Sunday 17 January 2010

अरहर की विकल्प बन सकती है 'सोया दाल'

अरहर और दूसरी दालों की कीमत में भारी उछाल ने इनके विकल्पों की तलाश तेज कर दी है .कल ही रविवारी टाईम्स आफ इंडिया के लोकप्रिय कालम स्वामिनोमिक्स में स्तंभकार स्वामीनाथन एस अंक्लेसरिया ऐयर ने इस समस्या का एक भरोसेमंद बेहतर विकल्प सुझाया है -सोया दाल! वे कहते हैं कि अरहर की दाल तो अब गरीबो से छिन  गयी है ,दूसरी दालों के दाम भी आसमान छू  रहे हैं -ऐसे में सोया दाल एक बेहतर  विकल्प हो सकता है ,मगर यह सोया दाल क्या है भला ?






                                                          सोयाबीन की दाल का है इंतज़ार 

पारम्परिक अरहर सरीखी दालों का प्रोटीन घटक  २०-२५  फीसदी लिए होता है जो आंटे(१०-१२% )से दो  गुना अधिक ,चावल (४-६%)से चौगुना है .इसलिए दैनिक भोजन में इनकी काफी जरूरत रहती है .वैसे भी ,भारत मे गरीबों के बच्चों में प्रोटीन की कमी की दर अभी भी अन्य कई देशों की तुलना में ज्यादा ही है और उन्हें प्रोटीनयुक्त पुष्टाहार की बड़ी जरूरत है .मगर दालों का उत्पादन १९९० से ही १.४ करोड़ टन पर ठहरा हुआ है जबकि इस दौरान जनसंख्या  में ३५ करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है -जाहिर है  सभी को कम दाम में दालें उपलब्ध करना अब संभव नहीं रहा .दूसरे देश दालें कम उगाते हैं क्योकि उनका काम प्रोटीन  के दूसरे बड़े स्रोतों से जैसे मुर्गा मछली और मांस से चल जा रहा है .इस तरह आयात की संभावनाएं भी धूमिल हैं .यहं भी धनाढ्य वर्ग मांस मछली और अरहर की दाल से अपनी प्रेतींप्रोटीन की जरूरते पूरा कर  ले रहा है, मगर गरीब के निवाले में प्रोटीन कम होती जा रही है .

सोयाबीन जिससे हम अब अपरिचित नहीं हैं ,दुनिया के कई हिस्सों में 'पल्स'(दाल ) के रूप में भी  चिह्नित है .चूंकि इससे तेल भी  प्राप्त होता है इसलिए बहुधा इसे दाल  की श्रेणी में नहीं रखते .सोयाबीन में १८-२० प्रतिशत तेल तो होता ही है मगर प्रोटीन  प्रतिशत तो जबरदस्त ,३६-३८ फीसदी है .और तेल निकालने  पर तो यह प्रोटीन  ५० प्रतिशत तक हो जाता है .अब हम सोयाबीन से उतने अपरिचित भी नहीं रहे -शायद  ही कोई हो जिसने सब्जी में 'न्यूट्री नगेट ' न खाया   हो .मगर अभी भी सोयाबीन से तेल निकलने के बाद की खली जानवरों के आहार के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रही है .जानवर उम्दा प्रोटीन झटक रहे हैं और मनुष्यों को इसके लाले पड़े हैं -इसे कहते हैं सुनियोजन का अभाव .सोयाबीन की पैदावार जहाँ १९८० के आसपास नगण्य थी वहीं अगले दशकों में इसका उत्पादन एक करोड़ टन प्रतिवर्ष तक जा पहुंचा है . इसके उत्पादन पर विशेष ध्यान देकर इसके प्रसंस्कृत रूपों को गरीबों की दाल के रूप में व्यापक तौर पर बढ़ावा दिया जा सकता है .

स्वामीनाथन का प्रस्ताव है कि न्यूट्री नगेट की ही तर्ज पर सोया दालों का प्रचलन किया जाय और इनके दालों सरीखे प्रसंस्कृत रूप को विज्ञापनों के जरिये प्रचारित प्रसारित करते हुए पचीस रूपये प्रति किलो की दर पर  बाजारों और सार्वजानिक वितरण प्रणाली में ले जाया जाय .जहाँ तक स्वाद का सवाल है लोगों को धीरे धीरे आदत पड़ती जायेगी जैसे आरम्भिक ना नुकर के बाद लोगों ने न्यूट्री  नगेट को अपना लिया है .यह अरहर की दाल से तो काफ़ी सस्ता होगा -बस २५ रूपये किलो के आस पास .

उत्तराखंड के गरीबों  ने तो सोयाबीन को हाथो हाथ लिया है .देश के दूसरे हिस्सों में इसके उपयोग /खपत बढ़ने का इंतज़ार है ...देखिये सरकारी संगठनों और निजी व्यवसायियों को कब चेत आती है .व्यवसाय की  एक बड़ी संभावना अंगडाईयां ले रही है ........

21 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

सुना है कि सोया प्रोटीन को सुपाच्य बनाने के लिए अलग से प्रसंस्कृत करना पड़ता है।
विकल्प तो बहुत अच्छा है। लेकिन अरहर का स्टैटिक उत्पादन चिंता का विषय है। मैं इस स्थिति के लिए सरकार को ही दोष दूँगा।

Khushdeep Sehgal said...

डॉक्टर साहब,
मैं तो सौ ग्राम अरहर की दाल लेकर लॉकर में रखवा आया हूं...आने वाली पीढ़ियों को सनद तो रहेगा कि हमारे पूर्वज भी कभी अरहर की दाल खाने की अय्याशी करते थे...

जय हिंद...

डॉ. मनोज मिश्र said...

यह अच्छी खबर है.

वाणी गीत said...

सोयाबीन में मौजूद प्रोटीन के कारण मरीजों को इसे लेने की सलाह डॉक्टर बहुत पहले से देते रहे हैं ...मगर इसे किसी दूसरे अनाज के साथ मिला कर लेना ही लाभप्रद रहता है ...10 किलो गेंहू के साथ 1 से डेढ़ किलो सोयाबीन को मिलकर उसका उपयोग बहुत फायदेमंद है ...निश्चित ही ...!!

ab inconvenienti said...
This comment has been removed by the author.
ab inconvenienti said...

The fact that soybeans, as provided by nature, are not suitable for human consumption.

Only after fermentation for some time, or extensive processing, including chemical extractions and high temperatures, are the beans, or the soy protein isolate, suitable for digestion when eaten.

Soybeans also reportedly contain an anti-nutrient called "phytic acid", which all beans do.

However, soybeans have higher levels of phytic acid than any other legume. Phytic acid may block the absorption of certain minerals, including magnesium, calcium, iron and zinc.

Epidemiological studies have shown that people in 3rd World Countries who have high consumption of grains and soy also commonly have deficiencies in these minerals.

It must also be noted that this may be of particular concern with regard to babies who are using soy-based infant formulas.

So how does one get to the truth when it comes to soy? Usually, the first question I ask is… "Where is the money? Who has something to be gained from one side or the other?" With the soy issue, there does not seem to be an easy answer here either… and that's because there appear to be strong financial incentives on both sides of the argument.

Who has something to gain from the consumption of soy? Perhaps companies like Monsanto which produce the genetically modified soybean seeds. Perhaps companies like Cargill Foods or SoyLife which produce countless soy-based foods. Or soybean councils in several states which represent farmers who grow this new, emerging bumper crop.

And, of course, all of the companies which are constructing factories all over the world to do the processing which is necessary to make soybeans edible.

I feel the positive aspects of the soybean are overshadowed by their potential for harm.

Soybeans in fact contain a large number of dangerous substances. We already mentionned "phytic acid", also called "phytates". This organic acid is present in the bran or hulls of all seeds and legumes, but none have the high level of phytates which soybeans do.

Phytic acid blocks the body's uptake of essential minerals like magnesium, calcium, iron and especially zinc. Adding to the high phytate problem, soybeans are highly resistant to phytate-reducing techniques, such as long, slow cooking.

Soybeans also contain potent enzyme-inhibitors. These inhibitors block uptake of trypsin and other enzymes which the body needs for protein digestion. Normal cooking does not de-activate these harmful antinutrients, which can cause serious gastric distress, reduced protein digestion and can lead to chronic deficiencies in amino acid uptake.

In addition, soybeans also contain hemagglutinin, a clot-promoting substance which causes red blood cells to clump together.

These clustered blood cells cannot properly absorb oxygen for distribution to the body's tissues, and are unable to help in maintaining good cardiac health.

Hemagglutinin and trypsin inhibitors are both "growth depressant" substances.

Although the act of fermenting soybeans does de-activate both hemagglutinin and trypsin inhibitors, cooking and precipitation do not. Although these enzyme inhibitors are found in reduced levels within precipitated soy products like tofu, they are not completely eliminated. For this reason, if you are going to consume soy, I would recommend limiting your soy use to fermented products only, like tempeh or miso.

Only after a long period of fermentation (as ocurs in the creation of miso or tempeh) are the antinutrient and phytate levels of soybeans reduced, making their nourishment available to the human digestive system. The high level of harmful substances remaining in precipitated soy products leaves their nutritional value questionable at best, and potentially harmful.

Anonymous said...

गिरजेश राव ने गलत नहीं सुना है । विशिष्ट तापमान हासिल कर ही इसका तेल भी निकलता है इसलिए गांव के कोल्हू पर नहीं निकल सकता। इसकी खली ज्यादातर युरोप निर्यातित की जाती है पशु आहार के रूप में ताकि उनके पशुओं का गोश्त बढ़े। अरहर की खेती को स्थानापन्न कर ही सोयाबीन की खेती शुरु करवाई गई थी । स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर (मणिशंकर का भाई) किस्म के प्राणी जमीनी सच्चाई से कितनी दूर हैं यह पता चलता है ।
अफ़लातून

तनु श्री said...

-----------------सर, यह आम लोंगो यानि गरीबों के लिए तो वरदान है.बहुत अच्छी जानकारी दी है आपनें -------------

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर जानकारी, शायद गरीबों के लिये कुछ तो प्रोटीन का श्रोत बचेगा.

रामराम.

Udan Tashtari said...

स्वाद डेव्हलप करने में समय लगेगा..

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

खाकर देखें, तभी बता सकेंगे कि विकल्प बनेगी या नहीं। वैसे फिलहाल तो जनता मटर की दाल से काम चला रही है।

--------
खाने पीने में रूचि है, तो फिर यहाँ क्लिकयाइए न।
भातीय सेना में भी है दम, देखिए कितना सही कहते हैं हम।

Alpana Verma said...

अरहर और सोया के मूल्यों और उपलब्धता में कोई ख़ास फरक नहीं है यहाँ इस देश में--इसलिए अभी अरहर ही ठीक है...[सोया खाना मुश्किल है..टेस्ट पसंद नहीं]
--यहाँ दालें सब अधिकतर भारत से आती हैं फिर भी यहाँ की सरकार का इनके मूल्यों पर जबरदस्त नियंत्रण रहता है.अरहर के दाल का मूल्य इस समय यहाँ सब से सस्ती कहें तो ८० रूप्यी प्रति किलो है.
एक समय था जब यहाँ वहाँ के मूल्यों मे अंतर लगता था..अब नहीं.

अजय कुमार झा said...

जानकारी नई है , मगर स्वाद तो खाने के बाद ही पता चलेगा और शायद तभी ये भी पता चलेगा कि ये अरहर का विकल्प बनेगा या नहीं
अजय कुमार झा

ab inconvenienti said...

अय्यर खुद एक माह तक लगातार सोया की दाल, बड़ी, आटे का सेवन करें, फिर सलाह दें. गरीबों को तो लोग अपने घर का सडा बुसा भोजन तक खिला देते हैं, अय्यर को दाल की कमी नहीं है. बस कहीं पढ़ लिया होगा की इसमें प्रोटीन होता है, लगे उपदेश देने.

राज भाटिय़ा said...

हम बीस साल से हम खा रहे है यह सोया बीन की दाल ओर सोया बीन की बढिया,

Himanshu Pandey said...

सोया में प्रोटीन तो बहुतायत में है ही, पर विचित्र है कि इस देश में किसी चीज के विकल्प के तौर पर ही कोई चीज क्यों खाई जाय !

अरहर की बढ़ती कीमतें किस कारण हैं, इसका पक्का पता मुझे नहीं (पता है भी तो क्या?)। उत्पादन का ठहरा रह जाना भी चिन्ताजनक है ।

अल्पना जी का कमेंट भी देख रहा हूँ !

Arvind Mishra said...

@ab inconvenienti
स्वामीनाथन ने प्रसंस्कृत सोया दाल की ही सिफारिश की है .

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मुझे याद है हमारे खेतों में अरहर की फसल खूब होती थी.... और साल भर का हिस्सा निकालने के बाद भी काफी बच जाता था .... जिसको गाय-भैंसों को भी चारे में मिला कर खिलाया जाता था.... पर अब यह सपना है..... अब तो अरहर की दाल स्टेटस सिम्बल हो गई है.....

ab inconvenienti said...

कहीं दालों की यह कृत्रिम कमी भारतीय खाद्य प्रणाली को आमूलचूल बदल डालने की सोची समझी और सुनियोजित साज़िश तो नहीं? क्योंकि कोर्न और सोया की फसलों से सबसे ज्यादा फायदा बदनाम संगठन मोनसेंटो और कारगिल को है, बहुराष्ट्रीय खाद्य उद्योगों को नया बाज़ार चाहिए, पर भारतीयों की भारतीय भोजन से चिपके रहने की आदत बाज़ार में उन्हें पहुँच बनाने से रोक रहीं हैं. सोया से फायदा सिर्फ अमेरिका को है,

दुनिया में सोया का प्रचलन बढ़ता है तो जीनसंवर्धित बीजों की खपत बढ़ेगी जिसपर मोनसेंटो और कारगिल का एकाधिकार है.

जैसे जैसे परंपरागत भारतीय खाद्य बहार होते जायेंगे अमेरिका को अपना सांस्कृतिक साम्राज्य मजबूत करने में मदद मिलेगी.

भारतीय ऐसे प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर निर्भर रहेंगे जिन्हें वे घर पर तैयार नहीं कर सकते तो अमेरिकन फ़ूड जाइंट्स की बन आएगी.

इसका सीधा फायदा फोर्च्यून 1000 के मालिकों होगा, आपने 'न्यू वर्ल्ड आर्डर' के बारे में तो सुना ही होगा. न्यू वर्ल्ड आर्डर के तहत ही भारत में धर्मान्तरण जोर शोर से चल रहा है, कांग्रेस को फर्जी और विवदित वोटिंग मशीनों के जरिये बार बार केंद्र में लाया जा रहा है, डेसर्ट फोक्स, 911 , सभ्यताओं का संघर्ष, सारे मीडिया पर पश्चिमी कब्ज़ा, देशी और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को फेज़ आउट करना (इसमें बड़ी फार्मा कंपनियों का ही फायदा है), खाद्य श्रृखला पर एकाधिकार करना (यह विवधता नष्ट करके ही किया जा सकता है). भारत का जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम हाशिये पर क्यों चला गया यह शायद किसी ने न सोचा हो.

हम न्यू वर्ल्ड आर्डर में प्रवेश कर चुके हैं, यह मेट्रिक्स है जिसमे हम और आप जी रहे हैं. और दुनिया को मुट्ठीभर अमेरकी उद्योगपति नियंत्रित कर रहे हैं. भारत में इस न्यू वर्ल्ड आर्डर के एजेंट एआईसीसी, मिशनरी और मीडिया है, जो मुट्ठी भर लोगों के हाथों नियंत्रित है. यह मेरी कल्पना या कोंस्पिरेसी थ्योरी नहीं है बल्कि सच्चाई है. हमें कई अलग अलग स्तरों पर बड़े ही सुनियोजित और बहुत ही सोफेस्टिकेटेड ढंग से बदला और नियंत्रित किया जा रहा है.

समस्या जितनी दिखती है यह उससे भी कहीं अधिक गंभीर है. सतह के नीचे कितनी ही परतें और हैं.

Arvind Mishra said...

@ab inconvenienti
आपकी बातो में दम है ,हमें इस और से सावधान रहना अहोगा और सतर्क दृष्टि रखनी होगी -पर यह करेगा कौन ? सरकारें तो ऐसे प्रच्छन्न अभियानों को एक सक्रियक की तरह बढ़ावा देती हैं क्योकि उनके कर्णधार इनसे कई प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लाभान्वित होते है ..पिसती है तो जनता बेचारी ....
बहुत आभार !

mukti said...

आपकी पोस्ट से नयी जानकारी मिली, पर असुविधाजनक जी की टिप्पणी बेचैन कर गयी. क्या हम सच में अमेरिकियों के षड‌‌‌्‌यंत्र के शिकार हो गये हैं?