Tuesday, 8 June 2010

आईये मनोविज्ञान और व्यवहार शास्त्र के फर्क को समझें!

मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन है-फ्रायड,कार्ल जुंग  से लेकर पैवलाव तक की व्याख्याओं से इसकी पीठिका तैयार हुई है ...किन्तु उत्तरोत्तर यह विचार बल पाने लगा कि चूंकि मनुष्य एक लम्बे जैवीय विकास का प्रतिफल रहा है अतः उसका अध्ययन एकदम से 'आइसोलेशन ' में नहीं किया जाना चाहिए ! जिन्हें मनोविज्ञान विषय का पल्लव ग्राही (सतही ) ज्ञान  है वे यही समझते रहते हैं कि मनोविज्ञान केवल और केवल मनुष्य के व्यवहार का पूरी पृथकता में किया जाने वाला अध्ययन है जबकि यह सही नहीं है .पैवलाव ने कुत्तों पर प्रयोग करके  कंडीशंड रिफ्लेक्स की अवधारणा को बहुत खूबसूरत तरीके से सामने लाया था .पैवलाव ने क्या किया था कि कुत्तों को उनका आहार देने के पहले घंटी बजाने का एक नियमित क्रम रखा .बाद में उन्होंने देखा कि मात्र घंटी बजाने से ही कुत्तों के मुंह में लार की काफी मात्रा इकट्ठी हो जाती है -इस तरह उन्होंने प्रथम उद्दीपन स्रोत और दूसरे उद्दीपन स्रोत में एक सम्बन्ध स्थापित करा दिया! अब कुत्तों के मुंह में लार लाने के लिए खाना दिखाने की जरूरत नहीं थी बस घंटी का बजना पर्याप्त  हो गया था ---उन्होंने और आगे के मनोविज्ञानियों ने  मनुष्य के संदर्भ में इस प्रयोग के निहितार्थों  और प्रेक्षणों से मजेदार बाते जानी, बताईं -जैसे किसी प्रेम पत्र पर अगर कोई सुगंध भी छिडका गया हो तो वर्षों के अंतराल पर भी मात्र उस सुगंध के सम्पर्क से प्रेम पत्र का या कम से कम प्रेमी /प्रेमिका का चेहरा याद हो आएगा ! यह दो उद्दीपनो के आपसी जुड़ाव के  फलस्वरूप ही है -प्राथमिक  स्टिमुलस द्वीतीय स्टिमुलास से मानस में  जुड़ गया ....

जब मनुष्य के कई मूल व्यवहारों के उदगम और विकास की बातें शुरू हुईं तो उत्तरोत्तर यही सहमति बनी कि कई तरह के व्यवहार प्रतिरूपों के अध्ययन के लिए मनुष्य के वैकासिक अतीत के वर्तमान प्रतिनिधि जीवों -कपि वानरों का अध्ययन भी जरूरी है !

और तब एक नया शास्त्र उभरा -ईथोलोजी यानि व्यवहार शास्त्र जहाँ मनुष्य व्यवहार  का अध्ययन भी पशुओं के साथ और सापेक्ष ही किया जाना आरम्भ हुआ और आज यह एक समादृत अध्ययन क्षेत्र है ! इसके सबसे बड़े चैम्पियन रहे कोनरेड लोरेन्ज ,कार्ल वान फ़्रिश और निको टिनबेर्जेंन जिन्हें उनके जंतु व्यवहार के अतुलनीय योगदान  के लिए नोबेल से सम्मानित किया गया -आज के प्रसिद्ध व्यवहारविद  डेज्मांड मोरिस निको टिनबरजेंन के ही शोध छात्र रहे ...आज मनोविज्ञानी अपने अध्ययन और निष्कर्षों में व्यवहार विदों के नजरिये को सामाविष्ट करते हैं -क्योंकि मूल स्थापना यही है कि मनुष्य एक पशु ही है -हाँ एक सुसंस्कृत पशु ! मगर उसके पशुवत आचार अभी कायम हैं बस संस्कृति का  आवरण उस  पर चढ़ गया है ! लेकिन वह स्किन डीप  भी नहीं है ....हमारे समाज के कितने ही सुनहले नियम उसकी इसी पशु वृत्ति को नियमित करने में लगे हैं क्योकि उनकी उपेक्षा /अनदेखी नहीं की जा सकती ! 

अब जैसे सहज बोध -इंस्टिंक्ट को ले ...ज्यादातर जानवरों में यह बुद्धिरहित व्यवहार है -एक पक्षी ने समुद्र से ऊपर गुजरते हुए उस मछली के मुंह में चारा डाल दिया जो क्षण भर के लिए अपना मुंह हवा लेने के लिए खोल कर ऊपर उछल आई थी-चिड़िया के लिए यह उसके चिचियाते बच्चों की चोंच सरीखा लगा बस उसने चारा वहां डाल दिया -यह  बुद्धि विचार रहितसहज बोधगत व्यवहार है .बिल्लियों में शिकार की प्रवृत्ति सहज बोध है मगर हाँ उनकी माँ इस बोध को उन्हें सिखाकर और भी पैना ,सटीक ,त्रुटिहीन बना देती है ....मनुष्य में सहज बोध के भी अनेक उदाहरण हैं -नवजात बच्चा आँखों को देखकर मुस्कुरा पड़ता है -आँखों के चित्र को भी देखकर -यह वह अपनी सुरक्षा पाने की युक्ति में कुदरती तौर पर करता है -ताकि लोग उसकी देखभाल में लगे रहें! जो नवजात जितना ही मुस्कुराएगा उतना ही लाड प्यार और सुरक्षा पायेगा!  ---मनुष्य का नारी स्तन के अग्रकों के प्रति भी सहसा आकर्षित होना सहज बोध है ....विदेशों के कितने ही टोपलेस माहिला बैरा रेस्टोरेंट मे उन्हें ग्राहकों से अपने स्तन अग्रकों को बचाए रखने की बाकायदा  ट्रेनिंग दी जाती है -सहज बोध एक बुद्धिरहित आवेगपूर्ण व्यवहार है .

 चिड़िया ने मछली का मुंह खुला देखा बस आव न देखा ताव चारा उसके मुंह में डाल दिया -बुरा हो इस सहज बोध व्यवहार का जिससे चिड़िया के बच्चे चारे से वंचित हो रहे

खेदजनक यह है कि   बहुत से लोग इन अधुनातन ज्ञान विज्ञान की प्रवृत्तियों से  आज के इस सूचना प्रधान युग में भी अलग थलग बने हुए हैं जिनमे या तो उनका पूर्वाग्रह है या फिर वे अच्छे अध्येता नहीं है .ऐसे लोग समाज के लिए बहुत हानिकर हो सकते हैं -ज्ञान गंगा को कलुषित करते हैं और भावी पीढ़ियों को भी गुमराह कर सकते हैं -इनसे सावधान रहने की जरूरत है -एक विनम्र और गंभीर अध्येता इनसे  लाख गुना  बेहतर है! पुरनियों ने कह ही रखा है अधजल गगरी छलकत जाय !
इस विषय और भी कुछ कुछ अंतराल पर यहाँ मिलता रहेगा  आपको ! यह विषय केवल एक ब्लॉग पोस्ट में समाहित नहीं किया जा सकता है ! मगर यह परिचय जरूरी था ....विषय के सही दिशा देने के लिए ! 

आप को कुछ कहना है ? कोई क्वेरी ?


60 comments:

L.Goswami said...

सबसे पहले ethology की गलत परिभाषा पर प्रतिवाद है - Ethology is the scientific study of animal behavior ..मुर्ख किसे बनाते हैं ? अपने पाठकों को ?
आईये मनोविज्ञान और व्यवहार शास्त्र के फर्क को समझें! - पहले खुद समझ लीजिये फिर किसी को समझाइये.

मनोविज्ञान पर अपने ज्ञान को अद्यतन करिए ..तब प्रवचन दीजिये.

Arvind Mishra said...

@ज्ञानवती जी ,
मनुष्य अनिमल है यह एथोलोजी की मूल स्थापना है !

shikha varshney said...

सामग्री तो काफी रोचक है पर मेरी सिर्फ एक क्वेरी है ..आपने सारे शोध,सारे वैज्ञानिक और सारे उदाहरण पश्चमी देशों के दिए .. पर मुहावरा लेकर आप हिन्दुस्तान आ गए ( अधजल गगरी छलकत जाये)क्या वहाँ के मनुष्यों ओर भारतीय मनुष्यों के मनोविज्ञान में फरक नहीं ?.

L.Goswami said...

मनुष्य एक सामजिक प्राणी है - यह साइकोलाजी की मूल अवधारणा है. इतना आपा काहे खो रहे हैं ..जवाब देने बैठे हैं तब दीजिये.

Arvind Mishra said...

@है तो प्राणी ही ....फ़रिश्ता नहीं है अवतरित नहीं हुआ आसमान से !
आप आप खो रही हैं ....और खोने का मौका दे रही हैं -
यहाँ प्रवचन नहीं हो रहा है गंभीर विमर्श है ...
आप संयत रहें और संयत व्यवहार पायें
नहीं तो मनुष्य अब भी सहज बोधों से मुक्त नहीं है !
ध्यान से पूरा लेख पढ़ें ! चिहुंक चिंहुक कर जवाब ने दें कृपया !

L.Goswami said...

चिहुंक के जवाब देने की आदत आपकी है मेरी नही - और इस प्रवृति की और मैं पहले ही इशारा कर चुकी हूँ क्योंकि आपकी सहज वृति मुझे ज्ञात है. आपके उपरोक्त ५० साल पहले दिए शोध परिपेक्ष्यों के बाद ही थार्नडाइक ने दिखाया की ऐप्स में मनुष्य के छोटे बच्चे जीतनी भी सिखाने की क्षमता/तार्किकता नही होती .


थार्नडाइक ने इस दिशा में कई प्रयोग किये जिसके आधार पर उन्होंने अपने निष्कर्ष सामने रखे. उन्होंने बताया की पशुओं में सिखने की प्रक्रिया एक क्रमिक और यांत्रिक प्रक्रिया है जिसमे कोई तार्किकता नही पाई गई. पशुओं में सही अनुक्रिया कई प्रयासों से स्थापित होती है, और गलत प्रयोगों की संख्या धीरे धीरे कम होती जाती है. इसमें पशुओं में किसी प्रकार की सूझ (insight)अथवा तर्कपूर्ण चिंतन का प्रमाण नही मिलता है. थार्नडाइक ने अपना निष्कर्ष इन शब्दों में सामने रखा - "...failed to find any act that even seemed due to reasoning"

Arvind Mishra said...

@शुक्रिया -ये हुयी न कोई बात !
मैं इस पर कुछ लिखता हूँ !
जानवरों में रीजनिंग के कई उदाहरण हैं
उस प्यासे कौवे की कहानी याद है ?
यह सच भी है ! अनेक उदाहरण है !

L.Goswami said...

त्रुटी सुधार *बाद ही - के पहले ही
==============
लिखिए यह बहस लम्बी चलने वाली है.
कृपया शोध परिपेक्ष्य भी साथ देते चलें .

L.Goswami said...

@...और यह बताइए ...एथोलाजी तो प्राकृतिक वास स्थान में जंतु व्यवहार का अध्ययन है ..आप सिखाये हुए ट्रेंड पशुओं के उदहारण क्यों ले रहे हैं ?
वह Cognitive Ethology के अंतर्गत आता है . खैर लीजिये .. इतनी छुट है आपको ..अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

प्रवचन में हम अक्षत फूल ले हाथ जोड़ बैठे हैं।
कथा में बहुत से व्यासों की प्रतीक्षा है।

Arvind Mishra said...

@त्रुटि सुधार =त्रुटी नहीं त्रुटि
परिपेक्ष्य नहीं परिप्रेक्ष्य
कृपया अन्यथा न लें
अब अनदेखी नहीं कर सकता !

L.Goswami said...

@..मैं कुछ नही कर सकती ..मुझे फोंटिक कन्वर्टर में टाइपिंग की आदत नही है ...इसके लिए खेद है

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

बहुत बार वर्तनी दोष का कारण 'ग़लत उच्चारण' होता है, टाइपिंग टूल नहीं।

हमरा विषै था सो कह दिए बाकी आप लोग कथा विपर्यय न कीजिए। यह अनुरोध है।
विपर्यय का सही प्रयोग किए कि नहीं?

सतीश पंचम said...

@ थार्नडाइक ने इस दिशा में कई प्रयोग किये जिसके आधार पर उन्होंने अपने निष्कर्ष सामने रखे. उन्होंने बताया की पशुओं में सिखने की प्रक्रिया एक क्रमिक और यांत्रिक प्रक्रिया है जिसमे कोई तार्किकता नही पाई गई. पशुओं में सही अनुक्रिया कई प्रयासों से स्थापित होती है, और गलत प्रयोगों की संख्या धीरे धीरे कम होती जाती है. इसमें पशुओं में किसी प्रकार की सूझ (insight)अथवा तर्कपूर्ण चिंतन का प्रमाण नही मिलता है. थार्नडाइक ने अपना निष्कर्ष इन शब्दों में सामने रखा - "...failed to find any act that even seemed due to reasoning"

अभी पिछले हफ्ते ही डिस्कवरी पर life कार्यक्रम में देख रहा था कि किसी स्थान पर बंदर जमीन पर कड़ा स्थान देख बहुतायत में पाए जाने वाले स्थानीय नारियल को रखते थे और उपर से पत्थर हाथों से उपर उठा नारियल पर पटक देते थे। इस तरह गरी निकाल कर खाते थे।

ध्यान देने वाली बात है कि कई बार नारियल फूटते और कई बार पत्थर कमजोर होने पर पटकने से टूट जाते। तब बंदर कड़े पत्थर को पहचान कर उसे पटक गरी निकालते।

अब यहां बंदरों द्वारा कड़े पत्थर की समझ रखना किस थोलोजी.....ओलोजी...आदि के अंतर्गत आता है यह मेरी जिज्ञासा है।

वैसे आप लोग पहले अपनी बहस पूरी कर लें....हम भी गिरिजेश जी की तरह शांत हो सुन रहे हैं....जब आप लोग निपट लें एक दूसरे से शास्त्रार्थ के बाद तब हो सके तो मेरे इस जिज्ञासा को शांत करें कि बंदरों का यह सहज व्यवहार किस क्लास में आता है :)

यह जिज्ञासा आने का मूल कारण भी आप लोगों द्वारा किया जाने वाला क्लासिफिकेशनात्मक विवेचन ही है क्योंकि पशुओं में यदि तर्कपूर्ण चिंतन नहीं हैं तो आखिर वह कड़े पत्थर और नर्म पत्थर की पहचान कैसे कर पाते हैं ?

L.Goswami said...

@गिरिजेश जी - पिछली पोस्टों में लिखी स्पेलिंग से मिला कर देखें ..i और ee का आउट पुट एक सा आता है ..तंग आ जाती हूँ ..कितना सुधारती रहूंगी.

L.Goswami said...

@सतीश जी - उन्होंने बताया की पशुओं में सिखने की प्रक्रिया एक क्रमिक और यांत्रिक प्रक्रिया है जिसमे कोई तार्किकता नही पाई गई. पशुओं में सही अनुक्रिया कई प्रयासों से स्थापित होती है, और गलत प्रयोगों की संख्या धीरे धीरे कम होती जाती है. इसमें पशुओं में किसी प्रकार की सूझ (insight)अथवा तर्कपूर्ण चिंतन का प्रमाण नही मिलता है...आगे ....इसी प्रकार जैव आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद पशुओं का कोई भी कार्यकलाप उद्देश्यपूर्ण नही रह जाता है .. इसे मनुष्य के व्यवहार के समकक्ष देखे जाने की बात हो रही है ...आगे पोस्ट आने दीजिये ..बात तो होगी ही.

Arvind Mishra said...

@ सतीश जी ने बहुत अच्छा उदाहरण दिया है.शुक्रिया !
बहुत से पक्षी पत्थर पर तोड़ कर सीपियाँ का अंदरूनी जीव खाते हैं !

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ पल्लवग्राही - सुन्दर प्रयोग!

@ .. तरीके से सामने लाया था - 'ने' के साथ यह प्रयोग खटकता है। 'उद्घाटित किया था' या ऐसा ही कुछ कर दीजिए।
द्वीतीय - द्वितीय
उदगम - उद्गम
सामाविष्ट - समाविष्ट
टोपलेस माहिला - टॉपलेस महिला

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

उदहारण - उदाहरण
छुट - छूट

Arvind Mishra said...

गिरिजेश जी बोले तो कठिन वर्तनी के प्रेत !
कृपया सुधी जन तदनुसार सुधार कर पढ़ें !

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

ग़लत प्रयोग।
वर्तनी कभी कठिन नहीं होती।
आप को 'वर्तनी के कठिन प्रेत' कहना था न कि 'कठिन वर्तनी के प्रेत'।

सतीश पंचम said...

@ गिरिजेश जी बोले तो कठिन वर्तनी के प्रेत !

हा हा....सही....एकदम रापचीक :)

लेकिन इन प्रेत जी का ही कमाल था कि मेरी इसराफील कविता में एक महत्वपूर्ण दोष जो छिपा था उसकी ओर इन्होंने ध्यान दिलाया था ।

इसलिए ऐसे प्रेत को जरूर निकट रखना चाहिए :)

Arvind Mishra said...

आप को 'वर्तनी के कठिन प्रेत' कहना था न कि 'कठिन वर्तनी के प्रेत'।
पहले यही कहा था कहीं !

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

प्रेत दो प्रकार के होते हैं - आसान और कठिन। यह विद्या के किस विधा की स्थापना है ?

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

प्रवचन में श्रोता गण के अनावश्यक हस्तक्षेप और तद्जनित विषयांतर से हरि सुमिरन में बाधा आती है। सो अब चुप रहेंगे।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ लवली जी,
आप को ऑफलाइन हिन्दी टाइपिंग टूल मेल किया है। निर्देश भी साथ में हैं। प्रयोग कर के देखिए। विश्वास कीजिए दुबारा गुगल सुगल का प्रयोग नागरी टाइपिंग के लिए नहीं करेंगी।

mukti said...

गिरिजेश जी की तरह हम भी फूल-माला-अक्षत वगैरह लेकर बैठे हैं ...विषय का ककहरा भी नहीं मालूम. मेरा मानव-व्यवहार को लेकर जो भी निष्कर्ष होता है, वह सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन, कुछ प्रेक्षण और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर होता है...
विद्वानों से अनुरोध है कि कृपया सहिष्णुता बनाए रखते हुए इस ज्ञान-यज्ञ में आहुति दें... एवमस्तु.

mukti said...

अपि च, ऑफलाइन टाइपिंग के लिए बारहा पैड का प्रयोग उत्तम है. बस समस्या कट-पेस्ट की है... मैं अपने रिसर्च पेपर हिन्दी और संस्कृत में टाइप करने के लिए प्रयोग करती हूँ.
गिरिजेश जी से अनुरोध है कि यदि वह टाइपिंग टूल बारहा के अलावा कोई और है तो मुझे भी मेल कर दें. हो सकता है कि उससे अच्छा हो...

वाणी गीत said...

हम तो सिर्फ पढ़ रहे हैं ...!!

Arvind Mishra said...

@शिखा जी फर्क तो साफ़ है और यहाँ स्पष्ट ही है !
ज्यादातर विदेशी गंभीर और विनम्र अध्येता होते हैं मगर अपने देश में यह दिखावा है
क्षद्म बौद्धिकता भारतीय मनीषा को कोढ़ ग्रस्त कर रही है !

@गिरिजेश जी, कभी तो 'विषै' वमन से बाज आया करें -ठीक है मैं भी कभी ऐसा ही आनंद उठाऊंगा जैसा आप उठा रहे हैं !
दुनियाँ में बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपनी गलती नहीं मानेगें ..आप लाख जातां कर लें -वे सारी कायनात को पानी पी पी कर कोस डालेगें मगर अपनी गलती नहीं स्वीकार करेगें -आप ही सब गलत सलत मात्राएँ बताते हैं -हाँ नहीं तो !
और हाँ जैसे कठिन काव्य वैसे ही कठिन वर्तनी और आप उसके प्रेत ! हा हा ! चलिए प्रेत को तो सहन कर लेते हैं मगर कोई प्रेतिनी अब नहीं चलेगी ! ब्लॉग जगत में शोध विधा के श्रीगणेश की इन्गिति के लिए साधुवाद !
@मुक्ति जी , मनोविज्ञान की सहज जानकारी के लिए एतद्विषयक किताबें पढनी कतई जरूरी नहीं . सहिष्णुता -उदबोधन के लिए आभार !

उन्मुक्त said...

यहां पर गम्भीर विषय पर वार्ता हो रही है जिसमें मेरा कोई दखल नहीं। लेकिन कुछ बात हिन्दी टाइपिंग और वर्तनी की - इसके विषय में कुछ विचार यदि वह विषय परिवर्तन न माना जाय।
१- देवनागरी में टाइप करने की जितनी सुविधा और आसानी लिनेक्स में है उतनी विंडोज़ के किसी प्रोग्राम में नहीं। लिनेक्स का फोनेटिक की-बोर्ड विंडोज़ के फोनेटिक की बोर्ड से भिन्न है है। लेकिन उससे कहीं सरल और बेहतर। मैं सिफारिश करूंगा कि फिडोरा या उबुंटू स्थापित कर, प्रयोग करके देखें।
२- वर्तनी में गलती होने के कई कारण हैं।
(क) सबसे मुख्य कारण है जल्दबाजी। अक्सर टाइप करने में भूल हो जाती है। वर्डप्रेस में टिप्पणी भी संशोधित हो सकती है। मैं प्रयत्न करता हूं वहां गलती का सुधार कर दूं। यह आप हमेशा कर सकते हैं। इसमें कॉपीराइट का कोई हनन नहीं है। लेकिन यह ब्लॉगर में नहीं हो सकता।
(ख) उच्चारण की भिन्नता। यह सच है कि हिन्दी शब्दों के उच्चारण में भिन्नता तो गलती के कारण होती है पर कुछ न कुछ तो परिवर्तन होता रहता है और हम लिखते वही हैं जैसा बोलते हैं।
(ग) दूसरी भाषा के शब्दों का हिन्दीकरण करने में सबसे मुश्किल होती है। मैं नहीं जानता कि इसके बारे में क्या नियम है। मेरे विचार में जैसे उस भाषा में बोला जाता है वैसा ही लिखना चाहिये पर ऐसा होता नहीं है। उसका हिन्दीकरण कर दिया जाता है जो मेरे विचार से अनुचित है।
(घ) हिन्दी में कई उच्चारण इतने बारीक हैं कि वे बिरले ही समझ पाते हैं इसलिये उन शब्दों की वर्तनी गलत ही हो जाती है।

Arvind Mishra said...

@उन्मुक्त जी ,विषयांतर तो है मगर रुचिकर और स्वागत योग्य है और दोषी भी आप नहीं वर्तनी के कठिन प्रेत हैं :) !
गलतियाँ जल्दीबाजी और गूगल ट्रांसलिटरेशन के चलते भी हैं ... इनका आभास तो हो जाता है मगर जो लोग यांत्रिकता का बहाना लेकर अपना दोष छिपाते हैं वे खुद का ही नहीं भावी पीढी का भी अहित कर रहे होते हैं .गंभीर विषय विवेचन में भी जब गिरिजेश जी वर्तनी का रोना लेकर बैठते हैं तो कभी कभार मुझे भी गुस्सा हो आती है मगर मैं उसे किसी और के हित में नहीं स्वहित में स्वीकार करता हूँ -यहाँ बहानेबाजी अनुत्पादक है ,अंगरेजी में बोलें तो काउंटर प्रोडक्टिव !
आपने बहुत सुन्दर वर्तनी मुक्त टिप्पणी लिखी है मगर मैं कठिन काव्य प्रेत का आह्वान करता हूँ वे आयें और कम से कम एक गलती आपकी टिप्पणी या मेरे इस प्रत्युत्तर में निकाल दिखायें ! आओ प्रेत !
इन दोनों नामालूम प्रेत विनाशक न जाने कहाँ हैं ?

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर व ज्ञानवर्धक चर्चा । चिन्तन जारी आहे ।

seema gupta said...

आलेख भी और उन पर प्रतिक्रिया भी पढ़ लिया........कहना कुछ नहीं है......

regards

Anonymous said...

अरविन्दजी के इतना बताने के बाद भी कई लोग 'उत्क्रन्तिक मनोविज्ञान' से असहमति जाता रहे हैं. पर उनके पास सही वैज्ञानिक तर्क नहीं हैं, विरोध में दी जाने वाले तर्क दमदार नहीं हैं.

आपका ज़्यादातर व्यव्हार विश्लेषण सम्बन्धी ब्लॉग लेखन डेसमंड मोरिस के लेखन पर आधारित है, वह एक क्रन्तिकारी प्राणी व्यवहारविद हैं. पर उनकी पुस्तकें साठ के दशक में लिखी गई थीं, पर अब विज्ञान की यह शाखा भी इक्कीसवी सदी में पहुँच चुकी है, काफी नए शोध हुए हैं और मोर्रिस की कई अवधारणाओं में संशोधन और बदलाव किये गए हैं.

सब कुछ कहने सुनाने के बाद यह तथ्य तो रहता ही है की, उत्क्रन्तिक व्यवहारशास्त्र साक्ष्यों और टूटी कड़ियों को मिलाने का नाम है. वैज्ञानिक आपस असंगत लगने वाले तथ्यों को अपनी जानकारी, अनुभव, ज्ञान, विश्लेषण क्षमता और कल्पनाशक्ति द्वारा क्रमवार जोड़कर प्राणी व्यव्हार के पीछे के तर्क को समझने का प्रयास करते हैं. कितनी ही खो चुकी कड़ियों की जगह अनुमान के जुगाड़ से काम चलाना पड़ता है. ऐसे में संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों की सम्भावना पूरी तरह कैसे ख़ारिज की जा सकती है? इसीलिए संशय करने वालों को भी बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए, उनके तर्क भले लचर हों पर सवालों में दम है.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत बढिया पोस्ट और उतना ही बढिया शास्त्रार्थ।

L.Goswami said...

@ab inconvenienti @अरविन्द जी के उतना समझाने पर भी ..उनका चिंतन भी आप जैसा ही एकांगी है. समग्रता से आप लोग देखना नही चाहते क्योंकि इससे आपके हित नही सध रहे ... हर व्यक्ति वही सही मानेगा जिससे की उसके कलुषित कर्मो में व्यवधान उत्पन न हो ..व्यवहार वाद भी आज Behavior Management पर जा टिका है .. एक आप लोग है ५० साल पहले की खोज से मनुष्य के व्यवहार को इंटरप्रेट करना चाह रहे हैं. जिनके पीछे आपको अपने लचर तर्क है.

Arvind Mishra said...

@पहले तो यह कि काले कलुषित मंसूबों के हम लोग स्वच्छ पवित्र आत्माओं से कोई प्रतिवाद न करें !वे देवदूतियाँ हैं !
यह भी बताता चलूँ कि डेज्मोंन्ड मोरिस की प्रासंगिकता आज भी है ,उनकी अद्यतन ,२००७ की पुस्तक नेकेड वूमैन है -डार्विन १५० वर्ष पहलेरहे
केवल इसलिए ही वे आउट डेटेड नहीं हैं -आज डार्विनवाद को अगर जैविकी से निकाल दिया जाय तो जो कुछ बचेगा वह उल्लेखनीय नहीं होगा ..
बाद के व्यवहार विदों में ई ओ विल्सन हैं जो समाज जैविकी के प्रणेता हैं और डेज्मोंन्ड मोरिस को उन्होंने प्रचुरता से संदर्भित किया है -मैं निजी तौर पर डेज्मोंन्ड मोरिस आधुनिक डार्विन का दर्जा देता हूँ -जैसे स्टीफेंन हाकिंग को आज का आईनस्टीन कह सकते हैं ...है क्या मित्र कि गोबर पट्टी यह इसलिए है कि यहाँ बहुत लोगों को हांकने की आदते हैं -जिनके लिए ग्रामीण इलाकों में एक कहावत प्रचलित है -बिच्छू का मन्त्र न जाने सांप के मुंह में उंगली डाले -बेसिक्स ही नहीं पता पर चले हैं विवेचन करने....बहुत अफसोसजनक परिदृश्य है !

Anonymous said...

कहा कुछ जाता है लोग समझ कुछ लेते हैं!!!

मैंने कहा की नए शोधों से मोरिस के शोधों में कई नई बातें जुड़ी हैं, कुछ निष्कर्षों में बदलाव और कुछ संशोधित किये गए हैं. यह विज्ञान की सामान्य प्रक्रिया है, किसी का काम संपूर्ण नहीं होता, न किसी वैज्ञानिक की बात पत्थर की लकीर होती है. न्यूटन, डार्विन, मेंडल, आइन्स्टीन, फ्रायड, जुंग जैसों तक के कुछ सिद्धांत गलत या अधूरे पाए गए, इससे वे या उनका काम अप्रासंगिक नहीं हो जाता. बाकियों का तो पता नहीं पर मेरे कोई कलुषित कर्म नहीं हैं, न ही कोई हित सध रहा है. पर फिर भी मैं इसकी व्याख्या से काफी हद तक संतुष्ट हूँ.

जो मनोविज्ञान और मानव व्यव्हार अध्ययन में रूचि रखते हों उनके लिए एक लिंक :

http://www.psychologytoday.com/topics/evolutionary-psychology

L.Goswami said...

पहले अरविन्द जी पोस्ट पूरी कर ले ..फिर मैं इसका जवाब लिखूंगी ... ऐसे ४-५ लाइन के कमेन्ट से कुछ नही होने वाला है.

हर किसी की सीमाएं होती ही है ..आलोचना भी ..पर इन्सान के पास दिमाग भी होता है जो उन्हें सही से व्याख्यायित करके समाधान निकालता है. अब जब तक अरविन्द जी निष्कर्ष न लिख दें .मैं टिप्पणी नही करुँगी . आपका लेख पूरा हो जाए फिर मैं लिखूंगी.
@ab inconvenienti - आपसे कई मामलों में सहमत रही हूँ ..पर व्यवहार शास्त्र समय के साथ बहुत प्रोग्रेस कर चुका है ..मेरा मंतव्य उस और ध्यान दिलाना भी है. अरविन्द जी से मुझे कोई आशा नही है .. वे अक्सर जो करते आये हैं ..वही कर रहे हैं ..यानि व्यक्तिगत आक्षेप लगाना ..पर आपसे इस विषय में बात होगी.

L.Goswami said...

@ लिंक के लिए धन्यवाद वह ..और टॉप के सारे psychology विषयक इंग्लिश ब्लॉग मैं रेग्युलर ही पढ़ती हूँ.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहस बहुत अच्छी चल रही है। नतीजे निश्चित रूप से अच्छे ही होंगे। तीखापन भी है, लेकिन हम कोटा वालों को तो कचौड़ियों की आदत पड़ी हुई हैं, जिन में तेज मिर्चें होती हैं, गरम-गरम कड़ाही से निकलते ही सब को सब से पहले चाहिए। कतार खत्म होने के पहले कड़ाही से निकली कचौड़ियां खत्म हो जाती हैं। जब कि एक घाण में कम से कम तीन सौ निकलती होंगी। फिर खाने वाला सी...,सी... करता हुआ खाता जाता है, पर पानी के नल या टंकी के पास खड़ा हो कर।
सो इस तीखी मिर्चों के स्वाद वाली चर्चा मैं आनंद खूब है। बस ठंडे पानी की बोतल पास रखनी पड़ रही है। वैसे कोई बड़ा और मौलिक विवाद सामने नहीं आ रहा है। पर दोनों विषयों इथोलॉजी और साइकोलॉजी के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल रहा है। अरविंद जी और लवली जी से दोनों विषयों पर और भी बहुत कुछ जानने की इच्छा है।

L.Goswami said...

@दिनेश जी :-D ...इस व्याख्या के लिए आपकी निश्चय ही तारीफ की जानी चहिये ..."सुन्दर"
विवाद सामने आएगा यह पूर्व पीठिका है ... पहला मौका अरविन्द जी के पास है ...पहले वे लिख लें.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

@ उन्मुक्त जी,
सहमत हूं. लेकिन लिनेक्स नहीं लिनुक्स या लिनक्स
उबुन्तू और फेडोरा . :)
मैंने सबका प्रयोग किया है लेकिन लिनुक्स में ऋ और र से जुडी और मात्राए कष्ट देती हैं . मैं scim का प्रयोग करता हूँ. कोइ और राह हो तो बताइए .

@ अरविंद जी
- गुस्सा हो आती - गुस्सा आ जाता है. वैसे गुस्सा पुल्लिंग है.
- सुन्दर वर्तनी मुक्त टिप्पणी - सुन्दर वर्तनी दोष मुक्त टिप्पणी
- इन दोनों नामालूम प्रेत विनाशक न जाने कहाँ हैं ? - नामालूम इन दिनों प्रेत विनाशक कहाँ हैं ?

:)

Arvind Mishra said...

@इस अंतिम परीक्षा में भी आप उत्तीर्ण हो गए वत्स !इस धरती की निर्दंद्व उपभोग करो अब -वीर भोग्या वसुंधरा !

उन्मुक्त said...

Sorry I am writing in English. There is reason for that.

Girish ji, like I said, there is difficulty in writing words of different language in Devnagri. The words I wrote are names. In my opinion, they can be written as you write them or as I write them both are correct. It depends where you live and how it is pronounced at that place. But I am not an expert in this field and I could be wrong. Ajit ji is the right person to throw some light on it.

I had met a Finnish lady and did talk to her about Linux and then wrote a post 'हेलगा कैटरीना और लीनुक्स'. She did tell me the same pronunciation as you have told me. However I happen to talk technical people about it and when I pronounce लीनुक्स they laugh at me so I have changed.

There is no problem in SCIM so far as writing any ऋ और र से जुडी और मात्राए. If you could tell me the words then I can tell you how to write them. It is quite easy.

In phonetic keyboard in SCIM, you can write the following as
पृथ्वी = pRTvI
प्रार्थना = pfrarfTna
ऋ = ]
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दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने अपने इस आलेख में सहजबोध की बात की है। लेकिन मुझे यह सहजबोध मनुष्य का सामान्य व्यवहार नहीं लगता। मनुष्य में एक नई चीज विकसित हुई है और वह है, चेतना (consciousness)। मेरे विचार में एक वयस्क मनुष्य के व्यवहार में सहजबोध से बहुत अधिक उस की चेतना की भूमिका है।

उम्मतें said...

कई बार आये और टिप्पणियां पढ़कर दुखी मन से वापस लौटे भला इस तरह के माहौल में कोई भी प्रतिक्रिया सहज कहां रह पायेगी ? कुछ टिप्पणीकारों ने विषयांतर की कोशिश क्यों की होगी इसे समझा जा सकता है ! एक अच्छे खासे मुद्दे पर व्यक्तिगत समस्याओं जैसी प्रेत छाया और कटुता का अतिरेक ... कम से कम हमें अच्छा नहीं लगा ! कतिपय शब्द / संबोधन जिनके उपयोग के बिना भी बहस आगे बढ़ाई जा सकती थी पर... !
निवेदन मात्र इतना है कि गंभीर मुद्दों पर चर्चा के समय विनयशीलता अपेक्षित है ! कृपया यह भी सुन लीजिये कि हम जैसे मित्र आते तो संवाद की गरज से हैं पर अनघट के अंदेशे और अनहोनी की आशंका लिये पलट पड़ते हैं ! अतः अब आप ही तय करेंगे कि हम यहां ठहरें या प्रस्थान करें ?

Arvind Mishra said...

द्विवेदी जी ,
सहज बोध जैवीय विकास यात्रा में तंत्रिका तंत्र के क्रमिक विकास के आरंभिक चरण का एक प्रमुख व्यवहार प्रतिरूप है जो पूरी तरह नैसर्गिक /वंशानुगत व्यवहार है -कई कीट पतंग अपना पूरा जीवन चक्र सहज बोध /वृत्ति (एक ही है दोनों=इंस्टिंक्ट ) के प्रभाव में पूरा कर डालते हैं -तैतैये मिट्टी का घरौंदा बनाते हैं ,अंडे देते हैं मर जाते हैं -अन्डो से बच्चे निकल कर बिना माँ बाप के सिखाये ठीक वही व्यवहार अपनाते हैं .नवजात पक्षी लम्बी प्रवास यात्राओं पर चल देते हैं जबकि उनके माँ बाप उन्हें छोड़ पहले ही उड़ चले होते हैं -कौन दिखाता है उन्हें रास्ता ? यही सहज बोध है ! अनेक उदाहरण हैं !
आप दुरुस्त फरमा रहे हैं वयस्क मनुष्य में सहज बोध बस संभवतः सिक्स्थ सेन्स तक ही रह गया है -क्योंकि उसने तंत्रिका विकास में सर्वोच्च स्थान ले रखा है -बुद्धि का प्रयोग यहाँ प्रधान है ! मगर यह मनुष्य में पूरी तरह से लुप्त हो गया हो गया हो नहीं कहा जा सकता है ...बच्चों में सहज बोध की कुछ गतिविधियाँ दीखती हैं बाद में उनकी जगह अधिगम मतलब सीखना ले लेता है-Sci ब्लॉग पर .हम प्राणी व्यवहार में इन व्यवहार प्रतिरूपों का अध्ययन करते ही आये हैं और करते ही रहेगें -यह सब मेरे ज्ञान का प्रदर्शन नहीं बल्कि अपने अल्प अर्जित ज्ञान को बाँटने /साझा करने की एक कशिश भर है बस!
इन विषयों में बेसिक्स की सही समझ जरूरी है जिसके लिए गहन अध्ययन जरूरी है वरना सब गुण गोबर है !

Arvind Mishra said...

@अली सा ,आप पीड़ित हुए समझिये हम पीड़ित हुए ...
मगर दिल कड़ा करके रखिये न -
मनुष्य के इतिहास में ये स्थितियां कोई नवीन नहीं हैं
इनकी पुनरावृत्ति होती रही है -
मैं मुखौटों छल प्रपंच को पसंद नहीं करता ...
और ऐसी शक्तियां मुझसे दैव योगात टकराती तो हैं मगर अपना रास्ता नापती हैं
और समय के बियाबान में खो जाती हैं ...
ऐसा होता आया है फिर वही घटित हो रहा है !
इसमें कुछ भी नया नहीं !मेरा अंतर्बोध भवितव्यता को भांप रहा है !

L.Goswami said...

@अली जी - मैं कुछ नही बोलना चाहती थी .. ..आप देख सकते हैं मैंने पूरी बहस में सिर्फ अपने ऊपर लगाये गए आरोपों का ऊत्तर दिया है ..कोई कब तक बर्दाश्त करेगा ..कोई सीमा तो होती होगी ...?

..लोग व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि के लिए दूसरों का अपमान करने पर तुले हो ऐसे में विनम्रता बोझ लगने लगाती है. जैसा की मैं कह चुकी ... अब जब पूरा ज्ञान उलीच लें मित्रगन तब ही मैं जवाब दूंगी.

Anonymous said...

..लोग व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि के लिए दूसरों का अपमान करने पर तुले हो ऐसे में विनम्रता बोझ लगने लगाती है.

behas to abhi khatam nahin hui haen , padh rhaey haen par yae niskarsh nikalnae kae liyae itni behas ki jarurat kyun padi !!!!

Arvind Mishra said...

अली सा ,
मामला अब आपकी अदालत में पहुँच गया है हुजूर -मगर मुझे सुनवाई का अवसर दिए कोई फैसला मत सुना दीजियेगा हुजूर ! यह रहा कैवियेट -
अब देखिये न क्या क्या न कहा गया है मेरे खिलाफ अब तक -
(संदर्भ-http://anvarat.blogspot.com/2010/06/blog-post_05.html और यह पोस्ट )
"आपके उस भ्रम का निवारण करुँगी...जो आपको इस अंतिम स्थिति पर खिंच लाया है."
(भ्रम का निवारण -कौन करेगा ? मैं करूंगी ? विशेषज्ञता का आधार ? अंतिम स्थिति -कृपया पढ़ें पागलपन !)
"एक वाक्य तो आप मेरी लिखी मान्यता को गलत कोट कर न सके" .
( यह दंभ है या फिर ?किस बात का दंभ ? )

"मानव के व्यवहार का अध्ययन मनोविज्ञान में ही किया जाता ई ..और वो ही मेरा क्षेत्र है."
(इस घोषणा का कोई आधार ? इस विषय में कोई ख़ास डिग्री वगैरह ? )

-- कृपया अपने भ्रमो को जबरजस्ती मेरे उपर आरोपित न किया करे ..
(ऐसा कब किया? भ्रम और आरोपण -एक वाक्य में दो आरोप )
सहज वृत्ति की जड़ें आनुवंशिकी में निहित होती हैं - इस पर सिर्फ हँसा जा सकता है.
(ज्ञान का यही स्तर असली है )

भ्रम मिश्रित पूर्वाग्रह के साथ शेष जिंदगी चैन से महान होने का भ्रम पाले रहें ..
(भ्रम मिश्रित पूर्वाग्रह -मगर किसका ? शेष जिन्दगी -शीघ्र मृत्यु का श्राप! -आखिर इतना क्लेश क्यूं ? )
इतने आक्रामक मनुष्य के सामने जाकर मुझे फिजिकल वायलेंस का खतरा सताने लगता है
(आक्रामक मनुष्य ? फिजिकल वायलेंस -मुझ पर किसी भी अदालत में कोई ऐसा आरोप लंबित नहीं है -बिना पास्ट रिकार्ड देखे ऐसा गहन आरोप ? फिजिकल वायलेंस में बलात्कार भी आता होगा ? इसे प्रोवोकेशन समझा जाय ?
अभद्र व्यवहार और असभ्यता आपके लिए सामान्य बात है
(यह देखिये फैसला आ गया -मेरे कितने ब्लॉग मित्र ऐसा मेरे बारे में कहते हैं ? )
मनोविज्ञान में अपनी सीमाएं स्वीकार कर लीजिये . वरना यह अज्ञानतापूर्ण अहंकार बना रहेगा.
(यह किसका अहंकार बोल रहा है ?)
मुर्ख किसे बनाते हैं ? अपने पाठकों को ?
(यह भी एक महाज्ञानी होने का बोध ! )
पहले खुद समझ लीजिये फिर किसी को समझाइये.
(यह भी उपदेशात्मक !)
मनोविज्ञान पर अपने ज्ञान को अद्यतन करिए ..तब प्रवचन दीजिये
(यह भी ज्ञान वाणी !)
अब आप फैसला कीजिये !

Arvind Mishra said...

":लोग व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि के लिए दूसरों का अपमान करने पर तुले हो ऐसे में विनम्रता बोझ लगने लगाती है."
जी रचना जी ,यही तो मैं भी कहूं इत्ती से निर्णय के लिए इतना बहस ! कहकर पहले ही किनारा करतीं ....
And now she is pleading (for her) innocence before Ali Sa!

उम्मतें said...

@ एल.गोस्वामी जी और डाक्टर अरविन्द मिश्र जी

सबसे पहले देर से आने के लिये खेद ...कार्याधिक्य था सो समय पर प्रतिक्रिया नही दे पाये ! मित्रो सर्वप्रथम तो यह निवेदन कि यहां कोई अदालत नही है हम भी आपके समान इस मुद्दे पर अपने विचार रखने के अभिलाषी माने जायें !
अब आप दोनो महानुभावों से एक सवाल ...क्या यह सम्भव है कि विषय पर चर्चा के समय आप दोनों एक दूसरे को सम्बोधित किये बिना केवल विषयगत विचार प्रस्तुत करें ?
पहले क्या हुआ ? जो भी हुआ , बुरा हुआ ?
शल्य क्रिया ...आरोप प्रत्यारोप... समय लगेगा घावों के भरने मे ...! क्या आपको नही लगता कि हम सब पारस्परिक सौजन्यता के अधिकारी है ?
मित्रो अतीत को कुरेदने के बजाये अगर वर्तमान को 'सहज' कर आगे बढने की सम्मति आप दोनों दे सकें तो शुभचिंतकों को हार्दिक प्रसन्नता होगी ! केवल और केवल आग्रह...एक दूसरे को सम्बोधित करनें की बजाये 'मुद्दे' को अपने शब्द दें ! अपेक्षाओं सहित ! आदर सहित !

Arvind Mishra said...

उपर्युक्त लिंक पर मेरे निम्न विचार पोस्ट किये गए थे मगर उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया ....
यह अकादमीय सहिष्णुता और स्वस्थ परम्पराओं विरुद्ध है और अपने वैचारिक विरोधी को येन केंन प्रकार उपेक्षित करने
की कुटिल नीति है -ऐसा पहले भी हो चुका है -इन हथकंडों से क्या कभी गहन विचार विमर्श हो सकता है?
मैं अपनी टिप्पणी यहाँ अभिलेखार्थ ,आगामी यथावश्यक संदर्भ और सुधी जनों के परिशीलानार्थ हेतु प्रस्तुत करता हूँ-

१-डेज्मांड मोरिस के भी कुछ मुखर विरोधी हैं ,डार्विन के भी थे .....और हैं आज भी ...फिर भी उनकी जैव विज्ञान व्यवहार शास्त्र में आज एक सम्मानजनक पोजीशन है !
२-सहज बोध/वृत्ति और अनुवर्ती प्रतिवर्त दोनों अलग विषय हैं -एक नहीं ,आप अनुवर्ती प्रतिवर्त की चर्चा कर रही है जो मूलतः आनुवंशिक उद्गम का है -हाथ से अचानक छूती चीज को सहसा उठाने का उपक्रम एक ऐसा ही अनुवर्त है -खतरनाक भी हो सकता है -हाथ से छूता रेजर ,उस्तरा पकड़ने के चक्कर में आपके हाथ को घायल कर सकता है ..जाहिर है इसमें चेतनता का कोई रोल नहीं है !
३अपने आदिवासी औरतों की संकल्पना की जांच आप उन्हें वहां से दूसरे समाज लाकर कर सकती है ! उनके समाज में एक दूसरा व्यवहार हैबिचुयेशन प्रभावी होता है -रूस के कुछ क्षेत्रों में अनावृत्त बक्श महिलायें लोगों को आकर्षित करती हैं लोग तवज्जो ही नहीं देते -नंगा बाबा नंग धडंग घूमते हैं -कोइ प्रभाव नहीं रहता -यह हैबिचुएशन है !
अभी और पढ़िए !

Alpana Verma said...

मैं तो चित्र ही देखती रह गयी..पढ़ सब लिया लेकिन सिर्फ चित्र दिमाग पर अंकित हो गया..दोनों की मासूमियत , अजब दृश्य ..और नियति का खेल.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने कहा-
वयस्क मनुष्य में सहज बोध बस संभवतः सिक्स्थ सेन्स तक ही रह गया है -क्योंकि उसने तंत्रिका विकास में सर्वोच्च स्थान ले रखा है -बुद्धि का प्रयोग यहाँ प्रधान है !
इस के उपरांत शायद बहस का निष्कर्ष ही निकल आया है। मुझे लगता है कि लवली जी भी यही कहना चाहती हैं।

निर्मला कपिला said...

फूल् किसे चढायें इतने दिन से ध्यानलगा कर बैठे थे। गिरिजेश जी हुकम दें । सुन देख पढ रहे हैं दिल्चस्प विषय को
धन्यवाद । शुभकामनायें

कृष्ण मोहन मिश्र said...

लेख फिर उसके बाद हुये शास्त्रार्थ से खूब ज्ञानवर्धन हुआ ।
बहुत दिनों के बाद आया हूं । सुबह का भूला अगर दूसरे दिन की शाम को लौट आये तो भी उसे क्या आप भूला ही कहेंगे । आभार ।