आतंक की पर्याय विदेशी मछलियाँ :कामन कार्प ऊपर टिलैपिया नीचे
गंगा नदी जो एक संस्कृति की प्रतीक भी है इन दिनों अनाहूत विदेशी मछली प्रजातियों से अटी पड़ रही है -कोई आधी दर्जन प्रजातियाँ यहाँ पर अपना स्थाई डेरा डाल चुकी हैं और हम हाथ पर हाथ घरे बैठे हैं.मैंने इस समस्या को पहले भी यहाँ उठाया था .मगर मुश्किल यह है कि विशाल और निर्बाध जल प्रवाह क्षेत्र से अब इनका उन्मूलन कैसे किया जाय. फिर ये बड़ी प्रजनन कारी है और सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है -देशी प्रजारियों पर भारी पड़ रही हैं जो धीरे धीरे खात्मे की ओर बढ रही हैं .
एक अच्छी खबर है कि अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक तकनीक ई डी एन ऐ पहचान की खोज की है जो इनके आरम्भिक उपस्थिति से आगाह कर सकती है ..मगर अपने यहाँ तो पानी सर से ऊपर जा चुका है .अब शायद कुछ किया नहीं जा सकता ...वैसे गंगा -किनारे के मछुए अचानक इस बढ़ती संपत्ति से आह्लादित हो रहे हैं क्योकि नदी में देशी मछलियाँ वैसे ही काफी कम मिल रही थीं -अब यह वे इन विदेशी मछलियों को ईश्वरीय सौगात मान रहे हैं जो उनके पापी पेट को पालने में कारगर हो चली हैं जबकि उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है या जानबूझ कर समझना नहीं चाहते कि इन मछलियों की बढ़त से रही सही देशी मछलियों की अस्मिता पर ही बन आयेगी और उनमें कुछ तो शायद विलुप्ति के कगार पर ही न पहुँच जाएँ .आज जरुरत इस बात की है कि इन्ही मछुआ समुदाय के लोगों में से ही कुछ चैतन्य लोगों को चुन कर दिहाड़ी आदि का प्रोत्साहन देकर संरक्षण समूह बनाये जायं जो देशी मछलियों की रक्षा का संकल्प लें और उनके अंडे बंच्चों की रक्षा करें -जब तक देशी मछली प्रजनन योग्य न हो जाय उसे न मारे ताकि उनकी भावी संतति बची रहे !
विदेशी आक्रान्ता मछलियों में चायनीज कार्प की कुछ प्रजातियाँ प्रमुखतः कामन कार्प और शार्प टूथ अफ्रीकन कैट फिश यानि विदेशी मांगुर और अब नए रंगरूट के रूप में अफ्रीका मूल की टिलैपिया है जो वंश विस्तार के मामले में सबसे खतरनाक है .आज स्थति यह है कि आप कोई भी छोटा जाल गंगा में डाले तो किसी टिलैपिया के आने की संभावना नब्बे प्रतिशत है और किसी भी देशी मछली की महज दस या उससे भी कम! जाहिर है देशज मत्स्य संपदा एक घोर संकट की ओर बढ रही है -यह किसी राष्ट्रीय संकट से कम नहीं है -गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा भी जो दिया जा चुका है!
8 comments:
मुझे लगता है कि आप जिसे संकट बतौर पहचान रहे हैं, ढेरों ऐसे होंगे जो इसका स्वागत करना चाहेंगे.
गाजर घास और जलकुम्भी भी बाहर से ही आई थी.
अब धीरे धीरे हम भी ऎसे ही लुप्त हो जायेगे, जेसे अमेरिका मे वहां के लोग, अस्ट्रेलिया कनाडा ओर न्युजी लेंड मे हुये हे,जेसे हमारी मच्छ्लिया ओर हमारे पेड् पोधे हो रहे हे, हमारी भाषा हो रही हे
आपने एक और संकट की घोषणा कर दी। समाधान नहीं है तो हाथ पर हाथ ही धर लेते हैं।
मछली के शिकारी खुश नहीं हैं? बड़ी और मोटी मछलियों से?
भारत में जो आता है यहीं का हो जाता है। चाहे इंसान हो या मछलियाँ।
यही तो बात है. हम इतनी गंभीर बातों को हलके में ले लेते हैं. जबकि दीर्घकाल में ये प्रवृत्ति घातक हो सकती है. मछुआरों का क्या? उन बेचारों को तो मोटी मछलियाँ मिल जा रही हैं. पर जैव विविधता की दृष्टि से ये बेहद खतरनाक बात है.
ये एक जैव संकट है. ही आपका तो विभाग ही यही है, आप ही कुछ कीजिये.
मछलियों के पासपोर्ट बनते हों संभवतः।
यहाँ भी विदेशी घुसपैठ ! आशा है आपके सुझावों पर ध्यान दिया जायेगा.
Post a Comment