Tuesday, 23 June 2009

हम नहीं बदले हैं, केवल दृश्य बदल गये हैं -मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -5))

हम नहीं बदले हैं, केवल दृश्य बदल गये हैं। आज भी विश्व में सर्वत्र नारियों के जीवन का अधिकांश समय एवं हिस्सा कुशल पारम्परिक, सर्वकालिक `गृहणी´ की ही भूमिका निभा रहा है। बच्चों के लालन-पालन का मुख्य भार आज भी नारियों के जिम्मे ही है । पुरुष वर्ग भी ज्यादातरअपनी पारम्परिक भूमिका में ही कार्यरत है। प्राचीन युग के जंगलों का स्थान आज शहरों, उद्योग क्षेत्रों, व कृषि भूमि ने ले लिया है।

अपने दिन भर के घोर परिश्रम और सफलतापूर्व कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् सायंकाल वह घर `कुछ न कुछ´ लेकर लौटता है। कोई बड़ा शिकार हाथ में लेकर लौटना चाहता है, वह प्रतिदिन नये उत्साह से अपने कार्य संचालन के लिए घर से निकल पड़ता है-ठीक वही उत्साह जैसा कि उसे अपने शिकारी जीवन के दौरान अनुभूत होता था। वह आज भी हर शाम `कोई न कोई´ `बड़ा तीर´ मारने की फिराक में रहता है। यहाँ तक तो ठीक है, परन्तु मानवीय विकास ने पिछले दशकों में आत्मघाती रूख अपना लिया है।

ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि मानव का सांस्कृतिक विकास केवल दस पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व होना ही शुरू हुआ है। हमारी पुराकथाओं में राजा पृथु को श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने सबसे पहले पृथ्वी पर आवास बनाया और उसका दोहन शुरू किया। जब मानव आबादी बढ़ी तो भोजन को संचित करने की आवश्यकता पर लोगों का ध्यान गया। परन्तु `मांस´ संचित नहीं रखा जा सकता था। मानव का ध्यान, फसलों को उगाने की ओर गया। इस तरह उसने कृषि जीवन भी अपना लिया। एक बार वह पुन: 2-3 करोड़ वर्ष पूर्व के आदि पूर्वज कपियों की भाँति वह शाकाहारी बन गया था। इस तरह मानव के सांस्कृतिक जीवन में पहला अध्याय कृषि क्रान्ति के रूप में जुड़ा। तदनन्तर जनसंख्या के बढ़ने व मानव आबादियों के कई जगह अपने आदिम `कबीलाई´ स्वरूपों में बँट जाने की प्रवृत्ति से `नागरी सभ्यता´ भी लगभग ८-१० हजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई, जिसे `नागरी क्रान्ति ' का भी नाम देते हैं।

अभी पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मानवीय संस्कृति के इतिहास में एक नया सन्दर्भ जुड़ा, औद्योगिक क्रान्ति के रूप में . इससे मानव का भौतिक जीवन सुखमय हुआ-सामान्य जीवन स्तर सुधरा। पिछले दशकों में, `हरित क्रान्ति´ के नाम से एक बार पुन: `कृषि क्रान्ति´ का श्रीगणेश हुआ। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मानव के सांस्कृतिक विकास का क्या अभिप्राय है? `संस्कृति´ वास्तव में है क्या? `संस्कृति और सभ्यता´ का वैज्ञानिक नजरिया क्या है?

`संस्कृति´ और `सभ्यता´ क्या है? :
मानवीय संस्कृति के दो स्वरुप है- 1। भौतिक संस्कृति (material culture ) 2. अभौतिक संस्कृति (Non material culture )। मानव का पत्थर के औजार बनाने से लेकर अन्तरिक्ष यानों के बनाने तक के बीच की सभी तकनीकी प्रगति उसके भौतिक संस्कृति के विकास का द्योतक है। साथ ही मानवीय चिन्तन के आरिम्भक स्वरूपों, अध्यात्मिक व कलात्मक अभिरूचियों की अभिव्यक्ति के प्राथमिक प्रयासों, गुफाओं-कन्दराओं में आदिम चित्रकारी, लिपियों के आविष्कार से लेकर कविताओं, कहानियों के सृजन व महान पौराणिक ग्रन्थों व महाकाव्यों तथा आधुनिक काव्य ग्रन्थों- `इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका´´ और विकीपीडिया के सृजन तक का मानवीय इतिहास उसके अभौतिक संस्कृति यानि चिन्तन के क्रमानुक्रमिक प्रगति की कहानी कहता है।

हमारी आध्याित्मक, काव्यात्मक तथा कलात्मक सभी अभिवृित्तयाँ सांस्कृतिक विकास के इसी पक्ष को दर्शाती है। किसी देश के इन दो संस्कृतियों के विकास की सम्मिलित स्थिति उसके सभ्यता के स्तर का निर्धारण करती है । इस दृष्टि से कभी भारतीय सभ्यता विश्व की अन्य प्राचीनतम सभ्याताओं से परिष्कृति थी।

हमारी प्राचीन मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की सैन्धव सभ्यता कभी अन्य सभ्यताओं की अपेक्षा अधिक उन्नत थी। अब स्थिति दूसरी है। आज अमरीका विश्व का सबसे विकसित व सभ्य देश माना जाता है- मेरे इस कथन पर विवाद हो सकता है परन्तु उपर्युक्त आधारों पर इस बात की सार्थकता परखी जा सकती है। आज का मानव प्रस्तर युग, तथा कांस्य युग से होता हुआ लौह युग `स्टील युग´ और अब अनतरिक्ष युग में प्रवेश कर गया है। परन्तु क्या वह अपने आदिम संस्कारों, पशु-प्रवृित्तयों में पूर्णतया मुक्त हो सका है?

सम्पूर्ण प्राणी जगत में जहाँ अन्य पशु-पक्षियों का केवल जैवीय विकास (biological evolution ) हुआ है, मानव का जैवीय और सांस्कृतिक दो तरह का विकास हुआ है और यह प्रक्रिया चलती जा रही है। परन्तु, जैवीय विकास की तुलना में सांस्कृतिक विकास अभी बिल्कुल नया है। हमारा जैवीय मन अभी भी हम पर दबंग है- हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का ढाँचा, जैवीय आधारों पर ही टिका है। कहीं-कहीं, मानव की संस्कृति और सभ्यता ने, अपने जैवीय संस्कारों को ही उभारने का यत्न किया है।

हमारी आदि जैवीय `एक पति-पत्नी निष्ठता´ का सन्दर्भ अब आधुनिक, सामाजिक परिवेश में वैवाहिक संस्कारों से दृढ़ बना दिया जाता है। आज की कुशल `गृहणी´ की अवधारणा की जड़ें हमारे जैवीय अतीत में टिकी हुई हैं। परन्तु साथ ही कई सन्दर्भों में सांस्कृतिक प्रगति ने, जैवीय प्रवृित्तयों के विपरीत भी पेंगे बढ़ायी है। यह आत्मघाती है। हम अपने जैवीय मन को इतने शीघ्र तो बदल नहीं सकते, क्योंकि इनके पाश्र्व में `जीनों´ (Genes ) की अभिव्यक्ति हैं। लाखों वर्षों के विकास के उपरान्त कहीं जा कर जीनों में कोई परिवर्तन आता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता के तो बस केवल दस हजार वर्ष ही बीते हैं। आज भी हम पर हमारी जैवीय विरासत हावी है।

मनुष्य ही वह कपि है जिसके शरीर पर दूसरे कपियों की तरह घने बाल नही हैं -वह निर्लोम है ,नंगा कपि है !

अभी जारी .....अगले अंक में नर नारी की लक्ष्मण रेखाएं !

10 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही ज्ञानवर्धन हो रहा है, आपको कोटि कोटि धन्यवाद इस उतकृष्ट श्रंखला को शुरु करने के लिये.

रामराम.

P.N. Subramanian said...

काफी ज्ञानवर्धक पोस्ट. आभार

प्रकाश गोविंद said...

प्रिय अरविन्द जी मैं आपके लेखों को निरंतर बहुत ध्यान से पढ़ रहा हूँ !

जारी रखिये ..

आज की आवाज

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने बहुत कुछ सही लिखा है। भूमिका चुनने का अवसर तो पुरुष के पास ही है। संतान को गर्भ में पालने, उसे जन्म देने और फिर जब तक बाहरी आहार ग्रहण करने लायक न हो तब तक उसे दुग्ध पान कराने और इस दुनिया में जीने लायक सक्षम होने तक उस की सुरक्षा, स्वास्थ्य, और शिक्षा का दायित्व प्रकृति ने नारी को ही सौंपा है। इन में से कुछ काम पुरुष ने हथियाए जरूर हैं। पुरुष का संतान के साथ संबंध सिर्फ मिनटों या कहें तो सैकंडों का है जब वह स्त्री के गर्भ में एक बीज उत्पन्न करने में अपना आधा योगदान करता है। पुरुष के पास अपने जीवन यापन के साधन जुटाने और मौज करने का ही तो काम प्रकृति ने छोड़ा है। इस के अलावा जो भी पुरुष करता है वह तो नारी पर उस का अहसान ही कहा जाएगा। या फिर उसे अपने अधीन बनाने और बनाए रखने के लिए किया गया श्रम।

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही अच्छी जानकारी दे रहे है आप.
धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey said...

मानव का सांस्कृतिक विकास केवल दस पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व होना ही शुरू हुआ है।
ओह! पंद्रह हजार साल पहले, जब मानव ने अमरीका की जमीन नहीं देखी थी, तब १०-२० लाख रहे होंगे, कुल!
इतना जबरदस्त विकास किसी प्रजाति का नहीं हुआ होगा।
कुछ खास तो है मानव में।

Udan Tashtari said...

ज्ञानवर्धक आलेख!

Abhishek Ojha said...

ज्ञानजी की टिपण्णी से: 'बड़े भाग मानुस तन पावा !' अच्छी चल रही है जानकारी.

Himanshu Pandey said...

उच्च कोटि का आलेख । मैं आपके आलेखों में वैज्ञानिक और साहित्यिक सूत्रों को कई बार अलग करना चाहता हूँ । मन में एक अभीप्सा बनी रहती है कि वह तत्व खोजकर कुछ भयंकर लिक्खाड़ों को दिखाउं- और उनसे कहूँ - यहां से निकलती है स्वाभाविक अभिव्यक्ति की निरपेक्ष भागीरथी- सबकुछ समेटती ।

इसे प्रशंसा न मानें । यह मेरी अकुलाहट है । सच मानें, अपने छोटे से अध्ययन में इतने रुचिकर वैज्ञानिक आलेख नहीं पढ़े मैंने ।

डॉ. मनोज मिश्र said...

ज्ञानवर्धक एवं ऐतिहासिक आलेख.