कल हमने बात की थी कि वयस्क पुरुष व्यवहार जहाँ आज भी बचपन की मासूमियत और जोखिम उठाने की विशेषताये लिए हुए है वहीं वयस्क नारी आकृति बाल्य साम्य अपनाए हुए है! नारी आकृति और पुरुष की आकृति में एक बड़ा फर्क प्राचीन वैकासिक काल से ही रहा है -प्राचीन काल के श्रम विभाजन ,जहां पुरुष एक कुशल आखेटक बन चुका था ,के चलते पुरुष को शरीर से ज्यादा मजबूत बनना था ,एथलीट माफिक जिससे उसे शिकार करने की दक्षता हासिल हो सके . नारी और पुरुष की आकृतियों का यह अंतर आज भी विद्यमान है .औसत पुरुष के शरीर में जहां पेशियों का वजन २८ किलो होता है वहीं औसत नारी में पेशियाँ कुल १५ किग्रा ही होती हैं .टिपिकल पुरुष शरीर टिपिकल नारी शरीर से तीस फीसदी ज्यादा सशक्त,१० फीसदी ज्यादा भारी ,सात फीसदी ज्यादा उंचा होताहै .मगर नारी शरीर पर चूंकि गर्भ धारण का जिम्मा होता है अतः उसे भुखमरी की स्थितियों से बचाने के कुदरती उपाय के बतौर २५ फीसदी चर्बी उसे अधिक मिली होती है जो पुरुष में मात्र १२.५ फीसदी ही होती है .
बस इसी चर्बी (puppy - fat ) की अधिकता के चलते नारी आकृति का बाल -साम्य लम्बे समय तक बना रहता है .चर्बीयुक्त अपने गोलमटोल शरीर से बच्चे बड़े ही क्यूट लगते हैं -ऐसे बच्चों को देखते ही सहज ही उनकी ओर देखरेख और सुरक्षा के लिए मन आकृष्ट हो जाता है -व्यवहार शास्त्री इसे "केयर सालिसिटिंग व्यवहार" कहते हैं .कुदरत ने यही फीचर नारी आकृति में लम्बे समय तक रोके रखने की जुगत इसलिए लगाई ताकि वह नर साथी का सहज ही "केयर सालिसिटिंग रेस्पांस " प्राप्त करती रहे -आखिर संतति निर्वहन का बड़ा रोल तो उसी का था /है न ? अब देखिये कुदरत ने किस तरह गिन गिन कर नारी में दूसरे बाल्य फीचर भी लम्बे समय तक बनाए रखने की जुगत लगाई है -
नारी की आवाज की पिच पुरुष की तुलना में कहीं ज्यादा और बच्चे जैसी है -गायिकाएं सहज ही बच्चे की आवाज में पार्श्व ध्वनि दे देती हैं .भारी पुरुष-आवाजें जहां १३०-१४५ आवृत्ति प्रति सेकेण्ड हैं बहीं नारी का यह रेंज २३०-२५५ आवृत्ति प्रति सेकण्ड है .साफ़ है ,नारी आवाज विकास क्रम में अभी भी बाल सुलभता लिए हुए हैं .उनके चेहरे में भी आज भी वही बाल सुलभता दिखती है -जाहिर है पुरुष प्रथमतः सहज ही नारी की ओर किसी विपरीत सेक्स अपील की वजह से नहीं बल्कि अनजाने ही केयर सालिसिटिंग रेस्पांस के चलते आकृष्ट हो जाता है . जैसे किसी बाल मुखड़े को देख वह उसकी देखभाल और रक्षा की नैसर्गिक भावना और तद्जनित लाड- दुलार की भावना के वशीभूत करता हो .नारी की भौंहे ,ठुड्डी ,गाल और नाक सभी में बाल साम्यता आज भी दृष्टव्य है .
इस चित्र को देखकर आपके मन में जो कुछ कुछ हो रहा है वही है केयर सालिसिटिंग रिस्पांस
दरअसल मनुष्य आज भी एक नियोटेनस प्राणी है जो एक वह स्थति है जिसमें विकास के क्रम में जीव अपने लार्वल अवस्था में में ही प्रजननं करने लगते हैं -और यह लार्वावस्था एक स्थाई स्वरुप बन जाता है -मनुष्य आज भी अपनी वयस्क अवस्था में भी लार्वल -बाल्य फीचर्स को अपनाए हुए है जिसके वैकासिक निहितार्थ हैं - ज्यादा बाल्य फीचर्स ज्यादा दुलार! .ज्यादा दुलार तो ज्यादा प्रजाति रक्षा और यह नारियों में पुरुष की तुलना में बहुत अधिक है -भले ही अभिभावक का ज्यादा दुलार बच्चों को कभी कभी बिगाड़ भी देता है मगर वह रक्षित तो रहता ही है -मगर अतिशय दुलार प्रायः बच्चों की शैतानियों को अनदेखा करता रहता है -मगर ऐसा नारियों के परिप्रेक्ष्य में तो नहीं लगता?क्यों ??
18 comments:
किसे किस साँचे में ढालना है,सब प्रकृति की देन है....
अरविंद जी समानता पर प्रस्तुत आलेख अच्छी लगी ..धन्यवाद
बहुत ग्यानवर्द्धक आलेक धन्यवाद।
अच्छा आलेख..
कल व्यस्त था, आज दोनों पोस्टें पढ़ीं। तथ्यात्मक रूप से आप की सभी बातें सही हैं। यदि पुरुष और स्त्री दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, उन की समानता का आधार भी यही है। लेकिन अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ दोनों बराबरी से काम करते और प्रतिस्पर्धा करते हैं। स्त्री शरीर में उपलब्ध अतिरिक्त चर्बी उन की अतिरिक्त ऊर्जा व्ययन क्षमता को भी प्रदर्शित करती है। वे पुरुष से अधिक श्रम कर सकती हैं।
बेहद रोचक और सुन्दर आलेख....हमे तो ये नन्ही सी तस्वीर बहुत भा गयी....मासूमियत से भरी....
regards
bahut hi acchi jaankaari..
aabhar..
अति सुंदर जानकारी मिली.
रामराम.
अरविन्द जी,
आपने बड़े अच्छे विषय को उठाया, महिलाओं में अतिरिक्त चर्बी(फैट) के चलते एक और बात बताते जाएँ.
दौड़ के क्षेत्र में जहाँ छोटी दौड़ों में पुरुष महिलाओं से तेज भागते हैं, यहाँ तक की मैराथन (४२.२ किमी) में भी एलीट पुरुष धावक २:०५-२:०८ के आस पास का समय लेते हैं बल्कि एलीट महिलायें २:१८-२:२२ का समय लेती हैं. लेकिन जब बात ५० मील (८० किमी) अथवा १०० मील वाली दौड़ की होती है तो महिलायें पुरुषों की ऐसी तैसी कर देती हैं| कारण है कि इन लम्बी दौड़ों में ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट के स्थान पर वसा से मिलती है| हमारे शरीर में केवल २०-२२ मील के लायक ही कार्बोहाइड्रेट संचित होता है और उसके बाद वसा से काम चलाना होता है जिसमे महिलायें पुरुषों के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन करती हैं |
Desmond Morris की "Human Saxes" याद आ रही है। अभी कुछ दिन पहले ही पाँच खंडों की Documentary देखी थी।
सब प्रकृति की देन है....
बहुत ही बेहतरीन और उम्दा जानकारी दी है आपने ।
कोई नासमझ ही होगा जो इस बात से असहमत होगा कि शारीरिक रूप से औरतें कोमल होती हैं. मेरे ख्याल से इसके लिये इतने साक्ष्य देने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. औरतें कमज़ोर होती हैं, उनके पास दिमाग भी कम होता है (आपने नहीं बताया तो मैं ही बता देती हूँ कि औरतों के दिमाग का वजन पुरुषों से कम होता है, हालांकि वजन कम होने मात्र से यह सिद्ध नहीं होता कि उनके पास कम बुद्धि होती है), वे स्वभावतः कोमल होती हैं, उनमें केयर करने और किसी की छत्रछाया में रहने की भी प्रवृत्ति होती है, वे अधिक तेज दौड़ नहीं सकती, वजन नहीं उठा सकतीं वगैरह वगैरह.
सौ प्रतिशत सहमत हूँ इस बात से. लेकिन यह सब मात्र जैविक नहीं है. आप ही यह मानते हैं कि व्यक्तित्व के विकास में जीन्स का बहुत योगदान है, किन्तु पर्यावरण का भी है. किस कारक का कितना योगदान है, इस पर भिन्न-भिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं. नारी की शारीरिक रचना उनके दीर्घकाल के शोषण का परिणाम है. उन सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम है, जिसमें उन्हें एक विशेष प्रकार का काम करने पर मजबूर किया गया. यही कारण है कि जन्म के समय अत्यधिक रोगरोधी क्षमता होते हुये भी धीरे-धीरे उसमें ह्रास होता जाता है. अब तो यह कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दीर्घकाल तक किसी जीव को किसी विशेष पर्यावरण में रखने से जीन्सों में भी परिवर्तन होता है. इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि यदि दीर्घकाल के शोषण से नारी का शरीर कमज़ोर हो गया है, तो अच्छे माहौल से और सही पालन-पोषण से धीरे-धीरे शरीर पुष्ट भी हो सकता है. (उदाहरण के लिये आज पचास प्रतिशत से भी अधिक सिने तारिकाएँ या तो अभिनेताओं के बराबर लंबाई की हैं या उनसे अधिक लंबी, खुद मेरा कद भी लगभग पाँछ फिट छः है और मैं भी यूनिवेर्सिटी में लगभग चालीस प्रतिशत लड़कों से लंबी थी. ऐसा इसलिये कि आज लड़कियों के खान-पान पर भी ध्यान दिया जा रहा है.)
आप यहाँ मात्र एक पक्ष का उल्लेख कर रहे हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि नारी आदि समाज से शारीरिक और बौद्धिक रूप से पुरुषों से कमतर रही है और रहेगी. यह एक जैविक तथ्य है. इसे कभी भी बदला नहीं जा सकता. और अगर नारी इसे बदलने की कोशिश करती है तो विकृतियाँ उत्पन्न होंगी. है न?
"अब तो यह कई वैज्ञानिक मानते हैं कि दीर्घकाल तक किसी जीव को किसी विशेष पर्यावरण में रखने से जीन्सों में भी परिवर्तन होता है. इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि यदि दीर्घकाल के शोषण से नारी का शरीर कमज़ोर हो गया है, तो अच्छे माहौल से और सही पालन-पोषण से धीरे-धीरे शरीर पुष्ट भी हो सकता है."
आपकी यह जानकारी सही नहीं है -जींस में परिवर्तन इतनी शीघ्र से नहीं होते ,लाखो वर्ष लगते हैं -हम लाखों वर्ष के विकास के परिणाम हैं -हाँ रेडियेशन आदि कारणों से उत्परिवर्तन अवश्य होते हैं मगर वे मनुष्य के मामले में भयावह -अंग भंगता ही लिए होते हैं -इसलिए इतना जल्दी तो यह नहीं होगा की औरतें पुरुश्वत बन जायेगें या पुरुष बच्चे जानने लगेगें ! मैं जैवीय डिटरमिनिस्म की बात नहीं कर रहा -मगर आप अपनी व्याख्याओं के लिए स्वतंत्र हैं -मेरे पास नारीवाद या पुरूषवाद का कोई चश्मा नहीं है और मैं लगाना भी नहीं चाहता -विज्ञान की अपनी सीमाएं होती हैं तथापि वह मुझे प्रिय है और मैं उसका एक अदना सा सिपाही हूँ !
"आप यहाँ मात्र एक पक्ष का उल्लेख कर रहे हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि नारी आदि समाज से शारीरिक और बौद्धिक रूप से पुरुषों से कमतर रही है और रहेगी. यह एक जैविक तथ्य है. इसे कभी भी बदला नहीं जा सकता. और अगर नारी इसे बदलने की कोशिश करती है तो विकृतियाँ उत्पन्न होंगी. है न?"
मैंने यह कबं कहा कि नारी बौद्धिक रूप से कमतर होती है बल्कि प्रस्तावना यह है कि वह मल्टी टास्किंग कर सकती है जबकि पुरुष एक समय में केवल एक काम ..-यह सब तो आप लोग माने बैठी हैं की पुरुषों ने मिलकर नारियों का आदिकाल से बेडा गर्क कर रखा है -कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं हैं -इतना प्रतिशोध पुरुषों के प्रति ?-यह कहाँ ले जाएगा नारीवाद को ?मैं चिंतित भी हूँ और हैरान भी !
Bahut sari jankariyo ke sath bhadiya aalekh achha laga ....Dhanywaad!!
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बेहतरीन, तथ्यपरक व ज्ञानवर्धक आलेख,
और हाँ, आदरणीय मुक्ति जी के साथ चल रही आपकी बहस भी बहुत ही रोचक है...पढं रहे हैं...
बहुत अच्छी जानकारी मिली है, और मल्टीटास्किंग वाली बात बिल्कुल सही है, और हम सहमत हैं ।
जानकारीवर्धक प्रविष्टि ....!!
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