Sunday 15 February 2009

,,,,,और उजड़ गया इडेन का बागीचा ! (डार्विन द्विशती )

1858 में डार्विन ने अपने विचारों पर पुस्तक के प्रकाशन का मन बना लिया था। वे पाण्डुलिपि प्रकाशक को सौंपने ही वाले थे कि एक अनहोनी घट गई। 18 जून 1858 की सुबह वे जब रोजाना की डाक देख रहे थे उन पर अचानक वज्रपात सा हुआ। एक दूसरे वैज्ञानिक अल्फ्रेड रसेल वैलेस ने विकासवाद पर हूबहू डार्विन के विचारों सा ही एक आलेख डार्विन के पास उनके अनुमोदन के लिए भेजा था। वैलेस का यह पत्र मलाया से आया था। डार्विन को मानो काटो तो खून नहीं- उनके दशकों के अध्ययन के नतीजों की दावेदारी अब अकेले उनकी ही नहीं थी - वैलेस का भी दावा यही था कि जीव सृजित नहीं बल्कि निरन्तर विकसित होते आये हैं।
डार्विन को अब यह सूझ ही नहीं रहा था कि वे करें तो क्या करें? वे विचारों की ऐसी हैरतअंगेज समानता के संयोग से हतप्रभ से थे। पहले तो मनोघात की सी स्थिति में डार्विन ने वैलेस के उस पत्र पर तीन लकीरें खींचकर लिखा- नहीं, नहीं, नहीं, - मगर संयत होकर विकास के सिद्धान्त के प्रतिपादन का पूरा श्रेय वैलेस को ही देने का फैसला कर लिया। लेकिन उनके मित्र लायेल ने उन्हें ऐसा करने से रोका और सुझाव दिया कि वे विकासवाद के सिद्धान्त को वैलेस के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशित करें। अन्ततोगत्वा डार्विन की सहमति से विकासवाद का सिद्धान्त लीनियन सोसाइटी के जर्नल में वैलेस एवं डार्विन के संयुक्त नाम से प्रकाशित हुआ। डार्विन ने जल्दी ही जनसामान्य के लिए भी अपने विकासवाद के सिद्धान्त को 24 नवम्बर, 1859 को ``द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज बाई मीन्स आब नैचुरल सेलेक्शन ऑर द प्रिजर्वेशन ऑफ फेवर्ड रेसेज इन द स्ट्रगल फार लाईफ´´, के भारी भरकम शीर्षक के साथ पुस्तकाकार प्रकाशित किया।
`विकासवाद का डंका´
पुस्तक की सभी प्रतियाँ हाथों हाथ बिक गई। पर वैचारिक दुनियाँ में मानों एक भूचाल साथ आ गया। लोगों का मत था कि ``वैज्ञानिक तथ्यों की आँधी में आदम और हव्वा की कहानी धूल धूसरित हो गयी थी... ... इडेन का बागीचा उजड़ चुका था.. ...´´। इस पुस्तक में डार्विन की स्थापना थी कि दुनियाँ में प्राणी प्रजनन के चलते असीमित संख्या में जन्म लेते/उत्पन्न होते हैं। मगर उनके पोषण की खाद्य सामग्री तो सीमित है। रहने के स्थान सीमित हैं। लिहाजा जीवन की रक्षा के लिए सभी में अस्तित्व का संघर्ष लाजिमी है। इस संघर्ष में जो अपने वातावरण के ज्यादा अनुकूल होते हैं बचे रहते हैं बाकी मारे जाते हैं। डार्विन ने अस्तित्व की रक्षा में सफल जीवों को `योग्यतम की उत्तरजीविता´ की परिणति बताई। बदलते पर्यावरण के अनुकूल प्राणियों में निरन्तर विकास की प्रक्रिया से नई - नई प्रजातियों के उदग्म को भी डार्विन ने व्याख्यायित किया और इसी घटना को उन्होंने `प्राकृतिक वरण´ -नेचुरल सेलेक्शन का सम्बोधन दिया। दरअसल संक्षेप में यही है विकास की कहानी - विकास का सिद्धान्त।
मनुष्य का उन्नयन या अधोपतन?
इसी सिद्धान्त की तािर्कक परिणति हुई डार्विन की दूसरी पुस्तक, `द डिसेन्ट आफ मैन´ में जिसमें मनुष्य को किसी दैवीय सृजन का परिणाम न मानकर मानवेतर प्राणियों से ही उदभूत और विकासित प्राणी माना गया था। इस पुस्तक के कारण ही डार्विन के बारे में प्राय: यह गलत उद्धरण दिया जाता है कि उन्होंने यह कहा था कि `मनुष्य बन्दर की संतान हैं´ । डार्विन ने वस्तुत: ऐसा कुछ भी नहीं कहा था बल्कि उनका यह मत है कि मनुष्य और कपि दरअसल एक ही समान प्रागैतिहासिक पशु पूर्वज से विकसित हुए हैं जो लुप्त हो गया है- इस `लुप्त कड़ी´ की खोज होनी चाहिए। आज के कपि-वानर हमारे सीधे-पूर्वज परम्परा में थोड़े ही हैं। वे हमारे दूर के मानवेतर स्तनपोषी, बन्धु-बान्धव भले ही हो सकते हैं। डार्विन का कहना था कि मनुष्य एक `सामाजिक प्राणी´ है। उसका स्वर्ग से अधोपतन नहीं हुआ अपितु वह एक पाशविक विरासत से रूपान्तरित होता आया है।
डार्विन की मृत्यु (19 अप्रैल, 1882) पर विरोधियों ने उन्हें नरक में जाने की कामना की। मगर उनके सम्मोहक व्यक्तित्व से प्रभावित लोगों ने गहरा दु:ख भी जताया। एक बूढ़ी अंग्रेज महिला बोल उठी, `डार्विन ने तो यह सिद्ध किया कि ईश्वर नहीं है, पर ईश्वर इतना दयालु है कि उसे माफ कर देगा´

19 comments:

seema gupta said...

"डार्विन से जुड़े असंख्य सत्य और अनेको सिद्धान्त आपके इन लेखो से ही जाना है ....विकास का सिद्धान्त। अपने आप में एक रोचकता लिए है...."डार्विन ने वस्तुत: ऐसा कुछ भी नहीं कहा था बल्कि उनका यह मत है कि मनुष्य और कपि दरअसल एक ही समान प्रागैतिहासिक पशु पूर्वज से विकसित हुए हैं जो लुप्त हो गया है- इस `लुप्त कड़ी´ की खोज होनी चाहिए। आज के कपि-वानर हमारे सीधे-पूर्वज परम्परा में थोड़े ही हैं। " ये तथ्य अपने आप में एक रहस्य और रोचकता पैदा करता है और सच जानने की इच्छा भी होती है......उनकी २०० वीं जयंती पर उनके बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिला....आभार.."

Regards

mamta said...

जानकारी पूर्ण लेख के लिए शुक्रिया ।

रंजू भाटिया said...

रोचक जानकारी है यह ...अभी दो दिन पहले एक किताब पढ़ रही थी समय और विज्ञान .उस में एक जगह था की मनुष्य धरती की संतान नहीं है वह कहीं और से इस धरती पर आया है ..यह बात बहुत पहले जूल्स बर्न ने कही और उसकी बात का मजाक कोरी गप्प कह कर उडाया गया .इस में है कि जीव वैज्ञानिकों ने बताया कि प्राणी जीवन की ईकाई जंतु कोशिका एनीमल सेल का निर्माण धरती पर हुआ जिस से आमीबा और युगलिना जैसे सरल प्राणी अस्तित्व में आए बाद में जंतु कोशिका का विभाजन हुआ तब मछली ,कृमि ,सरीसर्प पक्षी और स्तनधारी वर्ग प्राणी जन्मे और इस तरह मनुष्य का जन्म धरती पर हुआ पर कुछ वैज्ञानिकों का मत है (फ्रेड हाडल ) जैसे वैज्ञानिक ने कहा कि धरती का समस्त प्रकार का जीवन चाहे वह वनस्पति जीवन हो या प्राणी जीवन धूमकेतुओं या अन्य खगोलीय पिंडों द्वारा धरती पर बिखेरे गए बीजाणु के अंकुरण से हुआ .और यह बीजाणु भी कुछ ऐसे ग्रहों के थे जहाँ पहले से ही जीवन विद्यमान था ........... यह कितना सच है ..क्या आप इस बारे में बता सकते हैं ...

Unknown said...

रोचक जानकारी

Science Bloggers Association said...

बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत गहन विषय पर आपने बडा ही रोचकता पुर्ण विवरण दिया. धन्यवाद.

रामराम.

Abhishek Ojha said...

बहुत सुंदर आलेख... अपनी तो गणित से समीपता जैसे-जैसे बढती गई इस विषय से दुरी बढती गई. ऐसा लगता है आप उस दुरी को भर देंगे !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

डार्विन के समय में भी लोग इस बात को नहीं पचा पाए कि मनुष्य के वंशज कपि थे जो हज़ारों करोडों वर्ष बाद आप इस रूप में पहुंचे। उस समय उनके कार्टून भी बनाए गए जिन में उन्हें बंदर के रूप में दिखाया गया। अब जीन्स के माध्यम से वैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार भी कर रहे है कि हमारे पूर्वज कपि हो सकते हैं। चर्चाएं तो चलती रहेगी। अच्छे आलेख के लिए बधाई।

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प आलेख !

Alpana Verma said...

उन दिनों 'डार्विन की इस 'origin of the species' किताब की आलोचना भी बहुत की गई थी.

जानकारी भरा लेख .धन्यवाद

Anonymous said...

यह सच है कि डारविन के बारे में अक्सर लोग उनके गलत उद्धरण देते हैं।

Gyan Dutt Pandey said...

हमारे अवतार भी डार्विन के विकासवाद के अनुसार ही लगते हैं।

राज भाटिय़ा said...

बहुत रोचक जानकारी
धन्यवाद

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर, जानकारी पूर्ण पोस्ट!

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया...डार्विन पर डिस्कवरी पर एक डाक्यूमेंटरी देखी थी । उससे भी ज्यादा आनंद आया इसमें ।

Shastri JC Philip said...

इस जानकारीपरक लेख के लिये आभार!!

Paise Ka Gyan said...

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Paise Ka Gyan said...

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Paise Ka Gyan said...

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