वर्तमान विश्व के जंगलों में लगभग 200 प्रजाति के बन्दरों व वनमानुषों या कपियों (ऐप) का अस्तित्व है। इन सभी के शरीर वालों से ढके हैं। परन्तु एक कपि इसका अपवाद है। उसके शरीर पर बाल नहीं के समान है। उसका शरीर नंगा है। वह नंगा कपि है उसने ही स्वयं का नाम `मानव´ रख लिया है वह सबसे विकसित, बुद्धिमान, सुसंस्कृत व सभ्य किस्म का कपि है। यह बुद्धिमान किन्तु `नंगा´ कपि इस पृथ्वी पर कहाँ से आ गया? धरा के अन्य जीवों, पशु-पक्षियों से उसका क्या सम्बन्ध है? वह बुद्धिमान कैसे हुआ?
मानव की धार्मिक मान्यतायें :
अपने विकास के दौरान जब मानव ने पहले-पहल `चिन्तन´ शुरू किया तो उसके मन में यह प्रश्न विशेष रूप से कौंधा कि आखिर वह कौन है और कहाँ से आया है? अपने जिज्ञासु मन की तुष्टि के लिए ही मानव ने अपने उद्भव के सन्दर्भ में कई रोचक कल्पनायें भी कीं। देवी-देवताओं जैसी `अलौकिक सत्ताओं´´ की उसने स्वत: खोज कर डाली और उनसे अपने उद्भव, अस्तित्व आदि को संयुक्त कर दिया। उसकी अज्ञानतावश ही कई अन्धविश्वासों को भी बल मिला।
कृपया चित्र को बड़ा करके देखें (साभार :इंसायिक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ,स्टुडेंट संस्करण )
उसने धार्मिक मान्यताओं का भी सृजन किया, अपने सुख-शान्ति और तमाम अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर के लिए। इन्हीं धार्मिक मान्यताओं ने उसे उसके जन्म, मृत्यु सम्बन्धी सभी गूढ़ समझे जाने वाले प्रश्नों का यथासम्भव उत्तर दिया है, जिनका अभी तक स्पष्टत: कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिल पाया है। लिहाजा अब मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति बहुत कुछ `शान्त´ हो चली थी--वह संतुष्ट हो चला था। अभी पिछली शताब्दी के मध्यकाल तक ऐसा निर्विवाद माना जाता था कि मानव का अलौकिक सृजन हुआ है और पृथ्वी के अन्य पशु-पक्षियों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। विश्व के लगभग सभी पौराणिक साहित्य में, मानव के उद्भव को लेकर रोचक कथायें हैं। हमारी प्रसिद्ध पौराणिक मान्यता यही है कि आज का मानव मनु और श्रद्धा दो महामानवों का वंशज है। यह दम्पित्त पुराणोक्त महाप्रलय में भी बच गया था और तदनन्तर इसी ने नयी सृष्टि का संचार किया।
प्रसिद्ध ईसाई ग्रन्थ बाइबिल भी मानव उत्पित्त के पीछे इसी भँति साक्ष्य देता है और आदम तथा हौव्वा को आज के मानवों का जनक बताता है। वैसे आज भी विश्व की अधिकांश धर्मभीरु जनता भ्रमवश इन्हीं मान्यताओं में विश्वास रखती है- परन्तु मानवोत्पित्त को लेकर अब की वैज्ञानिक विचारधारा यह है कि वह अन्य पशुओं से ही विकसित एक समुन्नत सामाजिक पशु ही है।
जारी .......
14 comments:
प्रारम्भ हो गयी विशिष्ट डार्विन द्विशती चिट्ठामाला !
सभी संकल्प क्रमशः पूरे हो रहे हैं आपके । विचारता हूँ, यह समर्पण भाव नैरन्तर्य कैसे प्राप्त करता है ?
लगातार पढ़ने की उत्कंठा रहेगी, इस लेखमाला को । बहुत कुछ ठीक-ठीक समझ में आने लगता है यहाँ पढ़कर । बाकी तो विज्ञान की ऐसी किताबें पढ़ीं नहीं कि कुछ समझ सकूँ ।
समाज शास्त्र में आज भी मानव के बारे में पढ़ाया जाता है कि - Man is a social animal. एक अच्छा पोस्ट।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत बहुत स्वागत है, इस श्रंखला का। बहुत आवश्यक थी यह श्रंखला।
ज्ञानवर्द्धक पोस्ट।
बधाई ,आपने अच्छी और रोचक श्रृंखला शुरू की है .
बहुत सुंदर श्रंखला है.. आगे के लेखों का इंतजार रहेगा.
रामराम.
डार्विन के सिद्धांत आज भी पढाये जाते है . मानव के विकास के क्रम को डार्विन ने अच्छी तरह से समझाया है . बढ़िया प्रस्तुति आभार.
दोनो ही व्यू पढ़ते रहे हैं बचपन से और हमें कोई द्वन्द्व नहीं लगा।
अपने तार्किक और संवेदनशील व्यक्तित्व में सामंजस्य बनाने में समस्या नहीं होती। दोनो को अलग रखना होता है, बस!
पहली कड़ी बहुत ही संक्षिप्त सी लगी.
अगली कड़ी का इंतज़ार है.
बढ़िया है ! हम तो पढ़ ही रहे हैं. सोचा बता भी दें :)
बहुत सुंदर, अगली कडी का इंताजार रहेगा.
धन्यवाद
आपकी पोस्ट सदैव ही ज्ञानवर्धक ही होती है. हमने देखा है कि अधिकतर चिट्ठे मनोरंजन के लिए होते हैं. ठीक है. इसकी भी आवश्यकता है परन्तु नयी बातें या अनजान बातें हमें तो आनंदित ही करती हैं.
अब तो विज्ञान प्रेमियों के लिए यह सांई ब्लॉग एक तीर्थस्थल का काम करेगा। हम भी यहाँ डुबकी लगाने आते रहेंगे जी। अविरल धारा जारी रखिए। शुभकामनाएं।
मैं जल्द ही तंदूरी आलू की रेसिपे आपको बताउंगी! क्या आपने आलू पोसतो बनाया?
बहुत ही उम्दा और ज्ञानवर्धक पोस्ट है! मुझे बेहद पसंद आया!
Post a Comment