Saturday, 24 October 2015

अंतरिक्ष की महायात्रा में मानव के लिए मंगल बनेगा मील का पत्थर

नई हालीवुड फिल्म मार्शियन (मंगल ग्रह के निवासी) में दर्शया गया है  कि लाल ग्रह रहने के लिए किस तरह एक अत्यंत भयानक जगह है। मंगल की सतह घातक विकिरण के कारण असुरक्षित है। यहाँ माइनस 60 डिग्री फारेनहाइट के नीचे औसत तापमान रहता है ,इस लिहाज से मंगल ग्रह की तुलना में अंटार्कटिका पिकनिक के लिए एक अच्छी जगह है। यही नहीं यहाँ 96% कार्बन डाइऑक्साइड है, और इस माहौल में साँस नहीं लिया जा सकता।

इस सब के बावजूद मंगल ग्रह पर मानव बस्तियों की संभावना है। हाल ही में इस ग्रह पर पानी बहने के पुख्ता प्रमाण भी मिल गए हैं।  हालांकि यह पानी विषैला है। 2027 तक  नासा द्वारा  इस ग्रह पर एक दर्जन तक  मानव के अवतरण का प्लान है.पहली प्राथमिकता वहां तक के निरापद परिवहन की है।  परिवहन तंत्र स्थापित हो जाने के बाद, बस्तियों बसाने का काम बहुत पीछे नहीं रह जाएगा। 25 करोड़ मील दूर एक प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने के लिए क्या क्या पापड़ बेलने होंगे? 

 एक अंतरिक्ष युगीन मंगलवासी गुफा मानव की कल्पना 

और भोजन क्या होगा? आईये सबसे पहले, भोजन पर ही विचार करें। पहले कुछ दशकों के लिए तो शीत शुष्कन (फ्रीज़ ड्राईड)  विधि से तैयार भोजन समय समय पर   पृथ्वी से ही फेरी ( ferried ) किया जाएगा।  पता चला है कि ताजा सब्जियों के उगाने के लिए मंगल ग्रह की मिट्टी  एक अच्छा माध्यम हो सकती है,   हालांकि,  हाईड्रोपोनिक्स ( airponics ) - हवा में पौधों  के उगाने के तरीकों को  चुनना होगा।पानी के लिए नासा  एक dehumidifier की तरह तकनीक का इस्तेमाल करने पर शोध कर रहा है।  वहां WAVAR (जल वाष्प सोखने वाला रिएक्टर),भी स्थापित किया जा सकता है।  यह ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमे, धूल की परत के नीचे ग्लेशियरों में, मिट्टी में जमे हुए और सोतों  और भूमिगत जलाशयों से पानी का निष्कर्षण कर सकेगा ।

 हम पृथ्वी पर ब्रह्मांडीय किरणों से  घने वातावरण तथा  चुंबकीय क्षेत्र द्वारा सौर विकिरण से सुरक्षित हैं, किन्तु यह सुरक्षा  मंगल ग्रह पर गायब है। विकिरण को ब्लॉक करने के लिए एक तरह से  आश्रय भवनों के चारों ओर मिट्टी ढेर लगाना (मंगल ग्रह पर regolith कहा जाता है) होगा। मोटी ईंट की दीवार सरीखा  निर्माण भी  किया जा सकता है.  एक सरल रास्ता  गुफाओं को खोजने का  भी हो सकता है। ज्वालामुखियों   द्वारा बनाये गए निष्क्रिय  लावा ट्यूब, विशेष रूप से उपयोगी हो सकते हैं।  

 मंगल ग्रह पर बहुत कम दबाव है, इसलिए विशेष दबाव वाले कपड़े(स्पेस स्यूट ) अनिवार्य है,  इसके बिना मानव शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता  है, जैसे  त्वचा और आंतरिक अंगों का भुरभुरा होना। कम दबाव के  प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की जुगतों पर विचार हो रहा है और नए अनुसंधान प्रगति पर हैं जिससे मनुष्य सहज दबाव में जीवन यापन कर सके। और, ज़ाहिर है, हमें  श्वसन के लिए आक्सीजन भी लेनी है । मशीनें इसमें मदद कर सकती हैं । नासा के परीक्षण  में 2020 में मंगल ग्रह के लिए Moxie नामक एक प्रयोगात्मक डिवाइस भेजने की योजना है। यह मंगल ग्रह के वातावरण से रॉकेट ईंधन और श्वसन दोनों के लिए  बाहर से ऑक्सीजन मुहैया कर सकता है।  

सुदूर भविष्य के मंगल ग्रह के सैलानियों को रोजमर्रा की कठिनाइयों से निजात पाने के लिए उसे पृथ्वी की तरह  बनाने की कोशिश (टेराफोर्मिंग) पर जोर होगा।   ध्रुवों के  तापमान का कुछ ही डिग्री के परिवर्तन से  तो परिदृश्य बहुत बदल जाएगा ।  सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने के लिए मंगल की कक्षा में विशाल दर्पण की तरह सौर पालों की व्यवस्था करनी होगी। ऐसी प्रौद्योगिकी मंगल ग्रह को एक ग्रीनहाउस गैस चक्र में प्रवेश कराएगी। जिससे  दशकों के भीतर, तरल पानी मध्यवर्ती क्षेत्रों के आसपास समशीतोष्ण क्षेत्रों में प्रवाहित हो सकता है। यह जलीय ऑक्सीजन को तोड़ने , कुछ पौधों को विकसित करने के लिए अनुकूल होगा । जल वाष्प से अधिक विकिरण भी ब्लॉक होगा।

हम अपने ही जीन में परिवर्तन करने के लिए वायरस संचालित नयी तकनीकों का उपयोग कर सकते हैं अर्थात खुद को मंगल ग्रह के लिए अनुकूलित (Pantropy)  कर सकेगें। अधिक कार्बन डाइऑक्साइड  युक्त साँस लेने और विकिरण को सहन करने के लिए मनुष्यों की नयी कोटि उत्पन्न की जा सकती है ।यह सब  बहुत काल्पनिक लग सकता है किन्तु मानव के अंतरिक्ष में बस्तियां बसाने के अभियानों की यह तो बस शुरुआत है।  मंगल मानवीय संभावनाओं का मील का पत्थर होगा !

Saturday, 29 August 2015

बच्चों को दें वैज्ञानिक मनोवृत्ति का संस्कार



                                             बच्चों को दें वैज्ञानिक मनोवृत्ति का संस्कार 
 अरविन्द मिश्र 
मेघदूत मैंशन, चूडामणिपुर 
तेलीतारा,बख्शा 
                                                           जौनपुर -222102, उत्तर प्रदेश 

आधुनिक ज्ञान विज्ञान की वैश्विक भाषा अंग्रेजी की एक मशहूर हिदायत है -कैच देम यंग। अर्थात उनमें किसी भी जीवनपर्यन्त सीख को बचपन से ही अंकुरित करें. बच्चों का मानस पटल एक अनलिखी स्लेट है. उनका खुला दिमाग, उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति दरअसल विज्ञान के प्रति उनकी अभिरुचि जगाने के लिए बहुत अनुकूल है. वे प्रश्न पर प्रश्न पूंछते रहते हैं. कभी ऐसे सवालों का जवाब हमारे आदि मनीषी तत्कालीन उपलब्ध सीमित ज्ञान के जरिये दिया करते थे। यमुना का पानी नीलापन लिए क्यों है? सवाल हुआ तो जवाब कालिया मर्दन के जरिये दिया गया -जिस नाग के विष के जरिये यमुना का पानी नीला हो गया -बालमन की जिज्ञासा शांत हो गयी।

ऐसे कई कथानक हैं जिनसे हमारा पौराणिक कथा साहित्य समृद्ध हुआ है। हिमालय क्यों इतना ऊँचा है और विंध्याचल नीचे बिखरा हुआ। अगस्त्य के दक्षिणायन होने की कथा का सूत्रपात हुआ। समुद्र का पानी खारा क्यों है -ऋषि निःसृत मूत्र प्रवाह का रोचक कथानक सृजित हुआ। सवाल दर सवाल आये- नित नूतन कथाओं का सृजन हुआ। मगर आज इन कहानियों की पुनर्रचना की आवश्यकता है और नए सवालों के जवाब बालमन को छूने वाली शैली में दिए जाने की जरुरत है। 

विज्ञान कथाओं के जरिये वैज्ञानिक मनोवृत्ति का प्रसार
आशय यह है कि भारत में सदियों से कहानी कहने सुनने का प्रचलन है...दादा, दादी की कहानियाँ दर पीढ़ी बच्चों ने सुनी है, भले ही उनमें ज्यादातर परीकथाएँ भी रही हों मगर वे अपने समय की मजेदार कहानियाँ रही हैं.. तब मानव का विज्ञान जनित प्रौद्योगिकी से उतना परिचय नहीं हुआ था. नतीजन परी कथाओं में पौराणिक तत्वों , फंतासी और तिलिस्म का बोलबाला था मगर वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही नित नए नए गैजेट, आविष्कारों, उपकरणों, मशीनों की लोकप्रियता बढ़ी, लोगों के सोचने का नजरिया बदला और बच्चों को भी अब यह आभास हो चला है कि परियाँ, तिलस्म, जादुई तजवीजें सिर्फ कल्पना की चीजे हैं। आज आरंम्भिक कक्षाओं के बच्चों को भी यह ज्ञात है कि चन्द्रमा पर कोई चरखा कातने वाली बुढि़या नहीं रहती बल्कि उस पर दिखने वाला धब्बा दरअसल वहां के निर्जीव गह्वर और गड्ढे हैं. अपनी धरती को छोड़कर इस सौर परिवार में जीवन की किलकारियां कहीं से भी सुनायी नहीं पड़ी हैं.

आज मनुष्य अन्तरिक्ष यात्राएं करने लग गया है और सहसा ही अन्तरिक्ष के रहस्यों की परत दर परत हमारे सामने खुल रही है। बच्चों को इस नए परिवेश के अनुसार विज्ञान गल्पों के सृजन की बड़ी जरुरत है. आइसक आजिमोव ने कई बार बच्चों की कक्षा में विज्ञान कथा के जरिये उन्हें विज्ञान की बुनियादी बातें बताने की वकालत की है। अब अगर बच्चों को चाँद के बारे में बताना है तो क्यों नहीं शुरुआत जुले वर्न की ट्रिप टू मून किया जाय। भारतीय विज्ञान कथाकारों की भी हिन्दी में कई कथाएं हैं जिन्हे बालकक्षाओं में शामिल किया जा सकता है। इस और शिक्षाविदों के ध्यानाकर्षण की जरुरत है.

विज्ञान की पत्रिकाएं और ऑनलाइन सामग्री
हिन्दी की कई विज्ञान पत्रिकाएं हैं खासकर विज्ञान प्रगति और विज्ञान जो हर घर में होनी चाहिए। मुझ जैसे अनेक लोगों की विज्ञान की ओर झुकाव का मुख्य कारण बचपन से घर में इन पत्रिकाओं का नियमित आना रहा है। मल्टीमीडिया के जरिये अब शिक्षण का युग शुरू हो गया है। इसके जरिये बच्चों को घर में और कक्षा में भी विज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न की जा सकती है। आज ऑनलाइन पत्रिकाओं के संस्करण की शुरआत हो चुकी है। विज्ञान कथा पत्रिका ऑनलाइन उपलब्ध है. विज्ञान प्रगति और विज्ञान आपके लिए भी ऑनलाइन उपलब्ध। इनके ग्राहक भी स्कूल कालेज बन सकते हैं. ये पत्रिकाएं ऑफ़लाइन ग्राहक बनने पर मुफ्त ही ऑनलाइन पढ़ी जा सकती हैं. आशय यही है कि बच्चों में वैज्ञानिक मनोवृत्ति लिए विज्ञानमय परिवेश उनमें विज्ञान के प्रति एक सहज अनुराग का संस्कार डालेगा।

विज्ञान की पद्धति का प्रसार

विज्ञान के मूल में जिज्ञासा प्रश्न और संशय का होना है। बच्चों में इन प्रवृत्तियों को निरंतर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। यह वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन की उनकी क्षमता को समृद्ध करेगा। लेकिन इसके लिए भी उनमें परिवेश और प्रकृति का सतत और सूक्ष्म अवलोकन करने के भाव को उकसाना चाहिए। वह जितना ही निरखे परखेगा उतने ही सवाल मन में कौंधेगें। और एक खोज /अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा। अवलोकन से प्रश्न और उनके कई संभावित जवाब ,फिर एक बुद्धिगम्य संकल्पना और उसकी जांच /परीक्षण /सत्यापन फिर निष्कर्ष -यही तो है विज्ञान की पद्धति हम तथ्य और सिद्धांतों तक जा पहुंचते है -अन्वेषण हो पाते हैं। इस वैज्ञानिक पद्धति का संस्कार बच्चे में डाला जाना जरूरी है. अन्यथा हम वैज्ञानिक मनोवृत्ति का व्यापक प्रसार करने में कभी सफल नहीं हो पायेगें!

प्रकृति निरीक्षण

हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली में प्रकृति निरीक्षण के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। बच्चों में पशु पक्षी अवलोकन, प्राकृतिक इतिहास (नेचुरल हिस्ट्री कलेक्शन ) व्योम विहार जैसे शौक की ओर उन्मुख करने का कोई प्रयास नहीं रहा है। आज के स्कूली छात्र हमारे चिर परिचित परिंदों पशुओं तक नहीं पहचानते। एक ब्रितानी बच्चे का अपने प्रमुख पशु पक्षियों को लेकर सामान्य ज्ञान बहुत अच्छा है। आज हमारा वन्य जीवन तेजी से विनष्ट हो रहा है.पशु पक्षी विलुप्त हो रहे हैं -चीता भारतीय जंगलों से कबका विलुप्त हो चुका है। अगर हम बच्चों में इन विषयों के प्रति जागरण नहीं लाते तो उनसे अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि आगे चलकर वे वन्य जीवों की रक्षा के प्रति जिम्मेदारी उठायेगें!

ज्वलंत मुद्दों के प्रति संवेदीकरण

आरंभिक कक्षाओं से ही बच्चों को स्थानिक एवं वैश्विक मुद्दों के प्रति संवेदित करने के लिए उनके पाठ्य पुस्तकों में सरल अध्याय होने चाहिए -गद्य और पद्य दोनों विधाओं में। पर्यावरण ,बढ़ती जनसँख्या, मौसम में बदलाव, घटते संसाधन और बढ़ती ऊर्जा जरूरते, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत, कृत्रिम बुद्धि आदि विषय हैं जिनमें बच्चों को संवेदित होना जरूरी है ताकि इन मुद्दों पर उनकी चिंतन प्रक्रिया आरम्भ हो सके. बांग्लादेश में अभी विगत अगस्त माह में बच्चों को बीमारियों और मौसम के बदलाव विषय पर जानकारी देकर उनके ज्ञान परीक्षण की रिपोर्ट प्लास वन ऑनलाइन पत्रिका में छपी (http://journals.plos.org/plosone/article?id=10.1371/journal.pone.0134993)है। उनके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन के अनुसार कक्षा दस के लिए मैनुअल तैयार कर बच्चों पढ़ाया गया। उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया जा रहा है।

भारत के लिए इसी तरह ज्वलंत मुद्दों पर पाठ्यक्रम तैयार किये जा सकते हैं और विज्ञान संचार को समर्पित विज्ञान परिषद जैसी संस्थाओं को इस ओर शिक्षाविदों,विज्ञान संचारकों के सहयोग से पहल करनी चाहिए।

Wednesday, 10 June 2015

नीली गोली के बाद अब गुलाबी गोली को हरी झंडी!

पुरुषों के बेहतर प्रदर्शन के लिए मददगार विख्यात नीली गोली (वियाग्रा) के बाद अब अमेरिकन महिलाओं को भी जल्द ही महिला यौन रोग के उपचार के नाम पर पहली बार " गुलाबी वियाग्रा ' मुहैया हो जाएगी जिसे कामेच्छा बढ़ाने की (विवादास्पद गोली ) का खिताब मिल जाएगा।  एफडीए के एक पैनल द्वारा इसे फिलहाल ट्रायल की मंजूरी  दे दी गयी है। 18-6 वोट से , खाद्य एवं औषधि प्रशासन के विशेषज्ञों के एक पैनल ने इस प्रयोगात्मक दवा फ्लिबेनसरिन ( flibanserin) को हरी झंडी दे दी है.मगर  इसके प्रयोग से निम्न रक्तचाप , चक्कर आना और बेहोशी आदि के आनुषंगिक प्रभावों से बचने के लिए सावधानियां भी सुझाई गयी हैं।



जैसे पुरुषों में वियाग्रा से यौनक्रिया के प्रदर्शन में सुधार हुआ  उसी तरह से यह गोली महिलाओं के सेक्स जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि कर सकती है। लेकिन एक मूल अंतर यह है जहां वियाग्रा पुरुष अंग में रक्त प्रवाह को बढ़ाकर यौन क्रिया के निष्पादन क्षमता एवं समय को मात्र "हाइड्रॉलिक" तरीके से बढ़ाता है 'गुलाबी गोली' महिला कामुकता में अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभाव डालती है. यह मस्तिष्क के कुछ रसायनों के स्रवण को प्रभावित करती है। विशेषज्ञों के परामर्श के अनुसार महिला को सोते समय एक 100 मिलीग्राम की गोली लेनी होगी। इससे सुखमूलक रसायन डोपामाइन का स्रवण जहां बढ़ेगा वही संतुष्टि के रसायन सेरेटोनिन का स्रवण कम हो जाएगा!


इस दवा की मालिक कंपनी - उत्तरी कैरोलिना स्थित एक  फार्मास्यूटिकल्स के लिए यह  बड़ी जीत है। अमेरिका के महिला राष्ट्रीय संगठन के अध्यक्ष टेरी ओ 'नील ने कहा कि "मुझे लगता है कि यह गोली महिलाओं की कामुकता की बेहतर समझ और एक स्वस्थ तरीके से उनके द्वारा अपनी कामुकता के नियमन की दिशा में एक बड़ा कदम है." वैज्ञानिकों और दवा कंपनियों में ब्लॉकबस्टर दवा वियाग्रा की सफलता के पश्चात महिलाओं की यौन समस्याओं का इलाज करने के लिए एक गोली के विकास और विपणन पर वर्षों से  प्रयास चल रहे थे.

फ्लिबेनसरिन के समर्थकों द्वारा पुरुषों के लिए  वियाग्रा सहित  कई यौन - रोग दवाओं को मंजूरी देने किन्तु कामेच्छा की कमी से पीड़ित अमेरिकी महिलाओं की एफडीए द्वारा लगातार उपेक्षा की शिकायत की जाती रही है. आलोचकों द्वारा यौन बराबरी के बजाय दुहरे मानदंड का भी आरोप लगाया जा रहा था। जबकि दवा के विरोधियों का दावा था कि एक भावनात्मक मुद्दे के नाम पर दवा कंपनी एक अनावश्यक गोली बाज़ार में उतार कर मुनाफा कमाना चाहती है।

यद्यपि अभी गुलाबी गोली को व्यापक स्तर पर इस्तेमाल की अंतिम मंजूरी नहीं मिली है किन्तु ऍफ़ डी  ए के अनुमोदन के उपरान्त यह महिलाओं में  रजोनिवृत्ति के  पहले  हीन  यौनेच्छा एवं अन्य यौन विकारों के उपचार में कारगर होगी जैसा की अमेरिका की लगभग ४८ लाख महिलायें इसकी शिकार हैं. महिला स्वातंत्र्य  की दिशा में भी इस कदम को देखा जा रहा है!

Friday, 22 May 2015

भारतीय भूकम्पों का यहाँ छुपा है राज!

नेपाल के भूकम्प ने वैज्ञानिकों में भारतीय महाद्वीप के खिसकने में एक नयी नई अभिरुचि उत्पन्न कर दी है। भूवैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा अभी 4 मई 2015 के जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत के महाद्वीप के 8 करोड़ साल पहले यूरेशिया की ओर इतनी तेजी से चले जाने एक विवरण दिया गया है. 


इस  चित्रकार -कृति में दुनिया १४ करोड़ वर्ष पहले कैसी थी यह दर्शाया गया है जब भारत एक विशाल भूभाग गोंडवाना का हिस्सा था-दाहिनी ओर आज की दुनिया है। आभार: अर्थस्काई 

14 करोड़ से भी अधिक वर्ष पहले, भारत दक्षिणी गोलार्ध के गोंडवाना नामक एक विशाल महाद्वीप का हिस्सा था। लगभग 12 करोड़ साल पहले भारत का इंगित हिस्सा अलग हो गया और प्रति वर्ष लगभग पांच सेंटीमीटर की रफ़्तार से उत्तर की ओर पलायन करना शुरू कर दिया। फिर, 8 करोड़ साल पहले, इसने अचानक प्रति वर्ष लगभग 15 सेंटीमीटर की रफ़्तार पकड़ी और  5 करोड़ साल पहले यूरेशिया से आ टकराया  जिसने हिमालय को जन्म दिया। 


भूवैज्ञानिकों ने इस तीव्र रफ़्तार की व्याख्या की पेशकश की है जिसके अनुसार भारत दो सबडक्शन जोन के संयोजन के खिंचाव से उत्तर की ओर खींच लिया गया था - यह टेक्टोनिक प्लेटों  पर दुहरे खिंचाव के कारण हुआ । भूवैज्ञानिकों ने इस नए मॉडल में हिमालय से प्राप्त मापों को भी शामिल किया है जिससे एक "डबल सबडक्शन" प्रणाली के होने का पुष्ट प्रमाण मिला है जिससे यही कोई 8 करोड़ साल पहले भारतीय भूभाग के यूरेशिया की ओर उच्च गति पर बहाव का आधार मिल गया।

भूगर्भिक रिकार्ड के आधार पर, इस खिंचाव से भारत गोंडवाना से अलग हो 12 करोड़ वर्ष पहले टूटना शुरू हुआ. फलतः भारत टेथिस महासागर में भटकते हुए ऊपर उठता गया । 8 करोड़ साल पहले, यह अचानक प्रति वर्ष 150 मिलीमीटर की दर से ऊपर उठा और यूरेशिया से टकरा गया. अफ्रीका मेडागास्कर और ऑस्ट्रेलिया से अलग होने के बाद भारत बहुत तेजी से ऊपर बढ़ा था .. यूरेशिया की ओर!

अभी यह खिसकाव चल ही  रहा है ! मतलब भूकम्पों का अाना अभी थमेगा नहीं!

Wednesday, 6 May 2015

बेकरारी से इंतज़ार है उस आदिम गंध की!

आस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी कॉमनवेल्थ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल आर्गनाइजेशन (CSIRO) ने कई अविष्कार अपने खाते में दर्ज किये हैं.जिसमें वाई फाई भी एक है। और एक "पेट्रिकोर" भी है -यह नाम पहले कभी सुना? आईये हम आपका ज्ञानार्जन करते हैं. आपने बरसात की बूंदों के साथ ही धरती से निकलती एक आदि गंध का अहसास किया है न? आखिर कौन इस ख़ास गंध से अपरिचित होगा? वह भीनी भीनी सी गंध जो बरसात होते ही नथुनो में आ समाती है और तन मन को एक आंनददायक अनुभूति से भर देती है। यही पेट्रीचोर है. जी हाँ इस गंध का यही नामकरण वैज्ञानिकों ने किया है।

दरअसल यह एक तैलीय गंध है जो तप्त धरती से बरसात की पहली आर्द्रता से जन्मती है। और इसके निकलने के ठीक बाद भरपूर वर्षा शुरू हो जाती है. मनुष्य में इस आदिम गंध के प्रति एक गहन लगाव है जो उसे उसके पूर्वजों से जैवीय विरासत के रूप में मिली है। वर्षा पर आजीविका- निर्भर हमारे पूर्वज के लिए यह गंध किसी जीवनदान से कम नहीं थी। शब्द पेट्रीचोर यूनानी भाषा के पेट्रा (पत्थर) और एचोर (मिथकीय देवों का रक्त ) से मिलकर बना है। मगर "पत्थरों में देवों के रक्त" की इस यूनानी कथा का वैज्ञानिक पक्ष क्या है?

सबसे पहले आस्ट्रेलिया की उक्त एजेंसी के वैज्ञानिक इसाबेल ज्वाय बीयर और रिचर्ड थॉमस थॉमस ने ७ मार्च 1964 को "Nature of Argillaceous Odour" शीर्षक से नेचर में छपे अपने शोध पत्र में इसकी चर्चा की थी। यह ख़ास और मनभावन गंध तो पहले से ही लोगों को पता थी मगर इसके उत्पन्न होने की क्रियाविधि क्या थी लोग अनभिज्ञ थे। यह "प्रथम वर्षा की गंध" थी या फिर मिट्टी की गंध, कयास लगाये जाते थे।

 ज्वाय बीयर के साथ रिचर्ड थॉमस -पेट्रीकोर पर चर्चा
 आपको ताज्जुब होगा यह जानकर कि भारत के इत्र व्यवसाय को इसकी अच्छी खासी खोज खबर थी। यही नहीं यहाँ "मिट्टी का अतर" इत्र के शौकीनों में मुंहमांगे दामों पर बिकता था. मगर इसके विज्ञान से लोग अपरिचित थे। हमारी इत्र इंडस्ट्री इसका संघनन कैसे करती रही होगी इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है।हाँ उनके द्वारा इस गंध को चन्दन के तेल में जज्ब कराकर रखा जाता था। और अब भी यह इत्र भारत में मिलता है जानकारी नहीं हो पा रही है। हो सकता है आपमें से किसी को पता हो! अगर है तो कृपया बतायें जरूर!

प्रसन्नता की बात है कि कॉमनवेल्थ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल आर्गनाइजेशन ऑस्ट्रेलिया ने अब प्रयोगशाला में तैयार सफलता पाई है। गर्म तप्त चट्टान के टुकड़ों के आसवन से एक पीले तैलीय पदार्थ को प्राप्त किया गया और यही पेट्रीकोर है और यही इस ख़ास गंध का स्रोत है. बेहद तप्त चट्टानें जब मौसम की आर्द्रता अवशोषित करती हैं तभी यह तैलीय पदार्थ संघनित होने लगता है और गंध वातावरण में तिर उठती है। यह वर्षा की सूचक है.

इस तेल के उदगम में आइरन आक्साईड की भूमिका है। अन्य विवरण यहाँ देख सकते हैं!

Saturday, 4 April 2015

रक्तिम चन्द्रग्रहण चौकड़ी का तीसरा चाँद

जब सिलसिलेवार चार खग्रास चंद्रग्रहण यानि पूर्ण चंद्रग्रहण का अवसर आता है तो इसे चन्द्र चौकड़ी के नाम से जाना जाता है। पिछले वर्ष माह अप्रैल में पूर्ण चंद्रग्रहणों की चौकड़ी का आरम्भ हुआ था ,फिर सितम्बर माह और अब आज कड़ी का तीसरा चंद्रग्रहण दिखा जो इस सदी का सबसे अल्प अवधि का पूर्ण चन्द्र ग्रहण है। अगला पूर्ण चंद्रग्रहण आगामी सितम्बर माह में दिखेगा। इस बार बस पाँच मिनट की पूर्णता और कुछ ही समय में मोक्ष भी.

                                         ऑस्ट्रेलिया  में ऐसा दिखा रक्त चन्द्र


हालांकि भारत में यह अरुणांचल प्रदेश में अच्छी तरह दिखा लेकिन भारत के शेष पूर्वी और कुछ पश्चिमी भागों में भी यह आंशिक ही दिख पाया। दरअसल चंद्रोदय के समय ही यह आंशिक ग्रहण लिए दिखा। ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के पश्चिमी प्रांतों में पूर्ण ग्रहण दिखा है।अमेरिका के पश्चिमी प्रांतों में यह तड़के सूर्योदय के पहले और ऑस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड और पूर्वी एशियाई देशों -भारत सहित शाम को चंद्रोदय ही ग्रहण के साथ हुआ हालांकि यह आंशिक विमोचन की अवस्था का ग्रहण था।

                जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी आती है तो होता है सम्पूर्ण चंद्रग्रहण 
जब पूर्ण चंद्रग्रहण होता है तो सूरज की रोशनी का रक्तिम अंश ही धरती के वातावरण जो चौतरफा 80 किमी की ऊंचाई लिए होता है से छन और परावर्तित होकर चन्द्रमा तक पहुचती है और इसलिए चाँद ताम्बई लालिमा लिए दीखता है. इसे ब्लड मून का नामकरण पादरियों ने दिया है जो इसे किसी बड़ी घटना की आशंका मानते हैं जबकि खगोलविद इसे एक सामान्य खगोलीय घटना ही मानते हैं! 

ग्रहणों से कई तरह के अन्धविश्वास जुड़े हुए हैं जैसे ग्रहण दो दैत्यों द्वारा राहु केतु द्वारा सूर्य और चन्द्रमा का भक्षण कर लेने के कारण होता है।  इस अवधि में कुछ खाना पीना नहीं चाहिए।  मगर ऊपर का चित्र यह स्पष्ट करता है की ग्रहण एक सामान्य खगोलीय घटना है बस!  
चित्र आभार:अर्थस्काई  

Monday, 16 March 2015

सोलर इम्पल्स 2: मनुष्य के आकांक्षाओं की अंतहीन उड़ान!

राईट बंधुओं द्वारा  गैस संचालित विमान की पहली उड़ान के सौ साल से भी अधिक समय के बाद फिर एक युगांतरकारी घटना घटी है.  स्विस अन्वेषियों ने पूरी तरह सौर ऊर्जा से संचालित वायुयान को आसमान की उंचाईयों में ले जाने में ही सफलता नहीं पायी बल्कि इससे वे विश्व भ्रमण  पर भी निकल चुके हैं।  इस समय जबकि ये पंक्तियाँ लिखी रही हैं ऐंड्रे बोस्चबर्ग की कप्तानी में यह विमान भारत में आ पहुंचा है और अहमदाबाद के एयरपोर्ट से वाराणसी के बाबतपुर एयरपोर्ट के लिए रवाना होने वाला है .यहां अचानक मौसम ख़राब हो जाने  और बादलों  से आच्छादित आसमान के चलते सौर ऊर्जा चालित इस विमान का सहज संचालन बाधित हुआ है किन्तु मनुष्य की जिजीविषा को भला कौन पराजित कर पाया है!  ऐसी सम्भावना  है कि यह सौर विमान नाम सोलर इम्पल्स 2 है मंगलवार यानी 17 मार्च 2015 को वाराणसी एअरपोर्ट पर पहुंचेगा।


 सौर यान का मार्ग 

यह ओमान से उड़कर २८हजार फ़ीट  की ऊँचाई तक जा पहुंचा और अहमदाबाद एअरपोर्ट पर अपनी मौजूदगी  दर्ज की। यहाँ से बनारस और फिर चीन तथा फिर प्रशांत महासागर के ऊपर से कई दिनी यात्रा करके हवाई द्वीप पहुंचेगा।  यह पूरी तरह पारम्परिक ईधन रहित है. चार  इंजिन है जो विद्युत संचालित हैं और देने सोलर पैनल से युक्त हैं जहाँ से दिन की यात्रा के समय सौर ऊर्जा इनके जरिये बैटरियों में संचित होती रहती है और आवश्यकतानुसार विद्युत में तब्दील होती रहती है. पूरी यात्रा पांच महीने  की है  और इस दौरान यह अद्भुत यान 33,800 किमी की यात्रा  तय कर लेगा। 
सौर विमान के स्वप्नद्रष्टा बर्ट्रेंड पिकार्ड मनोविज्ञानी भी हैं और वे अक्सर भविष्य को वर्तमान तक खींच लाने की सोच में रहते हैं।  उन्हें ईधन रहित सौर संचालित विमान की सूझ तब  कौंधी जब वे सह पायलट ब्रायन जोन्स के साथ गुब्बारों से कई द्वीपों और शहरों के ऊपर से गुज़र रहे थे बिल्कुल जूल्स वेर्ने के "फाइव वीक्स इन अ बैलून" की ही तर्ज पर।  किन्तु ईधन संचालित यात्राओं में ईधन की आवश्यकता उन्हें एक बड़ा  अवरोध लगा।  उन्हें  लगा कि ईधन पर निर्भरता मनुष्य के विकास की एक बड़ी बाधा है। फिर क्या था वे एक ऐसे विमान के अन्वेषण में जुट गए  कोई भी पारम्परिक ईधन इस्तेमाल न हो।  सौर विमान के रूप में उनकी कल्पना साकार हो उठी है।  
सोलर इम्पल्स 2 : एक रेखाचित्र 
अपने अभियान में पिकार्ड को स्विस फ़ेडरल इंस्टीच्यूट आफ टेक्नलॉजी से मदद मिली। अभियान से जुड़े इंजीनियरों को जल्दी ही समझ  में आ गया कि सौर ऊर्जा संचालित विमान का आकार सोलर पैनलों की जरुरत के मुताबिक़ बहुत बड़ा होना चाहिए किन्तु वजन बहुत कम।  विमान  हर सूर्योन्मुखी सतह पर सोलर सेल लगाये जाने  की जुगत समझ में आयी -कुल १७ हजार सोलर सेल्स मनुष्य के बाल की मोटाई के बराबर लगाये गए।  डैनों की लम्बाई इस तरह २३६ फ़ीट जा पहुँची जो बोइंग 787-8 से भी अधिक है। यान बहुत हलके तत्व का है किन्तु अकेले बैटरियों के  235 किलो भार सहित कुल यान का भार 2,268 किलो है।  यह अपेक्षानुसार हल्का तो नहीं है किन्तु फिलहाल कामचलाऊँ है. 
 सौर ऊर्जा संचालित विमान के साथ हैं स्विस खोजकर्ता बेरट्रैंड पिकार्ड (बाएं) और ऐंड्रे बोर्श्चबर्ग
मनुष्य के आकांक्षाओं की यह नयी उड़ान  पंख पसार अब  आसमान की  ऊंचाइयां छू रही है!
 चित्र सौजन्य: नेशनल जियोग्राफिक 
 

Thursday, 5 February 2015

खसरे का खौफ

अमेरिका में खसरा लौट आया है जो उन सभी देशों के लिए चेतावनी हैं जहाँ से अमेरिका में लोगों की काफी तादाद में आवाजाही बनी रहती है. 13 अन्य कैलिफोर्निया में रोगियों की संख्या 100 पहुँच गयी है. खसरे को हम छोटी माता के रूप में जानते पहचानते हैं. आईये देखते हैं यह कैसे इतनी तेजी से फैल रहा है, और क्यों यह इतना संक्रामक है?

                                                   ऐसा दिखता है खसरे का  वायरस
डॉ रॉबर्टो कैटानिओ , जैव रसायन और आणविक जीव विज्ञान के एक प्रोफेसर हैं जो 30 साल से खसरा वायरस पर अध्ययन कर रहे हैं । उनके अनुसार - "यह हम जानते हैं कि सबसे अधिक संक्रामक वायरस है," । खसरा इन्फ्लूएंजा की श्रेणी का ही एक श्वसन वायरस है। यह वायरस प्रकार के फेफड़ों के सतह (epithelia) पर आक्रमण करता है। फेफड़ों के बाद, यह प्रतिरक्षा सेल पर काबू करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली में घुसपैठ कर जाता हैं। "यह वहाँ प्रतिकृतियां बनाता चलता है और पैशाचिक तरीके से खाँसी के साथ बाहर आता है।" "खसरा वायरस श्वासनली का उपयोग एक लांचिंग पैड की तरह करता है और खांसी या छींक के जरिये बड़ी मात्रा में हवा के माध्यम से खसरा वायरस फैलता है । मेजबान से बाहर जाने के बाद, खसरा वायरस दो घंटे के लिए जीवित रहता है । अगर यह एक व्यक्ति को हुआ और अगर,कारगर बचाव नहीं कर रहे हैं, जो आस-पास के 90% लोग भी संक्रमित हो जाएगा।
अमेरिका में खसरे के लौटने का मुख्य कारण है वहां बहुत से माता पिता का बच्चों को टीका न लगवाकर उनमें कुदरती प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने देने की मानसिकता का होना! चूँकि यह एक विषाणु जनित रोग है अतः टीका ही इसका सर्वोत्तम कारगर उपाय है। बच्चों को खसरे का टीका अनिवार्य रूप से लगवाएं।