Science could just be a fun and discourse of a very high intellectual order.Besides, it could be a savior of humanity as well by eradicating a lot of superstitious and superfluous things from our society which are hampering our march towards peace and prosperity. Let us join hands to move towards establishing a scientific culture........a brave new world.....!
दाढीछुपासकतीहैमुहांसोंसेभरेचहरेको !चित्रसौजन्य -howstuffworks ज्यादातर व्यवहार विद मानते हैं कि दाढी दरअसल पौरुष भरे यौवन की पहचान है -एक लैंगिक विभेदक है बस ! पौरुष का यह प्रतीक मात्र दिखने में ही भव्य नहीं बल्कि यह अपने रोम उदगमों में अनेक गंध -ग्रंथियों को भी पनाह दिए हुए है .मतलब यह चहरे के कई पौरुष स्रावों के लिए माकूल परिवेश बनाए रखती है .किशोरावस्था के आरम्भ से ही चहरे की गंध (सेंट ) ग्रंथिया भी सक्रिय हो उठती हैं -नतीजतन चहरे पर खील-मुहांसों की बाढ़ आ जाती है !जिस किशोर का भी चेहरा अतिशय मुहांसों से भरा हो तो वह बला का की काम सक्रियता( सेक्सिएस्ट ) वाला हो सकता है -कुदरत का यह कैसा क्रूर परिहास है! दाढी से भरा पूरा चेहरा वास्तव में एक दबंग /आक्रामक पुरूष की छवि को ही उभारता है .वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म निरीक्षणों में पाया है कि कोई भी पुरूष जब आक्रामक भाव भंगिमा अपनाता है है तो वह अपनी ठुड्डी को थोडा ऊपर उठा देता है और दब्बूपने में ठुड्डी स्वतः गले की ओर खिंच सी आती है .अब चूँकि पुरूषकी ठुड्डी और जबडा किसी भी नारी की तुलना में अमूमन भारी भरकम होता है -दाढी इसी दबंगता को उभारने की भूमिका निभाती है .हमारा अवचेतन दाढी को इसी आदिकालीन जैवीय लैंगिक सिग्नल के रूप में ही देखता है । तो तय हुआ कि दाढी पुरूष को पौरुष प्रदान करती है -पर तब एक प्रश्न सहज ही उठता है कि फिर रोज रोज यह दाढी सफाचट करने की 'दैनिक त्रासदी' का रहस्य क्या है आख़िर ?यह प्रथा कब क्यों और कैसे शुरू हो गयी और वैश्विक रूप ले बैठी ! यह कुछ अटपटा सा नहीं लगता कि पुरूष अपने ही हाथों अपने पौरुष को तिलांजलि दे देता है और वह भी प्रायः हर रोज ! आख़िर क्या हुआ कि दुनिया की अनेक संस्कृतियों के युवाओं ने इस लैंगिक निशाँ से दरकिनार होने को ठान ली ?किसी भी से पूँछिये दाढी बनाना सचमुच एक रोज रोज के झंझट भरे काम से कम नहीं नही है -हाँ नए नए शौकिया मूछ दाढी मुंडों की बात दीगर है वहां तो कुछ गोलमाल ही रहता है -रेज़र कंपनियां ,आफ्टर शेव और क्रीम लोशन उद्योग तो बस उनके इसी टशन की बदौलत ही अरबों का वारा न्यारा कर रही हैं ! डॉदिनेशरायद्विवेदीऔर मेरे जैसे वयस्कों के लिए तो रोज रोज की समय की यह बर्बादी अखरने वाली ही होती है . एक साठ साला आदमी जिसने १८ वर्ष की उम्र से ही यह दैनिक क्षौर कर्म शुरू कर दिया हो और कम से कम १० मिनट रोज अपना समय इसके लिए जाया करता रहा हो तो समझिये वह कम से कम २५५५ घंटे यानी पूरे १०६ दिन सटासट -सफाचट में ही जाया कर चुका है .तो आख़िर इतनी मशक्कत किस लिए ?? जानेंगे अगले अंक में !
पुरूषपर्यवेक्षण : डाढीऔरबिनादाढीकाफ़र्क नारी की ही भांति पुरूष के भी नरम ,मुलायम चिकने चुपड़े गाल उसकी सुन्दरता ,मासूमियत और सुशीलता के द्योतक रहे हैं .खासकर ये बच्चों के ही उभरे और क्यूट से गालों की ही प्रतीति कराते चलते हैं जिनसे मन में एक तरह का वात्सल्य भाव उमड़ता है .गाल भी मनुष्य की देह का एक कोमल हिस्सा है. मार्क ट्वैन ने एक बार फरमाया था की मनुष्य ही एकमात्र अकेला प्राणी है जिसके गालों पर लज्जा की लाली आती है .व्यवहार विदों की माने तो गालो पर लज्जा की लाली ही नहीं बल्कि क्रोध की तमतमाहट भी साफ़ देखी जा सकती है .मनुष्य के गाल उसकी बदलती भाव भंगिमा की कलई खोलते हैं .जैसे चेहरा सफ़ेद पड़ना किसी के सहसा भयग्रस्त होने की पुष्टि करता है -आदि आदि । पर एक पौरुष आवरण ऐसा है जो नर के गालों को नारी से बिल्कुल एक अलग पहचान देता है . जी हाँ ,गालों और दाढी का आपसी गहरा रिश्ता है -गालों के विस्तीर्ण उपजाऊ मैदान पर ही दाढी की फसल लहलहाती है .यह दाढी ही पुरूष को नारी से अलग एक जबरदस्त प्रत्यक्ष लैंगिक पहचान देती है .किसी औसत आदमी की दाढी दो वर्षों में करीब १ फुट लम्बी हो जाती है .५-६ वर्षों में तो यह काफी भरी पूरी और नीचे तक लटकने वाली हो जाती है .किसी भी दीगर नर वानर कुल के सदस्य की दाढी इतनी भव्यता लिए नही होती .किशोरावस्था का आगमन हुआ नहीं कि पहली मूंछ रेख दिखाई दे जाती है .यह नर हारमोनों की सक्रियता के चलते होता है .वैसे तो एक क्षीड़ सी रोएँ वाली रेखा(peach -fuzz) तो नवयौवना नारियों में भी दूर से तो नही ,काफी करीब जाने पर दिखती है पर , औसत नारी चहरे पर बालों का प्रदर्शन बस इसके आगे रूक जाता है .मगर इसके ठीक उलट किशोरों में यह रोयेंदार मूछ बालों की एक बड़ी फसल का आहट दे देती है .धीरे धीरे यह बाल ,किशोरों के गाल ,ठुड्डी ,पूरे जबड़ों और गले के ऊपरी हिस्सों को भी अपने घेरे में ले लेते हैं .बालों की इस फसल की रोजमर्रा की वृद्धि करीब एक इंच के ६० वें हिस्से के बराबर होती है .मतलब यह कि यदि इनसे कोई छेड़ छाड़ न करे तो ये बाल इसके गर्वीले स्वामी को १ फ़ुट लम्बी लाबी दाढे का तोहफा दो वर्षों में दे डालेंगे . दाढी का जैवीय महात्म्य क्या है ? पहले तो कुछ जानकारों ने कहा कि यह एक कुदरती स्कार्फ है जो नाजुक गले को शीत गरम से बचाता है .जब हमारे आदि पूरवज गुफाओं से बाहर निकल प्रकृति की शीत और ऊष्मा को झेलते थे यह दाढी ही उनकी रक्षा करती थी -इसलिए ही पुरूषों की दाढी है और इसके विपरीत बाह्य वातावरण के आतप से सुरक्षित गुफा जीवन में रहने वाली नारियों में इसकी कोई जरूरत ही नहीं रही इसलिए कुदरत ने इन्हे इस सौगात से मुक्त रखा !मगर इस दावे को दूसरे जैवविदों और व्यवहार शास्त्रियों का समर्थन नही मिला -उनका प्रतिवाद था यदि कुदरत को गले को शीत गर्मीं से बचाने की इतनी ही फिक्र थी तो वह कोई और कारगर तथा स्थायी तरीका अपनाती -कोई स्थायी चर्म आवरण जैसा कुछ ! साथ ही उन्होंने एस्किमों जातियों का उदाहरण भी दिया जिनमें दाढी के बाल बहुत छोटे होते है जबकि उनका पाला एक अति आक्रामक वातावरण पड़ता है -तो फिर प्रकृति ने मनु पुत्रों को दाढी की सौगात क्यों बख्शी ? जानेंगे अगले अंक में !
कहीऐसाहीतोकोईक्षुद्रग्रहनहींआटपकेगाधरतीपर ? मीडिया की बलिहारी ,प्रलय (जो नही आई ) के एक खौफनाक सदमें से हम अभी अभी गुजरे हैं.पर अब प्रलय की जो नई सुगबुगाहट सुनाई दे रही है उसमें तो दम ख़म है .अब जो चेतावनी है वह किसी आसमानी जलजले की संभावनाओं की आहट दे रही है -बकौल खगोल विदों के धरती पर प्रलय अन्तरिक्ष से यहाँ आ टपकने वाले किसी क्षुद्र ग्रहिका या अचानक नमूदार हो जाने वाले धूमकेतु से हो सकती है .तोक्यादबेपाँवआसकतीहैप्रलय ? अन्तरिक्ष अन्वेषियों के एक संगठन ने संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को उठाने की सोची है .वैसे संयुक्त राष्ट्र ने अन्तरिक्ष में धरती के करीब के घुमंतू पिंडों पर कड़ी नजर रखने के लिए बाकायदा एक कमेटी बना रखी है जिसकी बैठक अगले वर्ष विएना में होनी तय है .खगोलविद इसी कमेटी में ही आसमानी जलजले की ओर पुरजोर तरीके से सम्बन्धित लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते है । अगर अचानक कोई पथभ्रष्ट घुमंतू पिंड धरती की ओर लपक पड़े तो क्या होगा ?हम कैसे उसकी टकराहट को रोक पायेंगे ?हमें इसकी काफी तैयारियां समय से कर लेनी होगी .मगरकैसीतैयारियां ? हमें सारी धरती पर कई जगहों पर बहुत शक्तिशाली दूरदर्शियों को स्थापित करना होगा और धरती के सन्निकट के अन्तरिक्ष में हर वक्त नजर गडाए रखनी होगी .ऐसे दूरदर्शी अगले १५ वर्षों में करीब १० लाख घुमंतू पिंडों पर नजर रखेंगे जिन में ८ से १० हजार खतरनाक हो सकते हैं .कुछ खगोल विदों का मनाना है कि एक छोटे से स्टोर नुमा कमरे के बराबर का भी भटका हुआ पिंड धरती पर भारी तबाही मचा सकता है जोतकरीबन४०हजारहिरोशिमाबमोंकीबराबरीकरसकताहै .औरएकाधकिलोमीटरकापिंडतोलाखोंहिरोशिमाबमोंकेविध्वंसकोमातदेसकताहै .जिनसेसारीधरतीहीतबाहहोजायेगी.यदि ऐसा कुछ ज़रा भी संभावित हुआ तो यह वैश्विक आपातकाल का मंजर बनेगा .क्या उन्हें समय रहते हम अन्तरिक्ष में ही किसी तकनीक से विनष्ट कर सकेंगे ? या उनके पथ में ज़रा सा भी बदलाव कर आसन्न बला को धरती से टाल सकेंगे ?ऐसे खतरे से कोई पूजा पाठ तो हमें बचा नहीं सकेगा ,केवल वैज्ञानिक -तकनीक ही हमारा तारणहार बनेगी !इसलिए आज ही से ऐसी तैयारियों के लिए प्रबल जनमत को तैयार करना और राजनीतिक पहल की जरूरत है । यह पूरी ख़बर मशहूरअमरीकन वैज्ञानिक पत्रिका में सुर्खियों में है -यहाँ देखें .
क्याकहतेहैंगौतमबुद्धकेलंबेकान ? युवाओं में भी कानों की बालियों का फैशन एक दशक से उभार पर है .शुरू शुरू में यह समझा जा रहा था की यह समलैंगिकों की पहचान एक पहचान भर है मगर नहीं ,यह तो सभी युवाओं में अब प्रचलन में आ गया है .कारण ? यह बुजुर्गों को चिढाने ,रूढियों के प्रतिकार का मानो एक नया तरीका हो ! यह एक विद्रोही ,व्यवस्था विरोधी युवा की पहचान है !नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि पश्चिमीं देशों के सिरफिरे युवाओं ने कान में ब्लेड की लड़ियों या बिजली के बल्बों जैसे सामान भी लटकाने शुरू कर दिए . १०८० के दशक से फुटबाल प्रेमियों को भी यह फैशन रास आने लग गया .उनके मात्र एक कान हीरे की बालियों से दमकने लगे .भारत में भी इस फैशन की अनुगूंज आयी और यहाँ भी युवा कानों को अलंकृत करने लग गए हैं । कानों से जुड़े कई संकेत दुनियाँ के भिन्न भिन्न भागों में अलग अलग मतलब रखते हैं .खासकर कानों को हाथ से छूना अर्थपूर्ण है .कान चाहे तर्जनी से छुआ गया हो या फिर तर्जनी और अंगूठे से दबाया गया हो -यह संकेतभिन्न भिन्न देशों में अलग अलग मतलब रखता है -जैसे कहीं तो यह स्त्रैण होने का संकेत है तो कहीं यौन सम्बन्ध के लिए गुप्त आमंत्रण .भारत में भी कहीं कहीं कान में तर्जनी उंगली के संसर्ग से यौन संकेत प्रचलन में हैं .मगर इन कर्ण सकेतों को लेकर प्रायः भ्रम की स्थितियां भी दिखती हैं -अगर इच्छित संकेत के रूप में इन्हे नही समझा गया तो जान पर भी आफत देखी गयी है -कुछ देशों में कर्ण संकेत काफी बहूदे और अश्लील माने जाते हैं .इसलिए कोई भाई इन्हे आजमाने के पहले कई बार सोच लें ! गांधी जी का एक बन्दर तो दोनों हाथो से अपना कान ढके रहता है -इस संकेत से तो आप सभी बहली भाति परिचित है हीं । गांधीजीकेभी थे लंबेकानमगरकुंडलसेरहित श्रोतमश्रुतैनैवनकुंडलेंनइति .......
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (रा0वि0प्रौ0सं0प, नई दिल्ली)
भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति, फैजाबाद एवं भारतीय विज्ञान कथा अध्ययन समिति, वेल्लोर, तमिलनाडु के संयुक्त तत्वावधान में पहली बार
विज्ञान कथा- अतीत, वर्तमान और भविष्य विषयक
राष्ट्रीय परिचर्चा (10-14, नवम्बर, 2008)
- आयोजन स्थल -
संजय मोटेल्स एवं रिसार्ट
एअरपोर्ट रोड
वाराणसी
साहित्य की वह सृजनात्मक विधा जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सम्भावित बदलावों के प्रति मानवीय प्रतिक्रिया को मुखरित करती है विज्ञान कथा कहलाती है। भारत में यद्यपि इस विधा का उदगम स्वर्गीय अम्बिकादत्त व्यास जी विरचित विचित्र वृत्तान्त (पीयूष प्रवाह 1884-1888) से हो गया था और `सरस्वती´ ने भी इस नवीन सम्भावनाशील विधा को प्रोत्साहित किया किन्तु कालान्तर में हिन्दी साहित्य और भारतीय जनमानस में इसे निरन्तर उपेक्षित होना पड़ा। विगत् शती के आठवें दशक से (1980 के बाद) इस विधा की ओर रचनाकारों की रूझान बढ़ी और अनुगत दशकों में इस विधा ने राष्ट्रीय स्तर पर पुन: पहचान स्थापित करने में सफलता पायी। क्या भारतीय परिप्रेक्ष्य में विज्ञान कथाओं के महत्त्व को नकारा जा सकता है?विदेशों में समादृत क्या यह विधा अभी भी भारत के सुधी साहित्यिक जनों, आम जनों और वैज्ञानिकों से दूरी बनाये हुए है? सशक्त और विज्ञ नव भारत-2020 के निर्माण में क्या यह विधा भी कुछ योगदान कर सकेगी? इन्हीं विचार बिन्दुओं पर आधारित है प्रस्तावित राष्ट्रीय परिचर्चा- विज्ञान कथा: अतीत, वर्तमान और भविष्य। विज्ञान कथा: अतीत, वर्तमान और भविष्य के मुख्य थीम के अन्तर्गत 5 उप थीम है जिसके अधीन 5 तकनीकी सत्रों के विभाजित समूहों में गहन चर्चा-परिचर्चा से एक सुचिन्तित और सुविचारित `बनारस विज्ञान कथा दस्तावेज, 2008´ की निर्मिति हो सकेगी- जो भारत में विज्ञान कथा से जुड़े पहलुओं पर एक सर्वमान्य दिशा निर्देश की भूमिका का निर्वाह करेगी। उप थीम निम्नवत् होंगे।
१- विज्ञान कथा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:-
इस थीम के अधीन विज्ञान कथा के वैश्विक और भारतीय विकास की गाथा, विभिन्न प्रवृत्तियों और भारत के विशेष सन्दर्भ में विश्व साहित्य से तुलनात्मक/ विश्लेषणात्मक अध्ययनों को समाहित किया जायेगा।
२- विज्ञान कथा की समझ-एक संज्ञानात्मक पहलू :-
विज्ञान कथा- परिभाषा, प्रकृति एवं स्वरूप, फिक्शन और फंतासी का फ़र्क तथा शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के लिए विज्ञान कथा की प्रासंगिकता आदि इस थीम के विवेच्य होंगे।
३- विज्ञान कथा की नवीन प्रवृत्तिया¡ :
इसके अधीन विज्ञान कथा की कई नई प्रवृत्तियों- साइबर पंक, न्यूरोपंक, विज्ञान कथा-काव्य आदि का विवेचन एवं भाषा शैली गत विशेषताओं पर चर्चा होगी। साथ ही विज्ञान कथा सृजन पर संस्कृति के प्रभावों का भी विवेचन होगा। क्या विज्ञान कथा साहित्य सांस्कृतिक प्रभावों से मुक्त एक सार्वभौमिक साहित्य है या संस्कृति से प्रभावित विधा? इस थीम के अधीन इसका उत्तर जानने का प्रयास होगा।
४- विज्ञान कथाओं के जरिये विज्ञान संचार : : क्या यह विधा विज्ञान संचार/संवाद हेतु प्रभावी है? यह एक शैक्षणिक जुगत कैसे बन सकती है? संचार माध्यमों के लिए इसे कितने स्वरुपों में प्रस्तुत किया जा सकता है- नाटक, थियेटर, पोयट्री, झांकिया¡, उपन्यास, कार्टून , कामिक्स या फिल्म आदि? यही इस थीम का विवेच्य है।
५- विज्ञान कथा-भावी परिदृष्य :
क्या विज्ञान कथा को मुख्य धारा (मेन स्ट्रीम) के साहित्य के समकक्ष आना होगा? या इसे मुख्य धारा के साहित्य के संदूषण से बचाना श्रेयस्कर होगा जिससे इसकी विधागत परिशुद्धता बनी रहे। क्या विज्ञान कथा साहित्य का विकास प्रकारान्तर से विज्ञान और प्रौद्योगिकीय विकास को ही प्रभावित करता है़? इस थीम के यही विवेच्य विषय होंगे।
उक्त के अतिरिक्त एक समानान्तर विज्ञान कथा लेखन प्रशिक्षण सत्र नये रचनाकारों के लिए नियोजित है जिसमें वे अनुभवी विज्ञान कथा लेखकों के सीधे सामीप्य में इस विधा की बारीकियों को भली-भा¡ति समझ सकेंगे।
कार्यक्रम का स्वरुप :
प्रतिभागी थीमवार शोध पत्र/ सृजनात्मक आलेख तकनीकी सत्रों में प्रस्तुत करेंगे एवं उसी पर आधारित विभाजित टोलियों में समूह चर्चा होगी।
शोधपत्र/सृजनात्मक आलेख अनुभव जन्य अध्ययनों, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों, समीक्षा शोध-पत्रों तथा नवोन्मेषी विचारों से ओत-प्रोत होने चाहिए।
मानक शोध पत्रों का प्रकाशन/संकलन भी संकल्पित है।
पावर प्वाइण्ट प्रस्तुतिया¡ भी की जा सकेंगी।
माध्यम - हिन्दी और अंग्रेजी
कौन भाग ले सकते हैं? जो विज्ञान कथा साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हों और उनका इस क्षेत्र में योगदान हो। यात्रा फेलोशिप :
यद्यपि संसाधन बहुत सीमित हैं, तथापि विशेष प्रतिभा सम्पन्न प्रतिभागियों हेतु यात्रा फेलोशिप का भी सीमित प्रावधान है जिस हेतु पृथक से प्राप्त आवेदन पर विचार किया जा सकता है। ऐसे प्रतिभागियों को अनुमन्य/निर्धारित श्रेणी में यात्रा व्यय के साथ ही नि:शुल्क पंजीकरण, आवासीय तथा खान-पान की सुविधा उपलब्ध करायी जायेगी।
कृपया पंजीकरण पत्र को
डाक एवं ई-मेल द्वारा निम्न पते
पर भेजें।
(अन्तिम तिथि, 10 अक्टूबर, 2008)
- डॉ0 अरविन्द मिश्र
सेक्रेटेरियेट, (राष्ट्रीय परिचर्चा, 2008)
16, काटन मिल कालोनी, चौकाघाट
वाराणसी-221002 उ0प्र0
फोन :- ़ 91-9415300706, +91-542-2211363
- डॉ0 मनोज पटैरिया,
निदेशक (वैज्ञानिक, एफ)
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद,
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार,
टेक्नोलाजी भवन, न्यू मेहरौली रोड,
नई दिल्ली-110016 (भारत)
फोन :- +91-11-26537976, 26590238,
यहहैइकछल्लानिशानी -साभार -flickr किन्ही भी दो लोगों के कान एक जैसे नहीं होते .इसलिए कभी कानों की बनावट के जरिये ही अपराधियों के पहचान की कवायद शुरू की कई थी मगर फिनगर प्रिंटिंग के चलते यह तरीका जल्दी ही भुला दिया गया .कानों की बारीकियों को पहचानने के लिए उन्हें १३ क्षेत्रों में बँटा गया है -मगर मुख्य भाग तो ललरी (लोब)और डार्विन उभार ही हैं जिनका वैकासिक महत्त्व है .लोब के बनावट में भी भिन्नता पायी जाती है -लटकने वाले फ्री लोब और न लटकने वाले लोब .कानों की बनावट और लोगों के व्यक्तित्व को लेकर आज भी तरह तरह की बातें कही सुनी जाती हैं .जैसे लंबे कान किसी सफल व्यक्ति की निशानी है ,छोटे और गहरे कान किसी दृढ़ता वादी तो नुकीले कान किसी मौका परस्त की पहचान हैं .अरे अरे यह क्या कर रहे हैं आप -अपने कानों को क्यूँ टटोल रहे हैं -अरे भाई इन बातों का कोई वैज्ञानिक पुष्टिकरण तो हुआ नहीं है ! कई और रोचक सन्दर्भ कानों से जुड़े हुए हैं -सूर्य - कुंती पुत्र कर्ण तथा गौतम बुद्धके कर्ण प्रसूता होने के आख्यान क्या इंगित करते हैं ? यह तो स्पष्ट है कि कान महापुरुषों की जीवन आख्याओं से जुडा तो है .यह ज्ञान और विवेक से भी गहरे जुडा हुआ है -शायद इसलिए कि इसी के जरिये हम तक इश्वर और ज्ञान की बातें पहुँचती हैं -श्रोतमश्रुतैनैव .......शायद इसलिए ही पूरी दुनिया में बालकों के कान उमेठने का रिवाज चल पडा -जो मानों बुद्धि के बंद दरवाजों /तालों को खोलने का यह एक उपक्रम हो !हमारे आप में शायद ही कोई इस कानउमेठनसंस्कार से बचा रह पाया हो ! शिक्षकों द्वारा कान उमेठने ,कान पकड़ कर मुर्गा बनाने जैसे दंड बुद्धि के खोलने के यत्न ही तो हैं ? मानों इनके उमेठते रहने से शुषुप्त बुद्धि जागृत हो जायेगी ! "एक कान से सुना दूसरे से बाहर " जैसे फिकरे भी हमें यही बताते रहते हैं कि दोनों कानो के बीच किसी किसी मेंबुद्धि का लोप हो गया रहता है .रोचक तो यह है कि बालकों की तुलना में बालिकाओं के कान कम उमेठे जाते हैं -क्या यह बालिका होने का लाभ है या फिर यह आदिम समझ कि उनका बुद्धि से कोई लेना देना नहीं होता ? सच तो यह है कि आज बुद्धि की कुशाग्रता में बालिकाएं कम नहीं -पर कहीं उनकी भी कुशाग्रता और कानों के उमठने का कोई सम्बन्ध ना हो ? हो सकता है प्रख्यात गणितग्य शकुन्तला देवी के कान उनके शिक्षक उमेठते रहे हों ! कौन जानें !(मात्र विनोद !) कान उमेठने को लेकर एक रोचक बात का खुलासा और हुआ है -कहा जाता है कि बीते दिनों के राजकुमारों के वैसे तो कान उमेठने की मनाही रहती थी मगर शिक्षकों को यह गुप्त हिदायत भी रहती थी कि यदि राजकुमार ज्यादा शरारत करें तो उनके कान खींचे जायं -मगर इसके पीछे एक विचित्र सी अपेक्षा रहती थी कि कान खींचने से राजकुमार के यौनांग लंबे और ठोस बनेंगे -यह कान और यौनांग के सम्बन्ध - प्रतीकार्थ क्यों और कैसे वजूद में आए विस्तृत विवेचन की मांग करते हैं । कानों को लेकर कई ऐसे ही अंधविश्वासों के चलते कई और रीति रिवाज भी शुरू हुए .मसलन पुरुषों के भी कान छेदने की रस्म .कान छेदने के बाद कर्ण छल्ले के मात्र एक कान में पहनावे का चलन ! शेक्सपीयर अपने एक ही कान में स्वर्ण छल्ला पहनते थे ---कारण ? एक ऐसा विश्वास कि छल्ले के जोड़े में से एक पति तथा दूसरा पत्नी पहनें तो दोनों के बिछुड़ने का डर नही रहता -छल्ला कभी बिछड़ जाने पर भी उन्हें मिलाने को आश्वस्त करता था -कभी हजारों मील की समुद्री यात्राओं पर निकलने वाले यात्रियों की वापसी संदिग्ध ही रहती थी -तब इसी एकल छल्ले के साहरे ही लोग वापसी और प्रिया मिलन की आस बांधे रहते थे . चलतेचलते: मरे बचपन के दिनों में एक फिल्मी गाना भी प्रेमी जनों के बीच एक छल्ला निशानी के आदान प्रदान की बात करता था --आजामेरीरानीलेजाछल्लानिशानी -जिससे वे प्रेमी युगल कभी बिछड़ ना जाएँ !आप क्या कुछ और मतलब समझते थे ? मैं भी तो कुछ और..... पर क्या? यह नही समझ पाता था !ख़ुद अपना कान उमेठा तो कुछ समझ आया !! अभीभीबाकीहै ...........
दायाँयाबायाकान ?फ़र्कपड़ताहैजी ! मनुष्येतर प्राणियों-स्तनधारियों और कई नर वानर कुल के सदस्यों में कानों को हिलाने डुलाने की क्षमता होती है -जो ऐसा कानों की कई मांसपेशियों के जरिये करते हैं .मनुष्य भी कानों की कुछ -यही कोई नौ अवशेषी मांस पेशियों के जरिये अपने कानों में जुम्बिश तो ला सकता है मगर खूब हिला डुला नहीं सकता.कुछ लोग अपवाद स्वरुप कड़े अभ्यास से कानों को हिलाने डुलाने में अभ्यस्त हो जाते हैं । कुछ लोगों के कानों के बिल्कुल ऊपरी किनारे पर एक अवशेषी उभार आज भी दिखता है जिसे डार्विन पॉइंट कहते हैं .यह वह अवशेषी सरंचना है जो यह बताती है कि कभी हमारे पुरखों के कान भी नोकदार 'घोस्ट 'नुमा होते थे .विज्ञान कथाओं (साईंस फिक्शन ) में परग्रही लोगों के कानों को आज भी नोकदार दिखाया जाता है . जहाँ तक कानों के व्यवहार पक्ष की बात है उनकी भावनाओं के प्रगटीकरण में डाईरेक्ट भूमिका है .कतिपय भावनात्मक अंतर्विरोधों के समय कान रक्ताभ हो उठते है क्योंकि रक्त वाहिकाओं का अच्छा संजाल कानों तक काफी रक्त संचार कर देता है . रक्त संचार से कानों के किनारे तक सुर्ख से हो उठते है और ऊष्मित भी हो उठते हैं ।प्लायनी ने लिखा था -" यदि कान सुर्खरू और गरम हो उठें तो मानिये कोई पीठ पीछे आपकी ही बातें कर रहा है " चौपाये से दो पाया बनने की हमारी विकास यात्रा में हमारे कानों ने एक कामोद्दीपक अंग की भूमिका भी अपना ली .मुख्य रूप से कानों के नीचे का लोब(ललरी ) कामोद्दीपन की भूमिका लिए हुए है .यह लोबनुमा रचना दूसरेनर वानरों -बन्दर /कापियों में नही मिलती .व्यवहार विज्ञानी मानते हैं कि यह रचना हमारी प्रजाति की बढ़ी हुयी कामुकता की ही परिणति है .काम विह्वलता के गहन क्षणों में ये कर्ण लोब कुछ कुछ फूल से उठते और रक्ताभ हो उठते हैं -प्रचुर रक्त संचार के चलते ये संस्पर्श सुग्राही हो उठते हैं ,बहुत ही संवेदी हो उठते हैं .इसलिए ही प्रेमीजन उनका भिन्न भिन्न तरीकों से आलोडन -उद्दीपन करते जाने जाते हैं .चरम विह्वलता में ये कानों को दातों से दबाते भी हैं .सेक्स संबन्धी मामलों के विख्यात अध्येता रहे किन्से महानुभाव ने अपने सहयोगियों के साथ इंस्टीच्यूट फार सेक्स रिसर्च इन इंडियाना में किए गए शोध के दौरान यह भी पाया था कि ," एकाध नर/ नारी तो मात्र कानों के सतत उद्दीपन से चरम सुख पानें में कामयाब हो गए थे! चलतेचलते .....नए अध्ययन बताते हैं कि दायाँ कान व्याख्यान सुनने और बायाँ संगीत सुनने के प्रति ज्यादा सुग्राही होता है -यहाँ पढ़ें . अभीजारी ........