Tuesday, 25 December 2012

नए वर्ष में आ धमकने वाला है एक धुंधकारी धूमकेतु!

हाँ ,खगोलविदों का तो अनुमान फिलहाल ऐसा ही है .अगली सर्दियों तक एक धुंधकारी धूमकेतु धरतीवासियों के लिए कौतूहल का विषय बनने  वाला है और कहते हैं कि अब तक के धूमकेतुओं में वह सबसे भव्य और चमकदार होगा . किन्तु कई खगोलविद यह भी कहते हैं कि कोई धूमकेतु कैसा दिखेगा यह शर्तिया तौर पर पहले से नहीं कहा जा सकता -क्योकि पिछले हेली और केहुतेक पुच्छल तारों का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था .नए ढूंढें पुच्छल तारे के इशान (ISON) के बारे में भी कुछ ऐसे ही उहापोह हैं -किन्तु इसके खोजी शौकिया खगोलविदों आरटीओम नोविचोनोक (बेलरस ) और विटाली नेवेस्की(रूस) का  मानना है कि यह एक भव्य प्रदर्शनकारी धूमकेतु बनेगा! बोले तो पूरा धुंधकारी . इसे इसलिए ही अंतर्जाल पर ड्रीम कमेट कहा जा रहा है . यानी धूमकेतुओं के कितने ही सपनो को साकार कर जायेगा ईशान! 
क्या ग्रेट कमेट (1860) यानि ऊपर जैसा ही दिखेगा इसान? 

ईशान का नामकरण इंटरनेशनल सायिनटीफिक ओप्टिकल नेटवर्क का संक्षिप्त रूप है जिसके सदस्य इसके शौकिया खोजकर्ता हैं . यह तब देखा गया जबकि यह सूरज से लगभग 97 करोड़ किलोमीटर दूर था . दरअसल नेपच्यून के भी आगे इन धूमकेतुओं की एक मांद है जिसे ऊर्ट क्लाउड कहते हैं -वहीं से कभी कभार कोई गन्दा सा बर्फ का गोला (डरटी  आईस/स्नो  बाल ) सूरज के गुरुत्व क्षेत्र में आ टपकता है और फिर सूर्य की प्रदक्षिणा एक बहुत ही दीर्घ परिक्रमा पथ पर करने लगता है -ज्यों ज्यों वह सूर्य के निकट आता जाता है बर्फ के पिघलने से उसका प्रभा मंडल बनता(हालो )  बनता है और सौर हवाए पिघलते हिम धूल को सूर्य के विपरीत बहा ले चलती हैं जिनसे इनकी ख़ास पूंछ का निर्माण होता है -भारत में प्रायः इसे पुच्छल तारे के नाम से जानते हैं जबकि संस्कृत के ग्रंथों में इसे केतु कहा गया है ,यहाँ पुच्छल तारों को अशुभ माना जाता है . किन्तु ये संरचनाएं अन्य खगोलीय घटनाओं की तरह सामान्य घटनाएं ही हैं -हाँ खतरा तब हो सकता है जब कोई धूमकेतु पथभ्रष्ट होकर कहीं धरती के परिक्रमा पथ पर आकर धरती से भीड़ न जाय .

यदि अनुमान सच साबित हुए तो यह धूमकेतु आगामी दिसम्बर माह में दिन में भी चन्द्रमा जैसा दिख सकता है .मतलब यह परिमाप में काफी बड़ा लग रहा है . ऐसा भी समझा जा रहा है कि इसान बहुत कुछ 
''ग्रेट कमेट आफ 1680" सरीखा है और वैसा ही उसका भ्रमण  पथ है . अगले अगस्त माह तक इसान धरती से लगभग 32 करोड़ किमी तक आ पहुंचेगा और इसका आभा मंडल बनना शुरू हो जायेगा। और तभी सही अंदाजा भी हो जायेगा कि यह कैसा दिखेगा .  तब तक की आतुर प्रतीक्षा खगोल प्रेमियों को करनी होगी . 

Friday, 21 September 2012

महिलाओं को यौन कर्म घृणित लगता है,जिम्मेदार पुरुष ही होते हैं!


तनिक सोचिये, सहवास (सेक्स) एक तरह से असहज कार्य नहीं है? -पसीना और उसकी दुर्गन्ध,लार,वीर्य -द्रव तथा और भी असहज स्थितियां ! एक सर्वे के मुताबिक़ बहुत से लोगों ख़ास कर आधी दुनिया के नुमायिन्दों को यह बहुत अनकुस(खराब) लगता है मगर वे फिर भी इसके लिए तैयार हो जाती हैं .आखिर क्यों? नीदरलैंड में इस विषय पर शोध किया गया है और एक रिपोर्ट टाईम पत्रिका ने प्रकाशित की है !
शोधार्थियों का अध्ययन बताता है कि सामान्यतः  महिलायें अगर उत्तेजित न की जायं तो उन्हें सहवास में कोई रूचि नहीं होती बल्कि वे इसे एक जुगुप्सा भरा कार्य मानती हैं . उनकी उत्तेजित अवस्था ही उनके जुगुप्सा प्रतिक्रिया को शमित करती है और वे सहवास की उन क्रियाओं -क्रीडाओं में सहयोग करने ;लगती हैं जिन्हें अन्यथा वे पसंद नहीं करतीं . ग्रोनिंजन विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने ९० महिलाओं पर अपने इस प्रेक्षण को प्रमाणित करने के लिए प्रयोग किये . उन्हें तीन समूहों में बांटा. एक समूह को कामोद्दीपक वीडियो दिखाए गए . दूसरे समूह को ऐसे रोमांचक वीडियो दिखाए गए जिनसे शरीर में ऐडरेलिन का प्रवाह बढ़ता हो जैसे रीवर राफ्टिंग और स्काई डाईविंग -इनमें भी वे उद्वेलित हुईं मगर वह कामोत्तेजना से पृथक का उद्वेलन था . तीसरे समूह को कोई सामान्य सा वीडियो दिखाया गया . 
तदनंतर उन्हें कुछ बहुत अप्रिय से ,अनकुस से काम करने को दिए गए जैसे किसी गिलास में कीड़ा (नकली ) पड़े द्रव को पीना,पहले से ही इस्तेमाल हुए टिश्यू पेपर से हाथ साफ़ करना ,ऐसे बिस्किट खाना जो कीड़े के समूह जैसे दिख रहे थे या फिर इस्तेमाल हुए कंडोम के भीतर उंगली डालना. पाया गया कि जिस समूह ने कामोत्तेजक वीडियो देखा था उसने इंगित कामों को करने में अपेक्षाकृत काफी कम असहजता दिखाई. यह साफ़ था कि उनके कामोद्वेलन ने उनकी कई जुगुप्सात्मक प्रवृत्तियों को तिरोहित कर रखा था .
उक्त अनुसन्धान के जरिये शोधार्थियों ने यह प्रमाणित करना चाहा कि सहवास जैसी गतिविधि के  असहज होते हुए भी लोग उसमें इसलिए संलिप्त हो जाते हैं क्योकि वे कामोत्तेजित हो उठते  हैं या कर दिए जाते हैं  -काम -क्रिया विशेषज्ञ  भी महिलाओं के सहवास पूर्व काम -उद्वेलन के पहलू पर पर ज्यादा जोर देते हैं . इस अध्ययन का एक प्रबल पक्ष यह है कि इसके परिणामों के मद्दे नज़र उन महिलाओं जिनका यौन जीवन असामान्य है या जो सेक्स को जुगुप्सा मानती हैं के लिए कारगर सेक्स थिरेपी इजाद हो सकती है . आज भी ऐसे कई मामले सामने आते हैं जिनमें महिलायें सहवास के बाद अपनी अत्यधिक साफ़ सफाई ,बार बार नहाने सरीखे कार्यों में लग जाती हैं . पुरुषों के लिए भी यह अध्ययन महत्वपूर्ण है जिन पर यौन क्रिया के पूर्व यौन -सहकर्मी को पूर्णतया कामोद्वेलित करने का दायित्व होता है .अन्यथा सहवास केवल एकतरफा आनंद बन कर रह जाता है -सहकर्मी के लिए केवल एक त्रासद अनुभव!  यही कारण है कि महिलाओं में सेक्स के प्रति एक विराक्ति भाव घर कर जाता है  और जोड़ों का यौन जीवन असहज और असामान्य हो उठता है जिसके  ज्यादातर जिम्मेदार पुरुष ही होते हैं!  

Friday, 17 August 2012

खटमलों की वापसी


खबर अमेरिका से है ...मगर आज के इस आवागमन युग में इनका आतंक दुनिया में कहीं से कहीं तक भी फ़ैल सकता है . कहते हैं ये  नन्हे वैम्पायर हैं जो मानव खून के प्यासे हैं . वैसे तो खटमल (बेड बग्स ) मनुष्य के साथ उसके गुफा जीवन से ही जुड़े हैं मगर सभ्यता और साफ़ सफाई से इनका आतंक कमतर होता गया. १९४० के बाद से  विकसित देशों में खटमलों का सफाया कीटनाशी रसायनों के चलते पूरी तरह  हो गया .मगर अब इन देशों में कीट नाशी भी ज्यादा इस्तेमाल में नहीं हैं . लोग पूरी दुनिया में घूम रहे हैं और खटमलों को भी सूटकेस और सामानों के साथ ले आ जा रहे हैं .. 
अब अमेरिका में तो इन नन्हे दैत्यों ने ख़ासा उत्पात मचा रखा है . वे होटलों ,घरों ,नर्सिंग होम ,शयन कक्षों .कार्यालयों और सिनेमा घरों में डेरा जमाये बैठे हैं . सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये मौसम के भारी अंतरों -तेज गर्मी और ठंड में ,सूखे और सीलन में अपने को बचाए रखने में सक्षम हैं. ज्यादा ठंडक में ये शीत निष्क्रियता में चले जाते हैं . अनुकूल मौसम आते ही सक्रिय हो  उठते हैं ..बिना खाए वर्ष पर्यंत जिन्दा रह सकते हैं ...एक बेडरूम में हजारो की संख्या में हो सकते हैं . ये गद्देदार आसनों के मुरीद हैं ..कुशन और  बिस्तरों को बहुत पसंद करते हैं .गद्दे के पोरों में और इलेक्ट्रिक साकेट में भी पनाह ले लेते हैं . ये रात में आपके खून के प्यासे हो उठते हैं और आपके सांस की गर्मी से सक्रिय हो उठते हैं -इनके ऊष्मा संवेदी अंग -एंटीना आपकी मौजूदगी को सहज ही भांप लेते हैं . 
Photo credit: Utah Department of Health
अगर सुबह उठने पर आपके शरीर पर लाल रैशेज -चकत्ते दिखें तो वे खटमल के काटे हुए निशान भी हो सकते हैं ....बिस्तर पर  लाल धब्बे आपके खून के हो सकते हैं ...अमेरिका में यह सब जानकारी इसलिए दी जा रही है कि वहां कई पीढ़ियों तक लोगों ने खटमल देखा भी नहीं है -मगर भारत की नयी पीढी हो सकता है इनके बारे में न जानती हो मगर पुन्नी पीढियां जो आज बाप दादों की क़तर में हैं इनसे परिचित हैं ....अगर अमेरिकी प्रवासी आपके यहाँ आने वाले हैं तो होशियार रहिये और उन्हें अलग कमरा ,बेड आदि देकर पहले खटमल -निरोधन की व्यवस्था करिए ....नहीं तो ये  अनचाहे विदेशी मेहमान आपके घर में आ घुसेगें और आपको पता भी नहीं लगेगा . 

Sunday, 12 August 2012

विज्ञान और मानविकी की गहराती खाईयां

वैसे तो ब्रितानी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी पी स्नो ने विज्ञान और मानविकी विषयों और प्रकारांतर से वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के फासलों को बहुत पहले ही १९५० के आस पास "दो संस्कृतियों " के नाम से बहस का मुद्दा बनाया था मगर आज भी यह विषय प्रायः बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहता है कि विज्ञान और मानविकी या फिर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के अलगाव के कौन कौन से पहलू हैं? हम क्यों किसी विषय को विज्ञान का तमगा दे देते हैं और किसी और को कला या साहित्य का? 

इस विषय पर ई ओ विल्सन जो आज के जाने माने समाज -जैविकीविद हैं ने विस्तार से फिर से प्रकाश डाला है . पहले हम मानविकी का अर्थ बोध कर लें -मानविकी के अधीन प्राचीन और आधुनिक भाषाएँ ,भाषा विज्ञान ,साहित्य और इतिहास ,न्याय ,दर्शन और पुरातत्व ,संस्कृति , धर्म ,नीति शास्त्र ,आलोचना ,समाज शास्त्र आदि आदि विषय आते हैं . दरअसल मानव परिवेश और उसके वैविध्यपूर्ण अतीत,परम्पराओं और इतिहास और उसके आज के जीवन से जुड़े अनेक पहलू मानविकी के अंतर्गत हैं. मगर यह आश्चर्यजनक है कि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान के अनेक अनुशासनों में लम्बे अरसे से कोई उल्लेखनीय समन्वय नहीं रहा है. इस दूरी को कम करने का तो एक तरीका यह है कि इन दोनों अनुशासनों के प्रस्तुतीकरण के तौर तरीकों -लिखने के तरीके में कुछ साम्य सुझाया जाय. मतलब लिखने की शैली और सृजनात्मक तरीकों में कुछ समानतायें बूझी जायं. यह उतना मुश्किल भी नहीं है जितना प्रथम दृष्टि में लगता है . इन दोनों क्षेत्रों के अन्वेषक मूलतः कल्पनाशील और कहानीकार की प्रतिभा लिये होते हैं.

अपने आरम्भिक अवस्था में विज्ञान और कला/साहित्य /कविता की कार्ययोजना एक सरीखी ही होती है. दोनों में संकल्पनाएँ होती हैं -संशोधन और परिवर्धन होते हैं और अंत में निष्पत्ति या अन्वेषण का अंतिम स्वरुप निखरता है- किसी भी वैज्ञानिक संकल्पना या काव्य कल्पना का अंत क्या होगा,निष्पत्ति क्या होगी शुरू में स्पष्ट नहीं होती.....और निष्पत्ति ही शुरुआत की संकल्पना को मायने देती है ...उपन्यासकार फ्लैनेरी ओ कोनर ने वैज्ञानिकों और साहित्यकारों दोनों से सवाल किया था," ..जब तक मैं यह देख न लूं कि मैंने क्या कहा मैं कैसे जान सकता हूँ कि मेरे कहने का अर्थ क्या है?"यह बात साहित्यकार और वैज्ञानिक दोनों पर सामान रूप से लागू होती है -दोनों के लिए निष्पत्ति -अंतिम परिणाम/उत्पाद ही मायने रखता है...एक सफल वैज्ञानिक और एक कवि आरम्भ में तो सोचते एक जैसे हैं मगर वैज्ञानिक काम करता एक बुक कीपर जैसा है-वह आकंड़ो को तरतीब से सहेजता जाता है . वह अपने शोध प्रकल्पों/परिणामों के बारे में कुछ ऐसा लिखता है जिससे वह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू) में पास हो जाय .समवयी समीक्षा के साथ ही तकनीकी और आंकड़ो की परिशुद्धता भी विज्ञान के परिणामों के दावों के लिए बेहद जरुरी है .इस मामले में एक वैज्ञानिक की ख्याति ही उसका सर्वस्व है. और यह ख्याति प्रामाणिक दावों पर ही टिकी रह सकती है. यहाँ हुई चूक एक वैज्ञानिक का कैरियर तबाह कर सकती है. धोखाधड़ी तो एक वैज्ञानिक के कैरियर के लिए मौत का वारंट है . 

मानविकी साहित्य में धोखाधड़ी के ही समतुल्य है साहित्यिक चोरी(प्लैजियारिज्म).मगर यहाँ कल्पनाओं का खुला खेल खेलने में कोई परहेज नहीं है बल्कि फंतासी /फिक्शन साहित्य की तो यह आवश्यकता है. और जब तक साहित्य की स्वैर कल्पनाएँ सौन्दर्यबोध के लिए प्रीतिकर बनी रहती हैं,उनका महत्व बना रहता है. साहित्यिक और वैज्ञानिक लेखन में मूलभूत अंतर उपमाओं के इस्तेमाल का है ...वैज्ञानिक रिपोर्टों में जब तक दी गयी उपमाएं महज आत्मालोचन और विरोधाभासों को अभिव्यक्त करनें तक सीमित रहती हैं,ग्राह्य हैं. जैसे एक वैज्ञानिक यह लिखे तो मान्य है," यदि यह परिणाम साबित हो पाया तो मैं आशा करता हूँ यह अग्रेतर कई भावी फलदायी परिणामों के दरवाजे खोल देगा " मगर यह वाक्य कदापि नहीं-" हम यह विचार रखते हैं कि ये परिणाम जिन्हें हम बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाए हैं अग्रेतर परिणामों के ऐसे झरने होंगें जिनसे निश्चय ही शोध परिणामों के कई और जल स्रोत फूट निकलेगें " यह शैली विज्ञान में मान्य नहीं है . 

विज्ञान में शोध के परिणाम का महत्व है और साहित्य में कल्पनाशीलता,उपमाओं की मौलिकता महत्वपूर्ण है. कव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ साहित्य में रचनाकार के मन से पाठक तक संवेदनाओं/भावनाओं के संचार का जरिया हैं . मगर विज्ञान का यह अभीष्ट नहीं है बल्कि यहाँ उद्येश्य तथ्यों को वस्तुनिष्ठ तरीके से पाठकों तक पहुंचाते हुए उसके सामने अन्वेषण की सत्यता और महत्व को प्रमाणों और तर्क के जरिये प्रस्तुत कर उसे संतुष्ट करना होता है . साहित्य में भावनाओं को साझा करने की जितनी ही प्रबलता होगी भाषा शैली जितनी ही काव्यात्मक /गीतात्मक होती जायेगी. एक साहित्यकार के लिए सूरज का उगना,दोपहर में शीर्ष पर चमकना और सांझ ढले डूब जाना जीवन के आरम्भ, यौवन का आगमन और जीवन की इति का संकेतक हो सकता है यद्यपि वैज्ञानिक जानकारी के मुताबिक़ सूर्य ऐसी कोई गति नहीं करता ...किन्तु साहित्य में पूर्वजों से चले आ रहे ऐसे प्रेक्षण आज भी मान्य हैं.काव्य सत्य हैं! साहित्य में वैज्ञानिक सचाई कि सूर्य स्थिर है, धरती ही उसके इर्द गिर्द घूमती है समाहित होने में अभी काफी वक्त है!

Sunday, 29 July 2012

खेलों में जेंडर जांच:सवाल दर सवाल


लन्दन ओलम्पिक्स की शानदार शुरुआत हो गयी है ,मगर एक समान्तर खेल और खेला जा रहा है .सेक्स की जांच का खेल .पहले कई पुरुष खिलाड़ी जनाना भेष में ओलम्पिक मेडल तक हथियाते रहे हैं .खेलों में जेंडर जांच की जरुरत इसलिए ही आन पडी ताकि ऐसे छलिया लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके ...१९५० से लेकर किसी न किसी रूप में जेंडर जांच २००९ तक बदस्तूर जारी रही .मेडिकल साईंस के उन्नत होने के साथ ही शक के मामलों में खिलाड़ियों के सेक्स के गुणसूत्रों को भी देखा जाने लगा .हम सभी जानते हैं कि एक्स एक्स लैंगिक गुणसूत्र महिलाओं तथा एक्स वाई गुणसूत्र पुरुष के होते हैं .इसके साथ बार बाडी भी देखी जाने लगी जो महिलाओं के मामले मेंप्रत्येक कोशिका के  नाभिक के परत के अंदरुनी हिस्से से जुदा एक धब्बा दीखता है जो एक निष्क्रिय गुणसूत्र एक्स की पहचान बताता है .अब चूंकि महिलाओं में दो एक्स सेक्स गुणसूत्र होते हैं तो एक निष्क्रिय रहता है जबकि पुरुष में एक एक्स सक्रिय होता है तो वह जांच में धब्बा सरीखा नहीं दीखता .मगर ये जांच भी विवादित होते गए ...क्योंकि लैंगिक गुणसूत्रों के में भी विकार पाए जाते हैं .जैसे किसी महिला में दो एक्स के साथ एक वाई भी मिल गया या महज एक ही एक्स गुणसूत्र दिखा -या पुरुष एक्स वाई के साथ एक और एक्स आ गया आदि आदि .लैंगिक गुणसूत्रों के इसी गडबडझाले की वजह से २००९ से ही ओलम्पिक असोसिएशन ने इन लैंगिक गुणसूत्रों की जांच पर रोक लगा दी .
पिछले वर्ष   दक्षिण अफ्रीकी धाविका कैस्टर सेमेन्या का मामला भी विवादित रहा था .पहले तो उन्हें ओलम्पिक असोसिएशन ने खेलने से मना किया मगर बाद में अनुमति मिल गयी .रंगभेद लिंगभेद पर पक्षपात की दुहाईयाँ दी गयीं ,यद्यपि उनकी लैंगिक जांच आज भी सार्वजनिक नहीं हुयी .यहाँ भारत में पिंकी प्रामाणिक का मामला चल ही रहा है ..अदालत ने उनके गुणसूत्रों की जांच का आदेश दिया है .खेल प्रेमियों को इसका बेसब्री से इंतज़ार है . इंटरनेशनल ओलम्पिक कमेटी ने अब से टेस्टोस्टेरान जिसे पुरुष हारमोन भी कह देते हैं के स्तर की जांच का नया मानदंड रख दिया है .यदि किसी महिला खिलाड़ी में इस हारमोन का स्तर एक सीमा से ज्यादा हुआ तो वह महिला प्रतिस्पर्धी के रूप में खेल से बाहर होगी -इस स्तर का निर्धारण विशेषज्ञ करेगें -मतलब अभी भी यह तरीका बहुत पारदर्शी नहीं है .हाँ कहा गया है कि महिला खिलाड़ियों में यह हारमोन पुरुष खिलाड़ियों के स्तर तक नहीं होना चाहिए . 
महिलाओं की एक जन्मजात स्थिति   " कान्जेनायिटल एड्रीनल हायिपरप्लासिया" उनके  बही जनन अंगों में विकृतियों का कारण बनती है और उनकी भगनासा अविकसित नर अंग जैसी लगती है .अब इनकी बाह्य जांच में बड़ी दुविधा उत्पन्न हो सकती है यद्यपि इनमें आंतरिक लैंगिक अंग गर्भाशय और अंडाशय पाए जाते हैं .इसी तरह एक अन्य मामले में एक्स वाई गुणसूत्रों के बावजूद "एंड्रोजेन इन्सेंसिविटी सिंड्रोम " में जेनेटिक तौर पर पुरुष होने के बाद नारी बाह्य अंगों का विकास हो जाता है -उभरे स्तन,अविकसित नारी जननांग मगर अंडाशय और गर्भाशय नदारद .हाँ टेस्टिस पाया जाता है . ऐसे लोगों का शरीर पुरुष हारमोन के प्रति असंवेदनशील रहता है . अब इन्हें किस कटेगरी में रख जाय . 
अब खेलों में टेस्टोस्टेरान के जांच का पैमाना कहाँ तक निरापद और विवादहीन रहेगा यह देखा जाना है . ओलम्पिक कमेटी यह समझती है कि चूंकि यही हारमोन खिलाड़ियों के परफार्मेंस में उनकी शक्ति क्षमता और गति से सीधे जुड़ा है इसलिए इसकी जांच से खेलों के मैदान में बराबरी का स्तर(लेवल प्लेयिंग फील्ड)  बनाए रखा जा सकता है . वैसे इस जांच को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं .कहा जा रहा है कि अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें टेस्टोस्टेरान स्तर कम होने पर भी खिलाड़ियों ने अच्छे प्रदर्शन किये हैं और मेडल जीते हैं . क्या लैंगिक जांच का एक पूर्णतया अविवादित जैवीय तरीका अभी भी विकसित होना शेष है?  

Sunday, 22 July 2012

मंगल का मेन्यू अब धरती पर भी ..यम यम!


मंगल अभियान के तहत अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी (नासा) 2030 के वैज्ञानिक अपने मंगल ग्रह अभियान की तैयारियों में करीब 18 साल बाद की मंगल यात्रा के लिए अभी से मेन्यू तैयार करने में व्यस्त हो गए हैं। यह मेन्यू ऐसे व्यंजनों का है जो लम्बे समय तक खराब नहीं होंगे और छह से आठ अंतरिक्ष यात्रियों के हिसाब से पर्याप्त होंगे। लाल ग्रह पर पहुंचने में अन्तरिक्ष यात्रियों को करीब छह महीने का समय लग सकता है और इतना ही वहां से वापसी में। वहां 18 महीने तक रुकना भी है। अब अगर इस दौरान उनका खाना खराब हो गया तो मुसीबत ही हो जाएगी। लिहाजा इनके खाने का विशेष मेन्यू तैयार हो रहा है। आइये एक बानगी लें - हो सकता है यह कभी हमें यहां जमीन पर भी नसीब हो जाए।

नासा के खाद्य वैज्ञानिक ऐसे व्यंजन श्रृंखलाओं को तैयार करने में जुटे हैं जो काफी लम्बे अरसे – माह, बरस, दस बरस तक जैसा का तैसा बने रहेंगे उनके स्वाद में भी फर्क नहीं आएगा। उन्होंने एक ब्रेड पुडिंग तैयार कर ली है जो चार सालों तक जस की तस बनी रह सकती है। पेंटागन में तैयार हुआ एक पाउंड केक पांच वर्षों तक फ्रेश बना रह सकता है। ये मीठे डेजर्ट ही नहीं दूसरे स्टार्टर्स और मेन कोर्स व्यंजन भी अभी बनाए जाने की अवस्थाओं से गुज़र रहे हैं जिन्हें मंगल ही नहीं धरती के फूड स्टोरों और आम रसोईघरों में कई वर्षों तक बिना खराब हुए रखा जा सकता है।

कई लम्बी अवधि तक खाने योग्य बने रहने के वाले व्यंजनों की खेप पहले से ही अमेरिकी बाज़ारों में आ चुकी है। और वैश्विक व्यापार के चलते दूसरे देशों तक भी पहुंच रही है। इनमें एक तो समुद्र की चिकन मानी जाने वाली ट्यूना मछली ही है जो अब एयर टाइट पाउच में उपलब्ध है और पहले से मिलने वाली डिब्बा बंद ट्यूना की तुलना में बेहतर है। यह भी ढाई वर्षों की शेल्फ लाइफ लिए हुए है। दरअसल खाद्य पदार्थों/व्यंजनों को लम्बे समय तक परिरक्षित रखने की प्रौद्योगिकी सेना की आवश्यकताओं के चलते वजूद में आई।

सेना की टुकड़ियों को गंतव्य तक कूच और युद्ध या शान्ति के दौरान बना बनाया - 'मील्स रेडी टू ईट' (MRE) की जरुरत होती है। मगर उनका स्वाद बस माशा अल्लाह ही होता है। पहली बार वैज्ञानिकों ने एक ऐसा टिकाऊ सैंडविच तैयार किया है जो स्वादिष्ट है और बिना रेफ्रीजेरेटर के 3-5 वर्षों तक इस्तेमाल में आ सकता है। इसके भीतर तंदूर (बार्बीक्यूड) चिकन भरा रहता है या फिर पेपरानी। सैंडविच की बाहरी परत एक खाद्य पदार्थ पालीप्रोपेलीन की महीन परत से लैमिनेटेड होती है जो खाते वक्त महसूस ही नहीं होती। और भीतर भरे जाने वाली सामग्री में आर्द्रता शोषित करने वाले अनुमन्य रसायन सार्बिटाल और ग्लिसेराल होते हैं जिससे ब्रेड गीला न होने पाए। इसके चलते ब्रेड पर किसी भी बैक्टीरिया, फफूंद का संक्रमण रुक जाता है।

सुस्वादु सैंडविच को और भी बैक्टेरिया रोधी बनाने के लिए इन्हें पाक विद्या की एक सर्वथा नवीन प्रक्रिया - एचपीपी - हाई प्रेशर प्रोसेसिंग से गुजारा जाता है जिससे स्वाद भी बढ़ता है। इसके तहत व्यंजन को एक 'दबाव कक्ष' के भीतर 87000 पाउंड के दबाव से गुजारा जाता है। इसके चलते सभी बैक्टीरिया मर जाते हैं। इस समय 'हार्मेल नैचरल चॉइस लाइन' बाज़ार में इसी तरह के खाद्य पदार्थों की एक श्रृंखला लेकर आ गयी है। ये व्यंजन ऐसे  लगते हैं जैसे अभी अभी बनाए गए हों। नासा ने जिन व्यंजनों पर ख़ास ध्यान दिया है उनमें - कैरेट क्वायंस, थ्री बीन सैलेड्स, पोर्क चॉप्स, वेजिटेबल  ऑमलेट और ऐप्रीकार्ट कोब्लेर मुख्य हैं।

प्रोसेसिंग और पैकेजिंग के बाद जाह्नसन स्पेस सेंटर में इनका भंडारण होता है और इन्हें लगातार तीन वर्षों तक चख कर चेक करने के बाद ही फिलहाल अन्तरिक्षयात्रियों के लिए जारी किया जाता है।


ऐसे व्यंजन महज सैनिकों और अन्तरिक्ष वासियों के बजाय कई दैवीय आपदाओं, भूकंप, सुनामी आदि से प्रभावित लोगों तक भी पहुंचाये जा सकते हैं। अमेरिका में कैटरीना तूफ़ान के बाद इनका वितरण काफी दुर्गम जगहों पर फंसे लोगों में किया गया जो लम्बे समय तक प्रभावित क्षेत्रों में पड़े रहे। ऐसे व्यंजन निर्माण तकनीकों का सबसे बड़ा लाभ अंततः विकराल होती जनसंख्या के लिए हो सकेगा क्योंकि खाद्य सामग्रियों की बढ़ती खपत के चलते हमें खाद्य परिरक्षण और सुरक्षा की भी जरूरत होगी। आज भी भारत सरीखे विकासशील देश में बिना आधुनिक खाद्य - वितरण प्रणाली और प्रशीतन के 30 प्रतिशत तैयार खाद्य सामग्री खराब हो रही है। कहीं कहीं तो यह नुकसान 70 फीसदी पहुंच गया है । टाईम पत्रिका के अंक 12 मार्च 2012 में ऐसा ही दावा किया गया है। तो यह खाद्य परिरक्षण का मसला केवल अन्तरिक्ष की ऊंचाइयों से ही नहीं जुड़ा है बल्कि जमीनी हकीकत से ज्यादा जुड़ा है।

Thursday, 5 July 2012

पिंकी प्रामाणिक के लिंग की प्रमाणिक जांच कब तक?


अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी पिंकी प्रामाणिक की लैंगिक पहचान का मुद्दा गहराता जा रहा है। जाहिर है उसके बाह्य लैंगिक प्रमाण पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में गुणसूत्रों की जांच ही अब एकमात्र भरोसेमंद और प्रामाणिक विकल्प बचा है। आश्चर्य है कि जिस देश में डीएनए विश्लेषण से पैतृकता तक की पहचान अब आम बात हो गयी हो वहां किसी के लिंग की पहचान को लेकर इतना घमासान मचा हुआ है जबकि अवैध रूप से लिंग पहचान का यह धंधा भारत की गली कूचो में बैठे डॉक्टरों तक चलता रहा है। मगर वहां मकसद कन्या भ्रूण की पहचान और गर्भ समापन का रहता है। जहां एक देश, एक व्यक्ति और समाज की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हो, वहां एक छोटी सी जांच का इतना लटकाया जाना आश्चर्य में डालता है। यह दूसरे देशों के सामने भी भारत में तकनीकी स्तर की अक्षमता का गलत नज़ारा पेश करता है।

बार बाडी से लिंग की पहचान 

वैसे भ्रूण के लिंग की जांच की प्रक्रिया जो अम्नियोसेंटेसिस कहलाती से लिंग की जांच सहजता से हो जाती है और पता लग जाता है कि भ्रूण लड़की का है या लड़के का....मतलब लड़की के दो लैंगिक गुणसूत्र समान होते हैं जो अंग्रेजी के एक्स एक्स सरीखे दिखते हैं। लड़के में एक एक्स आधा टूटा हुआ दिखता है। लेकिन वयस्क में इसी टेस्ट के लिए उसका कोई ऐसा ऊतक (कोशिका समूह ) जांच के लिए लेना होता है जिसमें कोशिका विभाजन तेज गति से चलता हो -जैसे अस्थि मज्जा (बोन मैरो)। बोन मैरो लेकर उसे अल्कोहल और एसिटिक अम्ल के एक निश्चित अनुपात में डालकर प्रिजर्व करने के बाद एक विधि जिसे कैरियो टाईपिंग कहते हैं के जरिये गुणसूत्रों का मानचित्रण होता है। अगर लैंगिक गुणसूत्रों के जोड़े असमान हैं मतलब एक एक्स दूसरा वाई तो वह लड़का है और अगर दोनों समान हैं तो लडकी मतलब एक्स एक्स। 
               
पुरुष गुणसूत्रों का प्रोफाईल 
एक  और जांच है जिसे बार बॉडी टेस्ट कहते हैं। इससे किसी महिला होने की सहज ही पुष्टि हो जाती है। यह बेहद आसान विधि है और मिनटों में संपन्न की जा सकती है। और इसका उतक केवल गालों की अंदरुनी खुरचन से ही मिल सकता है। इसमें मइक्रोस्कोप में एक ख़ास रासायनिक रंग से रंगे ऊतक में एक काला धब्बा दिखता है जो महिला होने की प्रामाणिक पुष्टि  है.  .                                                                                                        

                                                                                                                        
                                                                                                                        नारी गुणसूत्र 

ये दोनों तरीके भारत में भी सहज है आम हैं और पूरी दुनिया में दशकों से आजमाए जा रहे हैं मगर खिलाड़ी पिंकी का मामला इतना रहस्यमय क्यों बनाए रखा गया है, यह आश्चर्यजनक है और कई निहितार्थों की ओर संकेत करता है। क्या वह सचमुच एक एक्स वाई लड़का है? तब तो भारत की भी पूरी दुनिया में बड़ी किरकिरी होगी और कई लोगों पर कार्रवाई भी। क्या इसीलिए ही इस मामले को दबाया जा रहा है? जो भी हो आज की इस वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी समृद्ध दुनिया में ऐसे सच को ज्यादा दिनों तक दबाया नहीं जा सकेगा। सच अब बिना विलम्ब के हमारे और दुनिया सामने आ जाना चाहिए । अब यह किसी एक देश से जुड़ा मसला न होकर अंतरराष्ट्रीय बन चुका है।


मगर कई ऐसे मामले हैं जिनमें सेक्स का गुणसूत्रीय सत्यापन भी जटिल हो जाता है जो लैंगिक गुणसूत्रों के असामान्यता के चलते होता है .पिंकी प्रामाणिक का अगर ऐसा भी कोई मामला है तो भी वह सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा सकता ?
विशेष सूचना:ओलम्पिक असोसिएशन ने अब स्पर्धाओं में भाग लेने के लिए लैंगिक सत्यापन की बाध्यता समाप्त कर दी है!  


Tuesday, 12 June 2012

भारत में पहली बार मकड़ियों का हमला

ऐसी घटना भारत में पहले कभी नहीं घटी। असम के सादिया शहर में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान भगदड़ मच गयी जब रहस्यमयी मकड़ियों का एक विशाल झुण्ड न जाने कहां से आ गया। इन मकड़ियों ने लोगों पर हमला कर दिया। जिन्हें इन मकड़ियों ने डसा उनमें से दो के मरने की खबर है। हालांकि शवों का पोस्टमॉर्टम नहीं हो पाया मगर कुछ कीट विज्ञानी मानते हैं कि ये मकड़ियां विषैली रही होंगी। चूंकि भारत में ये मकड़ियां पहले कभी देखी नहीं गईं इसलिए इन्हें लेकर विश्वभर के कीट विज्ञानियों में जिज्ञासा है। यहां तक कि विश्व प्रसिद्ध टाइम पत्रिका ने भी इस खबर को प्रमुखता से 4 जून 2012 के अंक में प्रकाशित किया है। मकड़ियों का यह आक्रमण पिछले महीने में देखा गया था और एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार ने इस पर ख़ास 'स्टोरी' की थी।
टैरनटूला   से मिलते जुलते  ऐसे ही थे वे मकड़े 

डिब्रूगढ़ और गुवाहाटी विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानियों ने इस मकड़ी या मकड़े को पहचानने में असमर्थता व्यक्त की है मगर कहा है कि ये विश्व के एक खौफनाक विशाल मकड़े टैरनटुला के परिवार की हो सकती हैं। एक दूसरे कीट विज्ञानी ने कहा कि यह दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया मूल की मकड़ी ब्लैक विशबोन हो सकती है। मगर ऑस्ट्रेलिया की मकड़ी आखिर यहां कैसे आ पहुंची? मधुमक्खियों का झुंड में हमले करना एक आम घटना है और हॉलीवुड की कई फिल्मों में मधुमक्खियों के झुंडों में हमले के खौफनाक दृश्य भी दिखाए गए हैं। हालांकि हॉलीवुड मकड़ियों के हमले पर भी फिल्में बना चुका है। '8 लेग्ड फ्रीक्स' काफी चर्चित हुई थी। मगर मकड़ियों/मकड़ों का ऐसा आक्रमण कम से कम भारत में तो अब तक कहीं से सूचित नहीं है।
'8 लेग्ड फ्रीक्स' का एक दृश्य 
ब्रितानी प्रकृति विज्ञानी विजय के सिंह ने कहा है कि मकड़ियों का झुंड में हमला करना एक बहुत कम घटने वाली घटना है। उनके अनुसार पर्यावरण में हुआ कोई असामान्य परिवर्तन उनकी जनसंख्या वृद्धि को उकसा सकता है। जैसे पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में बाढ़ के पश्चात मकड़ियों के एक विशाल झुंड ने खेतो को मकड़जालों में तब्दील कर दिया था। पाकिस्तान में भी आयी विशाल बाढ़ के पश्चात मकड़ियों ने पेड़ पौंधों को मानो ढक सा दिया हो। सदिया की मकड़ियों को पहचान के लिए महाराष्ट्र के मकड़ी संस्थान (इन्डियन सोसायटी ऑफ अरैक्नोलॉजी) को भेजा गया है।
बहुत से लोग कई तरह के जीव जंतुओं को डर के चलते भरीपूरी आंख से देख भी नहीं सकते। मकड़ी ऐसे टॉप टेन भयावने जंतुओं की सूची में है। गोलियेथ टैरनटुला सबसे बड़ा मकड़ा है जो छोटी हमिंग चिड़ियों को भी अपना शिकार बना लेता है। यह एक फुट तक बड़ा हो सकता है और इसके विषदंत भी काफी बड़े होते हैं। माना जा रहा है कि सादिया का मकड़ा इसी नस्ल से मिलता जुलता है। इस तरह के मकड़ा-आक्रमण ने भारतीय मकड़ी विज्ञानियों की पेशानी पर बल ला दिया है। आगे की खोजबीन जारी है।

Monday, 4 June 2012

सूर्य पर शुक्र की चहलकदमी


जी हाँ आप भारत के किसी भी हिस्से से कल सुबह उठते ही एक बहुत दुर्लभ अद्भुत आकाशीय नज़ारा देख सकेगें जिसे शुक्र का पारगमन कहा जाता है .दरअसल यह सूर्य पर शुक्र का ग्रहण है .ठीक वैसे ही जैसे सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण वैसे ही शुक्र ग्रहण ..मतलब सूर्य और धरती के बीच अपने परिक्रमा पथ पर शुक्र का आ टपकना..अब जब चंद्रमा सूर्य और धरती के बीच होता है तो चंद्रमा की पूरी चकती सूर्य को ढक लेती है- कारण यह कि नजदीक होने से चंद्रमा की चकती सूर्य की चकती के बराबर ही लगती है ..मगर शुक्र तो दूर होने से काफी छोटा लगता है और इसलिए यह सूर्य की बड़ी चकती पर बस चहलकदमी करता नज़र आता है ...कहने भर को ग्रहण होना चरितार्थ करता है ....और यह पूरा तमाशा सात घंटे चलेगा और इस बीच शुक्र सूर्य की चकती के इस पार से उस पार हो जाएगा -बस यही तो है शुक्र पारगमन जिसे लेकर इतना हौवा मचा हुआ है .
मगर यह एक दुर्लभ दृश्य इसलिए है कि जल्दी जल्दी नहीं घटता .अगला शुक्र पारगमन ११ दिसम्बर २११७ को घटित होगा और तब हम आप इस दुनिया में नहीं होंगे ....जाहिर है इस शताब्दी में यह अंतिम अवसर है इस आकाशीय नज़ारे को देखने का .....पिछली बार यह जून ८ ,२००४ को घटित हुआ था . दरअसल प्रत्येक २४३ वर्षों  में यह घटना जोड़ों में घटती है -इस शती में २००४ और २०१२ में यह घटना घटी है -इसके पहले जोड़े में आठ वर्षों के अंतराल पर १८७४ और १८८२ में घटी थी . इस नयनाभिराम दृश्य को सीधे नहीं देखा जा सकता .बल्कि ख़ास चश्मों से या रिवर्स इमेज तकनीक के सहारे जिसमें दूरबीन को सूर्य की ओर  बिना देखे फोकस कर रिवर्स तस्वीर कागज़ पर ली जाती है और घटना की प्रगति देखी जाती है . ऐसी तस्वीरो में सूर्य की चमकदार चकती पर शुक्र का काला धब्बा आगे बढ़ता हुआ दिखता जाता है .इस बार यह लगभग सात घंटे का मजमा है .

 भारत में कई वेधशालाएं इस दृश्य को आम लोगों को दिखाने का जतन   कर रही हैं .आप अपने शहर में ऐसे किसी अस्ट्रोनोमी क्लब ,या वेधशाला तक पहुँच कर इस दृश्य का लुत्फ़ उठा सकते हैं .या फिर इस मकसद हेतु ख़ास तौर पर बनाए काले चश्मों से सीधे भी देख सकते हैं या फिर वेबकैम के जरिये कम्प्युटर पर भी देख सकते हैं -कोई जुगाड़ न हो पाया तो परेशान न हो इस  वेबसाईट पर जाकर इस घटना क्रम के पल पल की जानकारी और दृश्य देख सकते हैं . टी वी भी इस दृश्य को फोकस करेगें ही ....हाँ इतना जरुर गाँठ बाँध लें कि दुर्लभ होने के बावजूद भी यह एक सामान्य खगोलीय  घटना ही है और मनुष्य के ऊपर इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पढने वाला है . अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन से इस बार इस घटना को कैमरे में कैद करने की तैयारी है .यह वीडियो  देखिये -




Monday, 28 May 2012

वे बड़े कि हम ......


मनुष्य के संज्ञानबोध का फलक बहुत सीमित है .हम एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के उपरी छोर के गामा विकिरणों और निचले स्तर के अल्ट्रा वायलेट फ्रीक्वेंसी के बीच हिस्से के प्रति ही संवेदित हो पाते हैं ,उसका संज्ञान ले पाते हैं . यही हमरा दृश्य क्षेत्र है . इसे हमारा दृश्य संवेदी अंग रंगों में देखता है जहाँ नीले के ठीक ऊपर अल्ट्रा वायलेट -परा बैगनी क्षेत्र है जिसे कीट पतंगे तो देख लेते हैं मगर हम नहीं ...यही बात आवाज के साथ भी है जहाँ हमारी  सीमाएं निर्धारित हैं -चमगादड़ उच्च तरंग दैर्ध्य वाली वे परा ध्वनियाँ सुन लेते हैं जिनका हमें भान  तक नहीं होता ...और हाथी बहुत कम तरंग दैर्ध्यो वाले आवाज में संवाद कर सकते है और वह भी हमारे पल्ले नहीं पड़ता . 

कुछ मछलियाँ विद्युत् तरंगों के सहारे गंदे पानी में भी गंतव्य तक जा पहुँचती हैं और यह क्षमता  भी मनुष्य में नदारद है . हम धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की अनुभूति से भी वंचित हैं जिसका लाभ उठाकर बहुत से पक्षी प्रवास गमन करते हैं . और हम बरसात के बादल भरे  दिनों  में आकाश के उन सूर्य -प्रकाश के ध्रुवित पुंजों को भी लक्षित नहीं कर पाते जिनसे मधुमक्खियाँ सहारा पा अपने छत्ते और फूलों के बीच आने जाने का  रास्ता तय करती हैं ... 

मगर हमारी सबसे बड़ी अक्षमता  है स्वाद और गंध के मामले की जिसमें हम सभी जीव जंतुओं से पिछड़ गए हैं .जीव जगत के ९९ फीसदी सदस्य चाहे वे बड़े जानवरों से लेकर कीड़े मकोड़े  तक क्यों न हो रासायनिक /गंध के इस्तेमाल से  संवाद कर लेते  हैं . इन रसायनों को वैज्ञानिक फेरोमोन कहते हैं . गंध की क्षमता में ब्लड हाउंड कुत्तों और रैटल स्नेक के सामने हम निरे लल्लू ही हैं ... अपनी गंध और स्वाद की अनुभूति की अक्षमताओं ने मनुष्य को इतना लाचार कर दिया है कि इनसे जुड़े बहुत से अनुभवों के लिए वह तरह तरह की उपमाएं ढूंढता फिरता है .. मतलब  गंध और स्वाद के बखान के लिए मनुष्य के पास बहुत कम शब्द संग्रह है . हालांकि मनुष्य इन कमियों की भरपाई के लिए तरह तरह के यंत्र /डिवाईस-जुगतें बना रहा है . कृत्रिम संवेदी नाक है तो जीभ की कृत्रिम स्वाद कलिकाएँ प्रयोगशालाओं में बनायी जा रही हैं जिनके लिए जीव जंतु माडल के रूप में चयनित किये गए हैं . 

नए प्रयोगों में  मनुष्य की निर्भरता जीव जंतुओं पर बढ़ती जा  रही है ..फिर भी हम अपने को सर्वोच्च मानने के मुगालते में ही हैं .... 

Thursday, 17 May 2012

दैत्याकार होते मनु पुत्र !

अभी इसी वर्ष की बीती फरवरी में  रूसी वैज्ञानिकों के एक अभियान दल ने अन्टार्कटिका में एक इतिहास रच दिया .विगत तकरीबन एक दशक से यहाँ के विपरीत मौसम में भी प्रयोग परीक्षणों में जुटे इन वैज्ञानिकों ने ठोस बर्फ की ३.२ किमी गहरी  खुदाई पूरी करते ही एक ऐसा दृश्य देखा कि अभिभूत हो उठे ...यहाँ एक ग्लेशियर नदी कल कल कर बह रही थी ...जो करीब ३.४ करोड़ वर्ष पहले से वहां दबी पडी थी और इतने लम्बे अरसे से सूर्य के किरणों से उसका मिलन नहीं हुआ था .यह युगों से शान्त स्निग्ध बहती जा रही थी .....अभिभूत वैज्ञानिकों ने इसका नाम रखा वोस्टोक...मगर  एक और पहलू भी था, वोस्टोक के जल में करोडो वर्षों पहले के माईक्रोब -सूक्ष्म जीव भी हो सकते थे जिनसे आज की मानवता परिचित नहीं है -और ये अनजाने आगंतुक किसी नयी महामारी को न्योत दें तब ? वोस्टोक के जल का ताप और संघटन बृहस्पति के एक उपग्रह /चाँद यूरोपा की प्रतीति कर रहे थे ...वैज्ञानिकों को यह सूझ कौंधी कि वोस्टोक के विस्तृत अध्ययन से सौर मंडल के समान पर्यावरण वाले ग्रहों -उपग्रहों ,ग्रहिकाओं का भी अध्ययन धरती पर बैठे ही हो सकेगा .. 
वोस्टोक 
ऊपर का दृष्टांत मनुष्य की अन्वेषी और सर्वजेता बनने की भी प्रवृत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करती है .आज मनुष्य ने धरती के  बर्फ से बिना ढके तीन चौथायी से अधिक के भू /जल भाग की जांच पड़ताल कर रखी है .मानव चरण वहां पड़ चुके हैं . और एक कहावत हैं न- जहं जहं चरण पड़े संतों के तहं तहं बंटाधार ...ऐसी ही स्थिति अब उजागर होने लगी है क्योकि मनुष्य जहाँ जहाँ पहुँच रहा है पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है ,प्रकृति का ताम झाम बिखर रहा है . धरती के ४.५ अरब के इतिहास में मनुष्य अभी कुछ पलों पहले ही अवतरित हुआ है मगर कारनामें ऐसे कि धरती के तीन चौथायी हिस्से पर कब्ज़ा हो चुका है .. दुनिया  के ९० प्रतिशत पेड़ पौधे मनुष्य की छाया में आ गए हैं . अब तक हमने कितने ही वनों उपवनों को उजाड़ डाला है और हजारों प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का दुष्कृत्य कर डाला है मगर हमारे पाँव अभी थमे नहीं हैं . सागरों को हमने अपनी गतिविधियों से मथ डाला है ,सागर संपदा का भयंकर दोहन किया है ,मछलियाँ खात्में के कगार पर हैं ..समुद्रों  में भी कई 'रेगिस्तानी जोन' बन गए हैं जो सीधे सीधे हमारी गतिविधियों की ही देन हैं .

मनुष्य की गतिविधियाँ इतनी तेजी से धरती का हुलिया बिगाड़ रही हैं जो वैज्ञानिकों की पेशानी पर बल डाल रही हैं .अभी तो १०-१२ हजार साल पहले ही  धरती एक हिमयुग से मुक्त हुयी और मानव ने खुद का विस्तार शुरू किया था ...और इतने शीघ्र सब कुछ इतना बदल गया? कहने को तो यह धरती युग 'होलोसीन इपोक'  कहलाता है मगर वैज्ञानिकों ने इस युग का नया नाम ढूंढ लिया है -अन्थ्रोपोसीन, मतलब मनुष्य का युग .यह नामकरण देते हुए नोबेल लारियेट  पौल क्रुटजेन ने कहा है कि" मनुष्य और प्रकृति के बीच वस्तुतः अब कोई लड़ाई ही न रही ,यह अब एकतरफा मामला है -अब मनुष्य ही यह निर्णय कर रहा है कि कुदरत का क्या होना है और भविष्य में वह कैसी रूप लेगी ? "

 अभी मुश्किल से १५-२० हजार साल पहले तक मनुष्य केवल एक गुफावासी आखेटक हुआ करता था ,फिर तकरीबन दस हजार वर्ष पहले से ही मनुष्य ने  कृषि कर्म अपनाया और धरती का चेहरा बदलने लगा . आज धरती के  बर्फ से रहित भाग का ३८% कृषि योग्य जमीन में तब्दील किया जा चुका है ..बर्फ पर खेती संभव नहीं हो पायी है नहीं तो वह वहां भी हरियाली बिखेर चुका होता ..कहते हैं कृषि के चलते मनुष्य की रक्तबीजी जनसंख्या भी बढ़ चली है . मगर १८०० की औद्योगिक क्रान्ति ने तो मनुष्य की विकास की गतिविधियों में मानों एक "विस्फोट ' सा कर दिया ....और अन्थ्रोपोसीन युग की नींव डाल दी ....हम देखते देखते १ अरब से सात अरब के ऊपर जा पहुंचे हैं और हमारे इस तेज वंश वृद्धि पर प्रसिद्ध समाज जैविकीविद ई ओ विल्सन ने चुटकी लेते हुए कहा है कि यह वृद्धि तो जीवाणुओं की प्रजननशीलता को भी मात करती है . आज धरती पर मनुष्य का जैवभार उन सभी दैत्याकार छिपकलियों -डायनासोरों से भी सौ गुना ज्यादा हो चुका है जिनका कभी धरती पर राज्य था ...
इतनी बड़ी महा दैत्याकार जनसंख्या  के पोषण में हमारे कितने ही खनिज ,तेल आदि संसाधन स्वाहा हो रहे हैं . अन्थ्रोपोसीन धरती का बुरा हाल किये दे रहा है . इसके अंगने में अब प्रकृति का कोई काम ही नहीं रहा ....नैसर्गिकता के दिन लद चले हैं ...हाँ संरक्षणवादियों चिल्लपों तो मची है मगर उनकी आवाज विकास के पहिये के शोर में अनसुनी सी रह जा रही है . आखिर हम धरती को अब और कितना रौंदेगें? मगर क्या कोई विकल्प बचा भी है ? 

Wednesday, 9 May 2012

चलो गूगल में देख लेगें ....याद क्या करना!

अंतर्जाल प्रेमियों की कमज़ोर होती याददाश्त अंतर्जाल ने सूचनाओं का एक ऐसा जखीरा हमारे सामने ला दिया है कि हमें अब कहीं और जाने की जरुरत नहीं है .बाद गूगल पर गए और इच्छित जानकारी ढूंढ ली . न लाईब्रेरी की ताक झांक ,न किताब की दुकानों या  घर के शेल्फों पर नजरें दौडाने की जहमत . अंतर्जाल के सर्च इंजिनों पर  सूचनाओं की सहज उपलबध्ता की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसा कि कोई शायर कह गया है ,दिल में सजों रखी है सूरते यार की जब मन मन चाहा देख ली....मगर मस्तिष्क विज्ञानियों ने एक खतरा भांप लिया है .उनका कहना है यह मनुष्य की याददाश्त को कमज़ोर कर देगा . पहले सूचनाओं से साबका होने पर लोग उसे याद करके मस्तिष्क  में सुरक्षित रखते थे .मगर अब पैटर्न बदल रहा है ..लोगों का एक लापरवाह रवैया हो गया है कि चलो गूगल में देख लेगें ....

प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध पत्रिका 'साईंस' में   कोलम्बिया विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर बेट्सी स्पैरो के छपे अध्ययन में खुलासा हुआ है कि अंतर्जाल युग में नवीन जानकारियों -सूचनाओं को प्रासेस करने के तीन चरण हैं .पहला तो यह कि अगर  हमें किसी प्रश्न की जानकारी प्राप्त करनी है तो अगर घर में हैं तो तुरत घर के पी सी और अगर बाहर  हैं तो अगल बगल के वेब ढाबे का रुख करते हैं बजाय इसके कि यह ठीक से उस प्रश्न को समझ लें . जैसे जब अध्ययन के 'सब्जेक्ट ' विद्यार्थियों से जब यह पूछा गया कि उन देशों का नाम बताईये जहाँ के झंडे में केवल एक रंग है तो लोगों के दिमाग में झंडे नहीं बल्कि कंप्यूटर उभर आया ..जबकि ऐसे सवालों के प्रश्न में पहले लोगों के मन में झंडों और देशों का चित्र उभरता था .. दूसरी समस्या है की नयी जानकारी मिलने पर अब तुरत फुरत उसका यथावश्यक इस्तेमाल तो कर लेते हैं मगर उतनी ही तेजी से भूल भी जाते हैं . अब जैसे यह जानकारी कि कोलंबिया शटल हादसा फरवरी २००३ में हुआ था अध्ययन के छात्रों को देते हुए उनमें से आधे को  कहा गया कि यह जानकारी उनके कंप्यूटर में 'सेव' रहेगी जबकि आधे छात्रों को बताया गया कि यह तारीख मिटा दी जायेगी ....बाद में देखा गया कि जिन्हें यह बताया गया था कि जानकारी मिटा दी जायेगी उन्हें यह तारीख याद रही जबकि दुसरे आधे समूह को यह तारीख ठीक से याद नहीं थी ...जाहिर है हम अपनी याददाश्त की क्षमता को तेजी से कम्यूटर को आउटसोर्स कर रहे हैं . 

शोधार्थी अब तक एक तीसरे प्रेक्षण पर पहुँच चुके थे -अब कोई भी नयी बात हम अपने दिमाग में रखने की पहल के बजाय यह उपक्रम करने में लग जाते हैं कि इसे हम कम्यूटर में कहाँ स्टोर करें ... मतलब हम तेजी से कम्यूटरों के साथ एक सहजीविता (सिम्बियाटिक ) रिश्ता बनाते जा रहे हैं ..मतलब कम्यूटर हमारी याददाश्त का संग्राहक बन रहा है . मनोविज्ञानी इसे  ट्रांसैकटिव मेमोरी का नाम देते हैं . इस तरह की 'ट्रांसैकटिव मेमोरी' का उदाहरण हम अक्सर घर में दम्पत्ति के कार्य बट्वारों में देखा जाता है -जैसे पत्नी को बच्चे के फीस आदि जमा करने की याद रहती है तो पति को कई तरह के बिलों के भुगतान की तारीख करनी होती है .अब यह सारा जिम्मा कंप्यूटर के पास जा रहा है . 

मगर इस प्रवृत्ति से मनुष्य के सामने याददाश्त ही नहीं चिंतन और तार्किकता के क्षरण का भी प्रश्न उठ खड़ा हुआ है ...कौवा कान ले गया यह सुनते ही कान देखने के बजाय कौवे की खोज हास्यास्पद है .इसी तर्ज पर कई जानकारियाँ मनुष्य अपने दिमाग पर जोर देकर और संदर्भों के अनुसार दे सकता है .हर जानकारी के लिए कम्यूटर का सहारा लेना एक ऐसी ही प्रवृत्ति है .गूगल जानकारी ढूंढ सकता है ,संदर्भों की सूझ तो खुद हमें होनी चाहिए . गूगल संदर्भ थोड़े ही ढूंढेगा . और यांत्रिकी पर पूरी तरह से निर्भर होते जाना भी कतई ठीक नहीं है .यह हमारी मनुष्यता भी हमसे छीन लेगा..  

Monday, 2 April 2012

तितलियों के काले पंखों से अब ऊर्जा की इन्द्रधनुषी आभा


नए ऊर्जा स्रोतों की तलाश इक्कीसवी सदी की कतिपय बड़ी चुनौतियों में से एक है .एक सम्भावना पानी और सूरज की रोशनी से प्राप्त की जा सकने वाली हाईड्रोजन गैस है जो हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति में मददगार हो सकती है. यह प्रक्रिया एक ऐसे प्रविधि से संभव है जिसमें सूर्य के प्रकाश से उन उत्प्रेरकों के काम में तेजी लाई जाती है जो पानी को आक्सीजन और हाईड्रोजन के घटकों  में तोड़कर मुक्त कर सकें ...इस काम के लिए सूर्य की रोशनी के बड़े संग्राहकों की जरुरत है .

सैन डियागो में अभी २६ मार्च को संपन्न एक वैज्ञानिक गोष्ठी में कुछ शोधकर्ताओं ने ऐसी ही एक प्रविधि का विवरण प्रस्तुत किया है .तोंग्क्सियांग फैंन  ने तितलियों की दो प्रजातियोंत्रोइदेस  एअचुस, और  पपिलियो  हेलेनुस   के पंखों में सूर्य की रोशनी को कैद करने के ऐसे ही गुण को देखा परखा है . तितली के पंख सूर्य ऊर्जा को सहजता से कैद करने की नैसर्गिक क्षमता लिए हुए हैं . कीट विज्ञानी यह पहले से ही जानते आये हैं कि तितलियों के पंख के शल्क (स्केल्स) सूर्य की ऊर्जा को शोषित कर जाड़े के ठण्ड दिनों में भी इन नन्हे कीटों  को गरम बनाए रखने में मददगार रहते  हैं . अब शंघाई टैंग विश्वविद्यालय के शोध छात्र डाक्टर फैन की अगुयायाई में इसी प्रविधि की नक़ल कर कृत्रिम तरीके से बड़े सौर संग्राहकों के निर्माण में जुट गए हैं ...

प्रयोग प्रेक्षण में ली जाने वाली तितलियाँ काले पंखों वाली हैं जिनसे ऊर्जा का बड़े पैमाने पर शोषण तो होता है मगर अपक्षय बहुत कम ...वैज्ञानिक इसी तरह की प्रौद्योगिकी के विकास में जुट गए हैं ..इसके लिए तितलियों के पंखों पर के शल्कों की बड़े बारीकी से जांच चल रही है और ऐसी ही एक कृत्रिम प्रतिकृति के निर्माण पर जोर है ...शल्कों की रचनाएं कई कोणों वाली हैं -और ऐसे पदार्थ पर अनुसन्धान चल रहा   है जो इनकी  प्रतीति  कर सके ..अभी तो तितलियों के वास्तविक पंखों को ही टेम्पलेट के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है और उन्हें 'डिप-कैलसिनिंग' प्रक्रिया से टाईटनम  डाई आक्साईड में बदला जा रहा है ...

काले पंखों का जादू 
ज्ञात हो कि टाईटनम  डाई आक्साईड में पानी को हाइड्रोजन और आक्सीजन में तोड़ने की क्षमता है .इसी तितली पंख उद्भूत टाईटनम  डाई आक्साईड के ऊपर प्लैटिनम नैनो पार्टिकल के लेपन से इसकी आक्सीजन  -हाइड्रोजन विलगन क्षमता को बढ़ाने में भी सफलता मिली है .यह अनुसन्धान बायोमीमिक्री की नयी शाखा के एक बड़े लाभकारी उपयोग की संकेत दे रही है -तितलियों  के काले पंखों का जादू अब ऊर्जा की इन्द्रधनुषी आभा बिखेरने को बेताब है ..