Sunday, 29 March 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -अब टांगों पर टंगी नजरें !

जी हाँ पुरूष पर्यवेक्षण अब अपने अन्तिम पड़ाव तक बस पहुँचने वाला ही है -इसी क्रम में लम्बी टांगों पर नजर है कि बस टंग गयी ! मनुष्य की टांगें उसकी लम्बाई का आधा हिस्सा जो हैं ! जब एक चित्रकार मनुष्य के शरीर का चित्रांकन करता है तो वह अपने सुभीते के लिए उसके चार हिस्से करता है ! तलवे से घुटने तक ,घुटने से कमर तक .कमर से वक्ष तक और अंततः वक्ष से सिर तक ! हाँ बच्चों में टाँगें छोटी रहती हैं ! समूचे नर वानर कुल में मनुष्य की टांगें ही शरीर की तुलना में सबसे बड़ी हैं ! टांगों के ऊपर भागों में मनुष्य के शरीर की सबसे बड़ी और मजबूत हड्डी फीमर होती है !

अपनी टांगों की ही बदौलत आदमी दो ढाई मीटर तक की ऊंची कूद सहज ही लगा लेता है और ८ से ९ मीटर की लम्बी छलांग भी ! तभी तो अपनी इसी क्षमता के आरोपण को अपने इष्ट देव हनुमान में कर देने से भक्तजनों को उनके 'जलधि लांघि गए अचरज नाही ' के रूप का दर्शन हुआ ! यह मजबूत टांगों का ही जलवा है कि २१५ दिनों से भी अधिक अनवरत नाचते रहने के रिकार्ड भी बन गए हैं ! दरअसल यह मजबूत विरासत हमें अपने शिकारी अतीत से ही मिली है जब शिकार को घेर कर पकड़ने की आपाधापी में हमारे पूरवज दिन भर में सैकडों मील का चक्कर लगा लेते थे ! हमारी ऊंची कूद की क्षमता का एक मिथकीय रूप विष्णु के वामन रूप में भी दीखता है जो समूचे ब्रह्माण्ड को ही महज ढाई पगों में नाप लेने को उद्यत और सफल हुए ! और वर्तमान दुनिया के उन पगों को भला कौन भूल सकता है जिसके बारे में कहा गया -चल पड़े जिधर डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर ! आज कितने ही राष्ट्र नायकों की पदयात्रा प्रिय राजनीतिक शगल है ! सो ,यदि टाँगें स्थायित्व ,शक्ति .और गरिमा की प्रतीक हैं तो इसमे आश्चर्य नही !
टांगों के जरिये कुछ तीव्र भाव मुद्राए भी प्रगट होती हैं खड़े लेटे और बैठे टांगों के बीच का बढ़ा फासला दृढ़ता , आत्म विश्वास और यौनाकर्षण के भावों का संचार करता है ! रोबदाब वाले लोग अक्सर खडे होने के समय पैरों का फैसला बढ़ा कर रखते हैं ,मगर पैरों को फासले के साथ करके बैठने से एक कम शालीन भाव बल्कि कभी कभी उत्तेजक अंदाज बन जाता है क्योंकि यह निजी अंगों को भले ही वे ढंके छुपे है को प्रगट करता है इसलिए ही आचार विचार की कई किताबे पैरों को फैला कर बैठने लेटने की मनाही करते हैं ! टांगों को क्रास कर बैठना एक अनौपचारिक बेखौफ मुद्रा है !
जारी .....

Friday, 27 March 2009

आज " धरती -प्रहर" में एक वोट धरती को भी दीजिये !


आज धरती प्रहर में आप अपना एक वोट धरती को दें ! कोटि कोटि नर मुंडों के बोझ से आक्रान्त धरती की फिक्र आख़िर कृतज्ञ मानवता ही कर रही है .आज एक वैश्विक मतदान प्रहर -रात्रि ८.३० और ९.३० के बीच में आपका वोट लेने की मुहिम है ! आप किसे चुनेंगें -पर्यावरणीय संघातों से विदीर्ण धरती को बचाने की मुहिम को या फिर उन कारकों को जिनसे यह धरती तबाह होने को उन्मुख है ? फैसला आपके हाथ में है !

यह सिलसिला सिडनी से वर्ष २००७ से शुरू हुआ जब २२ लाख लोगों ने अपने बिजली की स्विच को एक घंटे के लिए आफ कर दिया ! वर्ष २००८ में पाँच करोड़ लोगों ने यही काम दुहराया और अपने बिजली स्विचों को आफ किया भले ही सैन फ्रैंसिस्को का मशहूर का गोल्डन गेट ब्रिज ,रोम का कोलेजियम ,सिडनी का ऑपेरा हाउस ,टाईम्स स्क्वायर के कोकोकोला बिल्ल्बोर्ड जैसे मशहूर स्मारक भी अंधेरे से नहा गए !


इस वर्ष यह अभियान दुनिया के एक अरब लोगों तक मतदान की अपील ले जाने को कृत संकल्प है .यह आह्वान किसी देश ,जाति ,धर्म के बंधन को तोड़कर अपने ग्रह -धरती के लिए है -धरती माँ के लिए है ! और इसकी आयोजक संस्था कुछ कम मानी जानी हस्ती नही है बल्कि वर्ल्ड वाईड फंड (WWF) है जिसकी वन्यजीवों की रक्षा के उपायों को लागू करने के अभियान में बड़ी साख रही है -अब यह पूरे धरती को ही संरक्षित करने के लिए लोगों के ध्यान को आकर्षित करने की मुहिम में जुट गयी है ! VOTE EARTH नारे के साथ यह आज एक अरब लोगों तक अपनी अपील लेकर जा पहुँची है ! मेरी यह दरख्वास्त भी इसी अपील का एक बहुअल्प विनम्र हिस्सा भर है !इसका पूरा ब्योरा कोपेनहेगेन में इसी वर्ष तय वर्ल्ड क्लाईमेट चेंज कांफ्रेंस में रखा जायेगा ! जिसमें विश्व की सरकारों द्वारा ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ प्रभावी कदम के लिए प्रबल जनमत जुटने की तैयारी है !

तो आज आप अपने मतदान के लिए अपने घर के बिजली के स्विचों को मतदान -स्विच बनाएं -ठीक रात्रि साढे आठ बजे स्वेच्छा से घर की बिजली गोल कर दें और एक घंटे बिना बिजली के बिताएं -यह आपका प्रतीकात्मक विरोध होगा उन स्थितियों से जिनसे धरती की आबो हवा ही नही ख़ुद धरती माँ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं !

भारत सहित ७४ दूसरे देशों का यह संकल्प है ! धरती प्रहर ( रत्रि साढे आठ बजे और साढे नौ के बीच ) में अपना वोट दीजिये ताकि धरती तरह तरह के पर्यावरणीय आघातों ,प्रदूषणों से बची रहे और प्रकारांतर से ख़ुद हमारा अस्तित्व भी सही सलामत रहे !

वाराणसी के टाइम्स आफ इंडिया ने आज इस मुहिम को बुलंद स्वर दिया है जबकि हिन्दी अख़बार बस भारतीय जनतंत्र के चुनावी महायग्य से ही ध्यान नही बटा पा रहे !
आईये धरती माँ के लिए एक वोट आप भी दीजिये !

Wednesday, 25 March 2009

एक अन्तरिक्ष यात्री का चिट्ठा ....!

सांद्रा मैग्नस
यहाँ हम जमीन पर बैठे टिपिया रहे हैं कोई आकाश -अन्तरिक्ष के पार से चिट्ठे लिख रहा है -और यह हैं अन्तरिक्ष यात्री सांद्रा मैग्नस जो अन्तरिक्ष से एक ब्लॉग लिखती हैं -स्पेस बुक ! वे बस अगले कुछ दिनों में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आई एस एस ) से धरती पर लौटने वाली हैं ! मेरे एक पसंदीदा ब्लॉग -बैड अस्ट्रोनोमी के ब्लागर फिल प्लैट लिखते हैं कि सांद्रा मैग्नस एकमात्र वह शख्श हैं जो अन्तरिक्ष से ब्लागिंग करती हैं ! डिस्कवरी यान से सांद्रा आई एस एस तक पहुँची थीं ! फिल प्लैट ने सांद्रा के अन्तरिक्ष यात्रा के अनुभव पर लिखे ब्लॉग को भी लिंक किया है ! मैंने जब अन्तरिक्ष से की गयी इस चिट्ठाकारिता को देखा तो आप से भी इस अलौकिक अनुभव को बाटने के लिए व्यग्र हो गया ! मैं यहाँ सांद्रा के चिट्ठे के कुछ अंशों के उद्धरण देने का लोभ रोक नही पा रहा -


"...मुझे सही सही तो नही पता कि मैं अन्तरिक्ष में कहाँ थी मगर रात हो चुकी थी और मैंने एक कक्ष की खिड़की के निकट अपने को संभाला .....मैं कोशिश करूंगी कि जो कुछ मैंने देखा उसे शब्द चित्रों में प्रस्तुत करुँ ....यह घोर निबिड़ रात्रि है ..अब अफ्रीका के ऊपर तूफ़ान के चलते बिजलियाँ कौंध सी रही हैं ऐसा लग रहा है कि आतिशबाजी हो रही हो ! लगता है कोई बड़ा तूफ़ान है जो फैलता जा रहा है ! .....यद्यपि कि धरती का क्षितिज अलक्षित है ,बादलों की बिजलियों और शहरों की चमक में धरती और अन्तरिक्ष का फर्क साफ तौर पर देखा जा सकता है ! रात्रि कालीन उत्तरी धरती के क्षितिज को काली रोशनाई के मानिंद आकाश से सहज ही अलग कर देखा जा सकता है .धरती के पार्श्व के एक छोर से निकलती सी लग रही आकाश गंगा (मिल्की वे ) मानो अपनी ओर यात्रा के लिए पुकार सी रही है .....यह सब मुझे विस्मित सा कर रहा है... ओह कितना सुंदर !

कभी कभार कोई जलबुझ करती लाल रोशनी भी रह रह कर दिख जाती है जो दरअसल सैटेलाईट हैं ..ये तेजी से गुजर जाते हैं ! चमचमाते तारे भी अद्भुत लग रहे हैं ...इस समय आई एस एस रात्रि भ्रमण कर रहा है अंधेरे की कारस्तानी का दर्शक बन रहा है ....अभी नीचे तो अँधेरा ही है मगर तारों से जगमगाती यामिनी अब विदा ले रही है क्योंकि सूर्यदेव की चमक अंधेरे के वजूद को मिटाने पर आमादा है ! मगर धरती पर सूर्योदय के ठीक पहले एक दम से कृष्णता फैल गयी है और कुछ भी दिख नही रहा है जैसे न तो धरती और न ही आसमान का कोई वजूद है ! बस जैसे मैं ही अस्तित्व में हूँ और अन्धता के एक महासागर में खो सी गयी हूँ और जहाँ सूरज बस खिलखिलाने वाला है और लो धरती तक सूरज की किरने जा पहुँचीं और वह एक बार फिर से सहसा ही प्रगट हो गयी है ...तारे सहसा ही छुप गए हैं यद्यपि वे वही हैं जहाँ थे ......."


यह वह कविता है जिसे अन्तरिक्ष से लिखे ब्लॉग पर डाला गया है ! इस महिला को भला कौन नही आदर देगा ! सांद्रा को सलाम !





Monday, 23 March 2009

पुरूष पर्यवेक्षण विशेषांक -4

बात पुरूष विशेषांग की चल रही थी .....यह कैसी बिडम्बना है कि मनुष्य को अप्रतिम सुखानुभूति कराने वाले इस अंग विशेष को कौन कहे प्यार पुचकार और लाड प्यार से सहेज सवांर के रखने की इस पर तो जोर जुल्म का जो दौर दौरा है वह हैरतअंगेज है ! बड़ी दर्द भरी दास्ताँ है इसकी ! सुनिए मन लगाय !

एक प्रथा है खतने या सुन्नत करने की जिसमें शिश्नाग्रच्छद ( फोरस्किन ) को बचपन में ही बेरहमी से काट कर अलग कर दिया जाता है ! और खतने की यह नृशंसता पुरूष ही नही नारी के खाते में भी प्रचलन में है ! यह विचित्र प्रथा सभ्यता के शायद उदगम से ही मनुष्य का अभिशाप बनी हुयी है ! जो बस महज अंधविश्वासों के चलते परवान चढ़ती गयी है -चाहे धर्म की आड़ लेकर या सांस्कृतिक रीति रिवाजों की दुहाई देकर ! हमारे कुछ आदि कल्पनाशील पुरुषों को लगा रहा होगा की जैसे सांप केचुली बदल कर मानों एक नया अवतार ही ले लेता है तो अगर मनुष्य के इस सर्पांग (शिश्न ) की केंचुली (फोरस्किन !) भी काट डाली जाय तो उसका अगला जन्म शर्तियाँ बेहतर हो जायेगा ! चमचमाते सांप सा ही ! तो फिर ट्राई करने में क्या जाता है ? और तभी से शुरू हो गयी यह बर्बर व्यवस्था !

और पीढियां दर पीढियां इसे अपनाती गयीं और कालांतर में यह एक सामुदायिक पहचान का प्रतीक बन बैठा !अब इस का निवारण और मुश्किल बन उठा ! प्राचीन मिस्र में ४००० ईशा वर्ष पूर्व से ही इस रिवाज के प्रमाण हैं ! ओल्ड टेस्टामेंट में अब्राहम ने इस प्रथा के पक्ष में आज्ञा जारी की !यहूदी और अरबी लोगों में यह परम्परा बदस्तूर चल निकली ! मोहम्मद के बारे में यह कहा जाता है की वे पैदा ही बिना फोरस्किन के हुए थे (एक ऐसी स्थिति जो मेडिकल दुनिया में अनजानी नही है ) ! फिर तो उनके पुरूष अनुयायियों में यह एक रिवाज ही बन गया !

हैरानी की बात तो यह है कि आगे चलकर यह "सामुदायिक बोध" इस बर्बर कृत्य के औचित्य को सिद्ध करने पर तुल गया -वैज्ञानिक और मेडिकल आधारों पर इसके एक लाभप्रद और स्वास्थ्य हितकारी पद्धति होने के तर्क गढे जाने लगे ! नीम हकीमों ने यह कहा की इस चमड़ी के रहते मनुष्य रति केंद्रित हो जाता है और कुछ ने तो ऐसी बीमारियों की लम्बी फेहरिस्त पेश की जिसमें इस चमड़ी के बने रहने से हिस्टीरिया ,मिर्गी ,रात्रि स्खलन और नर्वस बने रहने आदि के भयावह रोग शामिल कर दिए गए थे ! अब इस बैंड पार्टी में आधुनिक चिकित्सक भी निहित स्वार्थों के चलते शामिल हो गये ! और मिथ और मेडिकल की एक नयी जुगलबंदी शुरू हो गयी ! हद तो तब हुयी जब दुनिया की जानी मानी चिकित्सा पत्रिका -लैंसेट ने १९३२ में यह रिपोर्ट छापी की फोरस्किन के बने रहने से कैंसर तक हो सकता है (आप ने कभी शिश्न कैंसर के बारे में सुना भी है ?) कहा कि इस चमड़ी के अन्दर दबी रहने रहने वाली गन्दगी से पुरूष ही नही जिस नारी से वह संसर्ग करता है उसे भी कैंसर ही सकता है ! इस रिपोर्ट की छीछालेदरशुरू हुयी तो यह कहा गया कि इससे प्रोस्ट्रेट कैंसर होता है ! मतलब शिश्न से जुडी एक अंदरूनी ग्रन्थि में ! इस रिपोर्ट का नतीजा भयावह रहा -१९३० के दशक में ७५% अमेरिकियों ने खतना करा लिया ! और यह प्रतिशत बढ़ता ही गया ! १९७३ में ८४ % ,१९७६ में ८७ % और यह ट्रेंड भी भी बना हुआ है ।

कई शोधों में यह साबित हो गया है कि यह एक मिथ ही है और फोरस्किन से कोई भी समस्या नही होती .बल्कि यह अतिसंवेदनशीलता से बचाते हुए रति रति सुख की अवधि को लंबा करता है ! बच्चों में कुछ साल तक यह अवश्य ठीक से नही खुलता -कुछ बच्चों में इसका मुंह ज्यादा ही सकरा होता है और माँ बाप परेशान हो उठते हैं मगर बड़ा होने के साथ ही यह समस्या अपवादों को छोड़कर समाप्त हो जाती है !लैंसेट के लेख में आंकडों की कमियाँ पाई गयी थी -दरअसल लोग अपने एक पूर्वाग्रह और जातीय पहचान बनाये रखने की खातिर इस पूरी प्रथा को आज भी वैज्ञानिकता का जामा पहनाने में लगे हैं !जबकि इसका बच्चों के कोमल मन पर क्या प्रभाव पड़ता है और उनकी सायकोलोजी किस तरह प्रभावित होती है इस पर जो अध्ययन हो भी रहे हैं उन्हें दर किनार कर दिया जा रहा है !

अमेरिका में तो मेडिकल ( ग्राउंड ) खतना बदस्तूर जारी रहा है जबकि हाल में इसमें गिरावट भी दर्ज हुयी है ! मगर ब्रिटेन में यह अब काफी कम हो गया है १९७२ में जब इसका प्रतिशत अमेरिका में ८० था ब्रिटेन में महज ०.४१ रहा -वहां नेशनल हेल्थ स्कीम ने खतने की मनाही कर दीथी ! अमेरिका में खतने को लेकर करोडो डालर का इंश्योरेंस व्यवसाय फल फूल रहा है और वहां इस प्रथा का एक व्यावसायिक पहलू भी स्थापित हो चला है !

(पुरूष पर्यवेक्षण विशेषांक समाप्त ! )

Wednesday, 18 March 2009

पुरूष पर्यवेक्षण विशेषांक -3

मनुष्य विशेषांग एक तरह से शुक्राणुवाही अंग /नलिका ही तो है ! मगर यह दो मामलों में बहुत विशिष्ट है -
१-मनुष्य के दूसरे नर वानर (प्रायिमेट ) सदस्यों के शारीरिक डील डौल के अनुपात में उनके जननांग छोटे हैं जबकि मनुष्य अपवाद के तौर पर ऐसा प्रायिमेट है जिसका विशेष अंग उसके शरीर के अनुपात में काफी बडा है ! और
२-इसे सपोर्ट करने के लिए कोई अतिरिक्त बोन (हड्डी) भी नही है जबकि एक छोटे आकार के बानर के अंग विशेष को हड्डी का सपोर्ट भी है ।

मनुष्य के आकार की तुलना में तीन गुना भारी भरकम गोरिल्ला का विशेष अंग तो बहुत छोटा है .मनुष्य के अंग विशेष के सहजावस्था की लम्बाई अमूमन ४ इंच ,व्यास १,१/४ इंच ,परिधि ३,१/२ इंच और उत्थित अवस्था में औसत लम्बाई ६ इंच ,व्यास १,१/२ इंच ,परिधि ४,१/२ इंच तक जा पहुँचती है !मगर इसकी साईज को लेकर विश्व के कई भौगोलिक क्षेत्रों में काफी विभिन्नताएं देखी गयी हैं और इसका सबसे बड़ा आकार १३,३/४ इंच तक देखा गया है .अजीब बात यह है कि शारीरिक डील डौल और अंग विशेष समानुपात में नही पाये जाते बल्कि देखा यह गया है कि बड़े अंग विशेष के गर्वीले वाहक प्रायः छोटे कद काठी के लोग ही होते हैं और बड़े डील डौल वालों में इसका विपरीत होता है ! उत्थित अंग विशेष का जमीन से कोण ४५ डिग्री होता है जो टार्गेट का सही कोण है !

अपने उत्थित अवस्था में यह विशेष अंग कुदरती अभियांत्रिकी का बेजोड़ नमूना है -ऐसी कठोर किंतु हड्डी विहीन और रक्त नलिकाओं के बारीक संजाल से युक्त रचना प्रकृति में शायद ही कोई दूसरी है ! और ऐसा भी कुदरत की एक सोची समझी सूझ है - साथी के यौन सुख में वृद्धि की ! यह बात बंदरों के अंग विशेष के उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगी ! बन्दर का जननांग जहाँ छोटा सा कील सरीखा ,हड्डी युक्त होता है ,मादा के निमित्त मात्र तीन ही प्रयासों में साहचर्य /सहवास की इतिश्री कर लेता है ! फलतः बंदरिया यौन सुख का वह चरमानंद(आर्गैस्म ) नही उठा पाती जैसा कि मानव मादा को प्रकृति की ओर से सहज ही उपहार स्वरूप प्रदत्त है !

मनुष्य प्रजाति में नर और मादा दोनों ही यौनक्रिया से जोरदार रूप से पुरस्कृत किए गये हैं जिन्हें चरम आनंदानुभूति का वह वरदान मिला है जिससे पूरा प्राणी जगत अमूमन वंचित है -जिस अनुभव की शाब्दिक व्याख्या बडे बड़े शब्द ज्ञानी भी नही कर पाते -एक महान चिंतक ने तो इस परमानंद को सम्भोग से समाधि तक के आध्यात्मिक अनुभव की परिधि में ले जा रखा था ! मगर जीव विज्ञानी और व्यवाहारविद इसे कुदरत की वह युक्ति बताते हैं जिससे दम्पति के बीच प्रगाढ़ता बढे और वे दोनों अपने शिशु के लालन पालन की एक अत्यधिक लम्बी अवधि में साथ साथ रहें ! यह "पेयर बांड" को और भी घनिष्ट बनाए रखने और एक दूसरे के प्रति समर्पित रहने का निरंतर रिवार्ड है !

जाहिर है मनुष्य में यौन क्रिया केवल प्रजनन के लिए नही बल्कि दम्पति के रिश्तों के बीच सीमेंट का काम भी करती है ! यह मनुष्य प्रजाति की उत्तरजीविता ,संतति संवहन के लिए बहुत जरूरी है ! इसलिए ही इस अद्भुत आनंद की तलाश में वह अपने मार्ग के अनेक बन्धनों और बाधाओं को भी पार कर जाना चाहता है .चरमानंद की अनुभूति मनुष्य के मस्तिष्क में मार्फीन सदृश रसायनों की अच्छी खासी खेप के कारण होती है जो आह्लाद का अतिरेक तो कराती ही हैं साथ ही तत्क्षण कई दुःख दर्द के भुलावे हेतु जादुई औषधि तुल्य बन जाती हैं ! यदि यह धरती कोटि कोटि मानवों से पटती गयी है तो इसमें आश्चर्य कैसा -चरमानन्दानुभूति के चलते तो यह होना ही था न ?

Sunday, 15 March 2009

पुरुष पर्यवेक्षण विशेषांक -2

बात मनुष्य के वृषणो (अन्डकोशों ) की चल रही थी -कभी मनुष्य के पशु पूर्वजों की उदरगुहा में कैद अन्डकोशों का बाहर आकर अब मानों कैद से मुक्ति मिल गयी थी ! मनुष्य योनि में वे अब बाहर आ झूल से गए थे -मगर असुरक्षित भी हो गए थे ! भले ही उनकी लगातार ९८.४ फैरेनहाईट के तापक्रम से मुक्ति हो सक्रियता बढ़ चुकी थी ! अब सबसे बड़ी जैवीय समस्या थी इन झूलते हुए अन्डकोशों की सुरक्षा का -हमें यह प्रायः पता नही लग पाता या हम नोटिस नहीं लेते आज भी अन्डकोशों की अपनी एक रक्षा व्यवस्था वजूद में है । अब तीव्र ठंडक में, क्रोध,भय ऑर रतिक्रिया के बेहद गहन क्षणों में ये सहसा ऊपर की ओर चढ़ जाते हैं ! जिससे इन्हे कोई क्षति न पहुंचे ! अन्तरंग क्षणों में एक बात और होती है -इनका आकार भी अंशकालिक रूप से बढ़ जाता है .यह अतिरिक्त रक्त प्रवाह के कारण होता है जो रक्त वाहिकाओं के संजाल में उभार ला देता है .यह अंशकालिक वृद्धि प्रायः ५० फीसदी और कभी कभी तो सौ फीसदी तक पहुच जाती है ।

यह भी पाया गया है कि तकरीबन ८५ फीसदी पुरुषों का बायाँ अंडकोष दायें की तुलना में ज्यादा नीचे लटका हुआ होता है मगर जब दोनों अंडकोष ठण्ड,क्रोध या रतिक्रिया की तीव्रता में अपने को ऊपर की ओर रक्षार्थ खींचते हैं तो उनका तल एक ही स्तर पा जाता है ! बाएं अंडकोष का ज्यादा नीचे होना अभी भी उपयुक्त व्याख्या की बाट जोह रहा है ।

अन्डकोशों का विकास के क्रम में बाहर लटक आना शुक्राणुओं की सक्रियता के लिहाज से जहाँ ठीक था वहीं पुरुषों के लिए एक हादसे का भी रूप ले बैठा .अब मनुष्य को कठोर दंड देने के मामलों में सहसा ये आंखों की किरकिरी बन गये -कठोरतम और नृशंस दंडों की फेहरिस्त में अब जबरदस्ती बधिया /बंध्याकरण भी जुड़ गया था ! और कहीं बादशाहों के हरमों के चौकीदारों को भी आजीवन बंध्याकरण का विप्लव भोगना पड़ता था ! गैर कुदरती हिजडों की आबादी की वृद्धि में भी यही प्रवृत्ति जारी है .शायद आप न जानते हों वेटिकन के ईसाई चर्चों में कभी लड़कों का इसलिए जबरदस्ती बधियाकरण हो जाता था जिससे उनके आवाज की बाल्य मधुरता आजीवन बनी रहे ! यह न्रिशन्सता १८७८ तक बदस्तूर जारी रही और एक सच्चे पहुंचे हुए पोप के हस्तक्षेप से समाप्त हुई !


अन्डकोशों में जैसा कि हम जानते ही हैं कि शुक्राणुओं की उत्पादन फैक्टरी है .यदि कोई पुरुष पाठक इसी समय यह पढ़ रहे हैं तो तनिक मेरे साथ गिनिये -एक सौ ,दो सौ .तीन सौ ,चार सौ ,पाँच सौ और लीजिये आपके ख़ुद के शुक्राणुओं में इतनी ही देर में १५००० नए शुक्राणु का इजाफा हो गया हैं -गरज यह कि शुक्राणु अहर्निश बिना रुके पल पल दिन रात बस बनते ही रहते हैं, इसकी वृद्धि दर है -३००० /सेकेड ! यही कारण है कि किशोरों -सद्य युवाओं में यदि यौन भावना का सहज शमन नही हो पाता तो रात्रि स्वप्न में इनका सहज और स्वाभाविक निर्गमन हो जाता है .और कदाचित स्वप्न में भी इनका बहिगर्मन न हो सका तो अन्डकोशों की दीवारें इन्हे जज्ब कर लेती हैं ! मतलब अवशोषित ! शुक्राणु उत्पादन अन्तिम यात्रा की तैयारी तक चलता रहता है ! इस मामले में पुरुष नारी से बिल्कुल अलग है जिसमें अंड उत्पादन ज्यादा से ज्यादा ५० -५५ वर्षतक ही आम तौर पर होता है !

एक स्वस्थ सामान्य व्यक्ति एक बार में २० करोड़ से ४० करोड़ तक शुक्राणु निःसृत कर देता है ! मगर इतनी विशाल संख्या के बावजूद पिन के सिर के बराबर की जगह में इतना शुक्राणु समां सकता है .शुक्राणु प्रोस्टेट ग्रंथियों से निकले एक तरल द्रव -सेमायिनल फ्लूयिड में सरक्षित हो लेता है जो कई विशिस्ट प्रोटीनों ,इन्जायिम , वसा और शर्करा से युक्त होता है और अति सूक्ष्म मात्रा में स्वर्ण ,जी सोना भी इसमें होता है .यह क्षारीय होता है जोशुक्राणुओं की उत्तरजीविता बढाता है ! और साथ ही नारी शरीर में प्रवेश करते ही मिलने वाले अम्लीय माधयम को प्रभावहीन भी कर देता है ताकि शुक्राणु सक्रिय रह सकें ! इस सेमायिनल द्रव या कहें तो पौरुष द्रव की मात्रा अमूमन ३.५ एम् एल होती है और आपवादिक मामलों में ,रतिक्रिया बुभुक्षितों में यह इस मात्रा से चार गुना तक अधिक भी हो सकती है .और जरा इसके प्रक्षेपण गति को भी जान लीजिये ! ७-८ इंच से तीन फुट की दूरी तक ! ( शुक्र है गिनेज वर्ल्ड रिकार्ड वालों की नजर इस पर अभी तक नहीं पडी -अन्यथा एक स्पर्धा और उनकी किताब में दर्ज हो गयी होती ! ) जारी ....

Friday, 13 March 2009

पुरूष पर्यवेक्षण विशेषांक !

अपने पाशविक विकास के क्रम में मनुष्य जब अपने दोनों पैरों पर उठ खडा हुआ तो एक जो सबसे बड़ी मुश्किल उसके सामने आन पडी वह थी उसके निजी अंग का ठीक सामने सार्वजनिक हो जाना जबकि पहले वे चारो पैरों पर होने से सामने से दीखते नही थे ,पिछले पैरों के बीच दुबके हुए सुरक्षित थे !अब निजी अंगों के सामने आने से अनचाहे लैंगिक संवाद का प्रगटीकरण मुश्किल हो चला ! सामजिक उठना बैठना भी असुविधानक होने लगा ! और तब प्रचलन शुरू हुआ निजी वस्त्रों के रूप में पत्रों पुष्पों ( Loin Cloth ) के आवरण का जो अपने परिवर्धित रूप में आज भी उसके साथ है .कह सकते हैं मनुष्य की विशिष्टता -लज्जा का सूत्रपात भी यहीं से हुआ ! अधोवस्त्रों के तीन फायदे हुए -

१-सामाजिक सन्दर्भों में अनचाहे लैंगिक प्रदर्शनों पर रोक लग गयी .
२-बेहद निजी क्षणों की यौनानुभूति इनके ऐच्छिक अनावरण से बढ गयी .
३-यौनांगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो चली .

अब यौनांगों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर मनाही का दौर भी शुरू हो गया , ..कालांतर में ज्यादातर देशों में नग्न प्रदर्शन पर कानूनी रोक लग गयी ! अब तो एकाध देशों को छोड़कर विश्व में हर जगह जननांगों के जन प्रदर्शन पर सख्त मनाही है .यहाँ तक कि अब कोई भी स्वेच्छा से भी यौन साथी के अतिरिक्त पूरी तरह अनावृत्त नहीं हो सकता .

निजी अंगों पर बाल उगने की प्रक्रिया लैंगिक परिपक्वता का शुरुआती चरण है जो यद्यपि नर नारी दोनों में सामान है पर मुख्यतः एक पौरुषीय गतिविधि है -क्योंकि नारियों में आश्चर्यजनक रूप से किशोरावस्था की शुरुआत (पहले से नहीं ) से ही किसी भी रोयेंदार वस्तु के प्रति एक तर्कहीन सा डर मन में बैठने लगता है -देखा गया है कि बच्चों में किसी रोयेंदार मकड़े को लेकर चिहुंक भरा डर एक जैसा ही होता है मगर स्त्रियों में यही डर १४ वर्ष तक पहुँचते पहुँचते पुरुष की तुलना में दुगुना हो जाता है .इसलिए ज्यादातर स्त्रियों में किसी भी रोयेंदार जानवर का दृश्य मात्र ही उनमें कंपकपी और चिहुंक उत्पन्न् करता है . डेज्मंण्ड मोरिस कहते हैं कि संभवतः इसलिए पुरुष की तुलना में नारियों द्बारा निजी अंगों से बालों को जल्दी जल्दी हटाते रहने और एक भरेपूरे व्यवसाय को पनपने का मौका मिला जिसमें एलक्टरोलायिसिस ,निर्मूलन लेपों ,सेफ्टी रेजरों का इस्तेमाल सम्मिलित हुआ ! आश्चर्यजनक है कि नारी से जुडी कितनी ही पुरुष्कृत कलाकृतियों में (अश्लील को छोड़कर ) यौनांग बाल न दिखाने की परम्परा रही है .यह प्रवृत्ति इस सीमा तक जा पहुँची कि पश्चिमी सभ्यता के भी शुचितावादी भद्रजनों के परिवारों के पले बढे लोगों को एक उम्र तक इसका गुमान ही नही रहता रहा कि नारी यौनांग बालयुक्त भी होते हैं -एक मशहूर वाकया कला समीक्षक जान रस्किन का ही है जिनके बारे में बताया जाता है कि वे अपनी मधुयामिनी में सहसा यह देखकर भयग्रस्त हो गये कि उनकी जीवनसंगिनी के निजी अंग बालयुक्त हैं !यह वाक़या दुखद तलाक की परिणति तक ले गया !

मनुष्य के अन्डकोशों की भी एक अंतर्कथा है -शायद आप यह जान कर आश्चर्य करें कि मानव के कपि सदृश पूर्वजों में अंडकोष बाहर की और लटकता न होकर उदरगुहा के भीतर हुआ करता था जो विकासक्रम में एक नली-इन्ज्यूयिनल कैनाल के जरिये बाहर निकल आया और साथ में एक आफत भी ले आया जिसे हम हार्नियाँ के नाम से जानते हैं ! हार्नियाँ में इसी नली के जरिये आँतें भी असामान्य स्थिति में नीचे खिसक आती हैं जिसका आपरेशन ही उचित विकल्प है .मनुष्य की उदरगुहा में प्रायः ९८.४ फैरेन्हायिट तापक्रम होता है जो शुक्राणुओं के लिए मुफीद नही है -इसलिए अन्डकोशों के बाहर आने से तापक्रम की कमीं ने शुक्राणुओं की जीविता दर को बढाया ! देखा गया है कि कई दिनों तक तेज बुखार रहने पर शुक्राणुओं की निष्क्रियता भी बढ़ जाती है ! लंगोट या कसे अधोवस्त्रों के नियमित उपयोग से भी शुक्राणुओं की गतिविधि पर प्रतिकूल प्रभाव देखा गया है -विवाह के कई वर्षों तक चाहकर भी संतान न होने की स्थति में पुरुषों के लिए अधोवस्त्रों को सर्वथा त्यागने की सलाह भी दी जाती रही है जब अन्य बातें सामान्य हों !
जारी .......