Saturday 20 June 2009

गुफा जीवन ,प्रेम और प्रणय की पींगें और नंगा कपि-मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -४))

मनुष्य ही वह कपि है जिसके शरीर पर दूसरे कपियों की तरह घने बाल नही हैं -वह निर्लोम है ,नंगा कपि है ! पर ऐसा हुआ क्यों ? आईये जानें !
आज होमोसेपियेन्स मानव की कई जातियाँ हैं, जो विभिन्न जलवायुओं, व अन्य भौगोलिक कारकों के प्रभाव में रूप-रंग में में भिन्न हैं। प्रमुख मानव जातियाँ (सब स्पीसीज ) हैं- काकेसॉयड, गोरी जाति- (आर्य?) नीग्रायड (काली जाति)मांगोलॉयड (पांडु रंग वाली मंगोल, साइबेरियन, तिब्बत तथा चीन वासी जाति), आस्ट्रेलॉयड (भूरी त्वचा वाले आस्ट्रेलियन) आदि। ये सभी प्रजातियाँ, होमोसेपियन्स की ही वंशज है। अफ्रीकी मूल का वासी होमोइरेक्टस ही आधुनिक मानव का सीधा आदि पूर्वज है जिसके वंशज कालान्तर में विभिन्न मार्गो से, विश्व के कोने-कोने में फैल गये।

मानव व्यवहार का विकास : गुफा जीवन :
आज के महज पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व का मानव गुफा-कन्दरावासी था। गुफायें प्राकृतिक रूप से `वातानुकूलित´ होती है, शीत ऋतु में गरम व ग्रीष्म में ठंडी। इस तरह, मानव का तत्कालीन गुफा प्रवास आज के विलासिता पूर्ण भव्य वातानुकूलित भवनों के समतुल्य ही था। मादायें, अपनी विशिष्ट शारीरिक संरचना एवं क्रियाविधि के कारण गुफाओं तक ही सीमित रहती थीं। बच्चों के लालन-पालन का महत्वपूर्ण जिम्मा भी मुख्यत: उन्हीं पर था। हाँ, आस-पास के साग-सब्जियों को प्राय: चुन लाती थीं। मुख्य रुप से बस उनका यही काम था। गुफाओं के दीवारों पर उनके द्वारा खाली समय में चित्र भी बनाया जाता था- परन्तु इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि वे चित्र केवल मादाओं द्वारा ही बनाये गये हों। मादाओं को गुफाओं में छोड़कर `कबीले´ के सभी नर सदस्य झुंडों में बँट कर प्राय: हर रोज शिकार पर निकल जाया करते थे।

एक आदि कबीला -चित्र सौजन्य :ब्राईट आईज


आज के लगभग दस लाख वर्ष पूर्व, होमोइरेक्टस अफ्रीकी जंगलों में राज्य करता था। तब मानव आबादी बहुत कम थी-मुश्किल से एक हजार `होमोइरेक्टस´ मानव। संख्या कम होने के कारण उनमें एक दूसरे से सम्पर्क बना रहता था। वह स्थिति एक बृहद `कबीलाई´ परिवार जैसी थी। कबीले के सभी नर सदस्य योजनायें बनाकर, झुँण्डों में बँटकर शिकार करते थे। शाम तक `शिकार´ होता था। `शिकार´ के उपरान्त वे `भोजन´ को लेकर आपस में उसका `आदर्श´ बँटवारा करते थे। चाहे वह दल का सबसे हृष्ट-पुष्ट बलवान व्यक्ति हो या सबसे कमजोर, सबको बराबर-बराबर `बाँट´ (हिस्सा) मिलता था। शिकार स्थल पर ही वे अपना-अपना हिस्सा उदरस्थ कर लेते थे। तब उन्हें याद आता था कि उनके इन्तजार में कई जोड़ी आँखें उत्सुकता से उनकी राह देखती होंगी। बचे खाने को वे घर पर अपनी भूखी `मादा´ व बच्चों के लिए ले जाते थे। यह नित्यकर्म था। यह उनकी दिनचर्या बन गयी थी।

मानव का तत्कालीन सामाजिक जीवन :प्रेम और प्रणय काल
आज का मानव मूलत: `एकपत्नीक´ व्यवहार का प्राणी है। इस व्यवहार की नींव भी लाखों वर्ष पूर्व `होमोइरेक्टस´के युग में ही पड़ गयी थी। समूचा मानव कबीला तभी से कई `पारिवारिक इकाईयों 'में बँटा था। हर छोटे से परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा नर पर होता था। साथ ही वह उसे बाहरी आक्रमणों से बचाता था।
अन्य पशुओं के ठीक विपरीत मानव का सेक्स जीवन संयमित हो चला था। एक नर मानव, केवल एक ही मादा से सम्पर्क स्थापित कर सकता था। इसके लिए कड़े सामाजिक नियम बनाये गये। इस प्रक्रिया के `स्थायित्व´ के लिए यह आवश्यक था कि उनमें कोई विशिष्ट आकर्षण व आसक्ति का भाव उपजे। वे एकनिष्ठ हो जायें और यह आकर्षण व एकनिष्ठता दम्पित्तयों के बीच `प्रेम´ की अनुभूति से पूरी हो गयी। प्रतिदिन शाम को सभी मादायें अपने-अपने नर सखाओं का बाट आतुर नयनों से जोहती रहती थीं। शिकार व भोजनपरान्त प्रत्येक नर को भी यह आभास हो जाता था कि कोई उनका इन्तजार कर रहा होगा। बस, मानवीय सन्दर्भ में भावनात्मक प्रेम का एक महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। इस व्यवस्था से सभी संतुष्ट थे, `मादाओं´ को लेकर अन्य पशुओं की भाँति उनमें मल्लयुद्ध नहीं होता था। इस तरह वे अनावश्यक शारीरिक व मानसिक ऊर्जा के अपव्यय से बच जाते थे। होमोइरेक्टस काल में ही इस सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कई सुनहले नियमों का भी विधान था। नजदीकी रिश्तों (भाई-बहन, माँ-पुत्र, पिता-पुत्री आदि), में सेक्स सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे। ऐसे लोगों में इन्सेस्ट `अगम्यागमन´ वर्जित था। इससे कबीले के दूसरे परिवारों के बीच शादी-व्याह के रिश्तों को बढ़ावा मिलता था।



समूचे प्राणि जगत में केवल मानव ही अकेला प्राणी है, जिसका कोई निश्चित `प्रणय-काल´ नहीं होता। प्रत्येक समूचा वर्ष ही उसका प्रणय काल होता है। इस तरह उसे `सेक्स´ से कहीं विरक्ति न हो जाय, प्रकृति ने मानव नारी पुरुष अंगों को विशेष आकर्षक उभार प्रदान कर यौनक्रीड़ाओं को संतृप्तिदायक, अत्यन्त सुखमय बना दिया। अस्तित्व रक्षा की दृष्टि से यह व्यवस्था आवश्यक थी। कुछ विकासविदों का यही मानना है कि मानव शरीर पर से बाल कालान्तर में इसलिए ही विलुप्त होते गये कि वे `आकर्षक´ शरीरिक अंगों को ढ़ँके रहते थे और प्रणय लीलाओं के दौरान दम्पित्तयों को त्वचा के `स्पर्शानुभूति´ के सुखमय क्षणों से वंंचित रखते थे। नंगा मानव शरीर प्रणय क्रीड़ाओं के लिए उद्दीपित करता था। पूरे वर्ष पर दम्पित्तयों की एकनिष्ठता बनी रहती थी। मानव व्यवहार का यह निश्चित क्रम लाखों वर्षो तक चलता रहा। ये सभी गुण मानव की `आनुवंशिकता´ में आ गये। वंशानुगत हो गये।

अभी जारी है .........

21 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

रोचक चल रही है श्रृंखला .

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत ही सुंदर आलेख है। लेकिन आप से कुछ मामलों में मत भिन्नता है।
1.मानव मूलतः शाकाहारी है जो वनोपज संग्रहण से अपनी उदरपूर्ति करता था। शिकारी अवस्था उस के बाद की है।
2. एक पत्नित्व भी बहुत बाद में विकसित हुआ। यह एंथ्रोपोलॉजिस्ट बताते हैं। आप ने अवश्य ही मोर्गन की शोध एन्शिएंट सोसाइटी पढ़ी होगी। यदि नहीं पढ़ी तो अवश्य पढ़ लें मैं इस पु्स्तक की ई-प्रति आप को प्रेषित कर देता हूँ। इस का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है लेकिन मुझे पता नहीं लग रहा है कि कब और किसने प्रकाशित किया है। आप बनारस में हैं और आसानी से यह पता कर सकते हैं। यदि पता लग जाए तो अवश्य बताएँ मैं इस पुस्तक की हिन्दी की प्रति अपने पास रखना चाहूँगा।
3. आप के आलेख के इस भाग से पूरी सहमति है। इसे ही प्रिमिटिव कम्युनिज्म कहा गया है। यही कारण है कि मनुष्य सदैव उसी तरह के कम्युनिज्म का सपना देखता है और देखता रहेगा जब तक उस का अस्तित्व है या जब तक उसे स्थापित नहीं कर लेता है।

"`शिकार´ के उपरान्त वे `भोजन´ को लेकर आपस में उसका `आदर्श´ बँटवारा करते थे। चाहे वह दल का सबसे हृष्ट-पुष्ट बलवान व्यक्ति हो या सबसे कमजोर, सबको बराबर-बराबर `बाँट´ (हिस्सा) मिलता था। शिकार स्थल पर ही वे अपना-अपना हिस्सा उदरस्थ कर लेते थे। तब उन्हें याद आता था कि उनके इन्तजार में कई जोड़ी आँखें उत्सुकता से उनकी राह देखती होंगी। बचे खाने को वे घर पर अपनी भूखी `मादा´ व बच्चों के लिए ले जाते थे। यह नित्यकर्म था। यह उनकी दिनचर्या बन गयी थी।"

वस्त्रों का आविष्कार शायद गुफा के बाहर अधिकाधिक समय बिताने के दौरान हुआ। मुझे यह प्रस्थापना अजीब लगी कि "नंगा मानव शरीर प्रणय क्रीड़ाओं के लिए उद्दीपित करता था।"

मेरा अध्ययन और समझ यह कहती है कि स्त्री को नग्न देख कर उद्दीपन का आरंभ ही तब आरंभ हुआ जब उस ने अपने अंगों को वस्त्रों से ढकना आरंभ कर दिया।

आप का बहुत बहुत आभार कि आपमानव विकास के वैज्ञानिक विचार को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं।

Anil Pusadkar said...

ज्ञानवर्धक पोस्ट।

Himanshu Pandey said...

होमोइरेक्टस काल से ही मानव प्रेम-प्रणय आदि से परिचित था, जान सुखद आश्चर्य हुआ ।
बालों के विलुप्त होने का यहाँ उल्लिखित कारण और भी महत्वपूर्ण है ।
आलेख का धन्यवाद ।

Arvind Mishra said...

मुझे भी यही लगता है दिनेश जी आपके उठाये गए सभी बिन्दुओं पर मैंने वर्षो खुद सोचा है और आपके ही निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ -मानव में बहु नारी सम्बन्ध के जीन आज भी मौजूद लगते हैं -कम से कम मेरा व्यक्तुगत अध्ययन ऐसा ही कहता है पर हाँ एक पत्नीत्व की प्रक्रिया में यह सुषुप्त होता जा आरहा है -पर अनुकूल मौकों पर उभर भी उठता है !
हाँ मानव के पूर्वज कापी मूलतः शाकाहारी ही थे ! वह आज भी बहुत कुछ शाकाहारी है ! किताब पढता हूँ और हिन्दी संस्करण ढूंढता हूँ

P.N. Subramanian said...

आलेख से ज्ञानवृद्धि हो ही रही है. टिपण्णी और प्रति टिपण्णी भी अहम् हो चले हैं.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बहुत उपयोगी आलेख है। वैसे जिस कालखण्ड की चर्चा की जा रही है उस्के बारे में अधिकांश बातें अनुमान पर आधारित ही लगती हैं। विशुद्ध वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालने तो मुश्किल ही होंगे। वस्तुतः मानव समाज इतनी विविधताओं से भरा हुआ है कि लगभग हर प्रकार की व्यवस्था और परिपाटी कहीं न कहीं देखने को मिल ही जाएगी।

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही अच्छी ओर रोचक जानकारी दी,
धन्यवाद

मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

आप या विकासवादी कह रहे है कि अब से १०लाख वर्ष पूर्व होमोइरेक्ट्स अफ्रीकी जंगलों में राज्य करते थे। पुनः कहा गया है कि १५०००वर्ष पूर्व गुफाओं/ कन्दराओं में रहता था। आप यह कहना चाह रहे हैं कि कि ९लाख ८५हजार वर्ष में मानव इतनीं प्रगति कर पाया कि खुले जंगलों से निकल कर गुफा जैसे सुरक्षित स्थान में रहनें की अक्ल पा गया? आखिर इतनें लम्बे अंतराल के बाद उसे यह आवश्यकता क्यों हुई, इसका कोई कारण अवश्य होंना चाहिये?

मानव अपनें आप में एक प्रजाति (स्पेसी) है या रहनें, रंग इत्यादि के अन्तर से उसे अलग-अलग प्रजाति माना जाता है? प्रजातियों (स्पिसीज) के वर्गीकरण का आधार क्या है? अन्य प्रजातियों का वर्गीकरण किस आधार पर होता है? कुल कितनी प्रजातियों का अभी तक पता लगाकर वर्गीकरण किया जा चुका है?

थियोसाफिकल पाथ नाम की पत्रिका के अगस्त १९२३ के अंक का एक हवाला कई पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों मे किया जाता है कि अमेरिका के नेवादा में जान टी० रीड़ को कोई जूता मिला था जिसे भूगर्भीय नियमों के आधार पर ६०लाख वर्ष पुराना बताया जाता है, क्या यह सच है? आधुनिक खोजों के अनुसार दुनिया को बने हुए तथा मनुष्य की उत्पत्ति को हुए कितनें वर्ष हो गये हैं?

१५ हजार साल पहले मनुष्य निपट जंगली था, गुफाओं में रहता था। ८ हजार साल पहले पिरामिड्स बनें। अर्थात कि गुफाकाल से निकल मात्र ७ हजार सालों में मनुष्य नें पाई तक की गणित, आर्किटेक्चर, भवन बनानें आदि की उन्नत सामग्री और ममी बना अमर होंने तक का दर्शन, देवी-देवता, विभिन्न सम्प्रदाय आदि-आदि न जानें क्या-क्या बनाना सीखा ही नहीं बना भी ड़ाला। प्रश्न उठता है कि अचानक यह सब करनें कि इच्छा उसमें किस कारण से उत्पन्न हुई? यही नहीं कम से कम ४ हजार सालों से युद्धो, प्राकृतिक आपदाऒ, आदि के कारण नष्ट होंने की प्रक्रिया भी देख रहे हैं, इस पहेली का समाधान क्या है?

मनुष्य पहले शाकाहारी था इस बारे में विज्ञान के अनुमान का आधार क्या है? या मूलतः मानव कतिपय अन्य जंगली प्रजातियों की तरह मांसाहारी है? अन्य प्रजातियों में भी एक ही वर्ग की जैसे चौपायों में कुछ मांसाहारी हैं कुछ शाकाहारी, यह भेद क्यों है? अथवा मनुष्य को शाकाहारी देख कुछ अन्य प्रजातियाँ शाकाहारी हो गई? यदि मनुष्य अन्य प्रजातियों से खानें के चुनाव को सीखता है तो सभी मनुष्य एक जैसा आहार क्यों नहीं करते?

सेक्स के उद्दीपन को लेकर आप और द्विवेदी जी के अनुमानों में अन्तर है, प्रश्न यह है कि सेक्स का सम्बन्ध मन से है या शरीर से? अगर मन से है तो कपड़े पहननें न पहननें से कोई अंतर नहीं पड़्नें वाला किन्तु यदि शरीर से सम्बन्ध माना जाये तो फिर यह सोचना पड़ेगा कि तब मनुष्य दिन में कई बार सेक्स करता होगा तात्पर्य यह कि फीक्वेंसी अधिक रही होगी। इस कल्पना को यदि माल्थस के पापुलेशन के ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन के सिद्धान्त के प्रकाश में देखा जाये तो अब तक दुनिया की आबादी कितनी होंनी चाहिये?

सन्‌ ६० के दशक में मैनें ऎपमैन पर फिल्म देखी थी वही कहानी आज तक दोहरायी जारही है, दुनिया विज्ञान के माध्यम से बहुत उन्नत हो चुकी है। विज्ञान नें प्रत्येक क्षेत्र में नई-नई खोजें की हैं पृथ्वी और मानव की उत्पत्ति के क्षेत्र में क्या कोई नई बात नहीं हुई?

Nilam-the-chimp said...

में एक बार फिर आपको सुधारना चाहुंगा, चलिए इस बार में एक उदाहरण से शुरुवात करता हूँ. हिंदू अपने मृत परिजनों का दाह संस्कार करते है, उनकी हड्डियों एवं रख को नदी में विसर्जित करते है. अतः उनका कोई अवशेष नही मिल सकता, हमारे यहाँ तो लावारिस लाशें भी जला दी जाती हैं. परंतु अगर किसी अफ्रीकी सभ्यता में लाश को दफनाने का रिवाज हो तो उसके आज आपको कई अवशेष मिलेंगे. अ‍ॅब इन अवशेषों से आप अगर ये निष्कर्ष निकाल्ने लगे कि मनुष्य अफ़्रीका का मूल निवासी है तो इसमे गलती किसकी है? हमारे पूर्वजों कि जो टौबा ज्वालामुखी के बाद उँगलियों पर गिने जाने लायक बचे या आपकि?(http://en.wikipedia.org/wiki/Toba_catastrophe_theory)
चलिये भविष्य में चले, आजसे 10000 साल बाद, कोई खुदाई करेगा तो सबसे ज्यादा समान चीन का बना मिलेंगा, चलिए उनमें से किसी एक को लेते है मोबाइल फ़ोन को. लगभग सभी चीनियों के पास मोबाइल है और उनक़ी रिसायकल हेबित बडि बेकार है, तो खुदाई में सबसे ज्यादा और पुराने मोबाइल चीन से हि निकलेगे, तो क्या आप ये निष्कर्ष निकाल सकते है कि मोबाइल का आविष्कार चीन में हुआ था? और इसी तरह से बाकी समान के साथ भी होंगा और आप चिनियो को सबसे बुधिमान करार दे देंगे!
समझने का प्रयास करे, आँखों देखा हमेशा सच नही होंता, और इतिहास कि बात करें तो साक्शय कभी भी पूरे नही हो सकते इसलिए इतिहास कभी पुरणत्या वैग्यानिक नही हो सकता
निलम

Arvind Mishra said...

सुमंत जी ,नीलम जी .
बहुत महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाया है आपने ! मैं महज एक दृष्टिकोण प्रगट कर रहा हूँ और यह आवशयक नहीं कि प्रस्तुत विवरण से मेरा अनिवार्यतः मतैक्य हो ही ! अनेक बातें मेरे मन में भी उमड़ घुमड़ रही हैं और उनका बुद्धिगम्य हल अभी नहीं मिल पाया है ! यह श्रृंखला ऐसी एक विचार सरणि की निर्मिति के ही उद्धेश्य से हैं जहाँ आप महानुभावों के विचार मंथन से ज्ञान का एक नया पुंज ज्योतित हो !
सुमंत जी आपका विचार इस मामले में मुझे उचित लगता है कि मनुष्य का गुफा जीवन १५ हजार नहीं बल्कि कोई ३० -४० ह्जार वर्ष पहले ही छोट गया होगा छोट गया होगा -पर क्या वेद की रिचाओं के प्रान्यन के लिए अट्टालिकाओं का होना जरूरी है ? क्या वे गुफा के दौरान नहीं लिखी जा रही होंगीं ? मेरा अभिप्राय गुफा जीवन से असभ्यता या कम विकसित होने का नहीं है ! सैधव लोगों ने नगर बसा लिए मगर वनगमन की उनकी लालसा -वानप्रस्थ आश्रम को वापस लौटने की चाह आगे भी बनी ही रही !मैं तो आज भी मानता हूँ कि चिंतन मनन के लिए कंदराएं ज्यादा मुफीद ,पर्शान्तिपूर्ण हैं आज भी कभी कभी हमारा आपका मन हिमालय की और चल पड़ने को विकल हो उठता है !यह अतीत स्मृति ही तो है !

नीलम जी
मैं भी इस प्रश्न को लेकर व्यथित होता रहता हूँ कि आखिर इतनी बड़ी पृथ्वी पर आदमी उपजा तो वहीं अफ्रीका में ही ?
कारण ? वहां -जीवाश्म खनन का काम काफी हुआ है -अभी यूरोप में एक फासिल पाया गया है और दावे हो रहे हैं कि वही सबसे पुराना और अफ्रीकी मूल के जीवाश्मों से प्राचीन है !आपकी बात में दम है ! आईये यम् हिन्दुस्तान की खुदायी शुरू करें -आप इस लेख के पहले के अंकों को पढें -शिवालिक पहाडियों पर रामापिथिकेस तो खोजा जा चुका है -अफ्रीका हिन्दुस्तान की भौगोलिकी में ख़ास अंतर भी नहीं है -क्या फर्क पड़ता है वे वहां जन्मे या यहाँ -ज्ञान का सिरमौर तो भारत ही बना !

Alpana Verma said...

लेख तो अच्छी रिसर्च कर के लिखा गया है और ज्ञानवर्धक है ही..यहाँ पर आयीं टिप्पणियां भी रोचक और ज्ञानवर्धक हैं.

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर -सुन्दर लेख। टिप्पणियां भी चकाचक!

समयचक्र said...

ज्ञानवर्धक बहुत उपयोगी आलेख है.

ताऊ रामपुरिया said...

हमारे ज्ञान मे तो अथाह वृद्धि हो रही है.

रामराम.

संदीप said...

अच्‍छी श्रृंखला शुरू की है आपने।

Science Bloggers Association said...

बहुत रोचक ढंग से पढने को मिलन रही है जानकारी। आभार।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Gyan Dutt Pandey said...

बढ़िया लिखा जी! होमो सेपियन्स का आधार ही विचार करने वाला जीव है।
हम लोग वही कर रहे हैं।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बढ़िया श्रंखला....

Manoj Keshari said...

ये आपने बिलकुल सही कहा कि जब स्त्री पुरूष ने अपने नग्न शरीर को ढकना सुरू किया होगा तब उसे देखने कि लालसा बढती होगी जो उन्हें उद्दीपन मे ज्यादा आनंददायक होता होगा

Manoj Keshari said...

निलम जी, ये बातें जिस समय की है,वो एक संभावनाएं है,इसमे जाति कि बात कहॉ से आ गई,हमारे हिन्दू समुदाय में दांह संस्कार की प्रथा भी कोई ज्यादा पुरानी नही है,