Saturday 13 June 2009

मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -2)

मानवीय चिन्तन के इतिहास का वह अविस्मरणीय क्षण !
मानव के उद्भव को लेकर जब धार्मिक मान्यतायें अपने चरमोत्कर्ष पर जनमानस को प्रभावित कर रही थीं, मानव चिन्तन के इतिहास में, उन्नीसवीं शताब्दी के छठवें दशक में एक `धमाका´ हुआ। एक तत्कालीन महान विचारक चाल्र्स डार्विन (1809-1882) ने सबसे पहले अपने अध्ययनों के आधार पर यह उद्घोषणा की कि मानव जैवीय विकास का ही प्रतिफल है और अन्य पशुओं के क्रमानुक्रमिक विकास के उच्चतम बिन्दु पर आता है। इस `कटु सत्य´ का गहरा प्रभाव पड़ा। अनेक धर्मावलिम्बयों ने डार्विन को बुरा-भला कहना शुरू किया। सामान्य लोगों की ओर से भी उन्हें अपमान, तिरस्कार एवं उपेक्षा मिली। लोग उन्हें घोर नास्तिक, अहंवादी, भ्रमित व पागल जैसे विशेषणों से विभूषित करने से अघाते न थे। डार्विन इन सबसे यद्यपि मूक द्रष्टा को भाँति तटस्थ से थे, किन्तु फिर भी वे अपने निष्कर्ष पर अडिग थे।

डार्विन के विचार तर्क सम्मत, तथ्यपूर्ण एवं प्रमाण संगत थे। वे इस निष्कर्ष पर वर्षों के शोध व चिन्तन से पहुँचे। एच0एम0एस0 बीगल पर की गयी अपनी महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान उसने कई, द्वीपसमूहों (मुख्यत: गैलापैगास द्वीप समूह) पर जाकर पशु-पक्षियों के आकार-प्रकारों, विभिन्नताओं और विकासक्रम का गहन अध्ययन किया था। वे सृष्टि विकास के मर्म को समझ गये थे।


डार्विन ने वर्तमान कपियों और मानवों के बीच की एक विलुप्त हो गयी कड़ी (मिसिंग लिंक ) की ओर विचारकों /वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया था। उस `लुप्त कड़ी´ की खोज जोर शोर से शुरू हो गयी। यह बताना आवश्यक है कि डार्विन ने कभी भी मानव को बन्दरों का सीधा वंशज नहीं कहा था। डार्विन का संकेत बस यही था कि मानव और कपियों के संयुक्त पूर्वज कभी एक थे। कपि जैसे, जिस प्राणी -पहले प्रतिनिधि `मानव आकृति´ का जो स्वरूप उभरा रहा होगा वह विलुप्त हो चुका है। और इस बात की पुष्टि के लिए उसकी खोज होनी चाहिए।
पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध और आज तक के मानव विकास सम्बन्धी अवधारणाओं का इतिहास बस उसी `विलुप्त कड़ी´ के लिए सम्पन्न हुई खोजों में प्राप्त बन्दरों, कपियों व मानवों के तरह-तरह के फासिल्स पर ही आधारित है।

नर-वानर कुल के सदस्य और उनका वैकासिक इतिहास :
आधुनिक विकासविदों का मानना है कि आज से लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व पृष्ठवंशी प्राणियों का उद्भव शुरू हुआ। पहले मछलियों के आदि पूर्वज आये, फिर मछलियाँ जन्मी, मछलियों ने उभयचरों (मेढक कुल) को जन्म दिया। कालान्तर में इन्हीं, उभयचरों की एक शाखा में सरीसृपों यानी रेंगने वाले जंतुओं का विकास हुआ। इन्हीं सरीसृपों की एक शाखा से स्तनपायी सरीखे एक सरीसृप `साइनोग्नैपस´ का जन्म हुआ। इसी `साइनोग्नैपस´ से स्तनपोषी प्राणियों का विकास हुआ . यही वह समय भी था जब पक्षी सदृश डायनासोर (सरीसृप) से पक्षियों का भी विकास होना प्रारम्भ हुआ था।


सरीसृप डाल से विकसित हो रहे स्तनपोषियों की एक शाखा ने कीटभक्षी छन्छून्दर जैसे प्राणियों को जन्म दिया। अपने विकास कम में, इन प्राणियों ने जमीन को त्यागकर वृक्षों को अपना आवास बनाया- इनका जीवन `हवाई´ हो गया। यह वहीं समय था जब स्थल पर खूँखार मांसाहारी स्तनपायी जैसे बिलाव परिवार के सदस्य (बाघ, शेर, चीता, तेन्दुआ) तथा अन्य आक्रामक पशुओं का राज्य था। जमीन का `अस्तित्व का संघर्ष´ अपना नृशंस रूप धारण कर चुका था। स्थलीय जीवन अब खतरों से भर गया था। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए छछूँदर जैसे स्तनपोषी ने जमीन त्यागकर वृक्षों की शाखाओं पर शरण ली। इनसे ही आधुनिक बन्दरों (नये संसार `अमरीका´ व पुराने `एशिया और यूरोप´ के वर्तमान बन्दर) के आदि पूर्वज का विकास हुआ जो `प्रासिमियन्स´´ कहलाते हैं। इन्हीं `प्रासिमियन्स´ से दो शाखायें उपजीं, जिनसे आधुनिक बन्दरों से मिलते-जुलते प्राणियों (लीमर, लौरिस व टार्सियस) का विकास हुआ। इनमें मुख्य विशेषता थी, इनकी आँखों का मुखमण्डल पर सामने की ओर आ जाना। ऐसी `विशिष्टता´ पहले के प्राणियों में नहीं थी। यह मस्तिष्क के उत्तरोत्तर विकास का परिणाम था। लोरिस व टार्सियस की दृश्य क्षमता अब, त्रिविम्दर्शी -स्टीरियोटिपिक दृष्टि के कारण अन्य प्राणियों की तुलना में परिष्कृत हो गयी थी। प्राणी विकास-क्रम में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। लोरिस व टार्सियस के वंशज आज भी अफ्रीकी जंगलों में बहुप्राप्य हैं।

जारी ......

8 comments:

मुनीश ( munish ) said...

u r right humans are just naked apes !

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत ही ज्ञानवर्धक -रोचक जानकारी . आशा है डार्विन द्विशती के समय ऐसे विशेष चिट्ठामाला से अभी और जानकारियां मिलेंगी .अगले कड़ी की प्रतीक्षा है ..

Unknown said...

आप जानते ही है कि यह कैसा महत्त्वपूर्ण कार्य है।

शुक्रिया।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत कुछ नया जानने की इच्छा है इस श्रंखला से।

प्रकाश गोविंद said...

बेहद ज्ञानवर्धक लेख !

थोड़ी-बहुत जानकारी तो थी लेकिन इतने विस्तृत विश्लेषण से काफी नयी बातें पता चल रही हैं ! यहाँ आकर स्वयं को एक विद्यार्थी महसूस कर
रहा हूँ ! आगे लेख से सम्बंधित चित्र भी अवश्य देने की कृपा करें !

आपका आभार !

आज की आवाज

Ashok Pandey said...

इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए आभार।

Gyan Dutt Pandey said...

वाह! मेरे मन में तो अभी भी आता है कि मेरे घर में बरगद का बड़ा पेड हो और उसपर मचाननुमा एक कमरे का घर - जिसमें मैं हवाई मानुस की तरह रह सकूं - वानरों से प्रेरणा ले कर।

arun prakash said...

नर वानर संग भई कैसे वाला प्रश्न आज भी प्रासंगिक है अच्छी जानकारी अनुदित भाषा जरा झेलप्रद लग रही है फिर भी वानर से मानव का सोपान ठीक है लेकिन मानव से जो पुनः बन्दर की ओर जो बढ़ रहे हैं ऐसी हरकत करने वाले पर कोई शोध हो रहा है कि नहीं ?