Thursday, 25 June 2009

नर नारी के जैवीय कार्यक्षेत्र और लक्ष्मण रेखायें (मानव एक नंगा कपि है ! -डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -समापन किश्त ))

आज भी नारियों की `गृह स्वामिनी´ की भूमिका सर्वोपरि और प्रकृति सम्मत है कदाचित वह इससे सर्वथा विमुख रहकर न तो स्वयं की और ना ही अपने परिवार को सुख-शांति प्रदान कर सकती है। नर आज भी घर के बाहर अपने उसी आदिम कपि का जज्बा लिए उन्मुक्त विचरण कर रहा है !

तो क्या नर के आधुनिक कार्यक्षेत्रों (जो प्राचीन शिकार क्षेत्रों के समतुल्य है) में नारियों का आना वर्जित होना चाहिए? क्योंकि इन कार्य क्षेत्रों में पुरुषों की टोलियों (प्राचीन नर शिकारी झुण्ड) का भ्रमण लाखों वर्षों से प्रकृति सम्मत रहा है। परन्तु पिछली एक दो सदियों और ख़ास कर विगत कुछ दशकों से स्थिति तेजी से ठीक इसके विपरीत होती जा रही है। पुरुषों के आधुनिक `शिकार क्षेत्रों´ में नारियों की भी घुसपैठहो चली है।यही नहीं उनकी आदिम भूमिकाएँ भी आमूल चूल रूप से बदलती दिख रही हैं -तेजी से रोल रिवर्जल हो रहा है ! क्या यह स्वंय नारियों, उनके परिवार और अन्तत: मानव समुदाय के लिए मुफीद साबित होगा ?

इन्हीं परिस्थितियों में हमारे जैवीय और सांस्कृतिक `मनों´ और मूल्यों में जोरदार संघर्ष होता है। मानव मन `व्यथित´ हो उठता है। वह सुख और शांति के बारे में नये सिरे से विचार करने लगता है। मगर उससे कहाँ भूल हो गयी है? इस प्रश्न पर उसका ध्यान नहीं जाता। सचमुच यदि हमें सुख और शांति से रहना है तो अपने जैवीय एवं सांस्कृतिक संस्कारों में तालमेल बिठाना होगा, सामंजस्य लाना होगा नहीं तो आधुनिक प्रगति का रास्ता हमें विनाश के गर्त में ढकेल सकता है।


आज की दिन ब दिन बढ़ती सामाजिक असंगतियों, बुराइयों के पाश्र्व में कहीं मानव का अपने `पशु मन´ को ठीक से समझ कर उसके अनुरूप कार्य न कर पाने की असमर्थता ही तो नहीं है। बाºय आवरणों, कपड़ों से शरीर भर ढँक लेने तथा सुख-ऐश्वर्य की चमक-दमक में हम अपनी मौलिक अभिव्यक्ति नहीं भूल सकते। आज के मानवीय समाज में बलात्कारों (पशु बलात्कार नहीं करते?), तलाकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसा नारियों का, पुरुषों के आदिम अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ का नतीजा तो नहीं है? आज की अत्याधुनिकाओं व तथाकथित आदर्शवादियों का यह नारा कि नारी हर क्षेत्र में पुरुष से `कन्धा से कन्धा´ मिलाकर चले सर्वथा अजैविकीय, अप्राकृतिक है। प्रकृति ने तो दोनों के कार्यक्षेत्रों का बँटवारा स्वयं कर रखा है।

एक `घर´ की `स्वामिनी´ दूसरा घर के बाहर का `स्वामी´- यही व्यवस्था प्रकृति सम्मत रहीं है, वर्तमान में है और कम से कम से कम एकाध लाख वर्ष के पहले तो नहीं जा सकती। यदि इस `व्यवस्था´ को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास यूं ही चलते रहे तो, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण आदि मानव जनित समस्याओं के अपने घातक रूप दिखाने के पहले ही हमारे भविष्य का कोई न कोई निर्णायक फैसला हो जायेगा।

यदि हमें सुख-चैन से इस धरा पर रहना है, अपना सफल वंशानुक्रम चलाना है तो अपने `जैवीय´ मन के अनुरूप ही कार्य करना होगा। आज का वैज्ञानिक चिन्तन हमें यही मार्ग सुझाता है। विश्व के दार्शनिकों, आम बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों तथा समाज सुधारकों को इन बातों को गम्भीरता से देखना-समझाना होगा क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के संचालन का भार मुख्यत: उन्हीं के कन्धों पर रहता है। वैज्ञानिक अपने जीवनकाल में प्राय: लोकप्रिय नहीं हुआ करते। वे केवल सुझाव दे सकते हैं। उसे व्यवहार में लाना दुर्भाग्य से उनके स्वयं के वश में नहीं हो पाता।

टिप्पणी :इस विषय को लेकर अभी कोई अन्तिम मत नही उभरा है -वैज्ञानिकों -जैव विदों ,समाज जैविकी विदों और व्यव्हारशास्त्रियों के बीच विचार मंथन जारी है ! यहाँ प्रस्तुत मत को अनिवार्यतः मेरा दृष्टिकोण समझा जाय !

Tuesday, 23 June 2009

हम नहीं बदले हैं, केवल दृश्य बदल गये हैं -मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -5))

हम नहीं बदले हैं, केवल दृश्य बदल गये हैं। आज भी विश्व में सर्वत्र नारियों के जीवन का अधिकांश समय एवं हिस्सा कुशल पारम्परिक, सर्वकालिक `गृहणी´ की ही भूमिका निभा रहा है। बच्चों के लालन-पालन का मुख्य भार आज भी नारियों के जिम्मे ही है । पुरुष वर्ग भी ज्यादातरअपनी पारम्परिक भूमिका में ही कार्यरत है। प्राचीन युग के जंगलों का स्थान आज शहरों, उद्योग क्षेत्रों, व कृषि भूमि ने ले लिया है।

अपने दिन भर के घोर परिश्रम और सफलतापूर्व कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् सायंकाल वह घर `कुछ न कुछ´ लेकर लौटता है। कोई बड़ा शिकार हाथ में लेकर लौटना चाहता है, वह प्रतिदिन नये उत्साह से अपने कार्य संचालन के लिए घर से निकल पड़ता है-ठीक वही उत्साह जैसा कि उसे अपने शिकारी जीवन के दौरान अनुभूत होता था। वह आज भी हर शाम `कोई न कोई´ `बड़ा तीर´ मारने की फिराक में रहता है। यहाँ तक तो ठीक है, परन्तु मानवीय विकास ने पिछले दशकों में आत्मघाती रूख अपना लिया है।

ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि मानव का सांस्कृतिक विकास केवल दस पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व होना ही शुरू हुआ है। हमारी पुराकथाओं में राजा पृथु को श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने सबसे पहले पृथ्वी पर आवास बनाया और उसका दोहन शुरू किया। जब मानव आबादी बढ़ी तो भोजन को संचित करने की आवश्यकता पर लोगों का ध्यान गया। परन्तु `मांस´ संचित नहीं रखा जा सकता था। मानव का ध्यान, फसलों को उगाने की ओर गया। इस तरह उसने कृषि जीवन भी अपना लिया। एक बार वह पुन: 2-3 करोड़ वर्ष पूर्व के आदि पूर्वज कपियों की भाँति वह शाकाहारी बन गया था। इस तरह मानव के सांस्कृतिक जीवन में पहला अध्याय कृषि क्रान्ति के रूप में जुड़ा। तदनन्तर जनसंख्या के बढ़ने व मानव आबादियों के कई जगह अपने आदिम `कबीलाई´ स्वरूपों में बँट जाने की प्रवृत्ति से `नागरी सभ्यता´ भी लगभग ८-१० हजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई, जिसे `नागरी क्रान्ति ' का भी नाम देते हैं।

अभी पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मानवीय संस्कृति के इतिहास में एक नया सन्दर्भ जुड़ा, औद्योगिक क्रान्ति के रूप में . इससे मानव का भौतिक जीवन सुखमय हुआ-सामान्य जीवन स्तर सुधरा। पिछले दशकों में, `हरित क्रान्ति´ के नाम से एक बार पुन: `कृषि क्रान्ति´ का श्रीगणेश हुआ। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मानव के सांस्कृतिक विकास का क्या अभिप्राय है? `संस्कृति´ वास्तव में है क्या? `संस्कृति और सभ्यता´ का वैज्ञानिक नजरिया क्या है?

`संस्कृति´ और `सभ्यता´ क्या है? :
मानवीय संस्कृति के दो स्वरुप है- 1। भौतिक संस्कृति (material culture ) 2. अभौतिक संस्कृति (Non material culture )। मानव का पत्थर के औजार बनाने से लेकर अन्तरिक्ष यानों के बनाने तक के बीच की सभी तकनीकी प्रगति उसके भौतिक संस्कृति के विकास का द्योतक है। साथ ही मानवीय चिन्तन के आरिम्भक स्वरूपों, अध्यात्मिक व कलात्मक अभिरूचियों की अभिव्यक्ति के प्राथमिक प्रयासों, गुफाओं-कन्दराओं में आदिम चित्रकारी, लिपियों के आविष्कार से लेकर कविताओं, कहानियों के सृजन व महान पौराणिक ग्रन्थों व महाकाव्यों तथा आधुनिक काव्य ग्रन्थों- `इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका´´ और विकीपीडिया के सृजन तक का मानवीय इतिहास उसके अभौतिक संस्कृति यानि चिन्तन के क्रमानुक्रमिक प्रगति की कहानी कहता है।

हमारी आध्याित्मक, काव्यात्मक तथा कलात्मक सभी अभिवृित्तयाँ सांस्कृतिक विकास के इसी पक्ष को दर्शाती है। किसी देश के इन दो संस्कृतियों के विकास की सम्मिलित स्थिति उसके सभ्यता के स्तर का निर्धारण करती है । इस दृष्टि से कभी भारतीय सभ्यता विश्व की अन्य प्राचीनतम सभ्याताओं से परिष्कृति थी।

हमारी प्राचीन मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की सैन्धव सभ्यता कभी अन्य सभ्यताओं की अपेक्षा अधिक उन्नत थी। अब स्थिति दूसरी है। आज अमरीका विश्व का सबसे विकसित व सभ्य देश माना जाता है- मेरे इस कथन पर विवाद हो सकता है परन्तु उपर्युक्त आधारों पर इस बात की सार्थकता परखी जा सकती है। आज का मानव प्रस्तर युग, तथा कांस्य युग से होता हुआ लौह युग `स्टील युग´ और अब अनतरिक्ष युग में प्रवेश कर गया है। परन्तु क्या वह अपने आदिम संस्कारों, पशु-प्रवृित्तयों में पूर्णतया मुक्त हो सका है?

सम्पूर्ण प्राणी जगत में जहाँ अन्य पशु-पक्षियों का केवल जैवीय विकास (biological evolution ) हुआ है, मानव का जैवीय और सांस्कृतिक दो तरह का विकास हुआ है और यह प्रक्रिया चलती जा रही है। परन्तु, जैवीय विकास की तुलना में सांस्कृतिक विकास अभी बिल्कुल नया है। हमारा जैवीय मन अभी भी हम पर दबंग है- हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का ढाँचा, जैवीय आधारों पर ही टिका है। कहीं-कहीं, मानव की संस्कृति और सभ्यता ने, अपने जैवीय संस्कारों को ही उभारने का यत्न किया है।

हमारी आदि जैवीय `एक पति-पत्नी निष्ठता´ का सन्दर्भ अब आधुनिक, सामाजिक परिवेश में वैवाहिक संस्कारों से दृढ़ बना दिया जाता है। आज की कुशल `गृहणी´ की अवधारणा की जड़ें हमारे जैवीय अतीत में टिकी हुई हैं। परन्तु साथ ही कई सन्दर्भों में सांस्कृतिक प्रगति ने, जैवीय प्रवृित्तयों के विपरीत भी पेंगे बढ़ायी है। यह आत्मघाती है। हम अपने जैवीय मन को इतने शीघ्र तो बदल नहीं सकते, क्योंकि इनके पाश्र्व में `जीनों´ (Genes ) की अभिव्यक्ति हैं। लाखों वर्षों के विकास के उपरान्त कहीं जा कर जीनों में कोई परिवर्तन आता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता के तो बस केवल दस हजार वर्ष ही बीते हैं। आज भी हम पर हमारी जैवीय विरासत हावी है।

मनुष्य ही वह कपि है जिसके शरीर पर दूसरे कपियों की तरह घने बाल नही हैं -वह निर्लोम है ,नंगा कपि है !

अभी जारी .....अगले अंक में नर नारी की लक्ष्मण रेखाएं !

Saturday, 20 June 2009

गुफा जीवन ,प्रेम और प्रणय की पींगें और नंगा कपि-मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -४))

मनुष्य ही वह कपि है जिसके शरीर पर दूसरे कपियों की तरह घने बाल नही हैं -वह निर्लोम है ,नंगा कपि है ! पर ऐसा हुआ क्यों ? आईये जानें !
आज होमोसेपियेन्स मानव की कई जातियाँ हैं, जो विभिन्न जलवायुओं, व अन्य भौगोलिक कारकों के प्रभाव में रूप-रंग में में भिन्न हैं। प्रमुख मानव जातियाँ (सब स्पीसीज ) हैं- काकेसॉयड, गोरी जाति- (आर्य?) नीग्रायड (काली जाति)मांगोलॉयड (पांडु रंग वाली मंगोल, साइबेरियन, तिब्बत तथा चीन वासी जाति), आस्ट्रेलॉयड (भूरी त्वचा वाले आस्ट्रेलियन) आदि। ये सभी प्रजातियाँ, होमोसेपियन्स की ही वंशज है। अफ्रीकी मूल का वासी होमोइरेक्टस ही आधुनिक मानव का सीधा आदि पूर्वज है जिसके वंशज कालान्तर में विभिन्न मार्गो से, विश्व के कोने-कोने में फैल गये।

मानव व्यवहार का विकास : गुफा जीवन :
आज के महज पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व का मानव गुफा-कन्दरावासी था। गुफायें प्राकृतिक रूप से `वातानुकूलित´ होती है, शीत ऋतु में गरम व ग्रीष्म में ठंडी। इस तरह, मानव का तत्कालीन गुफा प्रवास आज के विलासिता पूर्ण भव्य वातानुकूलित भवनों के समतुल्य ही था। मादायें, अपनी विशिष्ट शारीरिक संरचना एवं क्रियाविधि के कारण गुफाओं तक ही सीमित रहती थीं। बच्चों के लालन-पालन का महत्वपूर्ण जिम्मा भी मुख्यत: उन्हीं पर था। हाँ, आस-पास के साग-सब्जियों को प्राय: चुन लाती थीं। मुख्य रुप से बस उनका यही काम था। गुफाओं के दीवारों पर उनके द्वारा खाली समय में चित्र भी बनाया जाता था- परन्तु इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि वे चित्र केवल मादाओं द्वारा ही बनाये गये हों। मादाओं को गुफाओं में छोड़कर `कबीले´ के सभी नर सदस्य झुंडों में बँट कर प्राय: हर रोज शिकार पर निकल जाया करते थे।

एक आदि कबीला -चित्र सौजन्य :ब्राईट आईज


आज के लगभग दस लाख वर्ष पूर्व, होमोइरेक्टस अफ्रीकी जंगलों में राज्य करता था। तब मानव आबादी बहुत कम थी-मुश्किल से एक हजार `होमोइरेक्टस´ मानव। संख्या कम होने के कारण उनमें एक दूसरे से सम्पर्क बना रहता था। वह स्थिति एक बृहद `कबीलाई´ परिवार जैसी थी। कबीले के सभी नर सदस्य योजनायें बनाकर, झुँण्डों में बँटकर शिकार करते थे। शाम तक `शिकार´ होता था। `शिकार´ के उपरान्त वे `भोजन´ को लेकर आपस में उसका `आदर्श´ बँटवारा करते थे। चाहे वह दल का सबसे हृष्ट-पुष्ट बलवान व्यक्ति हो या सबसे कमजोर, सबको बराबर-बराबर `बाँट´ (हिस्सा) मिलता था। शिकार स्थल पर ही वे अपना-अपना हिस्सा उदरस्थ कर लेते थे। तब उन्हें याद आता था कि उनके इन्तजार में कई जोड़ी आँखें उत्सुकता से उनकी राह देखती होंगी। बचे खाने को वे घर पर अपनी भूखी `मादा´ व बच्चों के लिए ले जाते थे। यह नित्यकर्म था। यह उनकी दिनचर्या बन गयी थी।

मानव का तत्कालीन सामाजिक जीवन :प्रेम और प्रणय काल
आज का मानव मूलत: `एकपत्नीक´ व्यवहार का प्राणी है। इस व्यवहार की नींव भी लाखों वर्ष पूर्व `होमोइरेक्टस´के युग में ही पड़ गयी थी। समूचा मानव कबीला तभी से कई `पारिवारिक इकाईयों 'में बँटा था। हर छोटे से परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा नर पर होता था। साथ ही वह उसे बाहरी आक्रमणों से बचाता था।
अन्य पशुओं के ठीक विपरीत मानव का सेक्स जीवन संयमित हो चला था। एक नर मानव, केवल एक ही मादा से सम्पर्क स्थापित कर सकता था। इसके लिए कड़े सामाजिक नियम बनाये गये। इस प्रक्रिया के `स्थायित्व´ के लिए यह आवश्यक था कि उनमें कोई विशिष्ट आकर्षण व आसक्ति का भाव उपजे। वे एकनिष्ठ हो जायें और यह आकर्षण व एकनिष्ठता दम्पित्तयों के बीच `प्रेम´ की अनुभूति से पूरी हो गयी। प्रतिदिन शाम को सभी मादायें अपने-अपने नर सखाओं का बाट आतुर नयनों से जोहती रहती थीं। शिकार व भोजनपरान्त प्रत्येक नर को भी यह आभास हो जाता था कि कोई उनका इन्तजार कर रहा होगा। बस, मानवीय सन्दर्भ में भावनात्मक प्रेम का एक महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। इस व्यवस्था से सभी संतुष्ट थे, `मादाओं´ को लेकर अन्य पशुओं की भाँति उनमें मल्लयुद्ध नहीं होता था। इस तरह वे अनावश्यक शारीरिक व मानसिक ऊर्जा के अपव्यय से बच जाते थे। होमोइरेक्टस काल में ही इस सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कई सुनहले नियमों का भी विधान था। नजदीकी रिश्तों (भाई-बहन, माँ-पुत्र, पिता-पुत्री आदि), में सेक्स सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे। ऐसे लोगों में इन्सेस्ट `अगम्यागमन´ वर्जित था। इससे कबीले के दूसरे परिवारों के बीच शादी-व्याह के रिश्तों को बढ़ावा मिलता था।



समूचे प्राणि जगत में केवल मानव ही अकेला प्राणी है, जिसका कोई निश्चित `प्रणय-काल´ नहीं होता। प्रत्येक समूचा वर्ष ही उसका प्रणय काल होता है। इस तरह उसे `सेक्स´ से कहीं विरक्ति न हो जाय, प्रकृति ने मानव नारी पुरुष अंगों को विशेष आकर्षक उभार प्रदान कर यौनक्रीड़ाओं को संतृप्तिदायक, अत्यन्त सुखमय बना दिया। अस्तित्व रक्षा की दृष्टि से यह व्यवस्था आवश्यक थी। कुछ विकासविदों का यही मानना है कि मानव शरीर पर से बाल कालान्तर में इसलिए ही विलुप्त होते गये कि वे `आकर्षक´ शरीरिक अंगों को ढ़ँके रहते थे और प्रणय लीलाओं के दौरान दम्पित्तयों को त्वचा के `स्पर्शानुभूति´ के सुखमय क्षणों से वंंचित रखते थे। नंगा मानव शरीर प्रणय क्रीड़ाओं के लिए उद्दीपित करता था। पूरे वर्ष पर दम्पित्तयों की एकनिष्ठता बनी रहती थी। मानव व्यवहार का यह निश्चित क्रम लाखों वर्षो तक चलता रहा। ये सभी गुण मानव की `आनुवंशिकता´ में आ गये। वंशानुगत हो गये।

अभी जारी है .........

Wednesday, 17 June 2009

मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -3)

प्रमाण ही प्रमाण
ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि मानव की वैकासिक प्रक्रिया का केन्द्र स्थल अफ्रीका था। वहाँ के विराट जंगलों में विकास की एक विराट यात्रा चुपचाप सम्पन्न हो रही थी। आज के विकासविद् अफ्रीका को मानव विकास का पालना मानते हैं। आज के लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व, आधुनिक लीमर व टार्सियस के संयुक्त पूर्वज `प्रासिमियन्स´ के क्रमानुक्रमिक विकास से जहाँ अफ्रीकी जंगलों में एक ओर बन्दरों का विकास हुआ तो वहीं इनसे ही कालान्तर में कपि सदृश प्राणी `एजिप्टोपिथेकस´ का विकास हुआ। इसी कपि सदृश प्राणी ने आज के वर्तमान कपियों व मानव के संयुक्त पूर्वज ``ड्रायोपिथेकस´´को विकसित किया। `ड्रायोपिथेकस´ पूरा `चौपाया´ ही नहीं था बल्कि उसके दोनों अगि्रम हाथ कभी-कभी स्वतंत्र कार्य कर लेते थे, तब वह दो पैरों पर ही खड़ा हो चल भी लेता था।


प्राणी विकास की दूसरी महान घटना का सूत्रपात `डायोपिथेकस´ के दोनों अगि्रम हाथों के स्वतन्त्र हो जाने से हो गया था। एजिप्टोपिथेकस , ड्रायोपिथेकस व अन्य वानर पूर्वजों के जीवाश्म उत्खननों के दौरान प्राप्त हुए हैं , जीवश्मों के अध्ययन से यह पता चलता है कि `ड्रायोपिथेकस´ की एक शाखा से लगभग 2 करोड़ वर्ष पूर्व कपियों या वनमानुषों का वंशक्रम चला- जिससे आज के गोरिल्ला, चिम्पान्जी, गिब्बन व ओरंगउटान विकसित हुए। ये सब झुककर चलते थे, मुँह सामने न होकर नीचे की ओर झुका सा रहता था। इसका कारण यह था कि इनमें रीढ़ की हड्डी सीधी न होकर झुकी अवस्था में थी।

मानव के आदि स्वरूप, `रामापिथेकस´ का जन्म :
`ड्रायोपिथेकस´ की दूसरी शाखा से पहली मानव आकृत उभरी-`रामापिथेकस´ के रूप में। `रामापिथेकस´ के जीवाश्म अवशेष भारत की शिवालिक पहाड़ियों (चण्डीगढ़) में भी मिले हैं। मानव का आदि स्वरूप लगभग एक करोड़ वर्ष पूर्व अवतरित हुआ था। यह अपेक्षाकृत सीधा खड़ा हो सकता था। अग्रपाद पूर्णतया स्वतंत्र होकर `हाथों का स्वरूप ले चुके थे। यह अपनी `टांगों पर सुगमता से चल सकता था, भाग दौड़ कर सकता था। मस्तिष्क अच्छी तरह विकसित हो गया था। मस्तिष्क जो सोचता था, हाथ उसे क्रियािन्वत रूप देने का प्रयास करते थे। मस्तिष्क और स्वतंत्र हाथों के इस संयोजन ने इसे एक अद्भुत क्षमता प्रदान कर दी थी, जिसने विकास प्रक्रिया को आधुनिक मानव तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया।





वनमानुष से आदमी तक का सफर




समय बीतता गया। `रामापिथेकस´ का तन-मन और विकसित तथा अनुकूलित होता गया। इसका ही विकसित स्वरुप `आस्ट्रैलोपिथेकस´ कहलाया। आस्ट्रैलोपिथेकस ने ही आगे चलकर आधुनिक मानवों के सीधे पूर्वजों (होमो इरेक्टस ) को जन्म दिया। `होमो इरेक्टस´ (सीधा मानव ) एक तरह से पूरा मानव बन चुका था। यह पूरी तरह से सीधा होकर चलता था, दौड़ता था, झुण्डों में जंगली पशु-पक्षियों को आखेट करता था। नयेन्डर्थल घाटी में इनके वंशजों को जीवाश्म मिले हैं जो `नियेन्डर्थल मानव´ के नाम से जाने जाते हैं। होमोइरेक्टस का ही एक पूर्ण विकसित स्वरूप `क्रोमैगनान मानव´´ कहलाया। क्रोमैगनान मानव आज के मानवों (होमो सेपियेंस- बुद्धिमान मानव) के स्वरूप में अपना भविष्य सुरक्षित करके विलुप्त हो गया।

आधुनिक मानव का विकास अभी भी हो ही रहा है- उसके आगामी स्वरूपों का निर्धारण भविष्य करेगा। परन्तु विकास की दृष्टि में, भविष्य, अतीत पर ही अवलिम्बत होता है, स्वतंत्र निर्णय की क्षमता उसके वश की बात नहीं।

जारी

Saturday, 13 June 2009

मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -2)

मानवीय चिन्तन के इतिहास का वह अविस्मरणीय क्षण !
मानव के उद्भव को लेकर जब धार्मिक मान्यतायें अपने चरमोत्कर्ष पर जनमानस को प्रभावित कर रही थीं, मानव चिन्तन के इतिहास में, उन्नीसवीं शताब्दी के छठवें दशक में एक `धमाका´ हुआ। एक तत्कालीन महान विचारक चाल्र्स डार्विन (1809-1882) ने सबसे पहले अपने अध्ययनों के आधार पर यह उद्घोषणा की कि मानव जैवीय विकास का ही प्रतिफल है और अन्य पशुओं के क्रमानुक्रमिक विकास के उच्चतम बिन्दु पर आता है। इस `कटु सत्य´ का गहरा प्रभाव पड़ा। अनेक धर्मावलिम्बयों ने डार्विन को बुरा-भला कहना शुरू किया। सामान्य लोगों की ओर से भी उन्हें अपमान, तिरस्कार एवं उपेक्षा मिली। लोग उन्हें घोर नास्तिक, अहंवादी, भ्रमित व पागल जैसे विशेषणों से विभूषित करने से अघाते न थे। डार्विन इन सबसे यद्यपि मूक द्रष्टा को भाँति तटस्थ से थे, किन्तु फिर भी वे अपने निष्कर्ष पर अडिग थे।

डार्विन के विचार तर्क सम्मत, तथ्यपूर्ण एवं प्रमाण संगत थे। वे इस निष्कर्ष पर वर्षों के शोध व चिन्तन से पहुँचे। एच0एम0एस0 बीगल पर की गयी अपनी महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान उसने कई, द्वीपसमूहों (मुख्यत: गैलापैगास द्वीप समूह) पर जाकर पशु-पक्षियों के आकार-प्रकारों, विभिन्नताओं और विकासक्रम का गहन अध्ययन किया था। वे सृष्टि विकास के मर्म को समझ गये थे।


डार्विन ने वर्तमान कपियों और मानवों के बीच की एक विलुप्त हो गयी कड़ी (मिसिंग लिंक ) की ओर विचारकों /वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया था। उस `लुप्त कड़ी´ की खोज जोर शोर से शुरू हो गयी। यह बताना आवश्यक है कि डार्विन ने कभी भी मानव को बन्दरों का सीधा वंशज नहीं कहा था। डार्विन का संकेत बस यही था कि मानव और कपियों के संयुक्त पूर्वज कभी एक थे। कपि जैसे, जिस प्राणी -पहले प्रतिनिधि `मानव आकृति´ का जो स्वरूप उभरा रहा होगा वह विलुप्त हो चुका है। और इस बात की पुष्टि के लिए उसकी खोज होनी चाहिए।
पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध और आज तक के मानव विकास सम्बन्धी अवधारणाओं का इतिहास बस उसी `विलुप्त कड़ी´ के लिए सम्पन्न हुई खोजों में प्राप्त बन्दरों, कपियों व मानवों के तरह-तरह के फासिल्स पर ही आधारित है।

नर-वानर कुल के सदस्य और उनका वैकासिक इतिहास :
आधुनिक विकासविदों का मानना है कि आज से लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व पृष्ठवंशी प्राणियों का उद्भव शुरू हुआ। पहले मछलियों के आदि पूर्वज आये, फिर मछलियाँ जन्मी, मछलियों ने उभयचरों (मेढक कुल) को जन्म दिया। कालान्तर में इन्हीं, उभयचरों की एक शाखा में सरीसृपों यानी रेंगने वाले जंतुओं का विकास हुआ। इन्हीं सरीसृपों की एक शाखा से स्तनपायी सरीखे एक सरीसृप `साइनोग्नैपस´ का जन्म हुआ। इसी `साइनोग्नैपस´ से स्तनपोषी प्राणियों का विकास हुआ . यही वह समय भी था जब पक्षी सदृश डायनासोर (सरीसृप) से पक्षियों का भी विकास होना प्रारम्भ हुआ था।


सरीसृप डाल से विकसित हो रहे स्तनपोषियों की एक शाखा ने कीटभक्षी छन्छून्दर जैसे प्राणियों को जन्म दिया। अपने विकास कम में, इन प्राणियों ने जमीन को त्यागकर वृक्षों को अपना आवास बनाया- इनका जीवन `हवाई´ हो गया। यह वहीं समय था जब स्थल पर खूँखार मांसाहारी स्तनपायी जैसे बिलाव परिवार के सदस्य (बाघ, शेर, चीता, तेन्दुआ) तथा अन्य आक्रामक पशुओं का राज्य था। जमीन का `अस्तित्व का संघर्ष´ अपना नृशंस रूप धारण कर चुका था। स्थलीय जीवन अब खतरों से भर गया था। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए छछूँदर जैसे स्तनपोषी ने जमीन त्यागकर वृक्षों की शाखाओं पर शरण ली। इनसे ही आधुनिक बन्दरों (नये संसार `अमरीका´ व पुराने `एशिया और यूरोप´ के वर्तमान बन्दर) के आदि पूर्वज का विकास हुआ जो `प्रासिमियन्स´´ कहलाते हैं। इन्हीं `प्रासिमियन्स´ से दो शाखायें उपजीं, जिनसे आधुनिक बन्दरों से मिलते-जुलते प्राणियों (लीमर, लौरिस व टार्सियस) का विकास हुआ। इनमें मुख्य विशेषता थी, इनकी आँखों का मुखमण्डल पर सामने की ओर आ जाना। ऐसी `विशिष्टता´ पहले के प्राणियों में नहीं थी। यह मस्तिष्क के उत्तरोत्तर विकास का परिणाम था। लोरिस व टार्सियस की दृश्य क्षमता अब, त्रिविम्दर्शी -स्टीरियोटिपिक दृष्टि के कारण अन्य प्राणियों की तुलना में परिष्कृत हो गयी थी। प्राणी विकास-क्रम में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। लोरिस व टार्सियस के वंशज आज भी अफ्रीकी जंगलों में बहुप्राप्य हैं।

जारी ......

Tuesday, 9 June 2009

मानव एक नंगा कपि है ! (डार्विन द्विशती ,विशेष चिट्ठामाला -१)

वर्तमान विश्व के जंगलों में लगभग 200 प्रजाति के बन्दरों व वनमानुषों या कपियों (ऐप) का अस्तित्व है। इन सभी के शरीर वालों से ढके हैं। परन्तु एक कपि इसका अपवाद है। उसके शरीर पर बाल नहीं के समान है। उसका शरीर नंगा है। वह नंगा कपि है उसने ही स्वयं का नाम `मानव´ रख लिया है वह सबसे विकसित, बुद्धिमान, सुसंस्कृत व सभ्य किस्म का कपि है। यह बुद्धिमान किन्तु `नंगा´ कपि इस पृथ्वी पर कहाँ से आ गया? धरा के अन्य जीवों, पशु-पक्षियों से उसका क्या सम्बन्ध है? वह बुद्धिमान कैसे हुआ?

मानव की धार्मिक मान्यतायें :

अपने विकास के दौरान जब मानव ने पहले-पहल `चिन्तन´ शुरू किया तो उसके मन में यह प्रश्न विशेष रूप से कौंधा कि आखिर वह कौन है और कहाँ से आया है? अपने जिज्ञासु मन की तुष्टि के लिए ही मानव ने अपने उद्भव के सन्दर्भ में कई रोचक कल्पनायें भी कीं। देवी-देवताओं जैसी `अलौकिक सत्ताओं´´ की उसने स्वत: खोज कर डाली और उनसे अपने उद्भव, अस्तित्व आदि को संयुक्त कर दिया। उसकी अज्ञानतावश ही कई अन्धविश्वासों को भी बल मिला।

कृपया चित्र को बड़ा करके देखें (साभार :इंसायिक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ,स्टुडेंट संस्करण )

उसने धार्मिक मान्यताओं का भी सृजन किया, अपने सुख-शान्ति और तमाम अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर के लिए। इन्हीं धार्मिक मान्यताओं ने उसे उसके जन्म, मृत्यु सम्बन्धी सभी गूढ़ समझे जाने वाले प्रश्नों का यथासम्भव उत्तर दिया है, जिनका अभी तक स्पष्टत: कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिल पाया है। लिहाजा अब मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति बहुत कुछ `शान्त´ हो चली थी--वह संतुष्ट हो चला था। अभी पिछली शताब्दी के मध्यकाल तक ऐसा निर्विवाद माना जाता था कि मानव का अलौकिक सृजन हुआ है और पृथ्वी के अन्य पशु-पक्षियों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। विश्व के लगभग सभी पौराणिक साहित्य में, मानव के उद्भव को लेकर रोचक कथायें हैं। हमारी प्रसिद्ध पौराणिक मान्यता यही है कि आज का मानव मनु और श्रद्धा दो महामानवों का वंशज है। यह दम्पित्त पुराणोक्त महाप्रलय में भी बच गया था और तदनन्तर इसी ने नयी सृष्टि का संचार किया।

प्रसिद्ध ईसाई ग्रन्थ बाइबिल भी मानव उत्पित्त के पीछे इसी भँति साक्ष्य देता है और आदम तथा हौव्वा को आज के मानवों का जनक बताता है। वैसे आज भी विश्व की अधिकांश धर्मभीरु जनता भ्रमवश इन्हीं मान्यताओं में विश्वास रखती है- परन्तु मानवोत्पित्त को लेकर अब की वैज्ञानिक विचारधारा यह है कि वह अन्य पशुओं से ही विकसित एक समुन्नत सामाजिक पशु ही है।

जारी .......

Saturday, 6 June 2009

आखिर चार्ल्स डार्विन ने आखीर में यह क्या कह दिया !

आज चार्ल्स डार्विन की लिखी उस महान ४५८ पेजी पुस्तक - ओरिजिन ,जिसने वैचारिक दुनिया में कभी तहलका मचा दिया था के छंठे संस्करण का परायण पूरा हुआ जिसे पिछले दो माहों से मैं लगातार पढता रहा हूँ ! मुझे लगता है की इस पुस्तक को यदि इंटर /बी एस सी नहीं तो एम् एस सी बायलोजी कक्षाओं में अनिवार्य कर ही दिया जाना चाहिए ! मैंने तो इसके मुद्रित संस्करण को झेला है मगर यदि आपको फुरसत है तो ऊपर के लिंक पर जाकर यह पुनीत कार्य -अंजाम दे सकते हैं !

आप छात्रों को कुछ और पढाएं या नहीं इस किताब का पढ़ना मात्र ही बायलोजी में एक ही नहीं अनेक पी एच डी का ज्ञान प्राप्त करनेके समतुल्य है -हमें दुःख है कि हमारे अध्यापकों ने इस पुस्तक को मूल रूप में पढने को कभी हमें रिकमेंड नही किया ! बस इसका डाईजेस्ट पढ़वाते रहे ! यह हमारी शिक्षा प्रणाली का दोष है जिसका परिणाम है कि भारत में मौलिक शोध न के बराबर हो पा रहा है -कारण बच्चों को ऐसा संस्कार ही नही मिलता कि वे अपनी जिज्ञासा और खोज की प्रवृत्ति को सही दिशा दे सकें ! बहरहाल पुस्तक आज सुबह पूरी हुयी मगर इस महान महान पुस्तक का समपान वाक्य देख कर मैं थोडा अचकचा गया -डार्विन ने पूरी पुस्तक में जीवों के किसी अलौकिक सृजन का जोरदार खंडन किया है और सर्जक की भूमिका को सिरे से नकार दिया है मगर हद हो गयी जब अंत में महाशय यह क्या लिखते भये हैं -

There is grandeur in this view of life, with its several powers, having been originally breathed by the Creator into a few forms or into one; and that, whilst this planet has gone cycling on according to the fixed law of gravity, from so simple a beginning endless forms most beautiful and most wonderful have been, and are being evolved।

चलिए इस वाक्य का एक चलताऊ हिन्दी अनुवाद ट्राई किया जाय -
जीवन की विभिन्न शक्तियों के बारे में यह विचार कितना उच्च है कि सृजनकर्ता द्वारा जीवन के किसी एक अथवा कुछ रूपों को अनुप्राणित कर देने /रच देने के उपरांत एक ओर जहाँ गुरुत्वाकर्षण के स्थायी नियमों के अधीन धरती चक्कर लगाती रही वहीं एक अति साधारण से प्रारंभ से जीवों के अनंत खूबसूरत और अद्भुत रूपों का विकास हुआ और होता जा रहा है .

बड़ी मुश्किल है -डार्विन अपनी पूरी पुस्तक में सृजनकर्ता /सृष्टिकर्ता की भूमिका को नकारते रहे मगर अंत में एक ऐसा समापन वाक्य रच डाला जो कट्टर पंथियों को सीना फुलाकर सृजन्वाद के पक्ष में बोलने का अवसर प्रदान कर गया -क्या डार्विन तत्कालीन चर्च और पादरियों से डर गए थे और उन्हें आर्किमिडीज और ब्रूनो का दहशतनाक हश्र याद हो आया था जो उन्होंने यह समझौता वादी नजरिया अपना लिया ? या फिर सीधे साधे यह कि डार्विन भी कहीं न कहीं "क्रियेटर '' की भूमिका को नकार नहीं पायें ! मैं तो पहले वाली संभावना के पक्ष में हूँ ! आप क्या सोचते हैं ??

Tuesday, 2 June 2009

स्वायिन फ्लू -ताजातरीन !

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अब इस विश्व महामारी ( पैन्डेमिक ) के स्तर को ६ पर ले जाने का फैसला कर लिया है .आपको याद दिला दें कि पैडेमिक -महामारियों के स्तर को एक ६ बिन्दु वाले स्केल से जाना समझा जाता है -६ का मतलब है कि अमुक वैश्विक महामारी दुनिया में चारो ओर फैल चुकी है ! स्वायिन फ्लू के यूरोप ,एशियाई देशों जिसमें भारत भी है ,दक्षिण अमेरिका ,आस्ट्रेलिया ,जापान आदि जगहों से फैलने के समाचारों की पुष्टि हो गयी है .
कुल मिला कर इसने ६४ देशों को अब अपने गिरफ्त में ले लिया है .अब तक ११७ मौतें जाहिर हो चुकी हैं .

विश्व स्वास्थ्य संगठन पर इस बात का दबाव पड़ रहा था कि इस महामारी के स्तर को ६ न घोषित किया जाय ! क्योकि इससे वैश्विक आवाजाही ,व्यवसाय और पर्यटन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है -मगर अभी कल ही २३ देशों के ३० महामारी विशेषज्ञों कीसमवेत राय पर इसके छठें स्तर का अलर्ट किसी भी समय घोषित करने का फैसला ले लिया गया है.इसका आशय तो यही हुआ कि हमें इस त्रासदी के प्रति अपना शुतुरमुर्गी रवैया छोड़कर अब सतर्क हो जाना चाहिए !


स्वायिन फ्लू का वाहक वाईरस एच १ एन १ बहुत शातिर है और स्वस्थ युवाओं तक को भी अपने चपेट में ले रहा है जिनकी रोग प्रतिरोधन क्षमता काफी अच्छी मानी जाती है ! याद रखें इससे बचने का सबसे सरल तरीका है -अपने हाथ को कहीं भी बाहर से आने पर साबुन से साफ़ करें ! जिसे फ्लू हुआ दिखायी दे ,सामना होने पर मुंह नाक को रूमाल से ढकें ! विदेश से आने वाले मेहमानों पर चौकस नजर रखें ! उनके फ्लू ग्रस्त होने पर अपने करीब के स्वास्थ्य अधिकारियों को सूचित करें -जैसे जिले के कलेक्टर या चीफ मेडिकल आफीसर (सी एम् ओ )को !


भारत में महामारी के तीन मामलों के पुष्टि हो चुकी है -पहला केस दुबई से होकर न्यूयार्क से हैदराबाद आये एक छात्र का है और नया मामला मां बेटे का है और यह भी बरास्ते दुबई न्यूयार्क से ही कोयम्बतूर पहुँचने का है सभी का इलाज भारत में उपलब्ध एकमात्र प्रभावी औषधि टामीफ्लू से किया जा रहा है .