इंगित पोस्ट में मस्तिष्क के कुछ उन विचित्र अनुभवों की चर्चा हुई है जिन्हें फ्रेंच भाषा में डेजा वू (Déjà vu) कहते हैं -जब कभी किसी जगह जाने पर आपको ऐसा लगे कि वहां तो आप पहले ही आ चुके हैं जबकि हकीकत में आप वहां नहीं गए हों या किसी अगले पल घटने वाली घटना का पूर्वाभास सा हो जाय जो ठीक वैसी ही घट जाए जैसा आपने अभी अभी सोचा हो तो ऐसे अनुभव डेजा वू कहलाते हैं .फ्रेंच भाषा में डेजा वू का अर्थ है 'पहले से देखा हुआ -आलरेडी सीन' ! ऐसा होता क्यूं है? लवली कुमारी जी की पोस्ट से इतर आईये समझते हैं इस दिमागी गुत्थी को ! दरअसल मनुष्य की याददाश्त भी कई घटकों में बटी होती है -जैसे लम्बे समय की याददाश्त ,थोड़े समय की याददाश्त या किसी घटना मात्र से जुडी 'इपिसोडिक' याददाश्त और महज तथ्यों से जुडी याददाश्त और इन सभी स्मृति -घटकों के लिए दिमाग के दीगर हिस्से जिम्मेवार होते हैं जहां मस्तिष्क की कोशायें इन तरह तरह की यादों को संजोये रखती हैं .हिप्पोकैम्पस एक ऐसा ही हिस्सा है जो नई स्मृतियों को सहेजता है . इन हिस्सों को प्रयोगशालाओं में रासायनिक और बहुत हलके विद्युत् स्फुलिंगों द्वारा उद्वेलित करने पर कुछ वैसी ही अनुभूतियाँ होती है जैसा कि प्रायोगिक प्राणी -मनुष्य को भी वैसा सचमुच का काम करने पर होतीं -उनके उद्वेलन से बिना सहचर की उपस्थिति के ही नर मादा में चरमानंद की अनुभूति भी प्राप्त कर ली गयी ! बल्कि ऐसी अनुभूति के लालच में कुछ प्रायोगिक प्राणियों से श्रम साध्य कार्य भी करा लिए गए !
मनुष्य का मस्तिष्क समान सी यादों में फर्क भी कर सकता है और 'समान मगर ठीक वैसी ( आईडंनटीकल ) नहीं ' का भी फर्क जिसे वैज्ञानिक पैटर्न सेपरेशन कहते हैं ! जब यह स्मृति प्रणाली फेल कर जाती है तो मति भ्रम /दृष्टि भ्रम /दिशा भ्रम जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ता है ! डेजा वू भी एक ऐसी ही स्मृति विभ्रम की घटना है ! मिर्गी के मरीज ऐसे अनुभूतियों से प्रायः गुजरते रहते हैं .डेजा वू में मस्तिष्क के दो हिस्सों न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस की पारस्परिक अनुभूतियों में फ़र्क हो जाने से विचित्र अनुभव होते हैं -न्यूरो कार्टेक्स जहाँ यह इन्गिति देता है कि आप किसी ऐसी स्थिति में वास्तव में नहीं हैं जिनमे आप दरअसल होते हैं और हिप्पोकैम्पस ठीक उसी समय हकीकत की अनुभूति कर रहा होता है -लिहाजा इन परस्पर विरोधाभासी स्मृति अनुभूतियों के करण डेजा वू जैसी अनुभूति हो जाती है ! यूं कहिये यह याददाश्त प्रणाली का ही एक साईड इफेक्ट है ! इसी तरह जामिया ( jamiya ) वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!
क्या लवली जी या समय साहब मुझे आप अपनी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता का कुछ पाठ पढायेगें प्लीज और आप दोनों जन कुछ सरलीकरण /लोकप्रियकरण के गुर सीख लेगें ? ये दोनों ही स्थितियां वैयक्तिक अतिवाद की परिचायक है -कुछ समझौते क्यूं न किये जायं ?
संदर्भ :नोबेल लारीयेट सुसुमु टोनेगावा और थामस मैकफ़ के शोध से सारांशित ,टाइम पत्रिका (अगस्त ,20,2007 ,
व्यक्तिगत संकलन)
20 comments:
भैया, मैं पढ़ता अवश्य हूँ। बहुत बार समझ मे नहीं आते सो चुप ही चल देता हूँ।
बात आप ने गम्भीर उठाई है। देखिए विमर्श कैसा होता है।
दर्शन और विज्ञान जुड़े हुए हैं- मार्क्सवादी दर्शन को मानने वाले उसे विज्ञान ही मानते हैं। आप, समय और लवली जी दार्शनिक/वैज्ञानिक हैं। अच्छी पहल है।
मंथन की प्रतीक्षा है।
बहुत ही सरल शब्दों में बताया है , आपने ।
इसी तरह का लेखन होना चाहिए जो समझ में आ सके । ब्लॉग पर पठनीयता प्राथमिक है , बाकी सब उसके बाद आता है । इसी तरह की और पोस्टों की प्रतीक्षा रहेगी ।
बेहतरीन पोस्ट... साधुवाद.. मैं अपने से पूर्व के दोनों टिप्पणीकारों से सहमत हूं...
बहुत मेहनत से आप ने यह लेख तेयार किया, धन्यवाद
हाँ मैं विषयों के लोकप्रियकरण के खिलाफ हूँ ..यह बहस पहले भी कई बार हो चुकी है ..यहाँ, भुजंग में ..और भी कई ब्लोग्स में ..जहाँ तक भाषा/विषय का सवाल है मैं मुर्ख अज्ञानी हूँ जो पुस्तक सामने दिखती है उसे उठा कर छांप देती हूँ ब्लॉग पर, जब यह तय कर ही दिया गया है ज्ञानी जनों द्वारा मैं क्या कहूँ ? मुझे भाषा का चलताऊ सा ज्ञान है, जाने कौन से शब्दों की बात कही जा रही है ? और अरविन्द जी आपकी पिछली पोस्ट खंघाल के बताऊँ की आपसे मैंने कौन -कौन से नए शब्द सीखें हैं ? आप ही थे न कृपानिधान जो एक शब्द से पुरे ब्लॉग जगत को संस्कृत पढ़ा रहे थे ? अब कृपया भाषा को लेकर आप कुछ न कहें ...आपकी भाषा खुद ही किलिष्ट होती है (हाँ मुझसे भी अधिक ).
द्विवेदी जी को मुझसे समस्या हुई और उन्होंने मुझसे कहा तक नही ..आश्चर्य !
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गिरिजेश जी - आलसी भाई कहाँ आपने मुझे वैज्ञानिक /दार्शनिक जैसी श्रेणी में रख दिया है. मैं मुश्किल से एक विषय में परास्नातक हूँ ..और जहांतक बात है मार्क्सवाद की जाने आपको किस शब्द /शब्द युग्म से ऐसा लगा की मैं कोई " वादी" हो सकती हूँ ..दुसरे अगर होती भी तब भी मेरी राजनीतिक विचारधारा का विज्ञान से सम्बन्ध कहाँ दिख गया आपको ..क्या आपके ब्लॉग पर जो टिप्पणी की उससे ?
ऐसा है तो माफ़ी भाई जी ..मुझसे गलती हो गई मैंने खुले मन से अपना मंतव्य रखा ...क्या पता था की मेरा व्यक्तित्व मेरे विषय से बड़ा हो जाएगा. और ऐसा हुआ है तब यह मेरे लिए दुखद है...पर मुझे पता होना चाहिए कहाँ? आशा है आप बताएँगे जरुर.
@शुक्रिया लवली कुमारी जी ,अब समय की टिप्पणी का इंतज़ार है .वे कुछ कहें तो मैं कुछ आगे कहूं !
आपने तो लाजवाब ही कर दिया !
http://bhujang.blogspot.com/2009/07/blog-post_25.html जहाँ पहले इस विषय पर बात हुई है. मेरा यही स्टेंड है ..और इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन करने की इजाजत मेरे जीवन मूल्य मुझे नही देते. फिर एक बार चर्चा के लिए शुक्रिया.
@दिनेश जी को मिस्कोट कर दिया था मैंने -भूल सुधार दी गयी है ! मुझे खेद है !
कृपा कर मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित किया जाय न की किसने क्या कहा नहीं तो यहाँ भी लाबीयिंग शुरू हो जायेगी ! कुछ खेमेबाज टिप्पणी भेज भी चुके हैं जिन्हें मैंने माडरेटर के अधिकार से डिलीट कर दिया है!
लवली जी,
मेरी टिप्पणी एक बार फिर ध्यान से पढ़िए। मैंने आप को किसी भी वाद से नहीं जोड़ा है। मार्क्सवाद मात्र उदाहरण के रूप में दिया गया है। आप तीन लोगों के समुच्चय को सामूहिक रूप से दार्शनिक/वैज्ञानिक कहा है मैंने। आप का शैक्षिक बैंकग्राउण्ड मैंने नहीं देखा। देख कर क्या करना है? निरक्षर भी वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न हो सकता है। अनपढ़ कबीर के दर्शन का अपना आनन्द है।
अब ये न कहिएगा कि मैंने आप को अनपढ़ श्रेणी में रख दिया :)
मेरे ब्लॉग पर की गई टिप्पणी से यहाँ का क्या सम्बन्ध? वहाँ तो आप ने एक दिशा देती टिप्पणी की थी। उसे लेकर माफी/दु:ख/व्यक्तित्त्व के प्रश्न क्यों उठने चाहिए?
@गिरिजेश जी - चलिए ..अच्छा हुआ आपने बात साफ की ...आगे भी आपसे ऐसी ही स्पस्टवादिता की अपेक्षा रहेगी ..आपके उत्तर से मेरी गलतफहमियां दूर हो गई.
शुक्रिया
...और हाँ एक बात शेष रह गई ..मुझे आलोचना/विमर्श से कोई समस्या नही है कृपया इन बेकार की चीजों पर बहस करने से अच्छा है की हम विषय पर चर्चा करें.
आदरणीय अरविंद जी,
पहले इच्छा नहीं थी, फिर पता लगा कि आप प्रतीक्षा में हैं, इसलिए यह टिप्पणी करने की समय हिमाकत कर रहा है। आशा है किसी भी तरह से अन्यथा न लेंगे।
आपने संदर्भित विषय-खंड़ को बखूबी विस्तार दिया है, और बारीकी से मानसिक परिघटनाओं को इस संदर्भित विषय के परिप्रेक्ष्य में समझाने की कोशिश की है।
जहां तक इस नाचीज़ की अल्प समझ के दायरे में आ पाया है, वह विषयगत प्रवर्तनों की इस होड़ और इसके जरिए श्रेष्ठताबोध की तुष्टि की इस प्रक्रिया के मूल मंतव्यों को आत्मसात नहीं कर पा रहा है। लवली जी, मिथकों के मानव अवचेतन पर होने वालो प्रभावों पर अपनी सामर्थ्यानुसार एक श्रृंखला प्रस्तुत कर रही हैं, और इस वृहद विषय की निरंतरता में, नयी अवधारणाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करती सी चल रही हैं। आपने यहां उस संक्षिप्त उल्लेखीकरण को बखूबी विस्तार दिया है, और अपने सामर्थ्यनुसार इसे मनोविज्ञान के क्लिष्ट सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में सरलता और सुंदरता से समझाना चाहा है।
जाहिर है, यह इन गंभीर सरोकारों और क्लिष्टताओं का विस्तार ही है, जिसे आप सरलीकृत और बिंदुवार व्याख्याओ और टीकाओं के रूप में पेश कर, विज्ञान के लोकप्रियकरण की महती आवश्यकता के महायज्ञ में अपने हिस्से की आहूति देकर इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग बन रहे हैं।
जारी.....
......
आपके आलेख का पहला और आखिरी पैरा, इस विषय प्रवर्तन और सरलीकरण की आकांक्षाओं से विरत है और इसी संदर्भ में यहां बिल्कुल गैरजरूरी सा पैबंद बनकर उभर रहा है। हालांकि यह आपका उद्देश्य नहीं ही रहा होगा, परंतु ऐसा लगता है जैसे आप किसी अव्यक्त व्यक्तिगत असुरक्षाबोध के तहत, विषयगत नहीं वरन व्यक्तित्व के विश्लेषण की गैरइरादतन जुंबिशों में उलझ गये हैं। यहां आई हुई टिप्पणियों से भी जाहिर है कि यही पक्ष ज्यादा मुखर हो कर उभर रहा है।
परंतु आप जैसे विज्ञजन से ऐसी असावधानी की आशा नहीं की जा सकती, ना ही इस तरह की गैरजरूरी चर्चाओं में उलझना हमारा मूल मंतव्य हो सकता है। जाहिर है इसका ध्यान रखा जाना चाहिए कि असावधानीवश वैज्ञानिकता, व्यक्तिगतता में उलझने को अभिशप्त ना हो जाए।
जब कहीं हमें लगता हैं कि किसी विवेचित विषय पर, हम ज्यादा बेहतर तरीके से विषय प्रवर्तन कर सकते हैं, तो हमें समय और सामर्थ्य अनुसार यह करना ही चाहिए। पर विषयगत जिम्मेदारी को, तात्कालिक व्यक्तिगत श्रेष्ठताबोधों में नहीं उलझाना चाहिए।
आपकी श्रॆष्ठ प्रतिभा से हम सभी को काफ़ी आशाएं है।
और इस मंच को इन्हीं महती उद्देश्यों के तहत सम्मानपूर्वक देखा जाता है।
इसकी मूल प्रस्थापनाओं से विचलन, किसी भी कारण से हम सभी का अभीष्ट नहीं ही होना चाहिए।
मुआफ़ी की दरकार है, यदि किसी भी तरह से व्यक्तिगत मनोभावों पर चोट पहुंचाने वाला कुछ लिख दिया गया हो। क्योंकि आप जानते ही हैं कि समय के असल मंतव्य इनसे विरत हैं, और विज्ञान के लोकप्रियकरण की आपकी मंशा पर कोई शक नहीं किया जा सकता।
शुक्रिया।
अरविंद जी जहाँ तक सरलीकरण का प्रश्न है। कुछ विषय ऐसे हैं जिन का सरलीकरण नहीं हो सकता। उस का कारण है कि जिस विषय पर विचारों को प्रकट किया गया है उसी की टर्मिनोलॉजी का प्रयोग किया जाएगा। वह भी नयी होती है तो दुरूह प्रतीत होने लगती है। जब पाठकों को इन नए शब्दों के अर्थों का भलीभांति अभ्यास हो जाता है तो वह दुरूहता भी सरलता लगने लगती है। आप ने विषय और बात का सरलीकरण करने का प्रयास किया है लेकिन वह भी उसी स्तर की बन पड़ी है जिस स्तर की लवली जी की पोस्ट थी। कारण फिर वही है टर्मिनोलॉजी से परिचय का अभाव। हम जब रूसी या फ्रेंच उपन्यास पढ़ते हैं तो केवल पात्रों के नाम अजनबी होने के कारण उन्हें स्मरण करने में परेशानी होती है। लेकिन एक दो उपन्यास पढ़ लेने पर फिर आदत होने लगती है।
मार्क्सवाद विज्ञान नहीं दर्शन ही है। आखिर विज्ञान और दर्शन में अंतर तो है। यह जरूर है कि वह विज्ञान पर आधारित दर्शन है। यूँ तो विवेकानंद ने भी कहा है कि धर्म को भी विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उसी तरह किसी दर्शन को भी विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। वस्तुतः दर्शन विज्ञान के लिए आगे की राह बनाते हैं और विज्ञान उन्हें दुरुस्त करता रहता है।
@इस पोस्ट के दो उद्येश्य थे -
डेजा वू के बारे में जानकारी बाँटना और
विषयों की सरल ,लोकप्रियकरण के पक्ष में बात रखना
बस ,किसी और रूप में न लिया जाय इसे !
दूसरे मंतव्य पर फिर कभी चर्चा होगी !
हमें डेजा वू के बारे में अच्छी जानकारी मिल गयी, हम संतुष्ट हुए - बस !
विज्ञानं विषय में मेरी जानकारी बहुत कम है...फिर भी टिपण्णी करने की धृष्टता कर रही हूँ ...
विज्ञानं ही नहीं किसी भी विषय का सरलीकरण आम आदमी तक उसकी अहमियत पहुँचाने और जानकारी बढ़ाने में सहायक होता है ...!!
आप की पोस्ट से लिंक ले कर lovely जी की पोस्ट पढ़ीं.
आप ने is rochak vishay ko काफ़ी सरल कर के समझाने का प्रयास किया है.
लेकिन kayee subjects/topic ऐसे होते हैं जिनको सरल कर पाना कठीन होता है.
विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए हालाँकि यह ज़रूरी है की जनसाधारण की रूचि के विषयों को सरल कर के बताया जाए.
यह सच है कि लवली जी बेहतरीन शख्सियत की मालिक हैं।
कठिन चीजों को आसान भाषा में समझाना काबिलियत का काम है. विज्ञान को आमजन तक पहुंचाने के लिये इसमें योगदान देने वाला निःसन्देह बधाई का हकदार होना चाहिये.
आइंस्टीन का प्रसिद्ध कथन उद्धृत कर रहा हूं - "make things as simple as possible, but not simpler"
गहरा संदेश है इसमें.
वैसे लवली जी और आप, दोनों ही मेरे प्रिय चिट्ठाकारों में है और मुझे दोनों को ही समझने में कोई कठिनाई नहीं.
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