ज्ञान जी और दिनेश जी की भावनाओं को मैं समझ सकता हूँ जो उन्होंने मेरे पिछले पोस्ट की प्रतिक्रिया में व्यक्त किए हैं -मैं उनसे सहमत हूँ पर यहाँ व्यवहार विद क्या खिचडी पका रहे हैं उसकी चर्चा हो रही है ।
हाँ, तो बात परोपकार की चल रही थी ।जीन विदों की माने तो कोई भी प्रत्यक्ष परोपकारी व्यवहार निस्वार्थ नही होता उसके पीछे दरसल हमारे वन्शाणु -जीन अपना उल्लू सीधा कर रहे होते हैं .सगे संबधी के लिए जान पर खेल जाना तो समझ मे आता है मगर दूर दराज के सम्बन्धों ,जान पहचान के लोगों के बीच के सम्बन्धों में कौन सा जीनी स्वार्थ होता है इस पर भी व्यव्हार्विदों ने नजर डाली है.
जीन विदों का कहना है अरचित-परचित के बीच रेसेप्रोकल अल्त्रूइस्म का बात व्यवहार चलता है -'तूं मेरी पीठ खुजा और मैं तेरी ' यानि गिव एंड टेक टाईप का सम्बन्ध . यानि अपरोक्ष रूप से परोपकार के कई बात व्यवहार स्वार्थ की कामना लिए ही होते हैं . कई धूर्त लोग मनुष्य के इसी जैवीय प्रवृत्ति का शोषण करते हैं -नेता देशप्रेम और मजहब के नाम पर आम आदमी की इसी नैसर्गिक वृत्ति को दुलराता है - जिसके भयानक परिणाम भी होते रहे हैं, कौम के नाम पर कत्ले आम ,मजहब के नाम पर मरने मारने पर उतारू हो जाना बस जीनों की इसी वृत्ति को हवा दे देना भर है ,परोपकार की पीछे प्रत्युतप्कार की अपेक्षा छिपी होती है ।
पर समाज में ऐसे कृतघ्नी भी हैं जो अहसान भूल जाते हैं -ऐसा जंतु जगत में भी है -एक समुदाय वैम्पायर चमगादरों का [ऊपर का चित्र ]है जो जानवरों का खून चूसते हैं और आपस में बाँट लेते हैं ,जिससे यदि कोई दुर्बलता के चलते कम खून पी पाया हो तो उसका काम भी चल जाय -यहाँ यह अपेक्षा होती है कि वह दुर्बल चम्गादर ठीक होने पर ऐसा ही करेगा .पर कभी कभार कोई कृतघ्नी निकल जाता है -उसका हश्र उस चम्गादर कुनबे मे बुरा होता है -उसकी कृतघ्नता उजागर हुयी कि नही उसे मार पीट कर कुनबे से बाहर कर दिया जता है -सबसे कठिन जाति अवमाना !. पर मानव चम्गादारों -कृतघ्नियों से पार पाना मुश्किल है .वे जाति बहिष्कार के बाद ,जिला बदर के बाद भी अपनी धूर्तता से बाज नही आते ।
आज यहाँ विराम -यह तो अनंत कथा है .
6 comments:
अनुवांशिकता और लर्निंग/अक्वायर्ड बिहेवियर में पुरानी डिबेट है। जीवों के विषय में जीन्स का गणक बहुत महत्वपूर्ण होता होगा। पर मनुष्यों में फ्री-विल का भी लेना देना अवश्य होगा।
आपकी पोस्टें उत्तरोत्तर सोचने पर बाध्य कर रही हैं।
आपकी पोस्ट का शीर्षक पढ़ एक बार तो लगा की शायद ब्लाग जगत के हालत पर लिखी गई है.
(तू मुझे टिपिया में तुझे टिपियाऊँ, चलेगी पोस्ट/ब्लाग कहानी)
पर अन्दर प्रवेश करने के बाद सारा मामला समझ आया.
आपकी सारी बातों से सहमत हूँ पर ज्ञान भइया के संसोधन (फ्री विल) के साथ. और निम्नलिखित कथन मे तो संसोधन की कोई जगह ही नहीं है.
"पर मानव चम्गादारों -कृतघ्नियों से पार पाना मुश्किल है .वे जाति बहिष्कार के बाद ,जिला बदर के बाद भी अपनी धूर्तता से बाज नही आते ।"
पूरी पोस्ट पढ़ते -पढ़ते ये ख्याल भी उठ आया है कि शायद ये शोध के नतीजे ब्लाग-जगत पर भी लागून होत हों.
:) :) :)
मित्र अपने यहाँ अहो रूपम अहो ध्वनि .. की परम्परा शाश्वत काल से चल रही है प्रसाशन साहित्य राजनीती सभी और इसी का बोलबाला है क्या मानव ने पशुओ से इसे सीखा है या पशुओ ने मानवो से शोध का विषय है
पर मानव चम्गादारों -कृतघ्नियों से पार पाना मुश्किल है ..बिल्कुल सहमत हूँ. अच्छा लगा आपका आलेख.
मैं आप जितना विद्वान तो नहीं हूं पर आपने जीन विदों की बात की है जो कहते हैं कि प्रत्युपकार की भावना के कोई भी उपकार नहीं करता। यकीनन आप पश्चिम के विद्वानों की बात कर रहें हैं। इसमें कोई खास बात नहीं है। वह जींस कहते हैं हम गुण कहते हैं। हमारा दर्शन कहता है कि ‘गुण ही गुण को बरतते है’। जैसे देह में गुण (जीन) होंगे वैसे ही मनुष्य बाहर से गुण ग्रहण करेगा। उस दिन राह चलते हुए मेरा स्कूटर लड़खड़ाया और गिर गया। एक सहृदय सज्जन मेरे पास आये और मुझे स्कूटर उठाने में सहायता की। हालांकि मैं स्वयं भी ऐसा करने मेंं सक्षम था पर ऐसा मुझे कष्ट अधिक होता। उस सज्जन ने किस प्रत्युपकार की भावना से उपकार किया मुझे पता नहीं। हमारे समाज में एक दूसरे की इस तरह मदद करने की अनेक घटनायें होतीं हैं पर उनकी चर्चा नहीं होती। आप केवल सीमित दायरे मेंं सक्रिय ऐसे समाज को देखकर अपना विचार व्यक्त कर रहे हैं जिसकी आधुनिक शिक्षा के कारण वैचारिक सीमाएं संकीर्ण हो गयीं हैं।
दीपक भारतदीप
मानव व्यवहार में मेरी भी काफी रूचि है और मैंने इस विषय पर हिन्दी में उपलब्ध काफी सारी किताबें भी पढी हैं। इसके अलावा सौभाग्यवश मुझे एक अत्यंत कुशल व्यवहारवदि श्री राजीव राय जी, जोकि एक अच्छे गजलकार हैं और पिछले कुछ समय तक मेरे ही विभाग में डेपोटेशन पर सहायक लेखाधिकारी के रूप में कार्यरत थे, के साथ रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। हम लोगों में अक्सर इस विषय पर विचार विमर्श होता रहा है। काफी सोच विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हँ, कि मानव व्यवहार पूर्ण रूप से जीन्स पर निर्भर होता है, हालाँकि इसपर हमारे आसपास के वातावरण का काफी प्रभाव पडता है, पर पूरी तरह से न तो यह ओढा जा सकता है और न ही बदला जा सकता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे गुलाब का महकना और असावधानी बरतने पर उसके कांटों का चुभ जाना। अगर हमारे अंदर खुश्बू वाले जीन्स हैं, तो हम महकेंगे ही, फिर चाहे हम घूरे पर उगें अथवा कांटों के बीच खिलें।
Post a Comment