आज भी नारियों की `गृह स्वामिनी´ की भूमिका सर्वोपरि और प्रकृति सम्मत है कदाचित वह इससे सर्वथा विमुख रहकर न तो स्वयं की और ना ही अपने परिवार को सुख-शांति प्रदान कर सकती है। नर आज भी घर के बाहर अपने उसी आदिम कपि का जज्बा लिए उन्मुक्त विचरण कर रहा है !
तो क्या नर के आधुनिक कार्यक्षेत्रों (जो प्राचीन शिकार क्षेत्रों के समतुल्य है) में नारियों का आना वर्जित होना चाहिए? क्योंकि इन कार्य क्षेत्रों में पुरुषों की टोलियों (प्राचीन नर शिकारी झुण्ड) का भ्रमण लाखों वर्षों से प्रकृति सम्मत रहा है। परन्तु पिछली एक दो सदियों और ख़ास कर विगत कुछ दशकों से स्थिति तेजी से ठीक इसके विपरीत होती जा रही है। पुरुषों के आधुनिक `शिकार क्षेत्रों´ में नारियों की भी घुसपैठहो चली है।यही नहीं उनकी आदिम भूमिकाएँ भी आमूल चूल रूप से बदलती दिख रही हैं -तेजी से रोल रिवर्जल हो रहा है ! क्या यह स्वंय नारियों, उनके परिवार और अन्तत: मानव समुदाय के लिए मुफीद साबित होगा ?
इन्हीं परिस्थितियों में हमारे जैवीय और सांस्कृतिक `मनों´ और मूल्यों में जोरदार संघर्ष होता है। मानव मन `व्यथित´ हो उठता है। वह सुख और शांति के बारे में नये सिरे से विचार करने लगता है। मगर उससे कहाँ भूल हो गयी है? इस प्रश्न पर उसका ध्यान नहीं जाता। सचमुच यदि हमें सुख और शांति से रहना है तो अपने जैवीय एवं सांस्कृतिक संस्कारों में तालमेल बिठाना होगा, सामंजस्य लाना होगा नहीं तो आधुनिक प्रगति का रास्ता हमें विनाश के गर्त में ढकेल सकता है।
आज की दिन ब दिन बढ़ती सामाजिक असंगतियों, बुराइयों के पाश्र्व में कहीं मानव का अपने `पशु मन´ को ठीक से समझ कर उसके अनुरूप कार्य न कर पाने की असमर्थता ही तो नहीं है। बाºय आवरणों, कपड़ों से शरीर भर ढँक लेने तथा सुख-ऐश्वर्य की चमक-दमक में हम अपनी मौलिक अभिव्यक्ति नहीं भूल सकते। आज के मानवीय समाज में बलात्कारों (पशु बलात्कार नहीं करते?), तलाकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसा नारियों का, पुरुषों के आदिम अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ का नतीजा तो नहीं है? आज की अत्याधुनिकाओं व तथाकथित आदर्शवादियों का यह नारा कि नारी हर क्षेत्र में पुरुष से `कन्धा से कन्धा´ मिलाकर चले सर्वथा अजैविकीय, अप्राकृतिक है। प्रकृति ने तो दोनों के कार्यक्षेत्रों का बँटवारा स्वयं कर रखा है।
एक `घर´ की `स्वामिनी´ दूसरा घर के बाहर का `स्वामी´- यही व्यवस्था प्रकृति सम्मत रहीं है, वर्तमान में है और कम से कम से कम एकाध लाख वर्ष के पहले तो नहीं जा सकती। यदि इस `व्यवस्था´ को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास यूं ही चलते रहे तो, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण आदि मानव जनित समस्याओं के अपने घातक रूप दिखाने के पहले ही हमारे भविष्य का कोई न कोई निर्णायक फैसला हो जायेगा।
यदि हमें सुख-चैन से इस धरा पर रहना है, अपना सफल वंशानुक्रम चलाना है तो अपने `जैवीय´ मन के अनुरूप ही कार्य करना होगा। आज का वैज्ञानिक चिन्तन हमें यही मार्ग सुझाता है। विश्व के दार्शनिकों, आम बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों तथा समाज सुधारकों को इन बातों को गम्भीरता से देखना-समझाना होगा क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के संचालन का भार मुख्यत: उन्हीं के कन्धों पर रहता है। वैज्ञानिक अपने जीवनकाल में प्राय: लोकप्रिय नहीं हुआ करते। वे केवल सुझाव दे सकते हैं। उसे व्यवहार में लाना दुर्भाग्य से उनके स्वयं के वश में नहीं हो पाता।
टिप्पणी :इस विषय को लेकर अभी कोई अन्तिम मत नही उभरा है -वैज्ञानिकों -जैव विदों ,समाज जैविकी विदों और व्यव्हारशास्त्रियों के बीच विचार मंथन जारी है ! यहाँ प्रस्तुत मत को अनिवार्यतः मेरा दृष्टिकोण न समझा जाय !
16 comments:
नर -नारी के जैवीय कार्यक्षेत्र और लक्ष्मण रेखाओं पर अभी चर्चा अधूरी है लेकिन फिर भी आपके पोस्ट की श्रृंखला ने काफी रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी दी है .
जितने ढंग से लेख लिखे हैं वैसे ही चेतावनी भी दी है
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मिलिए अखरोट खाने वाले डायनासोर से
आपकी टिपणी से पुर्ण सहमति है. बहुत ही तथ्यपरक आलेख.
रामराम.
हम्म... क्रिटिक्स का इंतज़ार करते हैं इस पोस्ट पर. कल तक टिपण्णी पढने आता हूँ. क्या कहते हैं बाकी लोग !
डाक्टर साहब! इस में दुःखी होने जैसी कोई बात नहीं है। आप इसे रोल रिवर्सल मानते हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं समझता। लेकिन जो भी परिवर्तन आ रहा है उस के भी कोई विशिष्ठ कारण अवश्य रहे होंगे। क्यों कि प्रकृति और समाज में कोई भी घटना अचानक नहीं होती, पहले उस के कारण पैदा होते हैं। कारण भी यदि देखें तो आसानी से दिखाई दे सकते हैं। वस्तुतः वैज्ञानिक प्रगति ने मनुष्य के श्रम को अत्यंत हलका कर दिया है। यह तो सामाजिक वैषम्य है कि कुछ लोग 12 से 18 घंटे प्रतिदिन काम कर रहे हैं वहीं बहुत से दूसरे लोग बेरोजगार हैं। एक ओर साधनों की भरमार है तो दूसरी ओर न्यूनतम साधनों का भी अभाव। वरना जीवन बहुत आसान हो चुका है बस आसान जीवन का बंटवारा सही नहीं है। निरंतर हो रही वैज्ञानिक प्रगति उसे और आसान बना रही है। स्वास्थ्य सेवाएं उच्चतम स्तर की हो जाने के कारण संतानों के जन्म और उन के पालन पोषण की जिम्मेदारी का बोझा भी स्त्रियों पर से कम हुआ है। ऐसे में दो-चार वर्ष के उपरांत स्त्रियाँ खाली हो जाती हैं। तब वे पुरुषों के काम में हाथ बंटाने को स्वतंत्र हो जाती हैं। आप को इस समस्या का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ सामाजिक विकास का अध्ययन वैज्ञानिक प्रगति का मानव विशेष रूप से स्त्रियों के श्रम पर प्रभाव के प्रकाश में करना होगा।
इस पर तो टिप्पणी पढ़ने बार बार आना होगा.
डिस्क्लेमर ने जान बचा दी है-वरना !
"सचमुच यदि हमें सुख और शांति से रहना है तो अपने जैवीय एवं सांस्कृतिक संस्कारों में तालमेल बिठाना होगा, सामंजस्य लाना होगा नहीं तो आधुनिक प्रगति का रास्ता हमें विनाश के गर्त में ढकेल सकता है।" सहमत हूँ । धन्यवाद ।
वाह.... बेहतरीन चित्रण
बहुत सोचने का मसाला देती है पोस्ट। बाकी कोई पक्ष नहीं लूंगा।
प्रकृति ने तो दोनों के कार्यक्षेत्रों का बँटवारा स्वयं कर रखा है।
-यह बात कहीं भी गलत नहीं है.
-दो नावों पर पाँव रख कर चलने की कोशिश करते तो हैं हम -लेकिन यह बिना समझोता किये बहुत देर तक नहीं हो सकता ..और जहाँ समझोते शुरू हो जाते हैं ,वहीँ कुंठाएं भी जन्म लेने लगती हैं और यही मानव मन को विकृत करने में भूमिका निभाती हैं .
-खैर ,समाज के वर्तमान बदलते स्वरूप के कारण क्या हैं?यह गहन विचार विमर्श का विषय है.
मिश्र जी
आपके विचारो से सहमत हूँ . विचारणीय ज्ञानवर्धक आलेख . समापन किश्त अच्छी रही
आभार
यह पूरी श्रंखला आज ही पढ़ी. काफी रोचक और ज्ञानवर्धक थी. मानव विकास की चरणबद्ध इतिहास का एक ही जगह संकलन बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है. निश्चित रूप से सभ्यता के विकास के दौर में कई तत्त्व हमारेमन-मष्तिष्क में इस प्रकार बस गयीं कि आज भी हम उनसे अलग नहीं हो पाते.
कहते हैं 'Present is the key of the Past'. मानवों की आज की गतिविधियाँ देख भी इसकी पारंपरिक प्रक्रिया का अंदाजा लगाया जा सकता है. मगर यह सिद्धांत हर जगह सही नहीं भी हो सकता है. मैंने सुना है - "सभ्यता के आदि दौर में समाज मातृसत्तात्मक था. स्त्रियाँ ही सत्ता के केंद्र में थीं , ऐसा शायद उनकी 'प्रजनन' की अनूठी शक्ति की वजह से भी था. शायद तभी 'मातृदेवी', 'उर्वरा शक्ति' की प्रतीकात्मक पूजा जिसके अवशेष हमारे 'नवरात्र' आदि में भी हैं; अस्तित्व में आई. आज यह परंपरा संभवतः सिर्फ भारत में ही जीवित है, यह भी एक प्रमाण हो सकता है इस बात का कि सभ्यता के विकास में भारत का महत्त्व क्या है! संभवतः 'धातु' (लौह) के अविष्कार के बाद परिस्थितियां बदलीं और सत्ता 'पुरुष' के हाथों में आ गई. आदिवासी समाज में स्त्रियों की प्रधानता भी प्राचीन इतिहास में ऐसे दावों का समर्थन करते नजर आते हैं. सभ्यता के विकास क्रम में सत्ता के इस उलट -फेर पर अध्ययन की काफी संभावनाएं हैं. वैसे यह एक hypothesis भी हो सकती है, मगर बहुत से वैज्ञानिक मत इस ओर भी इशारा करते हैं.
द्विवेदी जी की भेजी e-बुक और उसका हिंदी संस्करण मुझे भी उपलब्ध करा सकें तो आभारी रहूँगा.
जरुरी सूचनाये यहाँ उपलब्ध हैं ::---- " स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "
सम्माननीय,
पूरी श्रृंखला से गुजरा हूं।
अच्छा लगा।
आपके वैज्ञानिक दृष्टिकोण के चलते डार्विन के विकासवाद से आप बहुत प्रभावित हैं।
जैविक विकास में आप एक निश्चित क्रमिकता देख पा रहे हैं, और इस मामले में क्रमविकास से सहमत हैं।
परंतु मनुष्य के सामाजिक विकास के संबंध में ऐसा लग रहा है कि आपके पास कोई निश्चित दृष्टिकोण नहीं है। इसीलिए आप वहां विकास की क्रमिकता की नियमसंगीति को नहीं देख पा रहे हैं।
उन्नीसवीं सदी की तीन महान खोजें थी, जिन्होंने दुनिया को हिला कर रख दिया था और विचारों की दुनिया को बिल्कुल उलट-पुलट दिया था।
एक से आप परिचित हैं। मतलब डार्विन से है।
दूसरी थी उर्जा संबंधी अवधारणा, जिसकी चर्चा अभी का मंतव्य नहीं है।
तीसरी महत्वपूर्ण चीज़ थी, इसी सामाजिक क्रमविकास के नियमों के संदर्भ में। शायद इसकी भी आपको जानकारी तो हो, पर लगता है इससे आपका गुजरना अभी नहीं हुआ है। इसीलिए आप सामाजिक सरोकारों पर आते ही एकांगी हो जाते है, और इनमें छुपी नियमसंगीति को नहीं देख पाते हैं।
यह थे मॉर्गन, और लगभग डर्विन के समानान्तर ही उनकी वह महान कृति भी आई थी जिसका नाम था ‘प्राचीन समाज’(ancient society)|इसका हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है।
मॉर्गन की इस सनसनीखेज़ पुस्तक के निष्कर्षों के आलोचनात्मक अध्ययन पर एक और महान पुस्तक आई थी, वह थी फ़्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित, ‘परिवार,निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’।
आपको इन दोनो का सांगोपांग अध्ययन करना चाहिए, और फिर आप देखेंगे कि आपका वैज्ञानिक दृष्टिकोण किस तरह उछाल खाकर अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है।
एंगेल्स की इस पुस्तक का भी हिंदी संस्करण उपलब्ध है। इनकी एक और पुस्तक भी पढी जानी चाहिए वह है,‘प्रकृति की द्वंदात्मकता’(dialectics of nature)| इसका हिंदी संस्करण शायद उपलब्ध नहीं है, या मुझे तो अब तक नहीं मिला है।
आशा है, अन्यथा नहीं लेंगे।
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