Science could just be a fun and discourse of a very high intellectual order.Besides, it could be a savior of humanity as well by eradicating a lot of superstitious and superfluous things from our society which are hampering our march towards peace and prosperity. Let us join hands to move towards establishing a scientific culture........a brave new world.....!
Tuesday, 3 February 2009
कैसे लम्बी होती गयी जिराफ की गरदन ? (डार्विन द्विशती )
ठीक वैसे ही जैसे कि सेब का जमीन पर गिरना न्यूटन के दिमाग में एक प्रश्न चिह्न बनकर कौंध गया था -एक दूसरे वैज्ञानिक लैमार्क (१७४४-१८२९) को जिराफ की लम्बी गर्दन देखकर काफी हैरत हुई थी और इस मसले को हल करने में वे जी जान से जुट गये ! उन्होंने यह दावा किया कि जिराफ का पुरखा कभी छोटे मझोले आकार का रहा होगा किंतु वातावरण के परिवर्तनों के चलते जैसे जैसे उसके पसंद के पेड़ पौधे ऊंचे होते गए उसे उचक उचक कर खाने का उपक्रम करना पड़ता रहा होगा जिससे कालान्तर में जिराफ की गरदन लम्बी होती गयी । आशय यह कि अर्जित लक्षणों का पीढी दर पीढी संवहन होता है ऐसा लैमार्क ने सोचा .यहाँ तक तो सही था मगर उन्होंने अपनी इस व्याख्या को जब काई दूसरे उदाहरणों से साबित करना चाहा तो विवाद उठ खडा हुआ ।
लैमार्क ने समझाने का प्रयास किया कि यदि कोई पहलवान नियमित वर्जिश से अपनी मुश्कों को उभारता जाता है और उसकी आगामी पीढियां ऐसा ही करती चलती हैं तो एक अलग पहलवान जाति ही वजूद में आ जायेगी जिसकी आगामी वंशबेली बलिष्ठ मुश्कों वाली ही होगी ! लैमार्क ने इसका विस्तार से वर्णन अपनी पुस्तक जुलोजिकल फिलासाफी (१८०९) में किया है .मगर लोगों ने लैमार्क के दावों को जाँचना शुरू किया -एक वैज्ञानिक वीजमैन ने २४ पीढियों तक चूहों की पूंछ काटी और देखा कि फिर भी चूहों की पूंछ आगामी पीढियों में बरकरार है -मतलब यह कि लैमार्क का दावा कि अर्जित लक्षण पीढी दर पीढी चलते रहते हैं खोखला साबित हुआ !
दरअसल लैमार्क की व्याख्या ही त्रुटिपूर्ण थी -उपार्जित लक्षणों का वन्शानुगमन तो होता है पर यह एक दैहिक प्रक्रिया न होकर जनन कोशाओं के जरिये सम्पन्न होती है ! पर कैसे?? इसका उत्तर देने के लिए एक महान वैज्ञानिक धरती पर जन्म ले चुका था ! जिसके बारे में हम आगे जानेगें ! आज बस इतना ही !
ऊपर का चित्र बताता है कि कैसे जिराफ की गर्दन लगातार उपयोग के कारण लम्बी होती गयी और जिस प्राणी ने गर्दन नहीं उचकाई उसकी गर्दन वैसे ही छोटी रह गयी !
और यह रहे लैमार्क महाशय !
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25 comments:
ये भी खूब रही ..
आज यही जिराफ
कितना अलग दीखता है
सारे चौपायोँ मेँ !!
- लावण्या
अगली कड़ी का इंतजार है, उन महान वैज्ञानिक कर बारे में जानने की इच्छा बलवती हो गयी है
जानकारी रोचक है.धन्यवाद.
अब व्यज्ञानिक लोग कह रहे हैं तो मानना ही पड़ेगा. जमुना पारी बकरा जमीन पर उगे झाडियों के पत्ते नहीं खता. ऊंची टहनियों के पत्ते ही उसे रास आते हैं. उस की गर्दन लम्बी नहीं हुई. अगले खेप का इंतज़ार रहेगा. आभार.
बढ़िया जानकारी देने के लिये आभार...
कैसे जिराफ की गर्दन लगातार उपयोग के कारण लम्बी होती गयी और जिस प्राणी ने गर्दन नहीं उचकाई उसकी गर्दन वैसे ही छोटी रह गयी !
" ये भी बडा ही विचित्र सत्य है और अनोखी जानकारी है....तो ये बात इंसानों पर भी लागु होती होगी क्या ....."
Regards
बहुत रोचक जानकारी..अब हम भी गरदन उचका उचका कर देखा करेंगे.
बचपन से ये विषय मेरी जिज्ञासा का कारण रहा है..
अपनी तो गर्दन वैसे ही भी जिराफ सी लम्बी है :) बढ़िया लगी जानकारी यह शुक्रिया
बहुत रोचक और लाजवाब जानकारी. जरुरत के हिसाब से प्रकृति भी चेंज करती चलती है.
रामराम.
यह पोस्ट पढकर इण्टरमीडिएट में पढे गये लैमार्क के सिद्धान्त की याद आ गयी।
हमने तो यह सिद्धान्त हाई-स्कूल में पढ़ा था. रोचक जानकारी के लिये धन्यवाद.
अगली पोस्ट सबके लिये प्रतीक्षित है.
बहुत रोचक जानकारी।आभार।
अच्छा तो ये कारण है जिराफ की लम्बी गर्दन का ।
चलिए मान लेते हैं :-)
बहुत खुब, पहले बताते तो हम भी इस तरीके से खुद को लम्बा कर लेते.
धन्यवाद, इस जानकारी के लिये
रोचक! अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है।
डाक्टर साहब, आप तो जानते हैं कि मैं डार्विन की थियरी का पक्षधर नहीं हूँ. मैं मुख्यतया एक Empiricist हूँ. समस्या यह है कि आपने जो कहा है उसका Emprical प्रमाण अभी तक जिराफों के मामले में मिल नहीं पाया है.
सस्नेह -- शास्त्री
डार्विन का कहना है कि इंसान कभी बन्दर था. ये भी तो हो सकता है कि बन्दर कभी इंसान रहा हो.
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