या माने पर आज भी पुरुषों का कंधा नारी के बोझिल से हुए सर को एक सकून भरा आसरा देते हैं -एक आम पुरूष की लम्बाई आम नारी से कम से कम पाँच इंच अधिक होती है जिससे पुरूष के ऊंचे कंधे नारी को सिर टिकाने का मानों शाश्वत आमंत्रण देते रहते हैं .पुरूष का कंधा नारी आज भी नारी के सिर को टिकाने के एक सुरक्षित और भरोसेमंद स्थल के रूप में सहज ही उपलब्ध है.यह आश्वस्ति भरा पुरसकून स्थल गुफाकाल से ही नारी के आश्रय के लिए उपलब्ध रहा है ।
अब चूंकि विकास की प्रक्रिया बहुत धीमीहै और जीनों में सहज परिवर्तन भी लाखो वर्षों में होता है अभी भी पुरूष के इस पोस्चर में कोई बदलाव नही आया है .और अभी तो लाखो वर्षों ऐसयीच ही चलेगा भले ही पुरूष अपने शिकारी अतीत को काफी पीछे छोड़ आया है -आफिस में कलम घिस्सू या पी सी के की बोर्ड पर उंगली थिरकू बने रहने के बाद भी पुरूष का कंधा नारी को आराम दिलाने के अपनी आतीत सौहार्द के साथ उपलब्ध है .
क्या कंधे भी देह की भाषा में कुछ योगदान करते हैं ? जी बिल्कुल ! दो स्कंध भंगिमाएं तो बिल्कुल जानी पहचानी हैं .एक तो शोल्डर शेक है तो दूसरा शोल्डर स्रग -पहला तो मनोविनोद के क्षणों मे कन्धों की ऊपर नीचे की गति है तो दूसरा विभिन्न सिचुयेशन में 'मैं नही जानता ' ,'मुझसे क्या मतलब ?','अब मैं क्या कर सकता हूँ ','अब तो कुछ नही हो सकता ' की इन्गिति करता है -आशय यह कि यह भंगिमा नकारात्मक भावों को इंगित करती है .

Wednesday, 19 November 2008

मजबूत कन्धों पर आ टिका अब पुरुष पर्यवेक्षण !

विकास के दौर में जब मनुष्य चौपाये से दोपाया बना तो उसके स्वतंत्र हो गए दोनों बाहुओं के संचालन की एक नयी जिम्मेदारी उस पर आ पडी .लिहाजा बाहुओं को सपोर्ट करने वाले कन्धों को प्रकृति ने मजबूत मांसपेशियों से लैस करना शुरू कर दिया . जिसके चलते हाथों को शिकार पकड़ने में तरह तरह के आयुधों के सहज संधान में काफी सुविधा हुई .जाहिर है पुरुषों के कंधे ऑर बाहें आम स्त्री की तुलनामें मजबूत होते गए .दोनों हाथों के संधि क्षेत्र यानी कंधा पुरूषों में काफी मजबूत होता गया ऑर एक स्पष्ट से लैंगिक विभेद का बायस बन बैठा .पुरुषों का कंधा नारी की तुलना मे ज्यादा चौडा ऑर भारी होता गया है .एक सामान्य पुरुष का शरीर कंधे से नीचे से पतला होता जाता है जबकि ठीक इसके उलट नारी कंधे से नीचे फैलाव पाती जाती है -यह नारी विभेद कूल्हों के चलते और उभर उठता है ।

अब इतने स्पष्ट लैंगिक विभेद के अपने सांस्कृतिक फलितार्थ /निहितार्थ तो होने ही थे .अब पुरुषों को मर्दानगी के प्रदर्शन एक और जरिया मिल गया था .अब कन्धों को उभारने वाली साज सज्जा और अलंकरण का चलन चल पडा .राजा महराजाओं ,राजकुमारों के पहनावों में कंधे उभार पाने लगे -आज भी ज़रा सेना के किसी कमीशंड अधिकारी को देखे कैसा उसका कंधा चौडा और अलंकरणों से लदाफदा होता है .जापानी थियेटर के काबुकी पात्र और अमेरकी फुटबाल खिलाड़ियों के भारी भरकम कन्धों को आपने भी देखा होगा .जापानी पुरुष अपने कंधे को उभारने के लिए जो परिधान -ब्रोकेड पहनता है कामी नारीमू कहलाता है .इसी तरह अमेरिकी फुटबालर अपने कन्धों से अधिक पुरुशवत लगते हैं ।
मगर मजे की बात तो यह है कि इतिहास ऐसे भी उदाहरणों का गवाह बना है जब पश्चिम में नारी मुक्ति आन्दोलनों की कुछ झंडाबरदार जुझारू नारी सक्रियकों ने पुरुष्वत दिखने की चाह में अपने कन्धों को उभार कर दिखाने का उपक्रम शुरू किया .नारी मुक्ति की अगुआ महिलाओं ने १८९० मे ही यह अनुष्ठान आरम्भ कर दिया था -लैंगिक समानता की चाह लिए महिलाओं को मानो 'शोल्डर समानता ' रास आ गयी थी .इस प्रवृत्ति ने फैशन विशेषगयों .इतिहासकारों का धयान अपनी ओर खींचा .ब्रितानी नारियों ने १८९५ के आस पास ऐसी पोशाकें पहननी शुरू की कि ऐसा लगता था कि उस परिधान के स्कंधिका -ब्रोकेड के भीतर फूले हुए गुब्बारे रख दिए गएँ हों .ऐसी मुक्त हो चली नारियां पुरुषों से हर कदम से कदम मिला कर विश्वविद्यालय की डिग्रियां .खेल के मैदानों और उनके पारम्परिक पुरुष कार्य क्षेत्र तक चहल कदमी करने लगीं थीं .मगर यह भी कोई बात हुई कि उनके पुरुष्वत परिधानों के भीतर अभी भी कोरसेट और पेटीकोट मौजूद हुआ करते थे .वे सार्वजनिक रूप से तो पुरुशवत तो हो चली थीं मगर निजी तौर पर कमनीया नारी ही थीं .....जारी !

Friday, 14 November 2008

विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा का समापन ....

विज्ञान कथा पर पहली राष्ट्रीय परिचर्चा ( १०-१४ नवम्बर , 08 ) का कल समापन हो गया ! यदि आपको रुचिकर लगे तो यहाँ आप मिनट टू मिनट कार्यक्रम और यहाँ अतिथि प्रतिभागियों का विवरण देख सकते हैं -कल ही परिचर्चा का समापन हुआ है और आज अचानक ही सब सूना सूना सा हो गया है .पूरे विवरण को ब्लॉग करना है पर शायद कुछ समय लग जाय ,क्योंकि अभी तो सिर पर आयोजक का भूत ही सवार है, रचना धर्मिता डरी सहमी पिछवाडे से झाँक सी रही है की यह मुआ आयोजक हटे तो मैं कुछ अर्ज करुँ -तो मित्रों थोडा सब्र करें ! इस बीच चाँद पर हमारा तिरंगा लहर उठा है -यह हमारे लिए अपूर्व गौरव और स्वाभिमान की बात है .इस पर भी कुछ लिखना है -एक अलग फोरम की मित्र मंडली ने एक चर्चा यहाँ पहले ही छेड़ दी है -आप चाहें तो वहाँ पधार सकते हैं .

Tuesday, 11 November 2008

राष्ट्रीय परिचर्चा -विज्ञान कथा ,सत्र चालू आहे !

मित्रों ,जल्दी जल्दी कुछ बातें -कल उदघाटन सत्र और तीन तकनीकी सत्र पूरे हुए -यह मामला छाया रहा की विज्ञान कथा को मुख्य धारा के साहित्य में लानी के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए -या फिर इसे मुख्य धारा से बचा कर इसकी विधागत शुचिता को बचाए /बनाएं रहना चाहिए .क्योंकि मुख्यधारा की कई बुराईयों के समावेश से यह विधा अपनी विशिष्ट पहचान ही खो देगी .दूसरा मुद्दा यह रहा कि क्या विज्ञान कथा केवल पश्चिमी साहित्यिक सोच की उपज है या फिर इसके उदगम सूत्र भारत में भी तलाशे जा सकते हैं .आम मत से यह तय पाया गया कि भारत में मिथकों के प्रणयन और विज्ञान में फंतासी के प्रगटन में गहरा साम्य है -इन दोनों मुद्दों पर गहन विचार विमर्श से उद्भूत नवनीत -विचार को बनारस दस्तावेज -विज्ञान कथा -०८ में समाहित किया जायेगा .
कल के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जे आर एच विस्वविद्यालय के कुलपति महान गणितग्य प्रोफेस्सर एस एन दूबे थे जिन्होंने विज्ञान कथा की जड़ों को भारतीय पुराणों में स्थित पाया .अध्यक्षता प्रसिद्ध विज्ञान संचारक और राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार परिषद् नयी दिल्ली के निदेशक डॉ पटेरिया ने किया जिन्होंने विज्ञान कथा को विज्ञान के सहज संचार के माध्यम के रूप में विकसित करने पर बल दिया .
भारत की विभिन्न आंचलिक भाषाओं में भी विज्ञान कथा को प्रोत्साहन को बल दिया गया ,मराठी में तो यह पहले से ही समादृत है -
सत्र चालू आहे ......

Monday, 10 November 2008

बनारस में शुरू हुई राष्ट्रीय विज्ञान कथा परिचर्चा !

मित्रों ,मेरी व्यस्तता का अनुमान आप लगा सकते है -उक्त परिचर्चा के संयोजन का भार मेरे ही कमजोर कन्धों पर आ पडा है जो कल से इस धार्मिक नगरी में आरम्भ हो गयी है -कल हम लोगों ने जीशान हैदर जैदी लिखित विज्ञान कथा बुड्ढा फ्यूचर का पुतल रूपांतर देखा .शायद किसी विज्ञान कथा के पुतल रूपांतर का विश्व में यह पहला प्रयास रहा -लोगों ने इस प्रदर्शन की भूरि भूरि प्रशंसा की .दूसरे ,अमेरिकी लेखक और प्रोड्यूसर मार्क लुंड की फ़िल्म फर्स्ट वर्ल्ड का प्रीमियर शो भी हुआ जो यह इंगित करता है कि धरती पर परग्रही आ भी चुके हैं और छुप कर हमसे हिल मिल कर रह रहे हैं .यह तथ्य नासा को भी मालुम है पर वहाँ के लोग अपना होठ सिये हुए हैं ।
.कल ही विश्व विज्ञान दिवस भी था ,इस मौके को लक्ष्य कर हमने इसरो से आए वैज्ञानिक डॉ नेल्लाई एस मुथु से चाँद -कल्पना और यथार्थ पर एक बहुत ही रोचक और जानकारी वाला व्याख्यान सुना .
उक्त परिचर्चा में देश के कोने कोने से लगभग १०० प्रतिभागी आए हुए हैं .
पल प्रतिपल का कार्यक्रम आप यहाँ देख सकते हैं .

Tuesday, 4 November 2008

एक और दक्षिण -ऊत्तर मिलन :विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा !

हज़ार साल पहले केरल से चलकर शंकराचार्य ने मानव की ज्ञान बुभुक्षा के एक महायग्य में हविदान के लिए बनारस तक की पदयात्रा की और यहाँ आकर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया .आज ज्ञान यज्ञ की उसी परम्परा के संवहन में दक्षिण भारत के दो दर्जन आधुनिक शंकराचार्य काशी पधार रहे हैं -एक नए समकालीन ज्ञानयग्य में भाग लेने .और मैं उसका साक्षी बन रहा हूँ ! यह मेरे लिए गौरव और रोमांच का क्षण है -
विज्ञान कथा -साईंस फिक्शन दरसल मानव ज्ञान की वह विधा है जिसमें मानव के भविष्य और आने वाली दुनिया- समाज के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा होती है -कहानियों के जरिये समाज पर पड़ने वाले विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संभावित प्रभावों का रोधक वर्णन किया जाता है -इस विधा को पश्चिमी साहित्य में बड़ा सम्मान मिला हुआ है मगर भारत में इसका वह विकास नही हुआ जो अपेक्षित था -मुख्य कारण तो यही है की साहित्यकारों ने इस ओर ज्यादा रूचि नही दिखाई -भारत में अब इस विधा के उन्नयन मे नयी पहल हुई है ।
अब होने वाली रास्त्रीय परिचर्चा की मुख्य बातों को इस ब्लॉग के माध्यम से मैं आप तक लाने का प्रयास करूंगा ।
यह रास्ट्रीय परिचर्चा से १४ तक है ।तैयारियां फुल स्विंग पर हैं !

Sunday, 2 November 2008

पुरूष पर्यवेक्षण :गरदन पर आ रुकी यात्रा !

ये पुरूष पर्यवेक्षण अब मेरे गले की हड्डी बनता जा रहा है -यह पर्यवेक्षण यात्रा के गर्दन तक आ पहुचने पर शिद्दत के साथ अहसास हो रहा है .अभी कोई आधे दर्जन ख़ास पड़ाव बाकी हैं और मेरा ध्यान उचट रहा है .वैज्ञानिक विषयों के निरूपण के साथ यही समस्या है -यदि पूरे मनोयोग से उनका निर्वाह नही हुआ तो फिर विषय के साथ न्याय भी नही हो पाता .यह भी दिख रहा है की जिस उत्साह के साथ बन्धु बाधवियों ने नारी -नखशिख सौन्दर्य यात्रा को लिया था वह सहकार पुरूष यात्रा में नही दिख रहा है .बहरहाल मैंने यह संकल्प लिया है तो पूरा तो करूंगा ही -
भले ही शनैः शनैः ....
आईये जल्दे जल्दी गर्दन की कुछ छूटी बातें हो जांय .गर्दन कई महत्वपूर्ण इशारों /भंगिमाओं को प्रगट करने में बड़ी मददगार है .यह वही अच्छी तरह रियलायिज कर सकता है जिसकी गरदन अकड़ गयी हो . जैसे हाँ या ना कहना ,दायें बाएँ गर्दन हिला कर नहीं (इनकार )और ऊपर नीचे गर्दन हिला कर हाँ (स्वीकार)के इशारे तो बहुत आम हैं .दूर से कोई जाना पहचाना आता दिखता है तो हम गर्दन कुछ पीछे की और ले जाकर अपनत्व दिखाते हुए उसका खैर मकदम करते हैं और गर्दन को झुका कर उसके सम्मान में अपनी पोजीशन डाउन दिखाते है -मगर यह बाद वाला सिग्नल ज्यादातर औपचारिकता ही है .यह किसी दबंग के सामने गर्दन झुकाने वाली भंगिमा नही है .नतमस्तक तो हम ईस्वर या ईश्वरीय सत्ता सरीखे के समक्ष ही होते हैं -मत्था टेकते हैं किसी बहुत ही आदरणीय के सम्मुख !
गले की मुसीबतें भी कुछ कम नही हैं अभी कल ही अनूप शुक्ल जी ने एक सन्दर्भ में टेटुआ दबाने का जिक्र छेड़ा था -लोगबाग आत्महत्या के निर्णय में इसी बिचारे गले के ही गले पड़ जाते हैं -चूंकि गर्दन से ही श्वास नलिका गुजरती है -फांसी का गहरा दंश इसी गले को ही झेलना पड़ता था .दंड देने के नृशंस प्रथाओं में धड से गर्दन को अलग करने का ही उपक्रम प्रमुख रहा है .
मनुष्य की विकास यात्रा में बिचारे गले ने क्या क्या नही झेला है फिर भी आज हम बहुतो की गर्दन सही सलामत है तो समझिये हम बहुत ही भाग्यशाली हैं .
एक निवेदन : पुरूष पर्यवेक्षण की यह यात्रा अभी कुछ समय तक इसी गर्दन पर ही सवार रहेगी -कुछ ऐसा आ पड़ा है की मुझे अपनी गर्दन की फिक्र हो आयी है -यह चर्चा अब एक पखवारे का विराम मांगती है सुधी जनों से .हाँ मैं कहीं जा नही रहा पर अभी ये चर्चा यहीं रुकेगी ! इस बीच मैं मित्रों के ब्लागों को देखता रहूँगा पर १५ नवम्बर तक टिप्पणी सक्रियक न रह पाऊँ .
आप से गुजारिश है कि भूलियेगा मत ! तो एक पखवारे के लिए विदा !

Saturday, 25 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण :आईये मापें गर्दन की लम्बाई !

कंठ मणि बोले तो ऐडम का ऐपल जो गर्दन की एक ख़ास पहचान है
गरदन या ग्रीवा दरअसल सर और धड के बीच तमाम जैवीय कार्यों का सेतु है -मुंह से पेट ,नाक से फेफडे और दिमाग से मेरुदंड तक रक्त नलिकाओं का संजाल है -कई मांसपेशियां हैं जो मनुष्य की गर्दन को कई इशारों -हामी और इनकार का माध्यम बनाती हैं .भारी भरकम और मोटी सी 'बैल सरीखी 'गर्दन परम्परा से पौरुष का द्योतक रही है ,' स्वान लाईक ' यानि हंसिनी सी सुराहीदार ग्रीवा स्त्रियोचित मानी गयी है .सच ही है -पुरूष की गर्दन मोटी, चौड़ी तथा स्त्री की लम्बी पतली होती है ।
नर और नारी के गरदन में एक और ख़ास लैंगिक विभेद 'ऐडम के ऐपल ' यानि कंठ (मणि ) या टेंटुआ की रचना को लेकर है -जो पुरुषों में अपेक्षया उभरा हुआ है .नारी की ऊंची और मधुर आवाज के लिए जहाँ छोटे से वोकल कार्ड के लिए छोटे से ही वायस बॉक्स की जरूरत होती है वहीं पुरुषों का वोकल कार्ड (१८ मिलीमीटर ) स्त्री के वोकल कार्ड (१३ मिलीमीटर ) से बड़ा होता है -किशोरावस्था से ही पुरुषों की आवाज भारी होने, फटने सी लगती है -
. पुरूष का स्वर यंत्र लैरिंक्स औरत के स्वर यंत्र की तुलना में लगभग ३० प्रतिशत बड़ा है .मगर नर नारी के स्वर यंत्रों की यह भिन्नता दरअसल किशोरावस्था के बाद ही उभरती है .वयः संधि पर आए किशोरों की आवाज भारी होने लगती है मगर युवा नारी के स्वर यंत्र अपने शैशव की मधुरता को लंबे समय तक बनाए रहते हैं ! आपने गौर किया ही होगा गायिकाएं बच्चों की आवाज में सहज ही गा लेती हैं -वे अपनी आवाज की स्वरावृत्ति २३०-२५५ यानि अधिक माधुर्यपूर्ण बनाए रख सकती हैं जबकि पुरूष की स्वरावृत्ति १३०-१४५ पर ही भारीपन लिए बनी रहती है .
एक रोचक अध्ययन के मुताबिक कबीलाई /आदिवासी समाजों में जहाँ पुरुषों की आवाज ऊंचे तरंग दैर्ध्य /आवृत्ति यानि सुरीली सी होती है वहीं शहरी युवाओं /पुरुषों की कम आवृत्ति वाली भारी सी होती है -इसी तरह की एक अबूझ पहेली यह भी है कि पेशेवर ( कोठेवालियां ) औरतों की आवाज दूसरी औरतों की तुलना में भारी यानि कम आवृत्ति वाली होती है - आवाज के मामले में अब उनका पेशा उन्हें पुरुशवत बनाता है या फिर उनका अव्यवस्थित सेक्स जीवन इसके मूल में है जो हार्मोनो के असंतुलन को प्रेरित करता हो -शोध चल रहा है
गर्दन के एक मुख्य आकर्षण और लैंकिक विभेद के रूप में कंठ मणि या टेंटुआ /घेघा भी है जिसे ऐडम का ऐपल कहते हैं .ऐडम के ऐपल का नामकरण भी बड़ा रोचक है .बाईबिल से जुडी दंतकथाएं बताती हैं कि यह ग्रीवा उभार दरअसल आदम के उस आदिम पाप की प्रतीति है जब हौवा द्वारा प्रेमार्पित वर्जित फल सेब को आदम ने चखा -चखा क्या ,पहला ही निवाला गले का फाँस बन अटक गया .वही कंठ मणि बन गया -ऐडम का ऐपल ! वैसेचलते चलते बता दूँ कि मूल बायिबल में ऐपल -सेब का जिक्र ही नही है -यह शब्द तो बाद का प्रक्षेप है .शास्त्री जी शायद कुछ स्पष्ट कर सकें -जारी !

Tuesday, 21 October 2008

दूर के नहीं अब चंदामामा !

चंद्रयान का रूट चार्ट
भारत का चन्द्र विजय अभियान शुरू हो गया ..आज सुबह ही चंद्रयान -१ चन्द्रमा की दूरी नापने चल पडा है -उसे आंध्रप्रदेश के सतीश धवन अन्तरिक्ष केन्द्र श्रीहरिकोटा से छोडा जा चुका है और वह पल पल चाँद की दूरी को हमसे कम कर रहा है -भारत के लिए भी अब चाँद ज़रा पास खिसक आया है .मानव रहित चंद्रयान -१ दो वर्षों के चन्द्र विजय अभियान पर निकल पडा है .यह एक तरह का रोबोटिक अभियान है जो चन्द्र सतह का एक त्रिविमीय नक्शा तैयार करेगा और बेशकीमती खनिजों की उपस्थिति भी मार्क करेगा .
यह अभियान ख़ास तौर पर चन्द्र ध्रुवों की सतह और सतह के नीचे बर्फ की मौजूदगी की भी पड़ताल करेगा और भविष्य के नाभिकीय संलयन ऊर्जा स्रोत हीलियम -३ की भी प्रचुरता का पता लगायेगा जिसकी धरती पर बेहद कमी है .मगर यह नाभिकीय ऊर्जा का एक अपार स्रोत है .साथ ही टाईटेनियम जैसे दुर्लभ तत्व की खोजबीन भी की जानी है .यह मिशन चाँद के पास और दूर के हिस्सों की भी पड़ताल करेगा ।
चंद्रयान-१ जिस पोलर सैटलाईट लांच वेहकल पर आरूढ़ है वह उसे एक पृथ्वी परिक्रमा पथ पर जा छोडेगा .जहाँ से वह चाँद की टेढी राह पर निकल चलेगा -जैसे ही वह चाँद की गुरुत्व सीमा में आयेगा कई मोटरें दगेगीं जिससे उसकी गति धीमी पड़ जायेगी .अब यह चाँद की लगभग वृत्ताकार कक्षा में १००० किमी ऊपर होगा और ४-५ दिनों में चाँद के १०० कमी नजदीक तक पहुँच जायेगा .
इस यान के साथ ही कई देशों के प्रोब भी हैं जिसकी चर्चा साईब्लाग पर पहले हो चुकी है .अब भारत ,चीन ,जापान और दक्षिण कोरिया सतेलाईट छोड़ने के बड़े मुनाफे वाले व्यवसाय पर नजरें जमाये हैं और अपने अन्तरिक्ष कार्यक्रमों को एक अंतर्रास्त्रीय सम्मान और आर्थिक लाभ के नजरिये से भी देख रहे हैं .
चीनियों की अन्तरिक्ष की चहलकदमी से अभी पिछले ही माह वह विश्व का तीसरा देश हो गया जिसने ऐसी क्षमता हासिल की है .
अफ़सोस यह है कि भारत के चन्द्र विजय अभियान को इस देश में ही सराहना नही मिल रही है -लोगों का कहना है कि भारत जैसे गरीब देश में जहाँ अभी भी लोगों को जीने खाने की मूलभूत सुविधाएं तक मुहैया नही हुयी हैइन कार्यकर्मों में संसाधनों को पानी की तरह बहाया जाना बुद्धिमानी नही है -इस अभियान पर तकरीबन ४ अरब रुपये खर्च हो रहे हैं .

Tuesday, 14 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -जीभ के जलवे !

यह कौन महाशय हैं पहचाना आपने ? इनकी जीभ तो देखिये !! क्या कहना चाहते हैं ये ?
रहिमन जिह्वा बावरी कह गयी सरग पताल आपुन तो भीतर गयी जूता खाई कपार
जी हाँ, जीभ स्वाद ग्रहण करने के साथ ही मनुष्य की वाचालता में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है .जीभ रहित मनुष्य एक तरह से गूंगा है तो जीभ सहित वह वाचालता की हदें भी पार कर जाता है .जीभ की सतह पर यही कोई १० हज़ार स्वाद कलिकाएँ होतीहैं जो मूल रूप से चार स्वादों की अनुभूति कराती हैं -मीठा और नमकीन जीभ के अग्र भाग ,खट्टा दोनों साईडॉ तथा कड़वा जीभ के पिछले हिस्से से महसूसा जाता है .जीभ की गति बहुत न्यारी है -यह सतत हिल डुल कर मुंह की साफ़ सफाई में भी जुटी रहती है -दांतों मे फंसे भोजन के छोटे टुकणों की भी यह सफाई करती चलती है ।
बोलने चालने में दांत का कितना बड़ा योगदान है वे अच्छी तरह जानते होंगे जो कभी दंत चिकित्सक के सानिध्य से गुजरे होंगे .जब चिकित्सक थोड़ी ही देर के लिए जीभ की गति को रोकता है तो कितना अनकुस लगता है .जीभ को ज़रा उँगलियों से नीचे दबाकर बातचीत का उपक्रम करें -आपको भी यह यथार्थ समझ में आ जायेगा !
अब आईये जीभ के कुछ खासमखास उपयोगों की भी चर्चा कर लें { पवित्रता वादी कृपया क्षमा करेंगे !).गहन प्रणय व्यवहारों के दौरान चुम्बन की एक 'जिह्वान्वेशी ' ( टंग प्रोबिंग ) किस्म दरसल चुम्बन के ही उदगम -अतीत की ओर हमारा ध्यान खींचती है .मजे की बात तो यह है की चुम्बन की जन्म कथा का सम्बन्ध काम क्रीडा से तो कतई नहीं है .यह मातृत्व के उन सुनहले दिनों की याद दिलाती है जब आधुनिक युग के तरह तरह के बेबी फ़ूड नहीं हुआ करते थेऔर माताएं बच्चों की दूध छुडाई ( वीनिंग ) को लेकर तरह तरह का उपक्रम करती रहती थीं .माँ पहले तो खाद्य पदार्थ को लेकर उसे अपने मुंह में कूट पीस कर लुगदी बनाती थी और फिर उसे बच्चे के मुंह में सीधे जीभ के सहारे अंतरित कर देती थी .यह था चुमबन का उदगम ! अब यह तरीका वैसे तो सभ्य समाज से विदा पा चुका है पर अभी भी कई आदिवासी संस्कृतियों में यह प्रचलन में है .
दरअसल चुम्बन पाना ,चुम्बन देना दोनों ही गहरे प्रेम का प्रगटीकरण है .और इस प्रक्रिया में जीभ कोई तटस्थ दर्शक तो रहती नहीं बल्कि यथावशय्क वह बढ़ चढ़ कर हिसा लेती है .मगर सावधान ! कभी कभी जिह्वान्वेशन जीभ की ही सेहत के लिए भारी पड़ सकता है -चरमानंद के पलों में यदि सावधानी नहीं बरती गयी तो आनंदानुभूति में जबड़ों के सहसा भिंच जाने से जीभ कट भी सकती है .
जीभ के यौनांग अन्वेषणों के पीछे भी व्यवहार विद बचपन में वात्सल्य भाव से यौनांगों की देखभाल का रिश्ता पाते हैं .मगर इसके अलावा भी जीभ को नर अंग के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है .नारी होठ और पुरूष जिह्वा को उनके यौनांगों के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल के कई संकेत भी दुनिया में प्रचलन में हैं .दक्षिण अमेरिका में पुरुषों को अर्ध खुले होठों के बीच से जीभ को धीमें धीमें दायें बाएँ घुमा कर यौनामंत्रण देते देखा जाता है ।
नगर वधुएँ भी अपने ग्राहकों को आमन्त्रित करने के लिए कुछ ऐसे ही इशारे करती है मगर इन्हे सभ्यसमाज अश्लील मानता है ।
भारतीय चिंतन में शायद इसलिए ही जीभ पर कडा अंकुश /अनुशासन रखने की हिमायत की गयी है -यह रसना तो है ही वाचालता और नाना प्रकार के सुख भोगों के लिए भी प्रवचन -प्रताडित होती है ।
दुःख की मारी है हमारी जीभ बिचारी !

Sunday, 12 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -और अब दंत छवि का अवलोकन !

वरदंत की पंगति कुंद कली .........छवि मोतिन माल अमोलन की .कवि की इस अभिव्यक्ति को समझने लिए आपमें सौदर्य बोध के साथ ही प्रकृति -निरीक्षण का भी खासा अनुभव होना चाहिए ,अब अगरआपने कुंद पुष्प की कलियों को नहीं देखा है तो इसका अर्थ समझने से रहे .खैर मोतियों की माला तो बहुतों ने देखी है ,यहाँ उनसे दांतों की पंक्ति बद्ध शोभा की तुलना हुई है .सचमुच सुंदर पंक्तिबद्ध दांत मुंह की शोभा में चार चाँद लगाते हैं -कास्मेटिक सर्जरी के जरिये अब दांतों को और भी सुंदर और प्रेजेंटेबल बनया जा रहा है .सुंदर स्वच्छ दातों को उदघाटित करता मुक्त हास भला किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करता -नर नारी में यह बात समान है .दांतों में आभूषण जड्वाने के भी परम्परा विश्व की अनेक संस्कृतियों में रही है .भारत में लोगबाग दांतों पर सोने की परत चढ़वाते आए हैं .यह उनके सामाजिक स्तर और समृद्धि का परिचायक भी है -ऐसे शौकीन लोग प्रायः दिख जाते हैं । शायद कोई ब्लॉगर भाई भी स्वर्णमंडित दंत लिए हों ! महाभारत का वह मार्मिक प्रसंग तो याद है ना आपको जब दानी कर्ण ने अपने स्वर्णमंडित दांत ही सूर्य को अर्पित कर दिए थे ।
अब दांतों से जुडी थोड़ी अंदरूनी बात हो जाय .हमारे वानर कपि बन्धुबांधवों की ही भाति मनुष्य का मुंह मूलतः खाद्य सामग्रियों की जांच पड़ताल और चबाने के उद्द्येश्य से बना है जिसमें दांतों की मुख्य भूमिका है .किसी बच्चे को देखिये वह हर चीज मुंह में डाल डाल कर माँ बाप को तंग किए रहता है .मगर उम्र बढ़ने के साथ ही अन्य पशुओं की तुलना में यह खाद्य जांच पड़ताल हाथों के जिम्मे हो जाती है ।यहाँ तक किमनुष्य में दांतों से किसी को काट खाने की जरूरत भी कम होने लगती है -मार पीट का जिम्मा भी हाथ ही संभालते है -अपवाद के तौर पर कटखने आदमी भी दीखते हैं मगर यह आत्मरक्षा का अन्तिम विकल्प ही है -जब हाथ लाचार हो जायं .बच्चे अक्सर काट लेते हैं .जैसे कि बड़े बन्दर तो दातों से अक्सर कटखना प्रहार करते हैं - मगर वयस्क मनुष्य में दांतों से रक्षा का यह काम हांथों द्वारा संभाल लिए जाने से उसके दांत दीगर जानवरों की तुलना में छोटे होते गए हैं .उसके हिंस्र कैनायिन दांत तो बहुत ही छोटे हैं .अब दांत खाना चबाने की ही सीमित भूमिका में रह गए हैं .या फिर जाडें में ठण्ड से कटकटानें या असह्य दर्द में भिंच जाने या फिर सोते समय किसी दमित क्रोध के प्रगटीकरण के लिए कटकटानें के ही काम आते हैं .यह हमारे उस कपि अतीत का ही एक अभिव्यक्ति शेष है जब हारता बनमानुष दातों के इस्तेमाल पर आ उतरता था ,अब जब भी किसी को आप सोते वक्त दांत किटकिटाते देंखे तो जान लें कि वह किसी दबंग से टकराहट में हार खाकर स्वप्न में उससे बदला ले रहा है ।
दांत का चमकता इनामेल मनुष्य के शरीर का कठोरतम हिस्सा है -मगर ज्यादा सूगर खाने वाले इसे लैक्टिक अम्ल के निर्माण के चलते सडा गला डालते हैं .भारत में तो गनीमत है मगर पशिमी देशों मे ज्यदातर जवान होकर अपनी बत्तीसी का बड़ा हिस्सा गवां चुके होते है -दंत सर्जरी के आभारी ऐसे लोग कृत्रिम दांतों का सेट लगा कर चिर युवा से लगते हैं .हमें दांत के दो सेट -बचपन के दूध के दांत और बाद वाले वयस्क दांत कुदरत से तोहफे में मिले हैं.काश शार्क मछली की तरह हमारे भी ऐसे दांत होते जो गिरने पर हमेशा नया उग आते हैं !

Thursday, 9 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -होठों पर इक नजर !

पुरूष पर्यवेक्षण के दौरान कुछ सूक्ष्म बातों पर भी ध्यान जा रहा है जैसे कि ये दो शब्द -मुख और मुंह ! क्या ये दोनों समानार्थी हैं ? मुझे तो नहीं लगता .मुख बोले तो पूरा मुखमंडल और मुंह बोले तो मुंह मंडल जिसमें होठ ,दांत और जीभ भी समाहित हैं .यदि किसी को इस वर्गीकरण पर ऐतराज हो कृपया बताये ।
जब हम मुंह की बात करते हैं तो होठों पर अनायास ही नजरें उठती हैं .चहरे पर होठ भावाभिव्यक्ति में बहुत महत्वपूर्ण रोल निभाते हैं -इनके आकार प्रकार में कई ऐच्छिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं .होठों के ऊपर नीचे दायें बाएं करने से चेहरा अजब गजब भाव ग्रहण कर लेता है .होठों से सीटी बजाने से लेकर चुम्बन का चुम्बकीय हवाई सिग्नल भी ये होठ दे देते हैं .पर यह सब होठ करते कैसे हैं ? यह जानना रुचिकर हो सकता है ।
दरअसल होठ एक बहुत ही शक्तिशाली पेशी से संयुक्त होते है जिसे आर्बिक्यूलेरिस ओरिस कहते हैं इसकी ही गति या संकुचन से चुम्बन के आमंत्रण से लेकर होठ सिल लेने जैसी चुप्पी साधी जा सकती है .जब कोई मुक्केबाज रिंग में प्रतिद्वंदी से भिड़ता है तो ज़रा गौर से देखिये कि कैसे वह किसी मुक्के की प्रत्याशा में सहसा ही मुंह को भीच लेता है ,उसके होठ भिंच उठते हैं .यह सब कमाल उस पेशी का ही है . बदलते मूड को भांप कर होठ भी वैसा ही भाव बनते हैं या फिर इनकी गति से चेहरे का भाव बदल उठता है ।
प्रायः चार प्रकार के होठीय सिग्नल पहचाने गए हैं -खुले होठ ,बंद होठ ,होठों की अग्र गति और पच्छ गति.ये प्रफुल्लता से लेकर अवसाद तक की इन्गिति करते हैं । आर्बिक्यूलेरिस ओरिस नाम मुख्य होठ की पेशी चेहरे की दूसरी पेशियों से मिलकर चेहरे की कई भाव भंगिमाओं का प्रगटीकरण करती है .एक संक्षिप्त परिचय यूँ है -
१.levatar -इसकी मदद से ऊपरी होंठ दुःख ,घृणा और क्षोभ को प्रगत करते हैं ।
२.Zygomaticus - ऊपर उठ मुस्कराहट और हंसी
३.Triangularis-उदासी
.Depressor -निचले होठ को और भी नीचे करके तिरस्कार की अभिव्यक्ति
५.Levator menti -ठुड्डी को ऊपर करके निचले होठ को आगे बढाकर निष्ठुरता-अवज्ञा का प्रगटीकरण
६.Buccinataor -यह गालों को दातों तक खींच कर लाती है -फूँक मारने और खाना खाते समय की मुखमुद्रा !
७.Platysma - भय ,पीडा ,और खामोश गुस्से की अभिव्यक्ति !
इन सभी पेशियों के आपसी तारतम्य से होठ गुस्से के इजहार ,अट्ठहास आदि भावों को भी प्रगट करते हैं .खुश मिजाजी और दुखी चेहरे को अभिव्यक्त करने होठों को महारत हासिल है .खुले मन की हंसी में ऊपरी होठ ऊपर उठ कर ऊपरी दांतों तक को दिखा देते हैं .यदि हंसी में कोई नीचे के दांत भी दिखा देता है तो समझिये उसकी नेकनीयत नही है .वह बनावटी हंसी हस रहा है .होठों के फैलाव से खींसे भी निपोरी जाती हैं ।
दूसरे प्राणियों की तुलना में मात्र मनुष्य में ही होठों की श्लेष्मा सतह बाहर की ओर से दिखती है -यह एक यौन संकेतक भी है .घनिष्ठ क्षणों में ये थोडा फुले हुए ,ज्यादा रक्ताभ और थोडा बाहर की ओर निकलते हुए दीखते हैं .ये बहुत संवेदनशील हो उठते हैं -होठों के मामले में नारियां पुरुषों से बाजी मार ले गयी है क्योंकि उनके होठ अमूमन पुरूष से ज़रा से बड़े से होते हैं ! नर होठ -साभार

Wednesday, 8 October 2008

गाँव से यह स्कूप लेकर लौटा हूँ !

भरपेट भोजन के बाद चल पड़े डगमग


गाँव गया था,जौनपुर -मेरे तीन दिन के प्रवास में दो साँप दिखे -दोनों शुभ संयोग से विषहीन ! एक तो वोल्फ स्नेक था जिसके बारे में इस ब्लॉग पर पहले ही चर्चा हो चुकी है .दूसरा साँप पानी का साँप था जिसे चैकेर्ड कीलबैक वाटर स्नेक कहते हैं .इसका प्राणी शास्त्रीय नाम xenochropis piscator है .जब यह देखा गया तो यह एक बड़े से मेढक को निगल चुका था-इसके शरीर के फूले हिस्से को देखकर आप ख़ुद अंदाजा लगा सकते हैं .बहरहाल जैसा कि आम तौर पर गावों में होता है लोगबाग की भीड़ इसका काम तमाम करने को जुटने लगी और मेरे बच्चे इसकी तस्वीर उतारने में मशगूल हो गए -वीडियो भी लिया गया है ,देखिये लोड हो पता है या नहीं .नहीं तो फिलहाल फोटो से ही और कुछ अपनी कल्पना से वहाँ मचे हो हल्ले का अंदाजा लगाईये -बड़ी मुश्किल से मैं लोगों को इसे मार देने से रोक पाया -भीड़ भाड़ और हो हल्ला सुन कर इसने निगल चुके मेढक राम को उगल दिया -वे अधमरे से चित्र में देखे जा सकते हैं .बाद में Rana tigrina प्रजाति के ये महाशय जिन्हें गाँव में गोपाल मेढक भी कहते है चैतन्य हो गए और फूट निकले .बेटे कौस्तुभ और बेटी प्रियेषा साँप को पहले ही एक सुरक्षित स्थान पर ले जाने में सफल हो चुके थे ।
जाऊं तो जाऊं किधर जाऊँ ?

पानी के साँप को जौनपुर में पंडोल या देडहा भी कहते हैं अन्य अंचलों में इसका स्थानीय नाम दूसरा होगा .यह मछली और मेढक ख़ास तौर से पसंद करताहै -प्रायः तालाबों के निकट और धान के खेतों में दिखता है .ये दिन रात सक्रिय रहते हैं .ये वैसे तो गुस्सैल स्वभाव के होते हैं और छेड़े जाने पर किचकिचा के काट सकते है मगर 'सलीके '
से पेश आने पर पालतू भी हो सकते हैं .ये बिल्कुल ही विषहीन होते हैं -सौंप के खाल के व्यापारियों के साफ्ट टार्गेट हैं -तेजी से इनकी संख्या कम हो रही है -इनका पर्यावास भी खतरे में है -तालाब भी तेजीसे पट रहे हैं ।
इसके मुंह की पेशियाँ इतनी लचीली होती हैं कि ये काफी बड़े आकार के मेढक ,मछली और परिंदों को समूचा जिंदा निगल सकते हैं । जान बची तो लाखो पाये




इस पूरे प्रकरण का वीडियो मैं किसी न्यूज़ चैनेल को बेचने की फिराक में हूँ ताकि एक बाबा के झूठ मूठ संजीवनी के प्रलाप कीबजाय किसी सौ फीसदी सच्ची ख़बर को मीडिया में उछाला जा सके .है कोई बोली लगाने वाला ?
पुनश्च -आपको साँप को करीब से देखने के लिए फोटो को एनलार्ज कर देखना होगा !
और ये रहा वीडियो ! बड़ा मजेदार है जरूर देखिये !!

Friday, 3 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण : दाढी का सफाचट होना !

बस यही एक ही दाढी मुझे पसंद आयी
आईये तनिक विचार कर ही लें कि दुनिया के असंख्य लोग क्यों सुबह सुबह हजामत करने करवाने को अमादा हो जाते हैं ? उत्तर बड़ा सीधा सा है ( शायद आप सोच भी लिए हों ) .दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती भीड़ भाड़ वाली इस दुनिया में दबंग और आक्रामक दीखते रहना अब बड़ा रिस्की हो गया है .कब कहाँ बात का बतडंग हो जाए कौन जानता है -दाढी दबंगता,दबंगई की द्योतक है -कम से कम यह हमारे अवचेतन में पुरूष पुरातन की छवि ला देती है .अब की दुनिया में यह छवि खतरे से खाली नहीं !तो दाढी से पिंड छुडाने का मतलब हुआ ऐसी ईमेज को प्रेजेंट करना जो प्रेम की वांछना रखती है न कि संघर्ष की ! जो सहयोग चाहती है न कि प्रतिस्पर्धा !!
दाढी विहीन चेहरा अपने सहकर्मियों को आश्वस्त करता है कि ," भाई ! मैं तो दोस्ती का तलबगार हूँ और तुमसे भी दोस्ती का वायदा चाहता हूँ .चलो हम पारंपरिक प्रतिस्पर्धा को दरकिनार कर मिल जुल कर रहें और जीवन को धन्य करें " इसी लिहाज से शेविंग दुनिया भर में एक गैर दबंगता का व्यवहार प्रदर्शन (अपीज्मेंट बिहैवियर ) बन गया .इसके कई और फायदे भी हैं .चूंकि बच्चों की दाढी नहीं होती इसलिए बिना दाढी वाला चेहरा बच्चों की सी मासूनियत की ही प्रतीति कराता है .बिना दाढी कासाफ़ सुथरा चेहरा भावों का खुला प्रदर्शन करता है -दूसरों से पूरा संवाद करता है .यहाँ चोर की दाढी में तिनका की खोज किसी दूसरे अंग के हाव भाव से नही की जाती -चहरे का हर हाव भाव प्रगट होता चलता है -इसलिए बिना दाढी का चेहरा आमंत्रित करता है .दाढी से ढंका छुपा चेहरा दोस्ताना नहीं लगता.
शेविंग किसी भी पुरूष के चहरे को बाल सुलभ सरलता और साफ़सुथरा , स्वच्छ परिक्षेत्र प्रदान कर देती है -रोजमर्रा के दुनियावी कामों के लिए फिट बना देती है .मगर दाढी विहीन चेहरा लोगों को थोडा स्त्रीवत भी तो बना देता है -और बिना दाढी वाले अक्सर इसीलिये दाढीवालों से कटूक्तियां /फब्तियां सुनते रहते हैं बिचारे !तो एक विश्वप्रसिद्ध समझौता हो गया -मूंछ का अवतरण ! दाढी तो सफाचट हुयी पर मर्दानगी की निशानी अभी भी बरकरार है -मूंछों पर ताव बरकरार है -हिटलर से लेकर चार्ली चैपलिन की मूंछों और उसके आगे तक भी मूंछों कीकहानी पुरूष की एक बेबसी भरी मर्दानगी की ही चुगली करती रही है .चहरे की दबंगता तो दाढी के सफाचट होते ही गयी पर पौरुष की एक क्षीण रेखा अभी भी तमाम चेहरों पर विराजमान है -मिलट्री ( मैन )की मूंछों की साज सवार और उनके घड़ी की सुईओं के मानिंद हमेशा ११ बजाते रहना एक आक्रामक अतीत का ही ध्वंसावशेष है ! वे यह ताकीद भी करती हैं कि भई मिलो तो मगर लेकिन इज्ज़त से पेश आओ !
ढाढी प्रकरण सामाप्त हुआ !

Thursday, 2 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -दाढी महात्म्य जारी .........

पुराने जमाने में दाढी शक्ति ,सामर्थ्य और मर्दानगी की निशानी समझी जाती थी .जिसकी दाढी मूछ किसी भी कारण से मुड़वा उठती थी उसे काफी शर्मिन्दगी उठानी पड़ती थी .उस समय गुलामों ,दुश्मनों और बंदियों की दाढी मूछ मुड़वाने का चलन था .यह उनके लिए किसी अपमान से कम नही था .दाढी पर लोग सौगंध तक खा जाते थे और पब्लिक इस सौगंध पर भरोसा भी रखती थी .यहाँ तक की कई देवताओं तक को दाढी वाला माना जाता था .अपने आदि देव शंकर महराज ही लंबे जटा जूट वाले दिखाए जाते थे .प्राचीन मिस्र के धार्मिक अनुष्ठानों पर धर्मदूतों की लम्बी दाढी लोगों को आकर्षित करती थी .यह उनकी कुलीनता और बुद्धि के स्तर का प्रतीक थी ।
दाढी महात्म्य के चलते ही कई पुरानी सभ्यताओं -पर्सियन ,सुमेरियन ,असीरिया तथा बेबीलोन के शासक अपने दाढियों के साज सवार में काफी समय जाया करते थे .दाढी पर तरह तरह के रंग रोशन ,इत्र ,तेल फुलेल लगाए जाते थे .कहीं कहीं तो दाढी पर स्वर्ण कणों की फुहार भी होती थी
स्वैच्छिक तौर पर दाढी मूछ मुड़वाने की शुरुआत ईश्वरीय सत्ता के सामने दास्य भाव के प्रदर्शन से हुई लगती है .फिर प्राचीन ग्रीस और रोम की सेनाओं में दाढी को सफाचट रखने का फरमान जारी हुआ जिससे दुश्मनों से आमने सामने के टक्कर में कहीं सैनिक अपनी दाढी को नुचने से बचाने के ऊहापोह में मात न खा जायं .कहते हैं कि सिकन्दर महान ने अपनी सेना के लिए यह स्थायी आदेश दे दिया था कि कोई भी सैनिक दाढी मूंछ नहीं रखेगा .जिससे उसके सैनिक बेखौफ लड़ सकें .सेनापति को युद्ध के मैदान में इसतरह अपने युद्ध रत सैनिकों के पहचान में सुभीता हो गया .
इसतरह दो तरह के रिवाज शुरू गए -एक दाढीवाला दूसरा बिना दाढीवाला ! अब अपने अपने रोल माडल या मुखिया की तरह दाढी रखने या दाढी सफाचट रखने का फैशन शुरू हो गया .एक फ़्रांसीसी राजा ने अपने ठुड्डी के घाव को छुपाने के लिए दाढी उगा ली -फिर क्या था उसके अनेक अनुयायी भी ठीक उसी तरह दाढी रखने लगे -शायद फ्रेंच कट दाढी इसी के चलते फैशन में आयी .मगर इन ख़ास वर्गों के अलग लोग बाग़ दाढी रखने से परहेज करने लगे .मगर एलिजाबेथ के काल का एक समय ऐसा भी था कि दाढी रखने वालों पर टैक्स लगाया जाने लगा -जिसके चलते दाढी जहाँ आम आदमी के चेहरे से विलोपित होती गयी वही धनाढ्य वर्ग की पहचान भी बनती गयी जो टैक्स चुका कर भी दाढी रख रहे थे .भारत में भी ढोंगी संन्यासी भगवान् के नाम पर अपनी दाढी मूछ मुड़वाने लगे -मूछ मुडाई भये संन्यासी !
अभी कुछ और भी है .......

Tuesday, 30 September 2008

पुरूष पर्यवेक्षण :दास्ताने दाढी है जारी ......

दाढी छुपा सकती है मुहांसों से भरे चहरे को !चित्र सौजन्य -howstuffworks
ज्यादातर व्यवहार विद मानते हैं कि दाढी दरअसल पौरुष भरे यौवन की पहचान है -एक लैंगिक विभेदक है बस ! पौरुष का यह प्रतीक मात्र दिखने में ही भव्य नहीं बल्कि यह अपने रोम उदगमों में अनेक गंध -ग्रंथियों को भी पनाह दिए हुए है .मतलब यह चहरे के कई पौरुष स्रावों के लिए माकूल परिवेश बनाए रखती है .किशोरावस्था के आरम्भ से ही चहरे की गंध (सेंट ) ग्रंथिया भी सक्रिय हो उठती हैं -नतीजतन चहरे पर खील-मुहांसों की बाढ़ आ जाती है !जिस किशोर का भी चेहरा अतिशय मुहांसों से भरा हो तो वह बला का की काम सक्रियता( सेक्सिएस्ट ) वाला हो सकता है -कुदरत का यह कैसा क्रूर परिहास है!
दाढी से भरा पूरा चेहरा वास्तव में एक दबंग /आक्रामक पुरूष की छवि को ही उभारता है .वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म निरीक्षणों में पाया है कि कोई भी पुरूष जब आक्रामक भाव भंगिमा अपनाता है है तो वह अपनी ठुड्डी को थोडा ऊपर उठा देता है और दब्बूपने में ठुड्डी स्वतः गले की ओर खिंच सी आती है .अब चूँकि पुरूषकी ठुड्डी और जबडा किसी भी नारी की तुलना में अमूमन भारी भरकम होता है -दाढी इसी दबंगता को उभारने की भूमिका निभाती है .हमारा अवचेतन दाढी को इसी आदिकालीन जैवीय लैंगिक सिग्नल के रूप में ही देखता है ।
तो तय हुआ कि दाढी पुरूष को पौरुष प्रदान करती है -पर तब एक प्रश्न सहज ही उठता है कि फिर रोज रोज यह दाढी सफाचट करने की 'दैनिक त्रासदी' का रहस्य क्या है आख़िर ?यह प्रथा कब क्यों और कैसे शुरू हो गयी और वैश्विक रूप ले बैठी ! यह कुछ अटपटा सा नहीं लगता कि पुरूष अपने ही हाथों अपने पौरुष को तिलांजलि दे देता है और वह भी प्रायः हर रोज !
आख़िर क्या हुआ कि दुनिया की अनेक संस्कृतियों के युवाओं ने इस लैंगिक निशाँ से दरकिनार होने को ठान ली ?किसी भी से पूँछिये दाढी बनाना सचमुच एक रोज रोज के झंझट भरे काम से कम नहीं नही है -हाँ नए नए शौकिया मूछ दाढी मुंडों की बात दीगर है वहां तो कुछ गोलमाल ही रहता है -रेज़र कंपनियां ,आफ्टर शेव और क्रीम लोशन उद्योग तो बस उनके इसी टशन की बदौलत ही अरबों का वारा न्यारा कर रही हैं ! डॉ दिनेशराय द्विवेदी और मेरे जैसे वयस्कों के लिए तो रोज रोज की समय की यह बर्बादी अखरने वाली ही होती है .
एक साठ साला आदमी जिसने १८ वर्ष की उम्र से ही यह दैनिक क्षौर कर्म शुरू कर दिया हो और कम से कम १० मिनट रोज अपना समय इसके लिए जाया करता रहा हो तो समझिये वह कम से कम २५५५ घंटे यानी पूरे १०६ दिन सटासट -सफाचट में ही जाया कर चुका है .तो आख़िर इतनी मशक्कत किस लिए ?? जानेंगे अगले अंक में !