Monday, 30 June 2008

देवासुर संग्राम से चंगेज खान के वंशजों तक का सफर -जीनोग्रैफी का जलवा !

डीएनए की इन्ही गुत्थियों मे उलझी है मानवता की विरासत
सबसे रोचक और चौकाने वाले तथ्य तो भारत में मानव के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति को लेकर उभर रहे हैं। डीएनए चिन्हकों (एम-174, एम-130) से तो यही संकेत मिलते हैं कि सबसे पहले मानव पुरखों का आगमन दक्षिण भारत में करीब 50 से 60 हजार वर्ष वर्ष पूर्व सीधे अफ्रीका से अरब सागर के जरिये हुआ था । इन्हें अफ्रीकी आदि मानवों के समुद्र तटवर्ती समूह के रुप में (एम-20) जाना गया है। इसी तरह-एम 69, एवं एम-52 जीन चिन्हकों को भारतीय चिन्हकों का दर्जा दे दिया गया है जो मध्य पूर्व देशों से प्रवास कर उत्तर पश्चिम की ओर से कालान्तर में भारत में प्रवेश करने वाली आदिम मानव टोली थी। यह घुमन्तू टोली तकरीबन 25000 वर्ष पहले भारत में उत्तर से आ पहुँची थी । कहीं इसी टोली ने तो सिन्धु घाटी की सभ्यता को जन्म तो नहीं दिया?

भारत में दक्षिण से मानव पुरखों का प्रवेश तो पहले ही हो चुका था। पामेर की पहािड़यों को ला¡घकर एक अन्य घूमन्तू टोली 30 हजार साल पहले मध्य पूर्व से भारत में प्रवेश करती हुई दक्षिण तक पहु¡चती दीखती है, जो एम-20 के रुप में चििन्हत हुई है। इन जीन चिन्हकों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि उत्तर पश्चिम से भारत में प्रवेश पाने वाली टोलियों ने दक्षिण भारत के तटवर्ती समूहों में पहले से ही बसी हुई आबादियों पर आक्रमण किया होगा, नर समूहों का समूल नाश कर मादाओं से संसर्ग कर आगामी वंशों/सन्तति को जन्म दिया होगा। इस स्थापना का एक पुख्ता प्रमाण यह है कि मौजूदा दक्षिण भारतीय जनसंख्या में आदि स्थानिक नर चिन्हकों का सर्वथा लोप हो गया है। कहीं यथोक्त घटनायें ही जन स्मृतियों में आज भी देवासुर संग्राम और कालान्तर के राम-रावण युद्ध के मिथकों के रुपों में तो नहीं अक्षुण हैं? कहीं यही घुमन्तू टोलिया¡ ही तो आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों की जनक और तदन्तर उनमें आमेलन की साक्षी तो नहीं रहीं?

आज `जीनोग्राफी´ ने फिर से इन मुद्दों को चर्चा में ला दिया है। स्पेंंसर की टीम ने अभी हाल ही में तेरहवी शती के मंगोल आक्रान्ता चंगेज खा¡ के वंशजों को भी ढू¡ढ़ निकाला है जो आज भी `हजारा कबीलाई समूह´ के नाम से पाकिस्तान में गुजर बसर कर रही हैं। कहते हैं कि चंगेज खा¡ की बर्बर सेना के योद्धा पराजित सेनाओं, प्रान्तों की औरतों को अपने हरम में सिम्मलित कर लेते थे और उन्होंने ही बहुपत्नी जैसी प्रथा का भी सूत्रपात किया। इस तरह चंगेज खा¡ ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया और करीब 1करोड़ लोगों में अपने पुरखों के एक खास `जेनेटिक चिन्हक´ को हस्तान्तरित किया। पाकिस्तान के `हजारा आदिवासियों, में यही चिन्हक आज भी मौजूद हैं। स्पेन्सर की टीम अब यह भी जानने में जुटी है कि कहीं सिकन्दर की विशाल सेना द्वारा भी कोई जेनेटिक चिन्हक´ आगामी पीढ़ियों तक हस्तान्तरित तो नहीं किया गया? और क्या महान सेनानी सिकन्दर के वंशज आज भी भारत या भारत के बाहर कहीं मौजूद हैं?

इसी परिप्रेक्ष्य में एक जेनेटिक मार्कर एम 124 का पता चला है जिसे `वाई गुणसूत्र´ हेप्लोग्रुप´ - आर-2 का नामकरण भी दिया गया है और जिसके वाहक वंशज यूरेशिआई देशों से चलकर उत्तर भारत, पाकिस्तान और मध्य दक्षिण भारत तक आबाद हुए और आज भी विद्यमान हैं। किन्तु कुल आबादी की तुलना में इनका अनुपात मात्र 5 या 10 प्रतिशत ही है।

मानव की इन आदि घुमन्तू टोलियों की जिजीविषा तो देखिये कि 50 हजार वर्ष की लम्बी कालावधि में आये दो हिमयुगों में भी वे बच निकले और अलास्का से होते हुए अन्तत: अमेरिका तक भी जा पहुंचे और वहाँ की निर्जन धरती पर भी मानवता का परचम लहरा दिया।

जैसा कि प्राय: युगान्तरकारी विचारों या मान्यताओं के साथ होता आया है, जीनोग्रैफिक परियोजना के उद्देश्यों पर भी असहमति की उंगलियाँ उठ रही हैं। इसे एक ओर जहाँ नस्लभेदी संस्कृति की एक नई मुहिम कहा जा रहा है, वहीं यह आशंका भी जतायी जा रही है कि देशज/मूल मानव वंशजों की `जीन सामग्री´ का कहीं चोरी छिपे व्यावसायिक लाभ न उठा लिया जाय या फिर उनके खास प्रक्रमों को पेटेन्ट न करा लिया जाय। यह भी शंकायें उठायी जा रही है कि इतिहास की पुनव्र्याख्या से कहीं नये विवाद और जनान्दोलनों की शुरुआत न हो जाय और सामाजिक विघटन की एक नयी तस्वीर उभरने लगे।

स्पेन्सर ने इन सभी आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका तो यही मानना है कि जीनोग्राफी परयिोजना की नीयत बिल्कुल साफ है और इसके परिणामों में जन कल्याण की भावना ही निहित है। लेकिन कई विचारकों की राय में इसी तरह के कार्यों के लिए ही `गड़े मुर्दे उघाड़ना´ सरीखे मुहावरे गढ़े गये हैं जिनका शािब्दक अर्थ ही है- `अनावश्यक कार्य करना।´

अब जीनोग्राफिक परियोजना कोई अनावश्यक कार्य है या फिर मानवता के हित में एक परमावश्यक मुहिम यह तो आने वाला समय (2010?) बतायेगा, जब परियोजना अपनी पूर्णता पर पहुंचेगी और प्राप्त आ¡कड़ों के विश्लेषण तथा व्याख्या का दौर शुरु होगा। तब तक तो हमें इंतज़ार ही करना होगा ।

समापन किश्त ........

Sunday, 29 June 2008

जंह जंह चरण पड़े संतों के .......


जीनोग्राफिक परियोजना के तहत अभी तक सम्पन्न शोधों के आधार पर जिस मानव वंश बेलि की तस्वीर उभरती है, उससे यह निर्विवादत: स्पष्ट होता है कि मौजूदा सभी मानवों का उद्भव अफ्रीका में हुआ था। अन्यान्य प्रभावों के चलते अफ्रीका से उनका अनवरत पलायन विश्व के अनेक भागों तक होता रहा है। इस तरह स्पेन्सर मानव विकास के `बहुप्रान्तिक विकास मॉडल´ का खण्डन करते हुए, मानव की अफ्रीकन उत्पित्त का पुरजोर समर्थन करते हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि मौजूदा मानव 60 हजार वर्ष पहले के अफ्रीका वासी एक खास पुरुष पुरातन का ही वंशज है।

विश्वभर में `जीनोग्राफी´ के अध्ययन को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए कुल दस देशों में अध्ययन केन्द्रों की स्थापना की गयी हैं। ये देश हैं- अमेरिका, ब्राजील, फ्रांस, लेबनान, दक्षिणी अफ्रीका, ब्रिटेन, रुस, चीन, आिस्ट्रया और भारत। भारत में यह जिम्मा मदुराई कामराज विश्वविद्यालय तमिलनाडु को सौंपा गया है .इम्यूनोलाजी (शरीर प्रतिरक्षा) विभाग के मुखिया प्रोफेसर रामास्वामी पिचप्पन ने `जीनोग्राफी´ अध्ययन की कमान सभा¡ली है। उन्होंने अभी तक जो अध्ययन किया है उसमें तमिलनाडु के एक वर्ग और उड़ीसा के गोण्ड जनजातियों में आश्चर्यजनक समानतायें पाई गयी हैं।
भारत में `जीनोग्राफी´ की शुरुआत तो एक दशक पहले ही हो चुकी थी जब स्पेन्सर वेल्स ने स्वयं यहाँ आकर मदुराई के एक गावं ज्योतिमानिकम से वहाँ के मूल निवासियों के 700 से भी अधिक रक्त - नमूने लिए थे। स्पेन्सर ने तब कहा था कि उन मूल निवासियों के एकत्रित रक्त नमूनों की हर एक बूँद जीनों की भाषा में लिखे उनके वंश इतिहास को समेटे हुए है। सचमुच जब उन नमूनों की जांच का परिणाम मिला तो भारत में मानव के पदार्पण के अब तक के ज्ञात इतिहास की मानों चूलें ही हिल गयी।

जीनों की भाषा ने यह स्थापित कर दिया कि भारत में मानव के आदि पुरखों के चरण सबसे पहले दक्षिण भारत के पश्चिमी समुद्रतटीय प्रान्तों में पड़े थे, जहाँ से आगे बढ़ते हुए वे (रामसेतु से होते हुए? ) श्रीलंका और आस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे .होंगे स्पेन्सर ने अपनी इस स्थापना के पक्ष में एकत्रित नमूनों के डीएनए में `पुनर्संयोजन रहित वाई गुण सूत्रों´ के एक खास चिन्ह (एम-130) का सहारा लिया, जो 60 हजार वर्ष पहले के अफ्रीकी नर जीवाश्मों और मौजूदा आस्ट्रेलियाई आदिवासियों में पाया गया है। इसी अध्ययन से ही वेल्स रातों रात मशहूर हुए और अमेरिका के प्रसिद्ध गेटवे कम्प्यूटर्स के संस्थापकों द्वारा स्थापित वैट्ट फैमिली फाउण्डेशन ने इस अध्ययन कार्य को बढ़ावा देने का फैसला कर लिया।

चार करोड़ डालर के अनुदान से यह वैिश्वक अध्ययन-अभियान अब अपने परवान पर है। जीनोग्रैफी परियोजना का मुख्य उद्देश्य अभी तक तीन विचार बिन्दुओं पर केिन्द्रत है।

1- मानव के उद्भव सम्बन्धी पुराजीवािश्मकी का अध्ययन।

2- आदि मानव के प्रवास/भ्रमण पथ की जानकारी,

3- मानव जनसंख्या के फैलाव/बिखराव और विविधता से जुड़े अध्ययन।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए परियोजना के तहत अपनायी जाने वाली रणनीति में विश्व भर में फैले मैदानी अध्ययन केन्द्रों पर अनुसन्धान के साथ ही व्यापक जनसहभागिता के लिए जनजागरण अभियानों की शुरुआत की गयी है। साथ ही एक जीनोग्रैफी कोष की भी स्थापना की गयी है जिसमें कोई भी व्यक्ति नेशनल जियोग्राफिक की वेबसाइट पर जाकर `जीनोग्रैफिक´ किट खरीद कर भागीदारी कर सकता है। इस `किट´ का मूल्य 100 डालर (लगभग चार हजार रुपये) है तथा इसमें दानदाता के मु¡ह के अन्दरुनी भाग (गाल) के खुरचन से ही नमूने की जांच की मुकम्मल व्यवस्था की जाती है। नमूने कुछ खास उपस्करों-सूक्ष्म नलिकाओं में डालकर नेशनल जियोग्राफी के जा¡च केन्द्रों को भेज दिया जाता है। चन्द सप्ताहों में ही जा¡च परिणाम उपलबध करा दिया जाता है जिसे दिये गये एक `कोड´ के जरिये दानदाता वेबसाइट पर जा¡च परिणाम और उसकी विस्तृत व्याख्या से अवगत हो सकता है।

अभी तक की जा¡च परख से जेनेटिक चिन्हकों तथा मानव के आदि प्रवास पथो की जो जानकारी मिली है उससे ज्ञात इतिहास की कई अवधारणाओं को गहरा धक्का लगा है। आज की मौजूदा 90 से 95: गैर अफ्रीकी मानव की आबादी के मूल में अफ्रीका से तकरीबन 60 हजार वर्ष पहले पलायन करने वाले एम-130, एम-89, आदि चिन्हको वाले मनु वंशी पहचाने जा चुके हैं। कालान्तर में इनके अन्य शाखाओं के डीएनए में उत्परिवर्तनों से ऊपजे एम-9 चिन्हकों की मौजूदगी आज उत्तरी अमेरिकियों और पूर्वी एशियाई देशों के कबीलों में देखा जा रहा है। इन जेनेटिक चिन्हकों की विभिन्न देशज मानव आबादियों में पायी जा रही उपस्थिति से जो तस्वीर उभरती है उसके अनुसार अफ्रीकी महाद्वीप के केई पूर्वी प्रान्तों (इथोपिया, तंजानिया¡, केन्या आदि) से 60 हजार वर्ष पहले मानवों का पहला महाप्रवास आरम्भ हुआ था। इनके यायावरी दल नये शिकार स्थलों की खोज में उत्तर की ओर आगे और आगे बढ़ते हुए मध्य पूर्वी खाड़ी के देशों से अनातोलिया (अब टर्की ) होकर 30-40 हजार वर्ष पहले एक ओर तो ईरान, मध्य एशिया के अछूते चारागाहों-शिकार स्थलों तक जा पहु¡चा तो दूसरी ओर उन्ही यायावरों का एक दल (एम-9) यूरोपीय देशों तक जा पहु¡चा। इसी एम-9 से अलग हुई एक टोली यूरेशिया में हजारो वर्षों तक आबाद रही किन्तु इसके दक्षिण मध्य एशियाई देशों तक की यात्रा में विशाल पर्वत उपत्कायें बड़ी बाधा बन गई।

हिन्दूकुश, नियानशाह और हिमालय इनके मार्ग में अवरोध बन गये, लिहाजा इस यायावरी टोली के वंशधर अन्य दिशाओं की ओर आगे बढ़ चले। इन्हीं की एक शाखा (एम-49) हिन्दूकुश, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, दक्षिणी साइबेरिया तक भी आबाद हुई। एम-173 प्रशारवा ने यूरोपिआई देशों पर कब्जा जमाया और `होमोसेपियेन्स´ के भी पूर्वज नियेन्डर्थल मानवों का निर्ममता से सफाया कर डाला और अपना एक छत्र राज्य स्थापित किया। इनके वंशधर आज भी स्पेन, इटली में विद्यमान हैं ।
चित्र में राम सेतु है जिससे होकर म१३० मनु वंशी कभी गुजरे होंगे .........
अभी और भी है यह दास्ताने मनु -सतरूपा .......

Saturday, 28 June 2008

आप जीनोग्रैफी पढ़े ही क्यों ?

पुरूष पुरातन का भ्रमण पथ
आज जीनोग्रैफी को लेकर हल्का सा विज्ञान बतियाता हूँ पर कोशिश यह रहेगी कि यदि आप थोडा सा समय निकाल कर इसे पढ़ लेगें तो यदि आपका विज्ञान का बैकग्राउंड नही भी है तो आप मामले को समझ जायेंगे ।

अब प्रश्न यह है कि इन आलतू फालतू चीजों को आप पढ़े ही क्यों ?यह आपकी बढ़ती महंगाई में कोई मदद तो नही करने वाली है .मगर मुझे जानकारी है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में एक से एक ज्ञान पिपासु जन हैं जिन्हें मानव के अतीत में रूचि हो सकती है .यह उनके लिए ही है.और सौ पते की बात यह कि मैं अपना काम कर रहा हूँ बाकी आप जानें ।

स्पेन्सर वेल्स ने `नेशनल जियोग्राफिक´ के वेबसाइट `नेशनल जियोग्राफिक डाट काम´ पर इस परियोजना में अपनायी जाने वाली डीएनए विश्लेषण प्रविधि का विस्तृत व्योरा दिया है।

आप सभी जानते ही हैं कि डीएनए वह आनुवंशिक, जैवरासायनिक पदार्थ है जो मनुष्य के विकास की दिक्कालिक यात्रा में कई नैसर्गिक उत्परिवर्तनों को समेटता रहता है और ऐसे उत्परिवर्तनों को जांचने के तरीके आनुवंशिकीविदों द्वारा विकसित किए जा चुके हैं, फलस्वरुप खास चिन्ह धारक मानव वंशजों/विरासतों वाली आबादियों को स्पेन्सर द्वारा पहचाना और वर्गीकृत किया जा रहा है। इसी प्रक्रिया को ही `जीनोग्राफी´ का नामकरण मिला है। यानी पारम्परिक `जियोग्राफी´ (धरती का मान चित्रण-भूगोल) के बाद, अब ज्ञान की एक नई शाखा `जीनोग्राफी´ यानि कि `जीन मानचित्रण।


धरती के विभिन्न भूभागों में रहने वाली देशज मानव आबादियों के सन्दर्भ में इस जीन मानचित्रण के महत्व को विशेष रुप से आँका जा रहा है। मनुष्य के जीन मानचित्रण में वाई गुण सूत्रों तथा माइटोकािन्ड्रल डीएनए की प्रमुख भूमिका है। वाई गुणसूत्र जहाँ एक अन्तर्नाभिकीय रचना है, माइटोकािन्ड्रयल डीएनए नाभिक के बाहर साइटोप्लाज्म में पाये जाने वाले `ऊर्जा भण्डारों´ यानि माइटोकािन्ड्रया के भीतर मिलता है, किन्तु इसकी भी प्रकृति आनुवंशिक होती है। वाई गुणसूत्र जहाँ पिता से मात्र पुत्र की वंश परम्परा में अन्तरित होता चलता है, माइट्रोकािन्ड्रयल डीएनए मां से पुत्रियों की वंशावली में भी संवाहित होता है।

नृशास्त्रियों और आनुवंशिकी विदों की टोलियों ने मानव के वंश परम्परा के उद्गम-अतीत की खोज में ऐसे `आदि मनु´ (!) और ऐसी `आदि (सतरुपा!) के जीवाश्मों को ढूंढ निकाला है, जिनसे मौजूदा मानवों का उद्भव हुआ है। दरअसल हमारी आदि मां जो आज के सभी नर-नारियों की निकटतम पुरखा मानी गई है, अफ्रीका के इथोपिया प्रान्त में करीब डेढ़ लाख वर्ष पहले गुजर बसर कर रही थीं। स्पेन्सर के अनुसार हमारी-आदि पुरखा मां की यह खोज ``जैव-आणुविक´´ घड़ी तकनीक के सहारे सम्भव हुई है, जिसमें व्यतीत हुए समय और मातृ परम्परा के डीएनए में हुए वंशाणुवीय विचलनों के अन्तर्सम्बन्धों को जाँचा जाता है। इससे मानव के विकास से जुड़ी कड़ियों की जानकारिया¡ हासिल की जाती हैं। इसी तरह, वाई गुणसूत्रों के चिन्ह की पुरखों तक हुई खोजबीन से यह जानकारी मिली है कि हम जिस आदि पुरुष (मनु या आदम) के वंशधर हैं वह अफ्रीका में करीब 60 हजार वर्ष पहले जीवनयापन करता था। डीएनए चिन्हकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मनु या सतरुपा/आदम और हव्वा से जुड़ी हमारी पौराणिक मान्यताओं के विपरीत इनके काल खण्डों में बड़ा अन्तराल है, यानि हमारी आदि मां तथा आदि पिता -मनु में समय का फासला लगभग एक लाख वर्ष का है। मतलब यह कि `जेनेटिक´ आदम और हौवा (या मनु और सतरुपा) न तो धरती पर साथ जन्में और न ही एक साथ रह पाये!

अभी आगे भी है .........

Friday, 27 June 2008

आख़िर जीनोग्रैफी परियोजना है क्या बला ?

जीनोग्रैफी परियोजना के बारे में मेरी पिछली पोस्ट पर कुछ मित्रों ने कई तरह की जिज्ञासाएं प्रगट की हैं .अतः इसके बारे में थोडा परिचित हो लें ।
मशहूर अमेरिकी संस्था, नेशनल जियोग्रैफिक और आई0बी0एम0 (कम्प्यूटर) प्रतिष्ठान ने मिलकर एक लाख से भी अधिक मनुष्यों के डी0एन0ए0 की जा¡च का बीड़ा उठाया है। अप्रैल, 2005 में शुरू हुई पाँच वर्षीय इस मुहिम का नाम `जीनोग्रैफिक प्रोजेक्ट´ रखा गया है। उद्देश्य है अफ्रीकी महाद्वीप से, मनुष्यों के उद्भव/उद्गम के उपरान्त धरती के कोने-कोने तक फैल चुकी मानव आबादियों के प्रवास गमन मार्गों की खोज और डी0एन0ए0 के विश्लेषण से विभिन्न देशज मानव आबादियों की आपसी समानताओं और विभिन्नताओं की पड़ताल करना। यह महत्वाकांक्षी परियोजना लोगों को उनके आदि पुरखों और वंश - इतिहास की भी मुकम्मल जानकारी मुहैया करायेगी। साथ ही, इस परियोजना के चलते भारत तथा विश्व इतिहास तथा पुराण के कई अन्धेरे पक्षों को भी आलोकित हो उठने की उम्मीदें जग गई हैं।
मसलन, भारत में मनु पुत्रों के पहले पग चिन्ह कब और कहाँ पड़े? भारत में आर्य बाहर से आये या नहीं। सिन्धु घाटी की सभ्यता से पूर्व भी क्या भारत में कोई सभ्यता मौजूद थी? पुराणों में वर्णित देवासुर-संग्राम तथा राम रावण युद्ध का यथार्थ क्या है, आदि, आदि। इसी तरह वैिश्वक इतिहास के अनेक अध्यायों को पुनर्परिभाषित किये जाने की स्थिति भी उत्पन्न हो गयी है। शायद यही कारण है कि इस परियोजना के प्रयोग परिणामों की ओर अनेक बुिद्धजीवियों, इतिहासकारों, प्राच्यविदों की सतर्क निगाहें उठ चुकी हैं और वे पल-पल इसकी प्रगति की जानकारी ले रहे हैं। इस परियोजना के मुखिया स्पेन्सर वेल्स स्वयं एक प्रतिभाशाली इतिहास वेत्ता रहे हैं और वे एक जाने माने आनुवंशिकी विशेषज्ञ भी हैं।एक मणि कांचन संयोग . उन्होंने विश्वभर में फैले कई देशज/मूल निवासियों के डीएनए में पाये जाने वाले खास जीन चिन्हकों की पहचान कर ली है जिससे समान या असमान मानव वंशजों की खोज खबर काफी आसान सी हो गई है। यही नहीं अब अनेक वंशावलियों के प्राचीन जेनेटिक-इतिहास को जानना भी सम्भव हो चला है। चालीस लाख डालर के शुरुआती फंण्ड से संचालित इस जीन मानचित्रण परियोजना को वैट्ट फैमिली फाउण्डेशन का भी उदात्त सहयोग मिला है।
क्रमशः ........

Wednesday, 25 June 2008

धत्त तेरे की ,मैं आयतुल्ला खुमानी के खानदान का थोड़े ही हूँ!


इन दिनों जेनेटिक्स की दुनिया में जीनोग्रैफी जांच की बड़ी चर्चा है .इस जांच से यह पता चल सकता है कि आप के पुरखों का उदगम कहाँ हुआ .और अब आप के साथ आपके पुरखों की वंश बेलि इस धरा पर कहाँ कहाँ बनी हुयी है ?यानि यह जांच आपकी जेनेटिक जड़ों और जमीन को उजागर कराने वाली है .मेरी भी बेतहाशा इच्छा हुयी कि मैं भी इस जांच के परिधि में आ जाऊं .लिहाजा डीएनए जांच किट का आर्डर दे दिया -यह मुझे आईबीएम , नेशनल जिओग्राफिक और वैट फाउन्दैशन अमेरिका के संयुक्त प्रतिष्ठान से साढे चार हजार रूपये में प्राप्त हुयी.और निर्देशानुसार मैंने गाल के अंदरूनी खुर्चनों को वहाँ से आए परखनली के सरंक्षक घोल में डाल कर भेज दी .और अब मेरी जांच रिपोर्ट इन्टरनेट पर है -यहाँ .आपको इस कोड - FWSNPLP48Lसे लागिन करना होगा -समय मिले तो देखें .इस सारे तामझाम का नतीजा यह है कि मेरे Y क्रोमोसोम के चिन्ह्कों ने यह उजागर किया है कि मैं M-9 समूह का सदस्य हूँ और ४०००० वर्ष पहले मेरे एक परम आदरणीय आदि पुरखे इरान या मध्य एशिया में कहीं जन्मे और मेरे इस चिन्हक M-9 को धारण किया और तब से M9 धारी जन इस धरा को धन्य कर रहे है -M9 का यह जेनेटिक गोत्र यूरेशियन CLAN कहलाता है .यह रोजी रोटी -शिकार की तलाश में आगे बढ़ा तो दक्षिणी मध्य एशिया के विशाल पर्वतों -हिदूकुश ,तियन शाह और हिमालय -पामेर नॉट ने रास्ता रोक लिया .मजबूर हो ये तजाकिस्तान से ही वापस मुडे -एक दल मध्य एशिया की और चला गया और दूसरा आज के पाकिस्तान से होते हुए भारत में पश्चिम उत्तर से घुसे -मेरे पूर्वज भी इन्ही में से थे .आज चेकोस्लोवाकिया ,मध्य एशिया और इरान के कई हिस्सों में मेरे समूह के लोग आबाद है -भारत में हिन्दी बोलने वाले करीब ३५% लोग मेरे M9 समूह के ही हैं .उत्तरी अमेरिका में भी यह चिन्हक पाया गया है .आज मेरे बन्धु बांधव पूरी दुनियाँ में फैले हुए हैं -अगर कोई वैश्विक सरकार बनी तो मेरे चुनाव जीतने के चांसेस हैं !

Friday, 13 June 2008

एक जाति प्रथा वहाँ भी है !

एक जाति प्रथा सामाजिक कीटों में भी है -जहाँ कई किस्म के वर्ग हैं जो काम के विभाजन की अद्भुत बानगी प्रस्तुत करते हैं .दीमक ,चीटियाँ ,ततैये ऑर मधुमखियों में एक बहुत ही जटिल सामाजिक संगठन देखने को मिलता है .इस प्रकार के अध्ययन को अमेरिकी वैज्ञानिक ई ओ विल्सन ने विगत दशक के आंठवें दशक में पूरी प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया ऑर मशहूर अमेरिकी पुरस्कार 'पुलित्जर पुरस्कार 'से नवाजे गए .उन्होंने जीव जंतुओं में सामजिक संगठन की जैवीय पृष्ठभूमि को समझने बूझने के एक नए विज्ञान को ही जन्म दे दिया -नाम दिया ,सोशियोबायलोजी अर्थात समाज जैविकी .आश्चर्य है कि तीन दशक के पश्चात् भी इस विधा में भारत ने कोई संगठित पहल नही की है ।
जैसी सामाजिक व्यवस्था इन कीटों में पाई जाती है वह मनुष्य के अलावा किन्ही ऑर जंतु -यहाँ तक कि स्तन्पोशियों में भी नही मिलती .इन कीटों में रानियाँ ,बादशाह ,श्रमिक ,सैनिक तथा अढवा -टिकोर के लिए कारिन्दें भी होते हैं और क्या मजाल किसी के काम मे कोई चूक हो जाय .सभी एक जुटता से काम करते हैं और एक विशाल प्रणाली को जन्म देते हैं ।
यहाँ अभी तक आरक्षण की मांग नहीं उठी है .

Wednesday, 11 June 2008

जहाँ वे हमसे बेहतर हैं !

जहाँ वे हमसे बेहतर हैं !जी हाँ, कई पशु पक्षियों के सामजिक जीवन के कुछ पहलू पहली नज़र में हमें ऐसा सोचने पर मजबूर कर सकते हैं .मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानव व्यवहार दरअसल इन सारे पशु पक्षियों से ही तो विकसित होता हुआ आज उस मुकाम पर है जहाँ मानव एक सुसंस्कृत ,सभ्य प्राणी का दर्जा पा लेने का दंभ भरता है -हमारे राग ,द्वेष ,अनुराग विराग के बीज तो कहीं इन जीव जंतुओं में ही हैं -बस एक पैनी नज़र चाहिए .आईये सीधी बात करें .यानी पशु पक्षियों के सामाजिक जीवन पर एक दृष्टि डालें -
कई जंतु जीवन से बेजार से लगते है और ताजिन्दगी एकाकी रहते हैं -बस प्रणय लीला रचाने मादा तक पहुचते हैं और रति लीलाओं के बाद अपना अपना रास्ता नापते हैं .कई तरह की मछलियाँ जैसे रीवर बुल हेड ,अनेक सरीसृप यानि रेंगने वाले प्राणी -मुख्य रूप से सौंप ,पंडा और रैकून जैसे प्राणी इसी कोटी में हैं .यहाँ शिशु के देखभाल का सारा जिम्मा मादाएं ही उठाती है ,निष्ठुर नर यह जा वह जा ....मगर एक दो अपवाद भी हैं ,जैसे नर स्टिकिलबैक तथा नर घोडा मछली ही बच्चे का लालन पालन करते हैं .यहाँ तो वे हमसे बेहतर नहीं हैं .मनुष्य में ऐसा व्यवहार नही दिखता ,क्योंकि यहाँ मानव शिशु की माँ बाप पर निर्भरता काफी लंबे समय की होती है अतः एकाकी जीवन से उनकी देखभाल प्रभावित हो सकती है और चूँकि वे वन्सधर हैं ,मानव पीढी उनसे ही चलनी है अतः कुदरत ने इस व्यवहार को मनुष्य में उभरने नहीं दिया -पर अपवाद तो यहाँ भी हैं !
एकाकी जीवन से ठीक उलट पशु पक्षियों में हरम /रनिवास का सिस्टम भी है -बन्दर एक नही कई बंदरियों का सामीप्य सुख भोगते हैं !और नर सील को तो देखिये,[बायीं ओर ऊपर ], वह सैकडों मादा सीलों का संसर्ग करता है -हिरणों और मृगों में भी यह बहु पत्नीत्व देखा जाता है .
कुछ बन्दर तो मादाओं के संसर्ग में रह कर जोरू का गुलाम बन जाते हैं -भले ही वह समूह का मुखिया होता है पर मादाओं के सामने मिमियाता रहता है -कहीं यह व्यवहार कुछ हद तक मनुष्य में भी तो नही है ?ख़ास तौर पर जहाँ पत्नी /प्रेयसी की संख्या एकाधिक हो ?
और कहीं कहीं तो पूरा मात्रि सत्तात्मक समाज देखने को मिलता है जैसे अफ्रीकी हांथियों में !उनमें नर हाथीं को दबंग मादा के सामने भीगी बिल्ली बनते हुए देखा जा सकता है .कुछ और व्यवहार प्रतिरूप कल ........

Monday, 9 June 2008

काकभुसुंन्डी के कारनामे !

अरे ई का कर रहे हैं जी ?
जंतुओं में बुद्धि के स्तर को जांचने का एक पैमाना है उनके द्वारा औजारों के प्रयोग की कुशलता.इसमें हमारे चिर परिचित काकभुसुन्डी जी को महारत हासिल है .इनसे जुडी सारी दंत कथाएंऔर आख्यान निर्मूल नहीं हैं .यह अकारण ही नही है कि ये महाशय रामचरित मानस में एक केन्द्रीय भूमिका में हैं -दरसल उत्तर काण्ड को काकभुसुन्डी काण्ड भी कह सकते हैं -दत्तात्रेय ने २४ पशु पक्षियों को अपना गुरु माना तो बाबा तुलसी ने अपावन ,काले कलूटे ,क्रूर कर्मा कौए को काकभुसुन्डी के चरित्र में अमरत्व प्रदान कर दिया .कारण ? वे प्रकृति प्रेमी होने के नाते यह जानते थे कि बुद्धि और चातुर्य में कौए की बराबरी कोई और नही कर सकता .कई साहित्यकारों ने भी काक वर्णन में काफी उदारता बरती है .सत्यजीत राय की 'द क्रो' कहानी पढने लायक है .भक्ति और श्रृंगार साहित्य भी कौए की करामातो से भरा पडा है .'काग के भाग के क्या कहिये, 'नकबेसर कागा ले भागा 'आदि आदि .

कौए के व्यवहार अध्ययन को रूसी वैज्ञानिकों ने प्राथमिकता दी ..करीब ४० वर्ष पहले ही एक रूसी व्यवहार विज्ञानी ने पता लगा लिया था कि कौए गिनती गिन सकते हैं -जंगल के एक शिविर में पाँच वैज्ञानिक थे ,एक कौआ वहाँ खाने की ताक झाक में तभी जाता था जब उसे यह पक्का इत्मीनान हो जाता था कि सभी पाँचों उस शिविर से बाहर चले गए हैं .उसे तरह तरह से भरमाने की कोशिश की गयी पर उसकी गिनती हमेशा सही रहती थी .कौए और घडे की कहानी में कुछ भी अतिरंजना नही है .अभी हाल के कई अध्ययनों में इनके बुद्धिजनित औजार के प्रयोगों पर व्यापक चर्चा हुयी है .आकलैंड विश्वविद्यालय के जाविन हैण्ड और आक्स फोर्ड के एलेक्स कसेलिंक ने अपने शोध पत्रों में कौए के बारे में यह बताया है कि वह औजारों के कई प्रयोगों के मामले में निष्णात है -यदि बोतल में से खाद्य सामग्री सीधे तार के टुकडे से नही निकल रही है तो उसे मोड़ कर उस सामग्री के निकालने में उसे ज़रा भी देर नही लगती .ये शोध अभी जारी हैं ।

कौए के अलावा कुछ समुद्री पक्षी घोंघे और शंख को पहले पत्थर के टुकडे पर पटकते है जिससे उनके कवच टूट जायं .चिपांज़ी और ओरागुतान तो और भी बुद्धिजनित व्यवहार दिखाते हैं .इस पोस्ट को लिखने के दौरान एक कौए महाशय लगातार अपने कर्कश आवाज में कुछ कहे जा हैं मानो अपनी पोल न खोलने को आगाह कर रहे हों .इसलिए अब विराम !

Sunday, 8 June 2008

वे भी कुछ कम नहीं !

डेज़ी-एक प्यारी कुतिया
जीन और मानव समाज का मुद्दा सारी दुनिया में विवाद ग्रस्त है ,इसलिए इन पोस्टों पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिल रहीं है -सभी का स्वागत है .मैं विज्ञान का अध्येता रहा हूँ अतः फतवों में मेरा विश्वास नही हैं -सार्थक बहस अच्छी लगती है .वादे वादे जायते तत्वबोधः।
आज इस छोटी पोस्ट में मैं उन नवीनतम शोधों का जिक्र करना चाहता हूँ जो यह संकेत करती हैं कि कई जीव जंतुओं में भावनाओं का जज्बा भी है .जंतुओं में भावनाओं के बारे में विशद अध्ययन चार्ल्स डार्विन ने किया था .उन्होंने अपनी पुस्तक ,'द इक्स्प्रेसंस ऑफ़ द इमोसंस इन एनिमल्स एंड मैन' में अपने कुत्ते के इमोशनल व्यवहार पर लिखा था .मेरी अपनी एक कुतिया -पाम्रेनियन ब्रीड की है जिसमें मैंने डार्विन के प्रेक्षनों के अनुरूप ही इमोशनल व्यवहार पाया है -एक नए पिल्ले के आने पर उसका व्यवहार बदल गया और वह हम लोगों से कट कर रहने लगी जैसे उसे आभास हो गया हो कि उसकी उपेक्षा हो रही है .नौबत यहाँ तक जा पहुँची कि उस पिल्ले को किसी और को देना पड़ गया .यह सौतिया डाह था या कुछ और ,विवेचना का विषय है .क्या डेजी ,मेरी कुतिया उसे मिल रहे हमारे अटेंशन के बटवारे से अवसादग्रस्त हो गयी थी ?
हाथी अपने दल के साथी के घायल होने पर दुखी हो जाने जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं .गैंडे अपने शावक के मरने पर उसे घेर कर और मृतक का सिर बारी बारी से सूंघ कर एक विचित्र कर्मकांड करते देखे गए हैं .हमारी जानी पहचानी गायक चिडिया दहगल भी ऐसा कुछ व्यवहार दिखाती है .चिपांज़ी झरनों के देखते ही नाचने लगते हैं मानो खुशी का सामूहिक इजहार कर रहें हों .स्पर्म व्हेलें जब भी बड़े जालों से छुडाकर मुक्त की जाती हैं बार बार छुडाने वालों के पास आती हैं मानों कृतज्ञता ज्ञापित कर रही हों .क्या ये उदाहरण पर्याप्त नहीं जो ये बताते हैं कि जानवरों में भी भावनाएँ हैं ?

Saturday, 7 June 2008

इथोलोजी ,कुछ और बेसिक्स !

इथोलोजी ,कुछ और बेसिक्स ! -मनुष्य बोलता है इन जीव जंतुओं में !

मुझे, प्राणी व्यवहार पर अपनी जो कुछ भी अल्प जानकारी है अपने मित्रों ,जिज्ञासु जनों में बाटने में अतीव परितोष की अनुभूति होती है और फिर जब हिन्दी ब्लाग जगत का एक विज्ञ समुदाय इसमे रूचि ले रहा है तो एक उत्तरदायित्व बोध भी इस अनुभूति के साथ सहज ही जुड जाता है .अभी तक मैंने प्राणी व्यवहार से मानव व्यवहार तक के व्यवहार प्रतिरूपों की चंद बानगियाँ यहाँ प्रस्तुत की हैं -विगत एक ब्लॉग में मैंने कुछ बेसिक जानकारियाँ भी दी थी ताकि इस विषय की मूल स्थापनाओं को जाना जा सके और प्राणी व्यवहार को उसके सही ,विज्ञान सम्मत परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके ।

आज उसी क्रम में कुछ और बातों को रख रहा हूँ .सायकोलोजी भी मानव व्यवहार का अध्ययन है पर इथोलोजिकल परिप्रेक्ष्य में मानव व्यवहार का अध्ययन मनुष्य की पाशविक विरासत की समझ से जुडा है .अब अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है के सवाल को एक मनोविज्ञानी अल्बर्ट पिंटों को एक पृथक मानव इकाई के रूप में मे ही लेकर हल करेगा किंतु एक इथोलोजिस्ट अल्बर्ट पिंटो की समस्याओं को उसके जैवीय विकास और अन्य उन्नत पशु प्रजातियों -कपि-वानर कुल में समान व्यवहार के सन्दर्भ में व्याख्यायित करेगा .आशय यह कि एक मनोविज्ञानी मनुष्य के व्यवहार को महज एक आइसोलेटेड इकाई के रूप में देखता है जब कि व्यवहार विज्ञानी उसे जंतु व्यवहार के विकास के आईने में देखता है ।

लेकिन प्रेक्षक चूंकि मनुष्य स्वयं है अतः प्रायः जंतु वयहारों की व्याख्याओं में 'मानवीयकरण '[ऐन्थ्रोपोमार्फिज्म ] का आरोपण हो जाता है -लेकिन यह जंतु व्यवहारों के अद्ययन में एक चूक के रूप में देखा जाता है .इस चूक के कई उदाहरण हैं .इस बात को हम अपने साहित्य की कई अवधारणाओं ,संकल्पनाओं से सहज ही समझ सकते हैं -किस्साये तोता मैना में मनुष्य ने अपनी व्यथा कथा को तोता मैना में आरोपित कर दिया है -अब भला तोते मैंने आदमी के मनोभावों से संचालित थोड़े ही हैं -साहित्य की समझ वाले तो इसे जानते समझते हैं पर कई भोले भली आदमी आज भी यह जानते है कि सचमुच तोता मैना का वैसा ही आचरण हो सकता है ।वे समझते हैं कि पपीहा पी कहाँ पी कहाँ की रट लगा कर अपने साथी को ही खोज रहा है ,चकवा चकई भी विरह के मारे हैं - इथोलोजिस्ट ऐसे मानवीयकरण से बचता है .वह जानता है कि मनुष्य ही बोलता रहा है इन जीव जंतुओं में !

इसका मतलब नही कि जंतुओं मे भावनाएँ नही होतीं -उनमें भी कई 'मानवोचित, व्यवहार देखे गए जिन पर व्यवहार्विदों में विचारमंथन चल रहा है -जैसे -संस्कृति ,औजारों का उपयोग ,नैतिकता ,तार्किकता और व्यक्तित्व केवल मानव विशेस्ताएं ही नहीं हैं इन्हे कुछ जानवर भी प्रदर्शित करते हैं -जिनकी चर्चा आगे होगी .

Friday, 6 June 2008

तू मेरी पीठ खुजा ,मैं तेरी !


ज्ञान जी और दिनेश जी की भावनाओं को मैं समझ सकता हूँ जो उन्होंने मेरे पिछले पोस्ट की प्रतिक्रिया में व्यक्त किए हैं -मैं उनसे सहमत हूँ पर यहाँ व्यवहार विद क्या खिचडी पका रहे हैं उसकी चर्चा हो रही है ।

हाँ, तो बात परोपकार की चल रही थी ।जीन विदों की माने तो कोई भी प्रत्यक्ष परोपकारी व्यवहार निस्वार्थ नही होता उसके पीछे दरसल हमारे वन्शाणु -जीन अपना उल्लू सीधा कर रहे होते हैं .सगे संबधी के लिए जान पर खेल जाना तो समझ मे आता है मगर दूर दराज के सम्बन्धों ,जान पहचान के लोगों के बीच के सम्बन्धों में कौन सा जीनी स्वार्थ होता है इस पर भी व्यव्हार्विदों ने नजर डाली है.

जीन विदों का कहना है अरचित-परचित के बीच रेसेप्रोकल अल्त्रूइस्म का बात व्यवहार चलता है -'तूं मेरी पीठ खुजा और मैं तेरी ' यानि गिव एंड टेक टाईप का सम्बन्ध . यानि अपरोक्ष रूप से परोपकार के कई बात व्यवहार स्वार्थ की कामना लिए ही होते हैं . कई धूर्त लोग मनुष्य के इसी जैवीय प्रवृत्ति का शोषण करते हैं -नेता देशप्रेम और मजहब के नाम पर आम आदमी की इसी नैसर्गिक वृत्ति को दुलराता है - जिसके भयानक परिणाम भी होते रहे हैं, कौम के नाम पर कत्ले आम ,मजहब के नाम पर मरने मारने पर उतारू हो जाना बस जीनों की इसी वृत्ति को हवा दे देना भर है ,परोपकार की पीछे प्रत्युतप्कार की अपेक्षा छिपी होती है ।
पर समाज में ऐसे कृतघ्नी भी हैं जो अहसान भूल जाते हैं -ऐसा जंतु जगत में भी है -एक समुदाय वैम्पायर चमगादरों का [ऊपर का चित्र ]है जो जानवरों का खून चूसते हैं और आपस में बाँट लेते हैं ,जिससे यदि कोई दुर्बलता के चलते कम खून पी पाया हो तो उसका काम भी चल जाय -यहाँ यह अपेक्षा होती है कि वह दुर्बल चम्गादर ठीक होने पर ऐसा ही करेगा .पर कभी कभार कोई कृतघ्नी निकल जाता है -उसका हश्र उस चम्गादर कुनबे मे बुरा होता है -उसकी कृतघ्नता उजागर हुयी कि नही उसे मार पीट कर कुनबे से बाहर कर दिया जता है -सबसे कठिन जाति अवमाना !. पर मानव चम्गादारों -कृतघ्नियों से पार पाना मुश्किल है .वे जाति बहिष्कार के बाद ,जिला बदर के बाद भी अपनी धूर्तता से बाज नही आते ।

आज यहाँ विराम -यह तो अनंत कथा है .

Thursday, 5 June 2008

परोपकार ,एक इथोलोजिकल नज़रिया !

फायर !अरे भीतर कोई फँस गया है बिचारा ![फोटो सौजन्य -फायर प्रूफ़ ]
हमकितने परोपकारी हैं ? क्या हम किसी ऑर के भले के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर सकते हैं ?परोपकार का महात्म्य हमारे धर्म ग्रंथों मे विस्तार से है .परहित सरिस धर्म नही भाई !गीता तो उन्हें 'सुहृद 'कहती है जिन्हें नही चाहिए अपने उपकार का बदला । सुहृद को प्रत्युतपकार की चाह नही रहती . यानी नेकी कर दरिया में डाल .ऐसे मानव व्यवहार का भी विश्लेषण व्यवहार विदों ने किया है ।

व्यवहार विद मानव व्यवहार के उदाहरण पहले जंतु जगत में खोजते हैं .फिर मानवीय सन्दर्भ में उसकी व्याख्या करते हैं .जंतुओं में दूसरे या अपने परिवार के सदस्यों की जान बचाने की खातिर जान की बाजी लगाने के उदाहरण हैं -टिटहरी अपने अण्डों बच्चों को शिकारी से बचाने के लिए घायल होने का स्वांग रचती है और शिकारी को ललचाती हुयी कांपते तर्फते दूर तक निकल जाती है -यह समझ कर की शिकारी काफी दूर आ गया है और अब अंडे बच्चे सुरक्षित है -वह घायल होने का नाटक बंद कर फुर्र हो जाती है .घोसले पर लौट आती है .कौए अपने एक साथी की मौत पर कितना शोर शराबा करते हैं -सड़क जाम जैसा उपक्रम करते हैं .मानव में यह भाव भी पराकास्ठा तक पहुंचा हुआ है .वह अपने प्रियजन की रक्षा में जान तक देता हुआ देखा गया है -फ़र्ज़ कीजिये एक घर में आग लग गयी है ,एक कोई उसमे से निकल नही पाया है फँस गया है -यह कोई किसी का सगा हो सकता है नही भी हो सकता है -भीड़ स्तब्ध है ,क्या किया जाय -अचानक ही कोई हीरो सचमुच आ धमकता है -वेलकम फिल्म के नायक की तरह और वह 'कोई' सुरक्षित बचा लिया जाता है -बाहर से यह परोपकार -आत्मोत्सर्ग जैसा कुछ लगता है ,मगर यह सब हमारे जीनों का कमाल है ,उनकी परले दर्जे की स्वार्थपरता है -वे अपने को ,अपनी किस्म को बचाते है और बचाने वाला उन जीनों के झांसे में आ जाता है .हम दरअसल अपने जीनों के गुलाम हैं .उनकी गिरफ्त में हैं .तय पाया गया है की परोपकार के ऐसे जज्बे हमारे जीनों -वन्शाणुओं की अभिव्यक्ति हैं और अपनी प्रजाति की रक्षा के स्वार्थ से प्रेरित हैं -यह जेनेटिक सेल्फिश्नेस है .इसके कुछ और मानवीय पक्षों को हम अगली पोस्ट में कवर करेंगे .

Tuesday, 3 June 2008

ये कैसी माँ है कोयल भी !

कक्कू परिवार का भोंदू ऑर उसकी
देखभाल में अपना वजन घटाती एक
बेचारी वार्ब्लेर
आज भी प्रकृति प्रेमी कुछ कम नहीं हैं .इम्प्रिन्टिंग वाली अपनी पोस्ट के अंत में मैंने एक सवाल उठाया था कि कौन सा ऐसा पक्षी है जो इम्प्रिन्टिंग का अपवाद है .तुरत उत्तर आया कोयल .बिटिया ने सुबह ही यह बाजी जीत कर ईनाम के १०० रूपये झटक लिए थे .बालकिशन जी ने ऑर रजनीश जी ने भी अपने प्रकृति ज्ञान की बानगी दे दी .जी हाँ ,कोयल अपना अंडा कौए के घोसले में दे आती है ,उसमे अपने बच्चों के लालन पालन की प्रवृत्ति का लोप है .अब कोयल के बच्चे पलते तो हैं कौए के घोसले में पर काक दम्पत्ति से इम्प्रिंट नही होते .यह एक बड़ा अद्भुत व्यवहार है .इस विचित्र व्यवहार पर आज भी वैज्ञानिकों -पक्षी विदों में माथा पच्ची चल रही है .कैसी माँ है यह कोयल भी ...शेम शेम ...पर वह बेचारी करे भी क्या ,ऐसा वह जान बूझ कर तो करती नहीं ,दरअसल उसमे वात्सल्य के जीनों का अभाव है .ऑर पक्षी जगत में वह अकेली प्रजाति नही अनेक ऐसे पक्षी हैं -काला सिर बत्तखें ,हनी गायिड्स ,काऊ बर्ड्स ,वीवर बर्ड्स ,वीदूएँ वीवर्स ऑर ४७ प्रजाति की कक्कू प्रजातियां जिनमें हमारी कोयल भी शामिल है.कोयल ही नही हमारा चिर परिचित काव्य विश्रुत पपीहा ऑर चातक भी नीड़ परजीवी पक्षी हैं .पपीहा तो बेचारी भोली भाली सतबहनी चिडियों के घोसलों में अपना अंडा देती है -वे प्राण पन से उस परभ्रित बेडौल पपीहा शिशु को पालती हैं -मगर जैसे ही वह उड़ने के काबिल होता है ,भाग चलता है अपने माँ बाप के पास .वे ठगी सी रह जाती हैं ?
कौए
जैसे चालाक पक्षी को भी कोयल बेवकूफ बना अपना शिशु पलवा लेती हैं ।
करीब एक दशक पहले मैंने 'जनसत्ता' में इसी अद्भुत व्यवहार को लेकर एक विज्ञान कथा लिखी थी -अन्तरिक्ष कोकिला '- ऐसा न हो कभी मानव माताएं /मादाएं भी ऐसा ही न करने लगें .कहानी में एक ऐसी ही येलीएन सभ्यता की कहानी हैं जिनमें वात्स्य्ल्य के जीनों का लोप हो गया है ऑर वे भारत के गावों मे चोरी छिपे आकर भोली भाली गवईं औरतों से अपने शिशुओं का लालन पालन करा कर उन्हें अपने साथ वापस ले जाती हैं .कहानी एक ऐसे ही ट्रेंड का इशारा मानव माओं में शिशुओं की देखरेख के प्रति बढ़ती बेरुखी की संभावनाओं का जिक्र कर सामाप्त होती है -और समाप्त होती है आज की यह पोस्ट भी !

Monday, 2 June 2008

एक ऑर रोचक जंतु व्यवहार -इम्प्रिन्टिंग !

कोनरेड लोरेंज़ के आजीवन साथी
प्राणी व्यवहार से से जुडा एक मशहूर वाकया है जो इस विषय के पिता कोनरेड लोरेंज़ से जुडा है .वे एक प्रयोग के दौरान बत्तखों के अण्डों को इन्कुबेटर में सेने के बाद उनसे चूजे निकाल रहे थे -उन्होंने ध्यान नही दिया ऑर एक एक चूजा अण्डों से निकलने के बाद फौरन उनको घेर कर खडा हो जा रहा था .जब दर्ज़न भर चूंजों को वे हैच कराकर जाने के लिए उठे तो सारे चूजे उन्हें पिछिया लिए .वे हैरान कि आख़िर माजरा क्या है .वे आगे बढे ,तेज कदमों से चले फिर थोडा दौड़ने भी लगे पर क्या मजाल कोई भी चूजा उनका साथ छोड दे -वे भी उन्हें पिछियाये ही रहे .थक हार कर हांफते हून्फते वे बैठ गए ऑर ये लो चूजे उन्हें फिर घेर कर बैठ गए -ऑर यहीं से शुरू हुयी विज्ञान के एक बहुत रोचक अध्ययन -इम्प्रिन्टिंग -अनुकरण [?]की शरुआत .
यह एक वह व्यवहार है जिसमे ज्यादातर जंतु अपने जन्म के ठीक बाद या कुछ समय तक अपने पास के किसी भी हिलते डुलते जीवित ईकाई या वस्तु को अपना माँ बाप मान लेते हैं ऑर जीवन भर साथ नही छोड़ते ,यहाँ तक कि उनसे या समान आकार प्रकार से ही यौन सम्बन्ध बनाते है ऑर अपने वास्तविक मान बाप को तवज्जो नही देते .सभी उच् प्राणियों में यह व्यवहार कमोबेश मौजूद है -मनुष्य मे भी । जो शोध का सक्रिय विषय है ।
मनुष्य की कई यौन या व्यवहार गत समस्याओं में इम्प्रिन्टिंग की भूमिका से इनकार नही किया जा सकता ।
हाँ एक पक्षी ऐसा है जिसमे इम्प्र्टिंग नही होती -वह अपवाद है -कोई बताएगा कौन ?

Sunday, 1 June 2008

मछली के मुह मे चिडिया ने दाना डाला !

विषय की अकादमिक चर्चा शुरू करने के पहले आईये कुछ हल्की फुल्की बातें हो जायं .कल ज्ञान जी ने एक टिप्पणी की थी कि उनमें बस कुछ इन्नेट इथोलोजी व्यवहार -क्रोध आदि ही शेष रह गए हैं -सही फरमाया था उन्होंने .मानव में बहुत कुछ सीखा हुआ व्यवहार ही होता है -लेकिन कई इन्नेट व्यवहार से वह भी मुक्त नही है .
मगर यह इन्नेट व्यवहार क्या है ?हम सभी में कई ऐसे व्यवहार होते हैं जो जन्मजात ही आते हैं वे इन्स्तिन्क्टिव -यानि सहज बोध होते हैं .
पहले हम सहज बोध को समझ लें.
सद्यजात बछड़े को माँ[गाय] के थन तक कौन ले जाता है ?उसका सहज बोध .बहुत से प्रवासी पक्षी सहज बोध के चलते ही हजारो किमी यात्रा कर डालते हैं .जब वे उड़ने लायक होते हैं उनके माँ बाप पहले ही दूर देश की यात्रा पर उड़ के जा चुके रहते हैं -लेकिन आश्चर्यों का आश्चर्य कि वे बिना बताये ,बिना मार्ग दर्शन के लगभग उन्ही स्थलों पर जा पहुचते हैं जहाँ उनके माँ बाप डेरा जमाये रहते हैं .कौन उन्हें एक लम्बी और दुर्धर्ष यात्रा को प्रेरित करता है ?सहज बोध !
प्राणी जगत में सहज बोध के अनेक उदाहरण मिल जाएगें -यह विषय आज भी व्यव्हारविदों का पसंदीदा विषय है .यह व्यवहार बुद्धि से इतना पैदल होता है और अकस्मात घटित हो जाता है कि देखने वाले को हैरानी में डाल देता है -अब जैसे घोसले में बच्चों को दाना चुगाती चिडिया को बस एक बड़ी सी खुली चोंच दिखनी चाहिए वह तुरत फुरत उसी में चुग्गा डाल देगी .एक बार तो हद की सीमा तब पार हो गयी जब मुह मे दाना लिए आ रही एक चिडिया ने रास्ते की नदी में एक मछली के खुले मुह में ही अपना चारा डाल दिया. वह मछली सतह पर अचानक आकर खुली हवा से आक्सीजन गटक रही थी .ये सब सहज बोध के उदाहरण हैं .
हमारे नवजात बच्चे आँख जैसी ड्राईंग को देख कर मुस्करा पड़ते हैं -यह उनका केयर सोलिसितिंग रिस्पांस है .सहज बोध है . किसी सद्यजात बच्चे को निहार कर देखिये बह बरबस ही आपकी आंखों को देखकर मुस्करा देगा .
यह सहज बोध की कुछ बानगी है -आगे और कुछ !