पंद्रह वर्ष की अवस्था का किशोर - पुरुष नारी के मुकाबले १५ गुना ज्यादा दुर्घटना सहिष्णु होता है .ऐसा इसलिए है कि वह नारी की तुलना में इस उम्र तक भी बच्चों के खेल खेल में /के जोखिम उठाने की ज्यादा प्रवृत्ति रखता है .यद्यपि उसकी यह वृत्ति उसे खतरों के ज्यादा निकट ले आती है मगर यह उन प्राचीन दिनों की अनुस्मृति शेष है जब नर झुंडों को शिकार की सफलता के लिए अनेक जोखिम उठाने पड़ते थे. शिकारी झुंडों में अमूमन ६-७ पुरुष होते थे-नारियां शिकार झुण्ड में न सम्मिलित होकर घर की जिम्मेदारी उठाती थीं .पुरुषों का काम जोखिम उठाना ही था -और इसमें जन हानि की संभावना भी रहती थी -और इस उत्सर्ग के लिए पुरुष परिहार्य थे-उनके प्रजनक ह्रास के योगदान की उस शिकारी कुनबे के अन्य सदस्यों से प्रतिपूर्ति तो उतनी मुश्किल नहीं थी जितना किसी संतति वाहक नारी का प्राणोत्सर्ग! इसलिए भी नारी का आखेट में जाना अमूमन प्रतिबंधित था .रोचक बातयह है कि कुछ बड़े अपवादों को छोड़ दिया जाय तो कालांतर के युद्धों में भी नारियां नहीं जाती थीं -एक पौराणिक संदर्भ राजा दशरथ का है जिहोने कैकेयी को युद्ध में साथ लिया था और कैकेयी ने अंततः उनकी प्राण रक्षा भी की थी. शिकार या युद्ध में नारियों का ह्रास सीधे आबादी के प्रजननं दर के ह्रास का कारण बन सकता था .हमें ध्यान में रखना होगा कि प्राचीन काल (लाख वर्ष पहले ) में जहाँ आबादी बहुत कम थी -प्रजनन दर का ह्रास सचमुच जीवन मृत्यु का ही प्रश्न था .
अपने कबीलाई काल के केन्द्रीय रोल में नारियां आखेट का काम छोड़कर अन्य किसी काम में खूब प्रवीण थीं -वे घर की देखभाल के साथ कई कामों को एक साथ करने में निपुण होती गयीं और उनकी यह क्षमता आज भी उनके साथ है .वे उत्तरोत्तर एक मल्टी टास्कर के रूप में दक्ष होती गयीं .एक साथ ही कई काम कर लेने की उनकी क्षमता आज भी स्पृहनीय है .उनकी वाचिक क्षमता (गांवों में कभी महिलाओं को झगड़ते देखा है ?) ,घ्राण क्षमता (पति के विवाहेतर सम्बन्धों को सूंघ लेने की क्षमता -हा हा ) ,स्पर्श ,और रंगों की संवेदनशीलता पुरुषों से अधिक विकसित है .वे एक कुशल सेवा सुश्रुषा करने वाली ,ज्यादा वात्सल्यमयी ,और निरोगी(रोग प्रतिरोधी ) बनती गयी हैं .निरोगी होकर वे ज्यादा समर्थ माँ जो होती हैं -संतति वहन का भार उनके कन्धों पर ज्यादा ही है .इस तरह विकास के क्रम में पुरुषों के मस्तिष्क ने बाल्यकाल के जोखिम उठाने के उनकी बाल सुलभ गतिविधियों को नारी के बालिका सुलभ गतिविधियों की तुलना में ज्यादा स्थायित्व दे दिया .
शिकार का जोखिम
बहुधन्धी गृह कारज
नर नारी समान तो हैं मगर अलग से हैं -१(जारी... )
19 comments:
विचार्णीय पोस्ट है इस विषय पर मेरा ग्यान तो न के बराबर है। धन्यवाद
बहुत अच्छा लग रहा है। जारी रखिए। बाल्य ठीक है कि बाल ?
जरा सीरियलों में दिखाए गए/जा रहे नारी केन्द्रित युद्धों पर भी एक दृष्टि डाल लीजिएगा। :)
"पुरुष जहाँ आज भी ज्यादा कल्पनाशील ,जोखिम उठाऊ और अड़ियल /दुराग्रही/जिद्दी /उद्दंड बना हुआ है नारियां ज्यादा समझदार और ध्यान देने वाली हैं .इन व्यवहारों का साहचर्य एक दूसरे का परिपूरक बनता गया और मनुष्य के विकास का झंडा लहराता आया है" .
यही बात समझने वाली है । बैलेंस भी बना दिया है आपने !
अगली कड़ी की प्रतीक्षा ।
पुरुष जहाँ आज भी ज्यादा अड़ियल /दुराग्रही/जिद्दी /उद्दंड बना हुआ है नारियां ज्यादा समझदार और ध्यान देने वाली हैं .....
नारियों के बारे में आपके विचार जान कर प्रसन्नता हुई ...
अच्छी रोचक जानकारी ....
हम तो आपकी पुरानी सारी श्रंखलाओं के चस्मदीद पाठक रहे हैं. आपकी आज की पोस्ट से तो हमारी मोटी बुद्धि मे यही आया कि जूते खाने के काम मे पहले भी पुरुषों को आगे किया जाता था और आज भी किया जाता है.
ये हमारा निजी अनुभव भी है.:)
रामराम.
अरविन्द जी , बचपन में आप काफी पंगेबाज बच्चे रहे होंगे न ?????/ :)
आपकी कुछ बातों से सहमत हूँ, कुछ से असहमत. मैं जिन बातों से असहमत हूँ-
-नर-नारी के सम्बन्धों का विश्लेषण मात्र जैविक आधार पर करना, जबकि सामाजिक कारण भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं.
-इतिहास में नारी द्वारा युद्ध में भाग लेने का मात्र एक उदाहरण रखना, जबकि वेदों में ऐसे कई उदाहरण हैं.
-’नारी अधिक निरोग” है यह एक भ्रामक तथ्य है. ये माना कि एक्स क्रोमोसोम्स अधिक ताकतवर होते हैं. पर एक टर्म होता है "सोशल मेडिसिन" जिसके अन्तर्गत सामाजिक सरंचना के कारण होने वाले रोगों के विषय में शोध किया जाता है. मेरे दो मित्र इस विषय में शोध कर रहे हैं और उनसे यह पता चला है कि औरतें और बच्चे अधिक रोगों से मरते हैं. औरतों की रोगरोधी क्षमता जो जन्म के समय ठीक होती है, पालन-पोषण के साथ-साथ कम होती जाती है. क्योंकि आज भी पौष्टिक खाद्य में वरीयता लड़कों को दी जाती है.
-बच्चों के पलन-पोषण के सम्बन्ध में बच्चे पैदा करने के अलावा ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे पुरुष न कर सकता हो, पर इसे औरतों का काम कहकर ज़िम्मेदारी उन पर डाल दी जाती है, जबकि यदि दोनों मिलकर यह काम करें तो औरतों को भी पर्याप्त समय मिल जाये.
और एक बात...सभी पुरुष जिद्दी, दुराग्रही, अड़ियल, उद्दंड नहीं होते और अगर होते हैं, तो इसका भी कारण उनके समाजीकरण में निहित है, न कि मात्र जैविक....और न सारी औरतें ज्यादा समझदार और ध्यान देने वाली होती हैं. मैंने ऐसी कई औरतों को देखा है, जो अपने न परिवार पर ध्यान देतीं हैं और न खुद पर. औरतें भी समझदार और केयरिंग होती हैं, क्योंकि उनको ऐसे ही पाला जाता है, जिनका पालन-पोषण इस ढंग से नहीं होता, वे समझदार नहीं होतीं.
सबसे बढ़कर मैं "जैविक निर्धारणवाद" के विरुद्ध हूँ, क्योंकि यह कई समस्याओं के समाधान को मुश्किल बना देता है. और यह अंतिम सत्य नहीं है क्योंकि अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि आदिम समाज मातृसत्तात्मक था अथवा पितृसत्तात्मक.
हाँ, इस बात से सहमत हूँ कि नर-नारी समान हैं, पर अलग से. पर इसके कारण जैविक से कहीं अधिक सामाजिक हैं.
@मुक्ति ,आपके प्रेक्षण विचारपूर्ण और गंभीर हैं ,शुक्रिया!
@मुक्ति ,समाज और जैविकी को एकदम अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता -संक्षेपतः जैविकी वह पीठिका है जिस पर मानाव सामाजिकता की अट्टालिका अवस्थित है -सामाजिकता के पार्श्व में जीन की भी अभिव्यक्तियाँ हैं -हाँ यह सही है की कतिपय परिवेश जनित स्थितियां जीन -वन्शाणुओं के सहज अभिव्यक्तियों को दुष्प्रभावित करती हैं !मगर यह विषय एक लम्बे विवेचन की मांग करता है .प्रस्तुत आलेख में मैं कुछ मुख्य प्रवृत्तियों की चर्चा ही कर रहा हूँ !
ईश्वर ने दोनों को सामान बनाया और दोनों ही सामाजिक स्तर से सामान भी हैं लेकिन शारीरिक रूप से भिन्न भिन्न; बात यहीं ख़त्म नहीं होती और सबसे बड़ी बात यह है कि
"कुछ को कुछ पर बरतरी हासिल है; मसलन पुरुष का कार्य घर से बाहर निकल कर संघर्ष (मेहनत, मशक्कत, जिहाद) कर अपना और उसका और परिवार का भरण पोषण करता है लेकिन वहीँ स्त्री घर के काम में निपुण पाई जाती हैं!!!"
दोनों के लिए यह भिन्नता कुदरत का एक स्थाई नियम भी है!!!
यह बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने ..कहना तो बहुत कुछ था लेकिन व्यस्ततावश लोभ संवरण कर रहा हूँ , फिलहाल अपनी एक प्रकाशित लम्बी कविता "पुरुष " से एक अंश ।
"जिस अक्ल से उसने
अपनी प्रजाति को यह नाम दिया
उसी अक्ल से उसने दुख दूर करने के उपाय किये
स्त्री के गर्भ में बीज बोने से लेकर
पृथ्वी के गर्भ में बीज बोने और
इस प्रक्रिया में दोनों का स्वामी कहलाने के बीच
बहुत कुछ घटना शेष था
इधर चान्द की तरह बढ़ रहा था
स्त्री का पेट और
पाँव थे कि अपने मुहावरे में भारी हो रहे
इच्छा की आँख में था हिरण का ताज़ा माँस और ताकत स्वर्णमृग बनने को विवश
पुरुष के अहं में
अवसर की यह अनायास छलांग थी
जो आगे चलकर उसकी सत्ता का नियामक बनने वाली थी
जंगल जंगल भागा
वह हिरण मोर खरगोशों के पीछे
भूख के स्वप्न में तैरती थी मछलियाँ
उसने मथ डाले तमाम नदी तालाब और सागर.............."
रोचक विश्लेषण ....
regards
sahi hai...
nar naari alag alag hain aur yahi to kamal hai ki phir bhi saath hain,,,
bahut achha laga aapka post
तार्किक प्रस्तुति.
तार्किक प्रस्तुति.
Tathyapurn rochak jankari ke sath likhe gae is bhadiya alekh ke liye dhanywaad!!
अरविन्द जी
मुक्ति जी के तर्क ख़ारिज़ नहीं किये जा सकते !
( देर से आये इसलिए लिखने में संकोच है गाड़ी छूट चुकी सा )
अरविन्द जी
बहस जैविक समानता अथवा असमानता की है ही नहीं , और होना भी नहीं चाहिये, क्योंकि जैविकता...स्थापित / निर्धारित सत्य है ! जैसा कि आप स्वयं कहते हैं कि निर्धारित से विचलन की सम्भावना लाखों वर्षों तक का समय ले सकती है !
इसलिये स्त्री पुरुष के दरम्यान समानता /असमानता को लेकर यदि कोई विवाद क्षेत्र शेष बचता है , तो वह केवल सामाजिकता विषयक हो सकता है !
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