प्रेम पर इधर कुछ गंभीर चिंतन मनन शुरू हुआ है जिसे आप यहाँ ,यहाँ और यहाँ देख सकते हैं ! मंशा है कि इसी को थोड़ा और विस्तार दिया जाय ! हो सकता है कुछ लोग रूचि लें ! कबीर तो कह गए कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय -मगर यह 'ढाई आखर' है क्या और कोई इसे चाहे तो कैसे आजमा पाये जबकि अगरचे जुमला यह भी है कि प्यार किया नही जाता बल्कि हो जाता है !प्रेम का हो जाना तो एक बात है अन्यथा प्रेम करने का आह्वान एक अशिष्ट आग्रह की ओर संकेत भी करता है !
पहले तो हम यह बात साफ़ कर देना चाहते हैं कि प्रेम एक छतनुमा / छतरी -शब्द है इसके अधीन कई कई भाव पनाह पाते हैं ! प्रेम का भाव बहुत व्यापक है -भक्त -ईश्वर का प्रेम ,पिता- पुत्री /पुत्र ,माँ -बेटे /बेटी ,पति -पत्नी /प्रेयसी ,प्रेमी -प्रेमिका आदि आदि और इन सभी के प्रतिलोम (रेसीप्रोकल ) सम्बन्ध और यहाँ तक कि आत्मरति भी हमें प्रेमाकर्षण के विविध आयामों का नजारा कराते हैं !
हम यहाँ प्रेम के बहु चर्चित ,गुह्यित रूप को ही ले रहे हैं जो दो विपरीत लिंगियों के बीच ही आ धमकता है और कई तरह का गुल खिलाता जाता है और अंततः रति सम्बन्धों की राह प्रशस्त कर देता है ! आईये यही से आज की चर्चा शुरू करते हैं ! जब आप किसी के प्रति आकृष्ट होते हैं तो उसके प्रति एक भावातीत कोमलता अनुभूत होती है -एक उदात्त सी प्रशांति और पुरस्कृत होने की अनुभूति सारे वजूद पर तारी हो जाती है और यह अनुभूति देश काल और ज्यादातर परिस्थितियों के परे होती है -मतलब पूरे मानव योनि में इकतार -कहीं कोई भेद भाव नहीं -न गोरे काले का और न अमीर गरीब का !
इस अनुभूति के चलते आप कई सीमा रेखाएं भी तोड़ने को उद्यत हो जाते हैं -बस प्रिय जन की एक झलक पाने को बेताब आप, बस चले तो धरती के एक सिरे से दूसरे तक का चक्कर भी लगा सकते हैं -आसमान से तारे तोड़ लेने की बात यूं ही नहीं कही जाती ! कैसी और क्यूं है यह कशिश ?रुटगर्स विश्विद्यालय के न्रिशाश्त्री हेलन फिशर कहते हैं - लोग प्रेम के लिए जीते हैं मरते हैं मारते हैं ..यां जीने की इच्छा से भी अधिक प्रगाढ़ इच्छा प्रेम करने की हो सकती है !
सच है प्यार की वैज्ञानिक समझ अभी भी सीमित ही है मगर कुछ वैज्ञनिक अध्ययन हुए हैं जो हमें इस विषय पर एक दृष्टि देते हैं जैसे मनुष्य के 'जोड़ा बनाने ' की प्रवृत्ति ! प्रेम को कई तरीकों से प्रेक्षित और परीक्षित किया जा रहा है -चाक्षुष ,श्रव्य ,घ्राण ,स्पार्शिक और तांत्रिक -रासायनिक विश्लेषणों में विज्ञानी दिन रात जुटे हैं प्रेम की इसी गुत्थी को सुलझाने ! क्या महज प्रजनन ही प्रेम के मूल में है ?
आभासी दुनिया की बात छोडे तो फेरोमोन भी कमाल का रसायन लगता है जो एक सुगंध है जो अवचेतन में ही विपरीत लिंगी को पास आकर्षित कर लेता है -पर सवाल यह की किसी ख़ास -खास में ही फेरोमोन असर क्यों करता है ? समूह को क्यों नहीं आकर्षित कर लेता ! मगर एक हालिया अध्ययन चौकाने वाला है -मंचीय प्रदर्शन करने वाली निर्वसनाएं (स्ट्रिपर्स ) जब अंडोत्सर्जन (ओव्यूल्युशन ) कर रही होती हैं तो प्रति घंटे औसतन ७० डालर कमाती हैं , माहवारी की स्थिति में महज ३५ डालर और जो इन दोनों स्थितियों में नहीं होती हैं औसतन ५० डालर कमाती है -निष्कर्ष यह की ओव्यूल्यूशन के दौर में फेरोमोन का स्रावित होना उच्चता की दशा में होता है और वह पुरुषों की मति फेर देता है -फेरोमोन एक प्रेम रसायन है यह बात पुष्टि की जा चुकी है !
एक और अध्ययन के मुताबिक जब औरते ओव्यूलेट कर रही होती हैं तो उनके सहचर उनके प्रति ज्यादा आकृष्ट रहते हैं और पास फटकते पुरुषों से अधिक सावधान ! वैज्ञानिकों की माने तो प्रेम सुगंध केवल यह भान ही नहीं कराता की कौन सी नारी गर्भ धारण को बिलकुल तैयार है बल्कि यह इतना स्पेसिफिक भी होता है की एक सफल (जैवीय दृष्टि से -गर्भाधान की योग्यता और शिशु लालन पालन के उत्तरदायित्व की क्षमता ) जोड़े को ही करीब लाता है !
वैज्ञानिकों ने एक मेजर हिस्टो काम्पैबिलटी फैक्टर (एम् एच सी ) की खोज की है जो दरअसल एक जीन समूह है जो अगर नर नारी में सामान हो जाय तो गर्भ पतन की संभावनाएं अधिक हो जाती हैं -ऐसे जोड़े प्रेम सुगंधों से आकर्षित नहीं होते ! इस शोध की पुष्टि कई बार हो चुकी है -एक सरल से प्रयोग में पाया गया की कुछ वालंटियर महिलाओं को अज्ञात लोगों की बनियाने सूघने को दी गयीं और बार बार उन्हें वही बनियाने सूघने में पसंद आयीं जिनके स्वामी विपरीत एम् एच सी फैक्टर वाले थे !
अभी प्रेम सुगंध का स्रवन जारी है .....
21 comments:
एक खुबसूरत जानकारी ..........बहुत बहुत शुक्रिया
एक और सुंदर इश्क प्रेम के व्यवहार की बातों पर रोशनी दालने के लिये आभार आपका.
रामराम.
बहुत जबरदस्त जानकारी मिल रही है.
गुरुवर मैंने कहीं सुना था कि ये फ़ेरमेन हारमोन कुछ कंपनियाँ उत्पाद के रूप में बना भी रहीं है जिसे मात्र शरीर पर छिड़कने मात्र से ही विपरीत लिंग का आकर्षण प्रेम बढ़ जाता है
यदि ये बात सच है तो प्रेम के इस क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल हो चुका होगा और प्रेम के साइड इफेक्ट भी हो रहे होंगे इस पर आपको लेखन के लिए आमंत्रित करता हूँ
साधो प्रेम की गली अति सांकरी इस लिए बार बार गली में घुसने से इन्फेक्सन का ही खतरा है
उत्तम लेख व लिंक देने के लिए साधुवाद
@ "हम यहाँ प्रेम के बहु चर्चित ,गुह्यित रूप को ही ले रहे हैं जो दो विपरीत लिंगियों के बीच ही आ धमकता है और कई तरह का गुल खिलाता जाता है और अंततः रति सम्बन्धों की राह प्रशस्त कर देता है !"
आप से यही और सही उम्मीद थी। अरुण जी की बात पर ध्यान दीजिए।
बटुकनाथ जैसे सफल हो जाते हैं और हम जैसे बाँके बस ताका ताकी करते रह जाते हैं। इसके कारणों पर सर्च लाइट मारिए।
देखिये सर, वैज्ञानिकों को हर फटे में अपनी टांग नहीं अडानी चाहिए. घूम-फिर कर वे फेरोमोन, सेरोटोनिन, डोपामाइन, और असीटिल कॉलिन रटते रह जाते हैं. हाल में ही पढ़ा की सूअरों के फेरोमोन को मानव फेरोमोन के सबसे करीब पाया गया और उससे मनुष्यों के लिए मादक और आकर्षणवर्धक स्प्रे बनाये गए हैं. अब, सोचनेवाली बात ये है की ऐसा स्प्रे लगाकर कोई अगर सूअर के बाड़े के पास से गुज़र जाये तो?
विपरीत लिंग का आकर्षण को आप प्यार का नाम नही दे सकते, क्योकि प्यार तो सिर्फ़ प्यार है किसी आकर्षण का मोहताज नही, उसे सिर्फ़ हवस ही कहेगे.
वेसे आप का लेख अच्छा लगा.
धन्यवाद
बहुत खूब मिश्रा जी..इस तरह की जानकारियां पहले ..मैं विश्व प्रसारण सेवाओं मे सुना करता था...प्रेम के मनोविग्यान का ऐसा वैग्यानिक अध्ययन ..पढ सुन कर मज़ा आ रहा है...ये पोस्ट शायद कल के अखबारों में हो तो मुझे खुशी होगी...कि मेरा अंदाज़ा ठीक निकला...
आप लगता है किशोरावस्था के इन्फैचुयेशन की बात कर रहे हैं!
अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
इश्क व्यवहार पर रोचक पोस्ट.
मैं भी सोच रहा हूँ इश्क का एक मैथेमेटिकल मोडल पोस्ट ही कर दूं :)
जानकारी अच्छी है उस से भी सुंदर है उसे प्रस्तुत करने का रोचक तरीका। आप को बधाई!
प्रेमचंद ने लिखा है प्रेम के मामले में मनुष्य पशु है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
शुक्रिया इस चर्चा में शामिल करने के लिए।
आपका आलेख इसे और विस्तार दे ही रहा है, अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं लग रही।
बस थोड़ा सा विज्ञापन और कर लूं।
जो मानवश्रेष्ठ दिलचस्पी रखते हों, और पहले चूक गए हों, वे समय के यहां उपरोक्त सिर्फ़ एक पोस्ट ही नहीं, ‘प्रेम’ लेबल के अंतर्गत चारों पोस्टें देखें।
एक और ब्लोंग पर की गई टिप्पणी को यहां भी दोहरा रहा हूं, इसे भी सिर्फ़ विज्ञापन ही समझें:
‘शब्दों का मतलब एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया में तय होता है, हालांकि हम स्वतंत्र होते हैं उन्हें जैसा चाहे समझने के लिए परंतु प्रामाणिक रूप से जब इन पर बात करने का अवसर होता है तो इन्हें वही आशय व्यक्त करना चाहिए जो इनसे प्रामाणिक और व्यवहारिक रूप से व्यक्त होता है।
जहां तक प्रेम शब्द का प्रयोग है, सामान्यतयाः प्रामाणिक और व्यवहारिक रूप से इसका आशय यौन प्रेम से ही होता है। आप इस शब्द की विस्तृत परास तक पहुंच गये हैं और अच्छा लगा कि इसे पूरे मानवसमाज की परिधि और बल्कि इससे परे पूरी सृष्टि तक आयामित कर रहे हैं। ये बात दीगर है कि मनुष्य ने इसकी कई और छवियों के लिए अलग-अलग शब्द अपनी भाषा के शब्द भंडार में रखे हुए हैं। स्नेह, ममता, वात्सल्य, दया, सहानुभूति, लगाव, अपनापन आदि।
आपने शायद ‘प्रेम एक भौतिक अवधारणा है’ वाला आलेख नहीं पढ़ा। उसके कुछ अंश दे रहा हूं:
‘मनोविज्ञान में ‘प्रेम’ शब्द को इसके संकीर्ण और व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। अपने व्यापक अर्थों में प्रेम एक प्रबल सकारात्मक संवेग है, जो अपने लक्ष्य को अन्य सभी लक्ष्यों से अलग कर लेता है और उसे मनुष्य अपनी जीवनीय आवश्यकताओं एवं हितों का केंद्र बना लेता है। मातृभूमि, मां, बच्चों, संगीत आदि से प्रेम इस कोटि में आता है।
अपने संकीर्ण अर्थों में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, जो शरीरक्रिया की दृष्टि से यौन आवश्यकताओं की उपज होती है। यह भावना, मनुष्य में अपनी महत्वपूर्ण वैयक्तिक विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में इस ढंग से अधिकतम स्थान पा लेने की इच्छा में अभिव्यक्त होती है कि उस व्यक्ति में भी वैसी ही प्रगाढ़ तथा स्थिर जवाबी भावना रखने की आवश्यकता पैदा हो जाये।’
‘लोगों के बीच प्रेम एक ऐसे अंतर्संबंध का द्योतक है, जो एक दूसरे की संगति के लिए लालायित होने, अपनी दिलचस्पियों और आकांक्षाओं को तद्रूप करने, एक दूसरे को शारीरिक और आत्मिक रूप से समर्पित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रेम की भावना प्राकृतिक आधार रखती है परंतु मूलतः यह सामाजिक है।’
आपकी दूसरी बात भी बहुत महत्वपूर्ण है।
अन्य जीवों में प्रेम संबंधी।
इस संबंध में एक इशारा था इस आलेख में:
‘यदि जैविक प्रकृति के नज़रिए से देखें तो हर जीव अपनी जैविक उपस्थिति को बनाए रखने के लिए प्रकृति से सिर्फ़ जरूरत और दोहन का रिश्ता रखता है, और अपनी जैविक जाति की संवृद्धि हेतु प्रजनन करता है। प्रजनन की इसी जरूरत के चलते कुछ जीवों के विपरीत लिंगियों को साथ रहते और कई ऐसे क्रियाकलाप करते हुए देखा जा सकता है जिससे उनके बीच एक भावनात्मक संबंध का भ्रम पैदा हो सकता है, हालांकि यह सिर्फ़ प्रकॄतिजनित प्रतिक्रिया/अनुक्रिया का मामला है। कुछ विशेष मामलों में जरूर यह अहसास हो सकता है कि कुछ भावविशेषों तक यह अनुक्रियाएं पहुंच रही हैं।’
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आप यदि मनोविज्ञान के अध्ययन से गुजरे हों तो वहां आपको एक शब्द मिलता है। सहजवृत्ति।
अन्य जीवों की एक विशेषता उनमें सहजवृत्तियों की मौजूदगी होती है। सहजवृत्तियां परिवेशीय परिस्थितियों से संबंधित प्रतिक्रियाओं का एक जटिल जन्मजात रूप हैं। उनका रूप श्रृंखलागत होता है और उनकी बदौलत ही जीव एक के बाद एक अनुकूलनात्मक क्रियाएं करता जाता है।
संतान को पालने, जनने, खिलाने, बचाने, आदि से संबंधित बड़ी जटिल सहजवृत्तियां अधिकांश कशेरुकियों में पाई जा सकती हैं। पक्षियों और स्तनपायियों में नीड़-निर्माण और शिशुओं की देखभाल की सहजवृत्ति बहुत ही कार्यसाधक प्रतीत होती है। सहजवृत्ति-जन्य क्रियाओं की एक पूरी श्रृंखला को जन्म देने वाली निश्चित परिस्थितियों में किंचित सा परिवर्तन आने पर सारा विशद कार्यक्रम गड़बड़ा जाता है। पक्षी अपने शावकों को छोड़ सकते हैं और स्तनपायी अपने बच्चों को दांतों से काटकर मार सकते हैं।
बचपन में हो सकता है आपको भी घर के बुजुर्गों ने घौंसलों से छेड़छाड़ करने से, नवजातों को छूने से मना किया हो। क्योंकि यह बात वे जानते हैं कि इससे हो सकता है पक्षी उन्हें ऐसे ही छोड़ जाए, तड़पते हुए मरने के लिए।
जाहिर है समय सिर्फ़ इस विषय पर इशारे कर रहा है, जहां अभी जानने को बहुत कुछ बाकी है। हमें इसका संधान करना चाहिए। सत्य तक पहुंचना चाहिए, क्योंकि इनके जरिए हम अपना नज़रिया, अपना दृष्टिकोण बना रहे होते हैं।’
बहुत शुक्रिया समय ,आपको पढ़ना सदैव एक सुखद अनुभव रहता है और बौद्धिक संतृप्ति का एक जरिया भी !
सहज बोध पूरी तरह आनुवंशिक होता है मगर उन्नत जीवों में इसके आगे अधिगम का भी रोल है -क्या मनुष्य में प्रेम शुद्ध सहज बोध है ?
गंध भी अजीब है - "घूम आयी गंध ही संसार में " । और फिर यह प्रेम गंध ! इसे काम-गंध कहूँ ? तीव्र । प्रत्येक स्त्री-पुरुष में विद्यमान । जिस जीव में जितनी ही जीवन-ऊर्जा, उतनी ही तीव्र प्रेम-काम-गंध । यह मान ही लें क्या कि आकर्षण के केन्द्र में रूप नहीं, गंध है ।
प्रेमाकर्षण के अन्य इंद्रिय बोध जानने की उत्कंठा रहेगी । आभार ।
अब लग रहा है इस वैज्ञानिक शोध सूचनाओं के सारसंगृहित सुंदर आलेख को आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
आलेख की सूचनाओं को मानवश्रेष्ठ अरुणप्रकाश की टिप्पणी से अंतर्संबंधित करके भी देखे जाने की आवश्यकता है।
मानवव्यवहार को मात्र कुछ रसायनों तक सीमित कर देने से, इन्हें वैज्ञानिक रूप से, प्रगतिशील मूल्यों के रूप में स्थापित कर देने से, जाहिरा तौर पर इन रसायनों से संबंधित एक गैरजरूरी बाज़ार खड़ा किया जा सकता है और मुनाफ़ो का ढ़ेर लगाया जा सकता है।
दूसरा ऐसा स्थापित करने से मानवीय व्यवहार की सामाजिक अंतर्निर्भरता के बज़ाए व्यक्तिवादी आत्मकेन्द्रिता को आधार मिलता है, क्योंकि यह भ्रम स्थापित किया जाता है कि इन्हें कुछ रसायनों के जरिए पैदा और नियंत्रित किया जा सकता है।
जाहिरा तौर पर ऐसे आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवादी सोच के मनुष्य आज की व्यवस्था के इच्छित हैं जो मनुष्य की सोच और दृष्टिकोणों तक को गुलाम मानसिकता में बदल डालने की कोशिशों में हैं।
जैसा कि आपने अपने एक आलेख में पहले कहा था कि विज्ञान धर्म के बिना अंधा होता है, और समय की इल्तिज़ा थी कि यहां धर्म के स्थान पर दर्शन शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि इच्छित अर्थ इसी में समाहित हैं। उसी परिप्रेक्ष्य में यह है कि वैज्ञानिक सूचनाओं को, ऐतिहासिक और क्रम-विकास के संदर्भों में परखे बिना सही समझ विकसित नहीं की जा सकती, या कि इन्हें सही समाजिक सोद्देश्यता प्रदान नहीं की जा सकती।
सूडोसाइंस इसी के चलते अपने आधार पाती है।
आपने आलेख में इसी दृष्टि को उठाया भी है।
इन हारमोनों के खेल को हम लगभग पूरी जैवीय प्रकृति में (फिलहाल मानव को छोड दें) अस्तित्वमान देखते हैं और इन्हीं की वज़ह से उत्प्रेरित सहजवृत्तियों से सक्रिय कई जीवों को समयआधारित प्रजनन संबंधों की प्रक्रिया में संलग्न देखते हैं। जाहिर है इसी वज़ह से यह विचार और शोध की आवश्यकताएं पैदा हुईं कि इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में मनुष्यों के व्यवहार को भी समझा जाना चाहिए।
मनुष्य भी इसी जैव प्रकृति का अंग है तो नियमसंगति यहां भी मिलनी चाहिए, और इसी के अवशेषों को जाहिर है उक्त खोजों के अंतर्गत संपन्न कर लिया गया लगता है।
मानव प्रकृति की सहजवृत्तियों के खिलाफ़ अपने सोद्देश्य क्रियाकलापों के जरिए हुए क्रमविकास के कारण ही अस्तित्व में आ पाया है। मनुष्य अपनी इस चेतना के जरिए ही यानि सचेतन क्रियाकलापों के जरिए ही, अन्य जैवीय प्रकृति की सहजवृत्तियों से अपने आपको अलग करता है। (आपने इन सहजवृत्तियों के लिए अपने प्रश्न में सहजबोध शब्द काम में लिया है, ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं)
जाहिर है अब मनुष्य कई सहजवृत्तियों के हारमोनों संबंधी उत्प्रेरकता की आदतों से आगे निकल आया है और कई नई तरह की सचेत क्रियाकलापों के लिए अनुकूलित हो गया है।
इस आलेख में उल्लिखित हारमोन और अंडविसर्जन संबंधित व्यवहार को इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जांचा जाना चाहिए।
यह आसानी से जाना जा सकता है, अपने स्वयं के व्यवहार से महसूस किया जा सकता है कि मनुष्य में अब इस गंध संबंधी सहजवृत्ति का कोई सामान्य अस्तित्व नहीं रह गया है। मनुष्य के यहां यौन संबंधों की सिर्फ़ प्रजनन आवश्यकता का लोप हो गया है और यह कई तरह के आनंदों और गहरे आत्मिक संबंधों के आधार के रूप में अस्तित्व में आ गया है। अब शारीरिक और मानसिक जरूरतों के अतिरिक्त भी कई ऐसे उत्प्रेरक हैं जो मनुष्य में यौन संबंधों की प्रेरणा पैदा कर सकते हैं।
अंड़विसर्जन के वक्त स्त्रियों में आ रहे हार्मोनिक बदलावों की वज़ह से उत्प्रेरित यौन आकांक्षाओं के कारण से हुए व्यवहार परिवर्तन से ही कोई पुरूष शायद यह अहसास पा सकता है कि अंड़विसर्जन हो रहा होगा। गंध संबंधी कोई अनुभव सामान्यतयाः नहीं महसूस किया जाता, इसे अपने खु़द के अनुभवों की कसौटी पर भी परखा जा सकता है।
पसीने में गंध को भी ऐसे ही देखा जा सकता है। इससे भी कई फ़िल्मी और साहित्यिक प्रंसंगों के कारण विश्वास मिलता हो, तथ्य यही है कि वर्जनाओं से युक्त कुछ कैशोर्य व्यवहारों में इसका कुछ अस्तित्व भले ही मिल जाए, सामान्यतयाः व्यस्क जोडो में इस पसीने की गंध से वितृष्णा ही देखी जा सकती है, और सामान्यतयाः जहां तक संभव होता है सचेत यौन संबंधों हेतु शयनकक्ष में स्नान करके जाना ही श्रेयस्कर समझा जाता है।
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बहुत कुछ लिख गया।
समय को बकवास करने की आदत है, बस मौका मिलना चाहिए।
आपकी जिज्ञासा की तुष्टि के इशारे प्रेम पर लिखी समय की पोस्टों में मिल सकती है, जिनका कि प्रचार पहले ही किया जा चुका है। उन्हें इस परिप्रेक्ष्य में दोबारा पढ़ा जा सकता है। नीचे से।
निस्संदेह प्रेम एक सहजवृत्ति मात्र नहीं है, इसके मूल में यही जरूर है पर मनुष्य के सामाजिक क्रम-विकास के साथ हुए अनुकूलन में ही इसका हालिया रूप सामने आता है जो सामाजिक एकरूपता से अभिन्न रूप से जुड गया है।
शुक्रिया।
@ शब्दशः पढा ,इम्प्रेसड -अब शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी होगी -जी आप सही हैं सहज बोध और सहज प्रवृत्तियाँ (इंस्टिंक्ट) अलग बोध देती हैं -
बनियान की दुर्गन्ध मनुष्य के पसीने पर जीवाणुओं की प्रतिक्रया के परिणाम हैं ! मनुष्य -गंध की कामोद्दीपकता से इनकार नहीं किया जा सकता -यह चेतन नहीं अवचेतन में मनुष्य को मदहोश करती चलती है ! आपके लेखों को फिर फिर से पढ़ते रहना चाहिए -शास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिय !
@ अरविन्द जी रोचक जानकारी दी आपने..धन्यवाद
@अभिषेक भैया कर ही डालिए ..ज्ञान में और बढोतरी हो जायेगी.
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