Friday, 8 August 2008

कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना ..................!

ब्लॉग जगत अभी भी साईब्लाग पर नारी सौदर्य के व्यवहार शास्त्रीय विमर्श पर हुए 'घमासान ' से स्पंदित है और चर्चाओं की अनूगूंज अभी बनी हुयी है ।
इसे दूसरे पानीपत के युद्ध के समकक्ष भी देखा जा रहा है - - शुद्धता वादी भी इसे अभी तक निहार रहे हैं और मानसिक परिताप से आक्रान्त से हैं । .
वैज्ञानिक मनोवृत्ति सदैव सुचिंतित आलोचनाओं को प्रोत्साहित करती आयी है .ये वाद विचारों की उर्वरता की ही ओर इंगित करते हैं .विज्ञान जनित तथ्य किस सीमा तक सामाजिक आचार संहिताओं की परिधि को लाँघ रहे है यह भी अवश्य देखा जाना चाहिए - क्योंकि विज्ञान जीवन जीने का दर्शन हमें नही सिखाता -सामाजिक लक्षमण रेखाएं तो प्रबुद्ध जन ही तय करते हैं .मैं इन विवादों को इसी नजरिये से देख रहा हूँ .वैसे तो मैंने मन बना लिया था कि मानव अंगों के पुनरान्वेशन से अब मेरी तोबा है पर कुछ विचार शील मित्रों का यह आग्रह उचित ही पा रहा हूँ कि जब नारी सौन्दर्य की चर्चा यहाँ हुयी तो फिर पुरुषों की क्यों नहीं ?बात में दम है . तो बैठे ठाले मैं पुरूष के देहान्वेषण पर अध्ययन को अपडेट करनें में लगा हूँ और जल्दी ही नर नारी समानता के पलडे की बराबरी के लिहाज से पुरूष प्रसंग को भी यहाँ चर्चा में लाउंगा.
मुझे आभास है तब भी यहाँ टोका टोकी होगी ,किसकी तरफ़ से -नर या नारी यह भी समय बताएगा .और फिर कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना ..................








Monday, 4 August 2008

दुनिया का सबसे छोटा साँप खोजा गया !

दुनियाँ का सबसे छोटा साँप

नाग पंचमी की पूर्व संध्या पर सर्प प्रेमियों के लिए एक बड़ी ख़बर यह है कि दुनिया का सबसे छोटा साँप दिखा है -जो बारबाडोस के करेबियन आईलैंड से एक अमेरिकी सर्प विज्ञानी ने खोज निकाला है .यह महज १० सेंटीमीटर लंबा है .इसके खोजकर्ता एस ब्लेयर हेजेज है जो पेन्न स्टेट विश्वविद्यालय में वैकासिक जीव विज्ञान पढाते हैं ।


दुनिया मे अब तक ज्ञात ३१०० सर्प प्रजातियों में यह सबसे छोटा पाया गया है .ब्लेयर ने इस नए वामन साँप का नामकरण अपनी पत्नी कार्ला एन् हैस के नाम पर लेप्टो टायिफ्लोप्स कार्ली रखा है -उनकी पत्नी भी सर्प विज्ञानी हैं ।


राहत की बात तो यह है कि यह विषैला साँप नही है -दीमक ,कीट पतंगो ,भुनगों को खाता है -पूरी तरह निरापद जीव है .जहाँ से यह साँप मिला है वह द्वीप डार्विन के समय से ही भीमकाय और लघुकाय दोनों तरह के जानवरों के लिए विख्यात रहा है ।


कहते हैं तक्षक नाग ने एक फूलों की टोकरी में लघु रूप बनाकर राजा परीक्षित के महल में प्रवेश पा लिया था और उन्हें डस कर मौत की नीद सुला दिया .वह कोई ऐसा ही वामन रूप साँप रहा होगा ,मगर विषैला .क्यों ?

Saturday, 2 August 2008

पांवों के पड़ाव पर विराम पाती सौन्दर्य यात्रा !

सौन्दर्य की अधिष्ठात्री प्रेम की देवी वीनस
"आप के पाँव बहुत खूबसूरत हैं ,इन्हे जमीन पर मत रखियेगा नहीं तो ये गंदे हो जायेंगे ", मशहूर फिल्म पाकीजा की शुरूआत ही नायक द्वारा नायिका के खूबसूरत पावों की प्रशंसा से होती हैं। सिन्ड्रेला या लालपरी की कहानियों का जन्म स्थान चीन माना जाता है,जहाँ नारी के छोटे पावों को सदियों से खूबसूरत माना जाता रहा है। अभी कुछ समय पहले तक चीन में लड़कियों के पावों को बर्बरता पूर्वक छोटा बनाये रखने का रिवाज था। उन्हें बहुत छोटे आकार के ``जूते´´ पहनाये जाते थे। पावों की ऐड़ी और अग्रभाग को मिलाकर बांध दिया जाता था ताकि उनका सामान्य विकास रूक जाय।
चीन में ही नन्हें पावों को ``सुनहले कमल´´ की संज्ञा मिली हुई है। व्यवहारविदों की राय में इन सुनहले कमलों की भी भूमिका रही है। प्रेम संसर्ग के आत्मीय क्षणों में प्रेमीजन इन कमलवत पावों को चूमने से नहीं अघाते। अपने पैरों की विकृति के कारण सहजता से चलने फिरने में लाचार चीनी रूपसियाँ अपने को पूरी तरह से पुरुष सहचरों की दया पर निर्भर पाती है। यौनासक्त चीनी पुरुषों के ``अहम´´ को इससे तुष्टि मिलती है।
सुन्दरता की ओट में क्रूरता का यह घिनौना खेल क्या परपीड़ा से सुख प्राप्ति की विकृत मानसिकता का परिचायक नहीं है। आश्चर्य की बात है कि अभी भी चीन में नारी के ``कमलवत पांवों´´ के उपासकों की कमी नहीं है। कहाँ हैं नारी स्वतन्त्रता के पक्षधर?
सेक्स प्रतीकों की दुनिया में नारी पावों को ढकने वाले जूतों को ``योनि´´ के रूप में भी देखा गया है। कई विदेशी संस्कृतियों में जूतों के विभिन्न आकार प्रकार योनि प्रतीक को उभारते हुए नजर आते हैं। पावों के अलंकरण में भारतीय नारी की अग्रणी भूमिका रही है। किसी भरतीय नृत्यांगना के पावों को देखिए। मेंहदी और घुंघरूओं से उसके पावों की खुबसूरती में चार चा¡द लग जाते हैं। भारतीय नारी के श्रृंगार विधान में पावों का अलंकरण प्रमुखता से मुखरित होता है। नाना प्रकार के आभूषण और मेंहदी की डिजाइनें नारी पावों को सौन्दर्य के शिखर पर ला देती हैं।
नारी देह के मनोरम स्थलों की सुखद यात्रा के इस पड़ाव पर पहुँच मन एक अलौकिक प्रशान्ति भाव से भर उठता है। नारी के नख-शिख सौन्दर्य की यह शोध यात्रा यही उसके चरणों में विराम लेती है। किन्तु यहाँ नख शिख का कोई भेद नहीं है। यह रूप संसार की वह खोज यात्रा है जहाँ अन्त में आप प्रस्थान बिन्दु पर फिर वापस हो लेते हैं ।
नारी के रूप बन्ध से मुक्ति कहां ? मगर शायद इसीलिये महाकवि इस रूप्जाल में उलझ कर जीवन के उत्तर्दाय्त्वों के प्रति विमुखता से आगाह भी करता है -
दीप शिखा सम युवति तन ,मन जन होऊ पतंग
यह श्रंखला यहीं संपन्न होती है -मुझे इस पर विपरीत विचारों के अनेक जन्झावात भी झेलने पड़े ,शायद परिप्रेक्ष्य को सही नजरिये से देख पाने के कारण कई ब्लॉगर बंधुओं से संवादहीनता की स्थिति बनी रही ...कुछ स्नेही औरपरिप्रेक्ष्य को समझ रहे ब्लॉगर बंधुओं ने मुझे लगातार प्रोत्साहित किया -मैं उन सभी सहयोगी साथियों और असहयोगी साथियों का भी आभार प्रगट करता हूँ जिन्होंने सम्मिलित रूप से इस सौन्दर्य यात्रा के जीवन्तता बनाए रखी -विज्ञान में विरोध की बड़ी अहमियत है -वादे वादे जायते तत्व्बोधःएक विचार यह भी आया कि विज्ञान के नजरिये से नर नारी को लेकर पक्षपात क्यों ? पुरूष सौन्दर्य वर्णन क्यों नही ? यह प्रश्न साहित्यकारों से पूछा जाना चाहिए -तथापि मैं पुरूष सौसठव् पर भी एक श्रृखला अवश्य करना चाहता हूँ ........

Thursday, 31 July 2008

अब आ पहुंचे हैं नारी की खूबसूरत टांगो तक ......

सौजन्य -शटरस्टाक
नारी की `लम्बी´ टांगे खूबसूरती का प्रतीक मानी गयी है। यौन परिपक्वता की उम्र आते - आते टांगे अपनी अधिकतम लम्बाई ले लेती हैं। इसलिए इनकी अतिरिक्त लम्बाई ``अति लैंगिकता ´´ का प्रतीक बन जाती है ।तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन/प्रदर्शन में नारी की टांगों को प्रमुखता से दिखाया जाता है। भले ही उत्पाद विशेष और नारी की टांगों का दूर दराज का भी कोई सम्बन्ध न हो। यह उपभोक्ताओं को आकिर्षत करने की एक चालाकी भरी युक्ति है ।
यह भी गौरतलब है कि विश्वसुन्दरियों की प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने वाली रूपसियों की टाँगे अपेक्षाकृत लम्बी होती हैं। इन लम्बी टांगों को ऊंची ऐड़ी के जूतों पर साध कर उन्हें और भी लम्बा (खूबसूरत) बना दिया जाता है। फैशन की दुनिया में स्कर्ट की घटती बढ़ती लम्बाई भी टांगों के सौन्दर्य प्रदर्शन से नियमित होती रही है। नारी की जांघों का प्रदर्शन काफी कामोद्दीपक माना गया है ऐसा इसलिए है कि जांघे नारी योनि की निकटता का बोध कराती हैं।

Wednesday, 30 July 2008

एक क्रांतिकारी विचार के १५० वर्ष !

डार्विन का खूब उपहास उडाया गया
मैं ज्ञान विज्ञान के प्रति अपने दायित्व से चूक जाउंगा यदि यह जानकारी आप से साझा नही करता।

इसी १ जुलाई को एक उस क्रांतिकारी विचार के १५० वर्ष पूरे हो गए जिसमें चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड वालेस नामक वैज्ञानिक द्वय के संयुक्त अध्ययन के परिणामों की घोषणा लन्दन में हुयी थी.कुहराम मच गया जब वैज्ञानिक तथ्यों को आधार लेकर यह जाहिर किया गया कि मनुष्य किसी दैवीय सृजन का परिणाम नहीं बल्कि जीव जंतुओं के विकास का ही प्रतिफल है .इससे बाईबिल की मान्यताओं की चूले हिल गयीं जो यह बताते नही अघाता था /है कि किस तरह इश्वर ने संसार का सृजन किया और आदमी की पसली से हौवा निकली .डार्विन -वैलेस के सिद्धांत ने इन विचार धाराओं को अन्तिम धक्का दे दिया ।

बड़ी चिल्ल पों मची -लन्दन की लीनियन सोसायटी ने बहस मुहाबिसे आयोजित किए -इसमे से ही एक में चर्च के बिशप विल्बरफोर्स ने डार्विन के पुरजोर समर्थक और उनके बुलडाग कहे जाने वाले थामस हेनरी हक्सले से पूछा था कि -

'जनाब आप किस तरफ़ से बन्दर के औलाद हैं अपने नाना की तरफ से या बाबा की ओर से .....'

निर्भीक हक्सले ने जो जवाब दिया वह इतिहास की सुर्खियों मे सज गया ।

उन्होंने कहा कि ,विल्बर फोर्स की तरह वाचाल और धूर्त ज्ञानी दम्भियों -नए ज्ञान को जानबूझ कर विवादित बनाए वाले किसी मनुष्य की बजाय वे एक बन्दर का वंशज होना पसंद करेंगे ।

जुलाई माह में ही इस तकरार के १५० वर्ष पूरे हो रहें हैं मगर अफ़सोस कि आज भी समूची दुनिया में सृजन्वाद अपना फन फैला रहा है .वैचारिक क्रान्ति का क्या फायदा हुआ ?

अभी तो इतना ही इस विषय पर साईब्लोग एक सीरीज करेगा जल्दी ही -जो डार्विन के प्रति मेरी श्रद्धांजलि होगी !

Tuesday, 29 July 2008

नासा के जन्मदिन की अर्धशती !

नासा -नॅशनल एरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनीस्ट्रेशन अपने जन्म की अर्धशती मना रहा है .जुलाई 29, 1958, को इसे गठित किया गया था .जब रूसी स्पुतनिक ने १९५७ में अन्तरिक्ष की ओर छलांग लगाई थी तो अमेरिका ने इसे एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा था .नासा उसी चुनौती का एक माकूल जवाब था .और तभी से अन्तरिक्ष को लेकर एक ऐसी होड़ मची जो अब मानव को चाँद और मंगल की देहरी तक ले जा पहुँची है .अन्तरिक्ष पर्यटन का युग भी देखते देखते आ पहुंचा है और लोग अन्तरिक्ष की भारहीनता में भी हनीमून और 'फ्री ग्रेविटी ,फ्री सेक्स ' के मनसूबे बना रहे हैं .नासा के इस जश्न के क्षणों को आप यहाँ के खूबसूरत चित्रों के साथ साझा कर सकते हैं ।
नासा से मेरा भी एक संवेदना का रिश्ता रहा है .अन्तरिक्ष यानों में रोगाणुओं का यात्रियों पर क्या असर पड़ सकता है इस अभियान में मेरे सगे चाचा जी डॉ .सरोज कुमार मिश्रा का भी योगदान रहा .उनका यह साझा शोध पत्र पेटेंट के लिए भी संस्तुत हुआ .नासा ने गोपनीय कारणों से एक ,करग नेशनॅशनल का गठन किया और उसी के जरिये कई शोध कार्य कराये जिसमे डॉ सरोज कुमार मिश्रा का उद्धृत शोध पत्र ,उसी के सौजन्य से था .अब चाचा जी नासा में नही हैं -उन्होंने वहाँ से त्याग पत्र दे दिया -पर क्यों ,मुझे यह उन्होंने गोपनीय रखने को कहा है .और मैं विवश हूँ -भले ही असहज महसूस कर रहा हूँ ।
जो कुछ भी हो नासा की उपलब्धियों से मैं प्रभावित हूँ और इस जश्ने अन्तरिक्ष में मैं भी शामिल होता हूँ -थ्री चीयर्स के साथ .....

Monday, 28 July 2008

प्रेम के इस प्रतीक चिह्न से कौन अपरिचित है ?


पहले एक निवेदन :

इस सौन्दर्य यात्रा पर कुछ सुधी पाठकों की जेनुईन आपात्तियां मिली हैं -मेरा आग्रह है कि यह आवश्यक नहीं कि जो कुछ यहाँ व्यक्त हो रहा है उससे मेरी अनिवार्यतः सहमति ही हो .व्यवहार शास्त्री कैसे मनुष्य को अन्य पशुओं के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं यह लेखमाला उसी के एक पहलू पर पर केंद्रित है .आगे अन्य विषय भी आते ही रहेंगे ।अस्तु ,

[नितम्बों की अगली कड़ी ......जारी .]

सभ्य समाज में भी कई नृत्य प्रारूप नारी नितम्बों के आकार को बढ़ा-चढ़ा कर ही प्रस्तुत करते है। यह सब यही सिद्ध करता है कि नारी नितम्बो की विकास यात्रा में उनके यौनाकर्षण की प्रबल भूमिका रही है। यह सही है कि हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्ष पहले ही चार पैरों पर चलना छोड़ दिया था किन्तु आज भी हमारे अवचेतन मन से नारी नितम्बो के प्रति प्रबल मोह का भाव मिटा नहीं है। कहते हैं कि प्रेम का वैिश्वक प्रतीक चिन्ह (हृदयाकृति) दरअसल नितम्ब की ही सरलाकृति है।

इस चिन्ह के ऊपर के मध्यवर्ती गड्ढे (दरार) को देखिए और फिर खुद फैसला कीजिए कि यह दिल सरीखा लगता है या फिर नितम्ब जैसा? अपने प्रबल यौनाकर्षण की क्षमता के चलते नारी नितम्बों को ``चिकोटीबाजों´´ की अप्रिय हरकतों को भी ``सहना´´ पड़ता है।

इटली में चिकोटी बाजों का इतना आतंक है कि शायद ही कोई खूबसूरत (नितम्बों वाली) लड़की अपने अजनबी प्रशंसको को ``चिकोटी´´ से अनछुई बच जाय। भारत में भी भीड़-भाड़ भरे नगरी क्षेत्रों पिकनिक स्थलों पर चिकोटी बाजों की बन आती है। खुशवन्त सिंह की मशहूर कहानी `चिकोटी बाज´ ऐसे दृष्टान्तों की मनोरंजक झलक देती है। व्यंग पर मशहूर इतालवी पुस्तक ``हाऊ टू बी एन इटालियान´´ में नितम्ब चिकोटीबाजी की श्रेणियों तक का मजेदार वर्णन है। वहा¡ तीन तरह की चिकोटिया¡ बतायी गयी हैं। नौसिखियों के लिए ``द पिजिकैटो´´ है जिसमें अंगूठे और मध्यमा के सहयोग से अतिशीघ्रता से चिकोटी काटने का कला का वर्णन है। ``द विवैसी´´ में कई अगुलियों के समवेत प्रयास से एक ही चरण में शीघ्रता से कई बार चिकोटिया¡ काटने की विधि का व्योरा है। ``दु सोस्टेन्यूटों´´ श्रेणी के अन्तर्गत काफी देर तक चिकोटी का जमाव/दबाव नितम्बों पर बनाये रखने की सिफारिश है।

यह महज विवरण है इसकी कोई सिफारिश यहाँ अभिप्रेत नहीं है [सरल हृदयी पाठकों के लिए नोट ]