Wednesday 9 May 2012

चलो गूगल में देख लेगें ....याद क्या करना!

अंतर्जाल प्रेमियों की कमज़ोर होती याददाश्त अंतर्जाल ने सूचनाओं का एक ऐसा जखीरा हमारे सामने ला दिया है कि हमें अब कहीं और जाने की जरुरत नहीं है .बाद गूगल पर गए और इच्छित जानकारी ढूंढ ली . न लाईब्रेरी की ताक झांक ,न किताब की दुकानों या  घर के शेल्फों पर नजरें दौडाने की जहमत . अंतर्जाल के सर्च इंजिनों पर  सूचनाओं की सहज उपलबध्ता की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसा कि कोई शायर कह गया है ,दिल में सजों रखी है सूरते यार की जब मन मन चाहा देख ली....मगर मस्तिष्क विज्ञानियों ने एक खतरा भांप लिया है .उनका कहना है यह मनुष्य की याददाश्त को कमज़ोर कर देगा . पहले सूचनाओं से साबका होने पर लोग उसे याद करके मस्तिष्क  में सुरक्षित रखते थे .मगर अब पैटर्न बदल रहा है ..लोगों का एक लापरवाह रवैया हो गया है कि चलो गूगल में देख लेगें ....

प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध पत्रिका 'साईंस' में   कोलम्बिया विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर बेट्सी स्पैरो के छपे अध्ययन में खुलासा हुआ है कि अंतर्जाल युग में नवीन जानकारियों -सूचनाओं को प्रासेस करने के तीन चरण हैं .पहला तो यह कि अगर  हमें किसी प्रश्न की जानकारी प्राप्त करनी है तो अगर घर में हैं तो तुरत घर के पी सी और अगर बाहर  हैं तो अगल बगल के वेब ढाबे का रुख करते हैं बजाय इसके कि यह ठीक से उस प्रश्न को समझ लें . जैसे जब अध्ययन के 'सब्जेक्ट ' विद्यार्थियों से जब यह पूछा गया कि उन देशों का नाम बताईये जहाँ के झंडे में केवल एक रंग है तो लोगों के दिमाग में झंडे नहीं बल्कि कंप्यूटर उभर आया ..जबकि ऐसे सवालों के प्रश्न में पहले लोगों के मन में झंडों और देशों का चित्र उभरता था .. दूसरी समस्या है की नयी जानकारी मिलने पर अब तुरत फुरत उसका यथावश्यक इस्तेमाल तो कर लेते हैं मगर उतनी ही तेजी से भूल भी जाते हैं . अब जैसे यह जानकारी कि कोलंबिया शटल हादसा फरवरी २००३ में हुआ था अध्ययन के छात्रों को देते हुए उनमें से आधे को  कहा गया कि यह जानकारी उनके कंप्यूटर में 'सेव' रहेगी जबकि आधे छात्रों को बताया गया कि यह तारीख मिटा दी जायेगी ....बाद में देखा गया कि जिन्हें यह बताया गया था कि जानकारी मिटा दी जायेगी उन्हें यह तारीख याद रही जबकि दुसरे आधे समूह को यह तारीख ठीक से याद नहीं थी ...जाहिर है हम अपनी याददाश्त की क्षमता को तेजी से कम्यूटर को आउटसोर्स कर रहे हैं . 

शोधार्थी अब तक एक तीसरे प्रेक्षण पर पहुँच चुके थे -अब कोई भी नयी बात हम अपने दिमाग में रखने की पहल के बजाय यह उपक्रम करने में लग जाते हैं कि इसे हम कम्यूटर में कहाँ स्टोर करें ... मतलब हम तेजी से कम्यूटरों के साथ एक सहजीविता (सिम्बियाटिक ) रिश्ता बनाते जा रहे हैं ..मतलब कम्यूटर हमारी याददाश्त का संग्राहक बन रहा है . मनोविज्ञानी इसे  ट्रांसैकटिव मेमोरी का नाम देते हैं . इस तरह की 'ट्रांसैकटिव मेमोरी' का उदाहरण हम अक्सर घर में दम्पत्ति के कार्य बट्वारों में देखा जाता है -जैसे पत्नी को बच्चे के फीस आदि जमा करने की याद रहती है तो पति को कई तरह के बिलों के भुगतान की तारीख करनी होती है .अब यह सारा जिम्मा कंप्यूटर के पास जा रहा है . 

मगर इस प्रवृत्ति से मनुष्य के सामने याददाश्त ही नहीं चिंतन और तार्किकता के क्षरण का भी प्रश्न उठ खड़ा हुआ है ...कौवा कान ले गया यह सुनते ही कान देखने के बजाय कौवे की खोज हास्यास्पद है .इसी तर्ज पर कई जानकारियाँ मनुष्य अपने दिमाग पर जोर देकर और संदर्भों के अनुसार दे सकता है .हर जानकारी के लिए कम्यूटर का सहारा लेना एक ऐसी ही प्रवृत्ति है .गूगल जानकारी ढूंढ सकता है ,संदर्भों की सूझ तो खुद हमें होनी चाहिए . गूगल संदर्भ थोड़े ही ढूंढेगा . और यांत्रिकी पर पूरी तरह से निर्भर होते जाना भी कतई ठीक नहीं है .यह हमारी मनुष्यता भी हमसे छीन लेगा..  

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

तब तो बिना बैटरी या इण्टरनेट के हम अपंग हो जायेंगे।

Himanshu Pandey said...

न लाईब्रेरी की ताक झांक ,न किताब की दुकानों या घर के शेल्फों पर नजरें दौडाने की जहमत..पर यह जहमत कितनी खूबसूरत लगती थी! आज की पीढ़ी के लिए वंचित आनन्द है यह!

BS Pabla said...

ये तो होना ही था

सुशील कुमार जोशी said...

अभी शुरुआत है
देखिये आगे आगे
कमप्यूटर चिप
शरीर में ही लगायेंगे
आदमी के दिमाग
को बंद कर
उसे पूरा
कमप्यूटर बनायेंगे ।