विकास के दौर में जब मनुष्य चौपाये से दोपाया बना तो उसके स्वतंत्र हो गए दोनों बाहुओं के संचालन की एक नयी जिम्मेदारी उस पर आ पडी .लिहाजा बाहुओं को सपोर्ट करने वाले कन्धों को प्रकृति ने मजबूत मांसपेशियों से लैस करना शुरू कर दिया . जिसके चलते हाथों को शिकार पकड़ने में तरह तरह के आयुधों के सहज संधान में काफी सुविधा हुई .जाहिर है पुरुषों के कंधे ऑर बाहें आम स्त्री की तुलनामें मजबूत होते गए .दोनों हाथों के संधि क्षेत्र यानी कंधा पुरूषों में काफी मजबूत होता गया ऑर एक स्पष्ट से लैंगिक विभेद का बायस बन बैठा .पुरुषों का कंधा नारी की तुलना मे ज्यादा चौडा ऑर भारी होता गया है .एक सामान्य पुरुष का शरीर कंधे से नीचे से पतला होता जाता है जबकि ठीक इसके उलट नारी कंधे से नीचे फैलाव पाती जाती है -यह नारी विभेद कूल्हों के चलते और उभर उठता है ।
अब इतने स्पष्ट लैंगिक विभेद के अपने सांस्कृतिक फलितार्थ /निहितार्थ तो होने ही थे .अब पुरुषों को मर्दानगी के प्रदर्शन एक और जरिया मिल गया था .अब कन्धों को उभारने वाली साज सज्जा और अलंकरण का चलन चल पडा .राजा महराजाओं ,राजकुमारों के पहनावों में कंधे उभार पाने लगे -आज भी ज़रा सेना के किसी कमीशंड अधिकारी को देखे कैसा उसका कंधा चौडा और अलंकरणों से लदाफदा होता है .जापानी थियेटर के काबुकी पात्र और अमेरकी फुटबाल खिलाड़ियों के भारी भरकम कन्धों को आपने भी देखा होगा .जापानी पुरुष अपने कंधे को उभारने के लिए जो परिधान -ब्रोकेड पहनता है कामी नारीमू कहलाता है .इसी तरह अमेरिकी फुटबालर अपने कन्धों से अधिक पुरुशवत लगते हैं ।
मगर मजे की बात तो यह है कि इतिहास ऐसे भी उदाहरणों का गवाह बना है जब पश्चिम में नारी मुक्ति आन्दोलनों की कुछ झंडाबरदार जुझारू नारी सक्रियकों ने पुरुष्वत दिखने की चाह में अपने कन्धों को उभार कर दिखाने का उपक्रम शुरू किया .नारी मुक्ति की अगुआ महिलाओं ने १८९० मे ही यह अनुष्ठान आरम्भ कर दिया था -लैंगिक समानता की चाह लिए महिलाओं को मानो 'शोल्डर समानता ' रास आ गयी थी .इस प्रवृत्ति ने फैशन विशेषगयों .इतिहासकारों का धयान अपनी ओर खींचा .ब्रितानी नारियों ने १८९५ के आस पास ऐसी पोशाकें पहननी शुरू की कि ऐसा लगता था कि उस परिधान के स्कंधिका -ब्रोकेड के भीतर फूले हुए गुब्बारे रख दिए गएँ हों .ऐसी मुक्त हो चली नारियां पुरुषों से हर कदम से कदम मिला कर विश्वविद्यालय की डिग्रियां .खेल के मैदानों और उनके पारम्परिक पुरुष कार्य क्षेत्र तक चहल कदमी करने लगीं थीं .मगर यह भी कोई बात हुई कि उनके पुरुष्वत परिधानों के भीतर अभी भी कोरसेट और पेटीकोट मौजूद हुआ करते थे .वे सार्वजनिक रूप से तो पुरुशवत तो हो चली थीं मगर निजी तौर पर कमनीया नारी ही थीं .....जारी !
9 comments:
आपने आदिमकाल से अभी तक का यह कंधा पुराण बहुत ही रोचक भाषा में सुनाया ! और बड़ी सशक्त एवं उपयोगी जानकारी दी ! बहुत धन्यवाद आपको !
" strange but interesting.."
Regards
नारी पुरुष को "बिद्ध कर लेती सहज बंकिम नयन के वाण से" से आगे बढ़ कर कन्धे उभारने में विश्वास करने लगी हैं! बढ़िया है!
मेरे अनुसार तो कार्य का प्रकृति आर्धारित बंटवारा और परस्पर समानता का भाव ज्यादा महत्वपूर्ण है।
प्रकृति ने नारी को मानव संतति को अपनी देह में विकसित करने का जो महति भार दिया है उस की तुलना पुरुष के किसी भी महान कार्य से नहीं की जा सकती। पुरुष के चौड़े कंधे उसी नारी को सहयोग करने में ही विकसित हुए हैं। नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं। उन की विभिन्नताओं की तुलना नहीं की जा सकती है। वैसे भी तुलना केवल समानताओं में ही होती है। आलेख में महत्वपूर्ण सूचनाएँ संजोई गई हैं।
बड़ी ही बेहतरीन जानकारी मिली आपकी पोस्ट से ! तिवारीसाहब का सलाम !
बहुत अच्छी लगी आप की यह लेख.
धन्यवाद
is rochak jaankaari ke liye badhai dher si.
is rochak jaankaari ke liye badhai dher si.
कन्धों के बारे में काफी रोचक जानकारी प्राप्त हुई। शुक्रिया।
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