नदियों और कुदरती जल क्षेत्रों में तेजी से दुर्लभ होती इस मछली के पुनरुस्थापन का प्रयास मैंने यहाँ बनारस के मत्स्य पालक मक़सूद अली के सहयोग से राजकीय मत्स्य प्रक्षेत्र उन्दी पर किया है और सफलता से ब्लॉग परिवार को भी अवगत कराने की इच्छा हो आई ! इस सफलता पर जी फूला नहीं समा रहा था जो .....अपने यहाँ तो यह एक महत्वपूर्ण और उम्दा भोज्य मछली है मगर विदेशों की एक मशहूर अलंकारिक ,शोभाकर अक्वेरियम मछली .हम केवल इसे उदरस्थ करते रहे हैं और विदेशी इसे अक्वेरियम की मछली बना कर लाखो करोडो कमा रहे हैं -यह है भारत की दरिद्रता का करण ! कुछ चित्र और देखें और एक अक्वेरियम में इस मछली की अठखेलियाँ भी !एक्वेरियम व्यवसाय में इस मछली का नाम क्लोन नायिफ फिश कर दिया गया है ! इसके पुनर्वास की फौरी जरूरत है अब !
Science could just be a fun and discourse of a very high intellectual order.Besides, it could be a savior of humanity as well by eradicating a lot of superstitious and superfluous things from our society which are hampering our march towards peace and prosperity. Let us join hands to move towards establishing a scientific culture........a brave new world.....!
Tuesday, 29 December 2009
इस मछली के पुनर्वास की फौरी जरूरत है!
कल मैंने ऊपर दिया चित्र लगाया था यहाँ और उसके बारे में पूंछा था! कुछ जवाब आये हैं -दो तरह के -एक वर्ग मानता है यह कोई मछली है और दूसरा गांगेय डालफिन! एक वर्ग के प्रबल दावेदार हैं हिमांशु तो दूसरे के गिरिजेश! उन्मुक्त जी की मनाही है कि इसे डालफिन न माना जाए ! उन्मुक्त जी ,नहीं मानते हैं इसे डालफिन और न हीं सील -अरे यह स्तनपोषी थोड़े ही है ! यह तो अपनी मोय -चीतल मछली है ! अंगरेजी में फीदर बैक . गंगा नदी की एक प्रमुख मछली ! यह जिस परिवार की है भारत में उसकी बस दो प्रजातियाँ हैं -एक नोटोंप्टेरस नोटोंप्टेरस और दूसरी नोटोंप्टेरस चिताला ! पहली छोटी होती है यही कोई आधा फुट की मगर दूसरी जिसकी फोटो मैंने यहाँ लगाई थी कई फुट की हो सकती है -३-४ फुट और वजन भी कई किलो ! मगर दुःख है यह प्रजाति अब दुर्लभ हो चली है! १९८० के दौरान जब मैं मछलियों पर इलाहाबाद में शोध कर रहा था तो यह आसान से हाथ से फेकने वाले जाल -फेकौआ जाल से पल भर में मिल जाती थी उस जगह से जहाँ आजकल ज्ञानदत्त जी सफाई अभियान चलाये हुए हैं ! मगर अब जल्दी नहीं मिलती !
पहले आप पहचानिए यह क्या है ,फिर मैं तफसील से बताउंगा!
जी जरा अपने दृश्य और ज्ञान चक्षुओं की परीक्षा लीजिये और बताईये यह क्या है ? फिर मैं तफसील से बताता हूँ कि यह है क्या और मैंने क्यों यहाँ साईब्लोग पर इसे जगह दी है!
मुझे लगता है कि उन्मुक्त जी को तो सहजता से बता देना चाहिए मगर फिर भी देखता हूँ ? और सीमा गुप्ता जी ,अल्पना वर्मा जी ,संजय बेंगाणी साहब और मेरे प्रिय मित्र भूत भंजक सहित आओं आओं सब पहेली विद्वान् ,विदुषियों और बूझो यह है क्या आखिर?
मुझे लगता है कि उन्मुक्त जी को तो सहजता से बता देना चाहिए मगर फिर भी देखता हूँ ? और सीमा गुप्ता जी ,अल्पना वर्मा जी ,संजय बेंगाणी साहब और मेरे प्रिय मित्र भूत भंजक सहित आओं आओं सब पहेली विद्वान् ,विदुषियों और बूझो यह है क्या आखिर?
Monday, 21 December 2009
अवतार के बहाने विज्ञान गल्प पर एक छोटी सी चर्चा !
विज्ञानं गल्प फिल्म अवतार इन दिनों पूरी दुनिया में धूम मचा रही है ! फ़िल्म भविष्य में अमेरिकी सेना द्वारा सूदूर पैन्डोरा ग्रह से एक बेशकीमती खनिज लाने के प्रयासों के बारे में है ! पूरी समीक्षा यहाँ पर है ! अमेरिका में अब यह बहस छिड़ गयी है कि यह फ़िल्म विज्ञान गल्प (साईंस फिक्शन या फैंटेसी )है भी या नहीं.मेरी राय में यह एक खूबसूरत विज्ञान फंतासी ही है और अद्भुत तरीके से हिन्दू मिथकों के कुछ विचारों और कल्पित दृश्यों से साम्य बनाती है!
दरअसल विज्ञान गल्प /फंतासी का हमारी समांनांतर दुनिया से कुछ ख़ास लेना देना नहीं होता ! हमारे परिचित चरित्र और चेहरे इन कथाओं में नहीं दिखते -क्योंकि अमूमन विज्ञान फंतासी भविष्य का चित्रण करती है -भविष्य की दुनिया ,वहां के लोग और वहां की प्रौद्योगिकी -या फिर धरती से अलग किस्म की किसी सभ्यता की कहानी! दिक्कत यह है कि जिस दुनिया या लोगों या तकनीक से लोग परिचित नहीं है उसे कैसे और किस तरह दिखाया जाय ! लोग इसलिए ही विज्ञान कथाओं के पात्रों से खुद को जोड़ नहीं पाते और ऊब उठते हैं ! विज्ञान कथाकार /फिल्मकार एक अजनबी से माहौल /परिवेश के चित्रण के साथ यह भी भरपूर कोशिश करता है कि वह दर्शकों को किसी न किसी बहाने रिझाये रहे -यह काम एक सशक्त कथा सूत्र पूरा करता है जिसमें प्रायः मानव और मानवता के ही गहरे सरोकार व्यक्त होते हैं -और मारधाड़ के दृश्य भी इनमें बतौर फार्मूले के डाले जाते हैं ताकि विनाश या युद्ध प्रेमी दर्शक लुत्फ़ ले सकें ! साथ ही एक होशियार विज्ञान कथाकार मनुष्य के जाने पहचाने विचार अवयवों को ख़ूबसूरती से मुख्य कथा की धारा में पिरोता चलता है ताकि दर्शक कथा से जुड़े रह सकें !
इसलिए अवतार में हिन्दू मिथक से अवतारों की अवधारणा ली गयी है -धरती पर अधर्म बढ़ने पर विष्णु अवतार लेते हैं -यह लोगों के मन में रचा बसा है-इसकी व्याख्या की जरूरत भी नहीं है यहाँ -यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ....तदात्मानं सृजाम्यहम ! रोचक बात यह है कि अवतार स्वयं में एक स्वतंत्र ईकाई होने के बावजूद भी मुख्य चेतना -विष्णु से सम्बद्ध होता है ! अवतार में भी पैन्डोरा के मूल निवासियों के बीच पहुँचने के लिए धरती के वैज्ञानिक एक अवतार का ही सृजन करते हैं! मगर तरीका खासा वैज्ञानिक है -तकनीक को व्याख्यायित किया गया है -जो मिथक और विज्ञान कथा के फर्क को दर्शाता है!
पैन्डोरा ग्रह के वासियों के बीच रहने और उनका विश्वास हासिल करने के लिए उनकी जोड़ के डी एन ये से मानव के डी एन ये का मिलान कर -और मूल मनुष्य के मष्तिष्क को पैन्डोरा वासी से ही दिखने वाले प्रतिकृति में "डाउनलोड़" कर अवतार रूपी नायक का सृजन करके नए ग्रह -वातावरण में उतार देते है -वहां लोग इस "आसमानी सभ्यता " के प्रतिनिधि को स्वीकार कर लेते हैं और आगे चलकर वही उनका मुखिया बनता है और आसन्न विपत्ति से उन्हें छुटकारा दिलाता है ! कृष्ण भी तो हूबहू यही करते हैं -वे कहीं कहीं तीसी के फूल की सी निलीमा लिए दिखते हैं -पैन्डोरा वासी भी नीले लोग हैं ! वहां के लोगों की पूंछे हैं -हिन्दू मिथकों में एक पूंछ से सारी लंका जला दी गयी है ! हिंदूओ मिथक कथाओं में गरुण तो विष्णु के वाहन हैं -पैन्डोरा वासी और उनका मुखिया अवतार भी एक भव्य गरुनाकार पक्षी पर सवारी करत्ता है -वहां विचित्र से घोड़े हैं ! विष्णु का आगामी अवतार भी घोड़े पर चढा हुआ दिखाया गया है ! लगता है अवतार फ़िल्म की अनेक दृश्यावलियों को सीधे सीधे हिन्दू मिथकों से उड़ा लिया गया है ! अब एक अजनबी ग्रह के वासियों और प्राणियों को फिल्मकार दिखाए भी तो कैसे -हिन्दू मिथक आखिर कब काम आयेगें ?
आधुनिक विज्ञान कथा साहित्य का हिन्दू मिथकों से यह समन्वय काफी रोचक है -फ़िल्म देखकर आईये फिर और चर्चा होगी!
Wednesday, 16 December 2009
क्या महिलायें बहलाने फुसलाने में ज्यादा पारंगत होती हैं ?
मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती ..बच्चे तो बच्चे ...बच्चों के बाप भी अक्सर झांसे में आ जाते हैं -प्रेमी तो अक्सर बनते ही रहते हैं -क्या मजाल कि झूंठ का ज़रा भी भान हो जाय ! पुरुष इतने सफाई से झूंठ नहीं बोल पाता -याद कीजिये पिछली बार कैसे झूंठ बोलते हुए आप पकडे गए थे...चेहरा सफ़ेद पड़ गया था और हकलाहट थोड़ी बढ गयी थी न ?और तिस पर झपकती आँखों ने सारे राज का पर्दाफाश कर दिया था ...मगर यह आपको पता नहीं हैं कि मोहतरमा उससे कई ज्यादा बार आपको उल्लू बना चुकी हैं और आपको उसका आभास तक नहीं हुआ ! मगर यह काम महिला एक सरवाईवल वैलू के ही लिहाज से करती है ताकि परिवार का विघटन बचा रहे -बड़े होते बच्चों पर कोई विपदा न आ जाय !
कई रियल्टी शो नारी के इस आदिम हुनर का बेजा फायदा उठा रहे हैं -झूंठ बोलने की मशीन का बेहूदा प्रदर्शन कर महिला से यह उगलवाने का निर्लज्ज प्रदर्शन करते भये हैं कि उसका गैर वैवाहिक सम्बन्ध भी है -अब दर्शक दीर्घ में बैठे बिचारे पति को तो मानो काटो तो खून नहीं ..एक रियलटी शो में मशीन ने जो झूंठ पकड़ा कि लोगों की रूहें काँप गयीं -मोहतरमा अपने पति की ह्त्या ही नियोजित किये बैठी थीं ! यद्यपि झूंठ पकड़ने वाली मशीने खुद भी विवादित रही हैं और बहुत से वैज्ञानिक उनकी सत्यता पर आज भी सशंकित से हैं मगर यह इन्गिति तो हो ही जाती है कि महिलायें ज्यादा सहज हो झूंठ बोल जाती हैं जो सौ फीसदी सच लगता है !
अंतर्जाल पर ऐसे अनेक दृष्टांत हैं जिन्हें रूचि हो वे यहाँ, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं और खुद भी गूगलिंग कर इस रोचक मामले की पड़ताल कर सकते हैं ! कुछ ऐसे मामले हैं जहाँ वह केवल अपने जीवन साथी को खुश रखने के लिए ही झूंठ बोल जाती है जैसे कि उसने उसे सचमुच संतुष्ट कर दिया है !
संकलित कड़ियाँ यहाँ भी हैं !
दावात्याग : अभी भी वैज्ञानिकों में यह मामला विवादित है -यहाँ केवल व्यवहारविदों (ईथोलोजिस्ट )की राय व्यक्त हुई है!
Sunday, 6 December 2009
बिना वजूद के ही याद हो आये जो वो ड़ेजा वू है .....
हर शख्श के अपने जायज रंजो गम हैं ,गमे रोजगार और गमे मआश हैं ,हमारे आपके भी हैं और लवली कुमारी जी के भी हैं और इसके बाद और बावजूद भी जब वे समय निकाल कर ब्लॉग दुनिया के लिए योगदान करती हैं तो सहज ही साधुवाद की अधिकारिणी बन जाती हैं -अब चूंकि अकादमिक सरोकारों से हम भी बंधे से हैं तो जरूरी हो जाता है कि कुछ ऐसे ब्लागरों की उन रचनाओं पर एक सार्थक संवाद करें ,भले ही चाहे अनचाहे , जिनका अकादमीय महत्व हो और जहां कुछ जरूर कहा जाना चाहिए ! लवली कुमारी जी इन दिनों मनोविश्लेषण पर एक श्रृंखला कर रही हैं ! वे उस अकादमीय 'स्कूल' की हैं जहाँ बात पाठ्य पुस्तकीय शुचिता को हूबहू बनाए रखे हुए प्रस्तुत की जाती है ,किसी भी तरह के सरलीकरण से परहेज किया जाता है;भले ही कुछ शब्दों और वाक्यांशों को समझने में गुनी जनों के भी माथे पर पसीने ही क्यों न झलक आयें -उनकी ताजातरीन पोस्ट इसका उदाहरण है -मैं कुछ मदद करने आया हूँ यह विश्वास दिलाते हुए कि मेरा मन साफ़ है और एक नैतिक तकाजे के तहत ही मैं कुछ कहना चाहता हूँ -विज्ञान का लोकप्रियकरण मेरा शौक है -मेरी मंशा पर कोई शक न किया जाय ! यह पोस्ट लवली कुमारी जी की इंगित पोस्ट की कोई आलोचना नहीं है -बल्कि एक अंश ("जो कोई दृश्य आप अचानक देखते हैं और आपको लगता है की इस स्थान से मैं पहले गुजर चूका हूँ ..अथवा यह मैंने सपने में या कहीं और (कल्पना में ) देखा है.") की यथा शक्ति सरल प्रस्तुति है! और यह पोस्ट समय को समर्पित है क्योकि वे गंभीर विषयों के प्रेमी हैं मगर उनकी पोस्ट भी प्रायः उसी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता की पैरोकारी करती हैं -बल्कि वे यथोक्त स्कूल के डीन हैं!
इंगित पोस्ट में मस्तिष्क के कुछ उन विचित्र अनुभवों की चर्चा हुई है जिन्हें फ्रेंच भाषा में डेजा वू (Déjà vu) कहते हैं -जब कभी किसी जगह जाने पर आपको ऐसा लगे कि वहां तो आप पहले ही आ चुके हैं जबकि हकीकत में आप वहां नहीं गए हों या किसी अगले पल घटने वाली घटना का पूर्वाभास सा हो जाय जो ठीक वैसी ही घट जाए जैसा आपने अभी अभी सोचा हो तो ऐसे अनुभव डेजा वू कहलाते हैं .फ्रेंच भाषा में डेजा वू का अर्थ है 'पहले से देखा हुआ -आलरेडी सीन' ! ऐसा होता क्यूं है? लवली कुमारी जी की पोस्ट से इतर आईये समझते हैं इस दिमागी गुत्थी को ! दरअसल मनुष्य की याददाश्त भी कई घटकों में बटी होती है -जैसे लम्बे समय की याददाश्त ,थोड़े समय की याददाश्त या किसी घटना मात्र से जुडी 'इपिसोडिक' याददाश्त और महज तथ्यों से जुडी याददाश्त और इन सभी स्मृति -घटकों के लिए दिमाग के दीगर हिस्से जिम्मेवार होते हैं जहां मस्तिष्क की कोशायें इन तरह तरह की यादों को संजोये रखती हैं .हिप्पोकैम्पस एक ऐसा ही हिस्सा है जो नई स्मृतियों को सहेजता है . इन हिस्सों को प्रयोगशालाओं में रासायनिक और बहुत हलके विद्युत् स्फुलिंगों द्वारा उद्वेलित करने पर कुछ वैसी ही अनुभूतियाँ होती है जैसा कि प्रायोगिक प्राणी -मनुष्य को भी वैसा सचमुच का काम करने पर होतीं -उनके उद्वेलन से बिना सहचर की उपस्थिति के ही नर मादा में चरमानंद की अनुभूति भी प्राप्त कर ली गयी ! बल्कि ऐसी अनुभूति के लालच में कुछ प्रायोगिक प्राणियों से श्रम साध्य कार्य भी करा लिए गए !
मनुष्य का मस्तिष्क समान सी यादों में फर्क भी कर सकता है और 'समान मगर ठीक वैसी ( आईडंनटीकल ) नहीं ' का भी फर्क जिसे वैज्ञानिक पैटर्न सेपरेशन कहते हैं ! जब यह स्मृति प्रणाली फेल कर जाती है तो मति भ्रम /दृष्टि भ्रम /दिशा भ्रम जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ता है ! डेजा वू भी एक ऐसी ही स्मृति विभ्रम की घटना है ! मिर्गी के मरीज ऐसे अनुभूतियों से प्रायः गुजरते रहते हैं .डेजा वू में मस्तिष्क के दो हिस्सों न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस की पारस्परिक अनुभूतियों में फ़र्क हो जाने से विचित्र अनुभव होते हैं -न्यूरो कार्टेक्स जहाँ यह इन्गिति देता है कि आप किसी ऐसी स्थिति में वास्तव में नहीं हैं जिनमे आप दरअसल होते हैं और हिप्पोकैम्पस ठीक उसी समय हकीकत की अनुभूति कर रहा होता है -लिहाजा इन परस्पर विरोधाभासी स्मृति अनुभूतियों के करण डेजा वू जैसी अनुभूति हो जाती है ! यूं कहिये यह याददाश्त प्रणाली का ही एक साईड इफेक्ट है ! इसी तरह जामिया ( jamiya ) वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!
क्या लवली जी या समय साहब मुझे आप अपनी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता का कुछ पाठ पढायेगें प्लीज और आप दोनों जन कुछ सरलीकरण /लोकप्रियकरण के गुर सीख लेगें ? ये दोनों ही स्थितियां वैयक्तिक अतिवाद की परिचायक है -कुछ समझौते क्यूं न किये जायं ?
संदर्भ :नोबेल लारीयेट सुसुमु टोनेगावा और थामस मैकफ़ के शोध से सारांशित ,टाइम पत्रिका (अगस्त ,20,2007 ,
व्यक्तिगत संकलन)
इंगित पोस्ट में मस्तिष्क के कुछ उन विचित्र अनुभवों की चर्चा हुई है जिन्हें फ्रेंच भाषा में डेजा वू (Déjà vu) कहते हैं -जब कभी किसी जगह जाने पर आपको ऐसा लगे कि वहां तो आप पहले ही आ चुके हैं जबकि हकीकत में आप वहां नहीं गए हों या किसी अगले पल घटने वाली घटना का पूर्वाभास सा हो जाय जो ठीक वैसी ही घट जाए जैसा आपने अभी अभी सोचा हो तो ऐसे अनुभव डेजा वू कहलाते हैं .फ्रेंच भाषा में डेजा वू का अर्थ है 'पहले से देखा हुआ -आलरेडी सीन' ! ऐसा होता क्यूं है? लवली कुमारी जी की पोस्ट से इतर आईये समझते हैं इस दिमागी गुत्थी को ! दरअसल मनुष्य की याददाश्त भी कई घटकों में बटी होती है -जैसे लम्बे समय की याददाश्त ,थोड़े समय की याददाश्त या किसी घटना मात्र से जुडी 'इपिसोडिक' याददाश्त और महज तथ्यों से जुडी याददाश्त और इन सभी स्मृति -घटकों के लिए दिमाग के दीगर हिस्से जिम्मेवार होते हैं जहां मस्तिष्क की कोशायें इन तरह तरह की यादों को संजोये रखती हैं .हिप्पोकैम्पस एक ऐसा ही हिस्सा है जो नई स्मृतियों को सहेजता है . इन हिस्सों को प्रयोगशालाओं में रासायनिक और बहुत हलके विद्युत् स्फुलिंगों द्वारा उद्वेलित करने पर कुछ वैसी ही अनुभूतियाँ होती है जैसा कि प्रायोगिक प्राणी -मनुष्य को भी वैसा सचमुच का काम करने पर होतीं -उनके उद्वेलन से बिना सहचर की उपस्थिति के ही नर मादा में चरमानंद की अनुभूति भी प्राप्त कर ली गयी ! बल्कि ऐसी अनुभूति के लालच में कुछ प्रायोगिक प्राणियों से श्रम साध्य कार्य भी करा लिए गए !
मनुष्य का मस्तिष्क समान सी यादों में फर्क भी कर सकता है और 'समान मगर ठीक वैसी ( आईडंनटीकल ) नहीं ' का भी फर्क जिसे वैज्ञानिक पैटर्न सेपरेशन कहते हैं ! जब यह स्मृति प्रणाली फेल कर जाती है तो मति भ्रम /दृष्टि भ्रम /दिशा भ्रम जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ता है ! डेजा वू भी एक ऐसी ही स्मृति विभ्रम की घटना है ! मिर्गी के मरीज ऐसे अनुभूतियों से प्रायः गुजरते रहते हैं .डेजा वू में मस्तिष्क के दो हिस्सों न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस की पारस्परिक अनुभूतियों में फ़र्क हो जाने से विचित्र अनुभव होते हैं -न्यूरो कार्टेक्स जहाँ यह इन्गिति देता है कि आप किसी ऐसी स्थिति में वास्तव में नहीं हैं जिनमे आप दरअसल होते हैं और हिप्पोकैम्पस ठीक उसी समय हकीकत की अनुभूति कर रहा होता है -लिहाजा इन परस्पर विरोधाभासी स्मृति अनुभूतियों के करण डेजा वू जैसी अनुभूति हो जाती है ! यूं कहिये यह याददाश्त प्रणाली का ही एक साईड इफेक्ट है ! इसी तरह जामिया ( jamiya ) वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!
क्या लवली जी या समय साहब मुझे आप अपनी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता का कुछ पाठ पढायेगें प्लीज और आप दोनों जन कुछ सरलीकरण /लोकप्रियकरण के गुर सीख लेगें ? ये दोनों ही स्थितियां वैयक्तिक अतिवाद की परिचायक है -कुछ समझौते क्यूं न किये जायं ?
संदर्भ :नोबेल लारीयेट सुसुमु टोनेगावा और थामस मैकफ़ के शोध से सारांशित ,टाइम पत्रिका (अगस्त ,20,2007 ,
व्यक्तिगत संकलन)
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