पुरूष का कंधा नारी के लिए अतीत से आज तक सिर टिकाने को सहज ही उपलब्ध है
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जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -
चर्चा पुरूष कन्धों की विशालता को लेकर हो रही थी -चिम्पान्जियों को अपने कंधे तब ऊंचे करने पड़ते हैं जब कोई घुसपैठिया उनकी टेरिटरी में आ धमकता है -ऐसे समय में चिम्पांजी अपने कंधे की एक भयावह भंगिमा बनाता है और उसके कंधे के बाल भी ऊर्ध्वाधर खड़े हो जाते है -घुसपैठिया आम तौर पर भाग खडा होता है .हमारे (पुरुषों) कंधे के एकाध बचे बाल दरअसल आज भी हमें हमारे उसी "बालयुक्त" अतीत की ही प्रतीति कराते हैं .आज हमारे कंधे बाल विहीन से भले हो गए हों मगर अब भी कंधे को भरा पूरा दिखाने के अवसर मिलते रहते हैं और मजे की बात यह कि आज भी एकाध बचे खुचे बाल चिम्पांजी के बाल सरीखे सीधे खड़े हो उठते हैं ।
वे माने या न माने पर आज भी पुरुषों का कंधा नारी के बोझिल से हुए सर को एक सकून भरा आसरा देते हैं -एक आम पुरूष की लम्बाई आम नारी से कम से कम पाँच इंच अधिक होती है जिससे पुरूष के ऊंचे कंधे नारी को सिर टिकाने का मानों शाश्वत आमंत्रण देते रहते हैं .पुरूष का कंधा नारी आज भी नारी के सिर को टिकाने के एक सुरक्षित और भरोसेमंद स्थल के रूप में सहज ही उपलब्ध है.यह आश्वस्ति भरा पुरसकून स्थल गुफाकाल से ही नारी के आश्रय के लिए उपलब्ध रहा है ।
अब चूंकि विकास की प्रक्रिया बहुत धीमीहै और जीनों में सहज परिवर्तन भी लाखो वर्षों में होता है अभी भी पुरूष के इस पोस्चर में कोई बदलाव नही आया है .और अभी तो लाखो वर्षों ऐसयीच ही चलेगा भले ही पुरूष अपने शिकारी अतीत को काफी पीछे छोड़ आया है -आफिस में कलम घिस्सू या पी सी के की बोर्ड पर उंगली थिरकू बने रहने के बाद भी पुरूष का कंधा नारी को आराम दिलाने के अपनी आतीत सौहार्द के साथ उपलब्ध है .
क्या कंधे भी देह की भाषा में कुछ योगदान करते हैं ? जी बिल्कुल ! दो स्कंध भंगिमाएं तो बिल्कुल जानी पहचानी हैं .एक तो शोल्डर शेक है तो दूसरा शोल्डर स्रग -पहला तो मनोविनोद के क्षणों मे कन्धों की ऊपर नीचे की गति है तो दूसरा विभिन्न सिचुयेशन में 'मैं नही जानता ' ,'मुझसे क्या मतलब ?','अब मैं क्या कर सकता हूँ ','अब तो कुछ नही हो सकता ' की इन्गिति करता है -आशय यह कि यह भंगिमा नकारात्मक भावों को इंगित करती है .
17 comments:
.पुरूष का कंधा नारी आज भी नारी के सिर को टिकाने के एक सुरक्षित और भरोसेमंद स्थल के रूप में सहज ही उपलब्ध है.यह आश्वस्ति भरा पुरसकून स्थल गुफाकाल से ही नारी के आश्रय के लिए उपलब्ध रहा है ।
बहुत बढिया जानकारी मिल रही है इस कंधा पुराण में ! बहुत धन्यवाद !
चिम्पान्जियों को अपने कंधे तब ऊंचे करने पड़ते हैं जब कोई घुसपैठिया उनकी टेरिटरी में आ धमकता है -ऐसे समय में चिम्पांजी अपने कंधे की एक भयावह भंगिमा बनाता है और उसके कंधे के बाल भी ऊर्ध्वाधर खड़े हो जाते है -
वैसे हमारी फोटू देखकर क्या आप बता सकते हैं की हम कौन सी मुद्रा में हैं ! अगर मुद्रा ठीक ना हो तो दूसरी खिंचवा कर लगा दे ! :)
अच्छी जानकारी दी है. पुरुष का कंधा और स्त्री की गोद इनका तुलनात्मक आंकलन किया जा सकता है. आभार.
उत्तरोत्तर पुरुष को भी एक कन्धे के सहारे की जरूरत पड़ने लगेगी। लिहाजा पत्नी चुनते समय कम से कम बराबर की ऊंचाई की चुनना उचित होगा।
क्या कंधे भी देह की भाषा में कुछ योगदान करते हैं ? जी बिल्कुल ! दो स्कंध भंगिमाएं तो बिल्कुल जानी पहचानी हैं .एक तो शोल्डर शेक है तो दूसरा शोल्डर स्रग -पहला तो मनोविनोद के क्षणों मे कन्धों की ऊपर नीचे की गति है तो दूसरा विभिन्न सिचुयेशन में 'मैं नही जानता ' ,'मुझसे क्या मतलब ?','अब मैं क्या कर सकता हूँ ','अब तो कुछ नही हो सकता ' की इन्गिति करता है -आशय यह कि यह भंगिमा नकारात्मक भावों को इंगित करती है ....सही है .ज्ञानवर्धक जानकारियों के आपको धन्यवाद और अगली पोस्ट के लिए शुभकामनायें .
बहुत बढिया जानकारी!!!!!!!1
कन्धा पुराण अध्याय २... सही है !
बढ़िया लगी यह जानकारी ..
माँ के गर्भ से और फ़िर गोद से बरसों मिली चौतरफ़ा सुरक्षा का प्रतिदान बेटी,बहन,पत्नी और माँ के सिर को ६-८-१० मिनट संभाल कर अनुभव करना स्त्री के समक्ष उसकी सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध होना ही है। सबल बन कर ही सहारा बना जा सकता है।
सभी शरीर जैव विकास की कथा कहते दिखाई पड़ रहे हैं।
इलकुल सही लिखा आप ने.
धन्यवाद
जानकारीपूर्ण लेख के लिए धन्यवाद। आप अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
वाह-वाह ! आपने तो कन्धे की महिमा में ऐसी गाथा लिख दी कि कविता जी को माँ के गर्भ और गोद को इसके मुकाबले में खड़ा करना पड़ा। हाँलाकि शिशु को जो आश्रय वहाँ मिलता है वह अनमोल होता है। यहाँ उसका मूल्य कन्धे से नहीं चुकाया जा सकता।
रोचक लेख का आभार।
कंधा तो बहुत अधिक वास्तविक एवं प्रतीकात्मक मायने रखता है, लेकिन अकसर इसका इस तरह एक "विश्लेषणात्मक" अध्ययन कहीं नहीं दिखता है.
मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठापरिवार में जिस तरह अजित के "कंधों" पर शब्दों का विश्लेषण रख दिया गया है उसी तरह आपके "कंधों" पर जीवन संबधी विषयों का विश्लेषण रख दिया गया है -- जिसे आप बखूबी निभा रहे है.
आपका हर लेख नई जानकारी लिये होता है एवं पाठक को काफी देर तक सोचने के लिये मजबूर करता है.
जीवन की कई स्मरणीय घटनाओं को पुन: याद करने का अवसर भी मिल गया!
सस्नेह -- शास्त्री
यह सीरीज जारी रहे, यही कामना है।
कंधे के बारे में अच्छी जानकारी।
कंधे सुख और दुख दोनों में सहारा देने के लिए आवश्यक है वह चाहे स्त्री का हो या पुरूष का उसकी नियति ही यही है खुशी के क्षणों में हम भले ही किसी के कंधो पर अपना सर न टिकते हों लेकिन दुख के क्षणों में आत्मीय जनो के कन्धों पर कौन सर नहीं टिकाना चाहता |सत्य कहें तो दुख के क्षणों में ही बड़े बड़े लोगों को कंधे की तलाश होती है उसी समय लगता है की कोई न कोई कन्धा जरूर चाहिए इसे बांटने के लिए
वास हर आदमी अपना अदृश्य सलीब भी इसी कंधे पर ही धोने के लिए अभिशप्त है
aapka lekhan bahut accha hai
padhne ko khoob dil chahta hai
bahut badhai ,
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
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